वर्णीजी-प्रवचन:द्रव्य संग्रह - गाथा 5
From जैनकोष
णाणं अट्ठवियप्पं मदिसुद ओही अणाणणाणाणि ।
मणपज्जय केवलमवि पच्चक्खपरोक्खभेयं च ।।5।।
अन्वय―णाणं अट्ठवियप्पं अणाणणाणाणि मदिसुदओही, मणपज्जय अवि केवलं च पच्चक्खपरोक्खभेयं ।
अर्थ―ज्ञानोपयोग 8 प्रकार का है―कुज्ञान और ज्ञानस्वरूप, मति, श्रुत, अवधि ये 3 और मनःपर्यय व केवलज्ञान । ज्ञानोपयोग प्रत्यक्ष, परोक्ष के भेद से दो प्रकार का भी है ।
प्रश्न 1―दो प्रकार से ज्ञानोपयोग के वर्णन में कुछ सामंजस्य है क्या ?
उत्तर―ज्ञानोपयोग के दो भेद हैं―1 प्रत्यक्ष, 2 परोक्ष । इनमें प्रत्यक्ष 2 प्रकार का है 1. विकलप्रत्यक्ष, 2. सकलप्रत्यक्ष । विकलप्रत्यक्ष मनःपर्ययज्ञान व अवधिज्ञान हैं । परोक्षज्ञान मति और श्रुतज्ञान हैं ।
प्रश्न 2―मति, श्रुत, अवधि ये तीन कुज्ञानरूप क्यों हो जाते हैं ?
उत्तर―मिथ्यात्व के उदय के संबंध से ये तीनों ज्ञान कुज्ञान कहलाते हैं ।
प्रश्न 3―क्या मिथ्यात्व के उदय का प्रभाव ज्ञान पर भी पड़ता है ?
उत्तर―यद्यपि मिथ्यात्व के उदय से श्रद्धागुण का ही विपरीत परिणमन होता है तथापि विपरीत श्रद्धा वाले जीव के द्रव्य-वस्तु के ज्ञान में यथार्थता व अनुभव न होने से ये ज्ञान भी कुज्ञान कहलाते हैं ।
प्रश्न 4―मिथ्यादृष्टि के भी तो बड़े-बड़े आविष्कारों तक में सच्चा ज्ञान पाया जाता है तब सारी वस्तुवों में मिथ्याज्ञान कैसे कहते ?
उत्तर―जिन्हें शुद्धात्मादितत्त्व के विषय में विपरीत अभिप्राय रहित यथार्थ ज्ञान नहीं है उनके ज्ञान को मिथ्याज्ञान ही कहा गया है । क्योंकि आत्महित के साधक ज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान कहा है ।
प्रश्न 5―सम्यग्दृष्टि के भी घटपटादि अनेक पदार्थों के संबंध में संशय विपर्ययज्ञान हो जाता है, फिर तो वह ज्ञान मिथ्याज्ञान कहा जाना चाहिये ?
उत्तर―सम्यग्दृष्टि के द्रव्य, गुण, पर्याय का यथार्थ विवेक है । उसमें संशयादिक नहीं हैं । अत: आत्मसाधक ज्ञान में बाधा नहीं आती है, अत: सम्यग्ज्ञान है । हां लौकिक अपेक्षा संशय विपर्यय ज्ञान है, परंतु इससे मोक्षमार्ग में कोई बाधा नहीं आती ।
प्रश्न 6―मनःपर्ययज्ञान भी कोई-कोई कुज्ञान क्यों नहीं होता ?
उत्तर―मनःपर्ययज्ञान ऋद्धिधारी भावलिंगी साधु के ही होता है । अत: वह कुज्ञान हो ही नहीं सकता ।
प्रश्न 7―आत्मा तो एक द्रव्य है, उसके ये अनेक ज्ञानोपयोग क्यों हो गये ?
उत्तर―आत्मा तो निश्चय से एक स्वभाव है, जिसकी स्वाभाविक पर्याय केवलज्ञान ही होना चाहिये, परंतु अनादिकाल से कर्मबंध करि सहित होने से मतिज्ञानावरणादि के क्षयोपशम के अनुसार ज्ञान प्रकट होते हैं । अत: ये इतने प्रकार से ज्ञानोपयोग हो गये । केवलज्ञान को छोड़कर शेष ज्ञानों में भी असंख्यात असंख्यात भेद हैं ।
प्रश्न 8―मतिज्ञान का क्या स्वरूप है ?
उत्तर―मतिज्ञानावरण एवं वीर्यांतराय के क्षयोपशम से । तथा इंद्रिय, मन के निमित्त से वस्तु का एकदेश ज्ञान होना मतिज्ञान है ।
प्रश्न 9―तब तो यह मतिज्ञान बहुत पराधीन हो गया ?
उत्तर―उक्त निमित्तों के रहते हुये भी मतिज्ञान ज्ञानस्वभाव के उपादान से ही प्रकट होता है, अन्य द्रव्यों से नहीं, अत: स्वाधीन ही है ।
प्रश्न 10―मतिज्ञान का प्रसिद्ध अपर नाम क्या है ?
उत्तर―मतिज्ञान का प्रसिद्ध अपर नाम आभिनिबोधिक ज्ञान है ।
प्रश्न 11 ―आभिनिबोधिक ज्ञान का शब्दार्थ क्या है ?
उत्तर―अभि याने अभिमुख और नि याने नियमित अर्थ के अवबोध को आभिनिबोधिक ज्ञान कहते हैं ।
प्रश्न 12―अभिमुख किसे कहते हैं ?
उत्तर―स्थूल, वर्तमान और व्यवधान रहित पदार्थों को अभिमुख कहते हैं ।
प्रश्न 13―नियमित किसे कहते हैं ?
उत्तर―इंद्रिय और मन के नियत विषयों को नियमित पदार्थ कहते हैं ।
प्रश्न 14―किस-किस इंद्रिय का क्या-क्या विषय नियत है ?
उत्तर―स्पर्शनेंद्रिय का स्पर्श, रसनेंद्रिय का रस, घ्राणेंद्रिय का गंध, चक्षुरिंद्रिय का रूप और श्रोत्रेंद्रिय का सुनना नियत विषय है ।
प्रश्न 15―मन में कौनसा विषय नियत है ?
उत्तर―मन में दृष्ट, श्रुत और अनुभूत पदार्थ नियमित हैं ।
प्रश्न 16―श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―श्रुतज्ञानावरण वीर्यांतराय के क्षयोपशम से व नोइंद्रिय के अवलंबन से जो ज्ञान प्रकट होता है वह श्रुतज्ञान है । इसका स्पष्ट स्वरूप एक यह भी है कि मतिज्ञान से जाने हुये पदार्थ में और अन्य विशेष ज्ञान करना सो श्रुतज्ञान है ।
प्रश्न 17―स्मरण आदि ज्ञान का किस ज्ञान में अंतर्भाव है ?
उत्तर―स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान व सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष―इन ज्ञानों का मतिज्ञान में अंतर्भाव है, क्योंकि ये सब मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से प्रकट होते हैं ।
प्रश्न 18―स्मरण का क्या स्वरूप है ?
उत्तर―मतिज्ञानावरण व वीर्यांतराय के क्षयोपशम व मन के अवलंबन से अनुभूत अतीत अर्थ का स्मरण होना स्मरण है ।
प्रश्न 19―प्रत्यभिज्ञान का क्या स्वरूप है ?
उत्तर―मतिज्ञानावरण व वीर्यांतराय के क्षयोपशम से, मन के अवलंबन से पूर्वविज्ञात पर्याय से वर्तमान पर्याय के बीच एकता, सदृशता, विसदृशता व प्रतियोगिता के जोड़रूप ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । जैसे यह वही है, यह अमुक के समान है, यह अमुक से विपरीत है, यह उससे दूर है इत्यादि ।
प्रश्न 20―तर्क किसे कहते हैं ?
उत्तर―साध्य, साधन के व्याप्ति के ज्ञान को तर्क कहते हैं । जैसे जहाँ धूम्र होता है वहाँ अग्नि होती है और जहाँ अग्नि नहीं होती वहाँ धूम्र भी नहीं होता ।
प्रश्न 21―अनुमान किसे कहते हैं ?
उत्तर―साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं । जैसे धूम्र देखकर अग्नि का ज्ञान करना ।
प्रश्न 22―एक वस्तु के ज्ञान के बाद अन्य वस्तु का जानना तो श्रुतज्ञान हो गया, इसका मतिज्ञान में अंतर्भाव कैसे किया जा सकता है ?
उत्तर―अभ्यस्त पुरुष के संस्कारवश साधन देखते ही मन द्वारा साध्य का ज्ञान हो जाता है, ऐसा स्वार्थानुमान मतिज्ञान में अंतर्गत होता है ।
प्रश्न 23―सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष किसे कहते हैं ?
उत्तर―वर्तमान पदार्थ को इंद्रिय या मन के द्वारा एकदेश स्पष्ट जानना, सो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है ।
प्रश्न 24―यह मन व इंद्रियों से उत्पन्न हुआ इसे तो परोक्ष ही कहना चाहिये ?
उत्तर―मन, इंद्रियों से उत्पन्न होने के कारण वास्तव में यह मति परोक्ष ही है, किंतु व्यवहार से ऐसा प्रतीत होता है कि देखने से वस्तु स्पष्ट देखी जा रही है, कानों से शब्द स्पष्ट सुना जा रहा है, इस कारण वह सब उपचार से प्रत्यक्ष है । लोक कहते भी हैं कि मैंने प्रत्यक्ष देखा, प्रत्यक्ष सुना आदि ।
प्रश्न 25―स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान के विषय किस इंद्रिय के नियत विषय हैं ?
उत्तर―स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान के विषय मन के नियत विषय हैं ।
प्रश्न 26―सर्व प्रकार के मतिज्ञान के जानने की प्रगति की अपेक्षा कितने भेद हैं ?
उत्तर―सर्व मतिज्ञानों के 4-4 भेद हैं । अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा ।
प्रश्न 27―अवग्रहज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―विषयविषयी के सन्निपात के अनंतर जो आद्य ग्रहण होता है उसे अवग्रह कहते हैं ।
प्रश्न 28―सन्निपात का मतलब क्या है ?
उत्तर―बाह्य पदार्थ तो विषय होते हैं और इंद्रिय एवं मन विषयी कहलाते हैं । इन दोनों की ज्ञान के उत्पन्न करने योग्य अवस्था का नाम सन्निपात है ।
प्रश्न 29―अवग्रह के कितने भेद हैं ?
उत्तर―अवग्रह के दो भेद है―(1) व्यंजनावग्रह, (2) अर्थावग्रह ।
प्रश्न 30―व्यंजनावग्रह किसे कहते हैं ?
उत्तर―प्राप्त अर्थात् स्पष्ट अर्थ के ग्रहण को व्यंजनावग्रह कहते हैं अथवा अस्पष्ट अर्थ के ग्रहण करने को व्यंजनावग्रह कहते हैं । इस ज्ञान में इतनी कमजोरी है कि जानने की दिशा भी अनिश्चित रहती है ।
प्रश्न 31―अर्थावग्रह किसे कहते है ?
उत्तर―अप्राप्त अर्थात् अस्पृष्ट अर्थ के ग्रहण करने को अर्थावग्रह कहते हैं, अथवा स्पष्ट अर्थ के ग्रहण करने को अर्थावग्रह कहते हैं । इस ज्ञान में जानने की दिशा निश्चित है और इस ज्ञान के बाद ईहा आदि ज्ञान हो सकते हैं ।
प्रश्न 32―ईहाज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―अवग्रह से गृहीत अर्थ की विशेष परीक्षा को ईहा कहते हैं । इस ज्ञान में संदेहपना नहीं है किंतु वस्तु का विशेष परिज्ञान हो रहा है । फिर भी यह ज्ञान संदेह से ऊपर और अवाय से नीचे की विचार-बुद्धि है ।
प्रश्न 33―अवायज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर-―ईहाज्ञान से जो पदार्थ का ज्ञान हुआ है उसके पूर्ण प्रतीतियुक्त ज्ञान को अवायज्ञान कहते हैं ।
प्रश्न 34―धारणा ज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―अवायज्ञान से निर्णय किये गये पदार्थ के कालांतर में विस्मरण न होने को धारणाज्ञान कहते हैं ।
प्रश्न 35-―मतिज्ञान का विषय पदार्थ है या गुण है या पर्याय ?
उत्तर―मतिज्ञान का विषय पदार्थ है, केवल गुण नहीं और न केवल पर्याय । हां, पदार्थ गुणपर्यायात्मक ही होता है ।
प्रश्न 36―केवल गुण या केवल पर्याय क्या किसी अन्य ज्ञान का विषय हो सकता है ?
उत्तर―केवल गुण या केवल पर्याय किसी भी ज्ञान का विषय नहीं है, क्योंकि केवल गुण या केवल पर्याय असत् है । असत् किसी भी ज्ञान का विषय नहीं है ।
प्रश्न 37―द्रव्यार्थिक दृष्टि से गुण जाना तो जाता है फिर वह असत् कैसे है ?
उत्तर―द्रव्यार्थिक दृष्टि से गुण की मुख्यता से पदार्थ जाना जाता है, केवल गुण नहीं ।
प्रश्न 38―पर्यायार्थिक दृष्टि से पदार्थ जाना जाता है, फिर वह असत् कैसे ?
उत्तर―पर्यायार्थिक दृष्टि से पर्याय की मुख्यता से पदार्थ जाना जाता है, केवल पर्याय नहीं ।
प्रश्न 39―गुण या पर्याय सत् न सही, किंतु सत् के अंश तो हैं ?
उत्तर―सत् कभी गुण की मुख्यता से जाना जाता है और कभी पर्याय की मुख्यता से जाना जाता है । इस प्रकार सत् के अंश की कल्पना की गई है । वस्तुत: सदृश परिणमन और विसदृश परिणमन में वर्तता वह एक अखंड पदार्थ ही है ।
प्रश्न 40―अवग्रहादिक चारों प्रकार के मतिज्ञान कितने प्रकार के हैं ?
उत्तर―अवग्रहादिक मतिज्ञान 12-12 प्रकार के हैं―(1) बहु-अवग्रह, (2) एक-अवग्रह, (3) बहुविध-अवग्रह, (4) एकविध-अवग्रह, (5) क्षिप्र-अवग्रह, (6) अक्षिप्र-अवग्रह (7) अनिःसृत-अवग्रह, (8) निःसृत-अवग्रह, (9) अनुक्त-अवग्रह, (10) उक्त-अवग्रह, (11) ध्रुव-अवग्रह और (12) अध्रुव-अवग्रह ।
प्रश्न 41―बहु-अवग्रह ज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―बहुत पदार्थों का एक साथ अवग्रहज्ञान करना बहु-अवग्रहज्ञान है । जैसे पांचों अंगुलियों का एक साथ ज्ञान होना ।
प्रश्न 42―एक-अवग्रह किसे कहते हैं ?
उत्तर―एक ही पदार्थ का ग्रहण होना एक-अवग्रह है ।
प्रश्न 43―बहुविध-अवग्रह किसे कहते हैं ?
उत्तर―बहुत प्रकार के पदार्थों का अवग्रह करना बहुविध-अवग्रह है ।
प्रश्न 44―एकविध-अवग्रह किसे कहते हैं ?
उत्तर―एक ही प्रकार के पदार्थ का अवग्रह करना एकविध-अवग्रह है ।
प्रश्न 45―एकविध-अवग्रह एक प्रकार के बहुत पदार्थों का होता होगा ?
उत्तर―एकविध अवग्रह एक प्रकार के अनेक पदार्थों में भी होता है और एक ही पदार्थ में भी होता है ।
प्रश्न 46―एक पदार्थ में भी एकविध अवग्रह हो तो इस एकविध व एक-अवग्रह में क्या अंतर हुआ ?
उत्तर―एक पदार्थ में एकविध में अवग्रह हो तो एक को एक प्रकार की दृष्टि से जानने से होता है और प्रकार की दृष्टि बिना एक को जानने से एक अवग्रह होता है ।
प्रश्न 47―क्षिप्र-अवग्रह किसे कहते हैं ?
उत्तर―शीघ्रता से पदार्थ का अवग्रहज्ञान कर लेना क्षिप्र-अवग्रह है ।
प्रश्न 48―अक्षिप्र-अवग्रह किसे कहते हैं ?
उत्तर―शनै: शनै: पदार्थ का अवग्रह ज्ञान करना, अक्षिप्र-ज्ञान करना अक्षिप्र-अवग्रह है ।
प्रश्न 49―नि:सृत-अवग्रह किसे कहते हैं ?
उत्तर―नि:सृत पदार्थ का अवग्रह करना निःसृत-अवग्रह है ।
प्रश्न 50―अनिःसृत-अवग्रह किसे कहते हैं ?
उत्तर―निःसृत अंश को जानकर अनिःसृत पदार्थ को जानना अनिःसृत अवग्रह है ।
प्रश्न 51―उक्त-अवग्रह किसे कहते हैं ?
उत्तर―इंद्रियों व मन के द्वारा अपने नियत विषय को जानना उक्त-अवग्रह है ।
प्रश्न 52―अनुक्त-अवग्रह किसे कहते हैं ?
उत्तर―किसी इंद्रिय या मन द्वारा अपने नियत विषय को जानते हुये साथ ही अन्य विषयों को जानना अनुक्त-अवग्रह है । जैसे चक्षुरिंद्रिय द्वारा आग को देखते हुये इसको भी जान जाना ।
प्रश्न 53―व्यंजनावग्रह भी क्या सर्व इंद्रिय व मन के निमित्त से उत्पन्न होता है ?
उत्तर―व्यंजनावग्रह चक्षुरिंद्रिय व मन के निमित्त से उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि चक्षुरिंद्रिय और मन अप्राप्यकारी हैं, इनसे जो जाना जाता है वह एकदम स्पष्ट हो जाता है । व्यंजनावग्रह केवल स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र―इन चार इंद्रियों के निमित्त से उत्पन्न होता है ।
प्रश्न 54―मतिज्ञान के कितने प्रभेद हो सकते हैं ?
उत्तर―मतिज्ञान के मूल भेद 5 है―(1) सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, (2) स्मरण, (3) प्रत्यभिज्ञान, (4) तर्क, (5) अनुमान (स्वार्थानुमान) । इनमें से प्रत्येक के भेद लगाना चाहिये । विस्तार से तो मतिज्ञान के असंख्यात भेद हो जाते हैं ।
प्रश्न 55―सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के कितने भेद हैं ?
उत्तर―सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के कुल भेद 336 हैं । वे इस प्रकार हैं―व्यंजनावग्रह के 48, क्योंकि व्यज्जनावग्रह चार इंद्रियों से बहु आदि बारह प्रकार के पदार्थों के विषय में उत्पन्न होता है । अर्थावग्रह के 72, क्योंकि अर्थावग्रह पाँचों इंद्रिय व छठा मन इन 6 साधनों से बारह प्रकार के पदार्थों के विषयों में उत्पन्न होता है । इसी प्रकार ईहा के 72, अवाय के 72 और धारणा के भी 72 भेद हो जाते हैं । सब मिलाकर सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के 336 भेद हुये ।
प्रश्न 56―स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क व स्वार्थानुमान के कितने भेद हो जाते हैं ?
उत्तर―इनके प्रत्येक के 12, 12 भेद हो जाते हैं, क्योंकि उक्त चारों ज्ञान मन के निमित्त से उत्पन्न होते हैं, इंद्रियों के निमित्त से उत्पन्न नहीं होते, अत: बारह प्रकार के पदार्थों विषयक मन से उत्पन्न होने वाले स्मरणादि 12-12 प्रकार के हो जाते हैं ।
प्रश्न 57―श्रुतज्ञान के कितने भेद हैं ?
उत्तर―श्रुतज्ञान के 2 भेद है―(1) अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान, (2) अक्षरात्मक श्रुतज्ञान ।
प्रश्न 58―अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―जिसका ग्रहण अक्षर के रूप में नहीं किया जाता है उसे अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान कहते हैं ।
प्रश्न 59―अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान किन जीवों के होता है ?
उत्तर―एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय व असैनी पंचेंद्रिय जीवों के तो अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान ही होता है । सैनी पंचेंद्रिय जीवों के भी अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान हो सकता है ।
प्रश्न 60―अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान के कितने भेद हैं ?
उत्तर―अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान के 2 भेद हैं―(1) पर्याय, (2) पर्यायसमास ।
प्रश्न 61―पर्याय श्रुतज्ञान किये कहते हैं ?
उत्तर―पर्याय का अर्थ यहाँं सबसे छोटा अंश (भाग) है । अक्षर (जिसका क्षरण अर्थात् विनाश न हो ऐसा ज्ञान) के अनंतवें भाग पर्यायनामक मतिज्ञान है ।
यह पर्यायनामक मतिज्ञान निरावरण व अविनाशी है । यह पर्याय नामक मतिज्ञान सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्त भव में उत्पन्न होने वाले जीव के प्रथम समय में होता है । इस पर्याय मतिज्ञान से जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है उसे भी उपचार से पर्याय श्रुतज्ञान कहते हैं ।
प्रश्न 62―पर्यायसमास श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―पर्याय श्रुतज्ञान से अनंत भाग अधिक श्रुतज्ञान को पर्यायसमास श्रुतज्ञान कहते हैं और इसके बाद भी असंख्यात लोक प्रमाण षड्वृद्धियों ऊपर तक पर्यायसमास श्रुतज्ञान होता है ।
प्रश्न 63―अक्षरात्मक श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―जिसका ग्रहण अक्षरों के रूप में हो, उसे अक्षरात्मक श्रुतज्ञान कहते हैं । यह ज्ञान सैनी जीवों के ही होता है ।
प्रश्न 64―अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के कितने भेद हैं ?
उत्तर―अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के 18 भेद है―(1) अक्षर, (2) अक्षरसमास, (3) पद, (4) पदसमास, (5) संघात, (6) संघातसमास, (7) प्रतिपत्ति, (8) प्रतिपत्तिसमास, (9) अनुयोग, (10) अनुयोगसमास, (11) प्राभृतप्राभृत, (12) प्राभृतप्राभृतसमास, (13) प्राभृत, (14) प्राभृतसमास, (15) वस्तु, (16) वस्तुसमास, (17) पूर्व और (18) पूर्वसमास ।
प्रश्न 65―अक्षर श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―द्रव्यश्रुत-प्रतिबद्व एक अक्षर की जिससे उत्पत्ति हो सके उसे अक्षरज्ञान कहते हैं अथवा उत्कृष्ट पर्यायसमास श्रुतज्ञान से अनंतगुणा ज्ञान अक्षरश्रुतज्ञान है ।
प्रश्न 66―अक्षरश्रुतज्ञान किन जीवों के होता है ?
उत्तर―अक्षरश्रुतज्ञान सैनी पंचेंद्रिय जीवों के ही हो सकता है, क्योंकि अक्षरश्रुतज्ञान मन का विषय है ।
प्रश्न 67―अक्षरसमास श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―अक्षरज्ञान के ऊपर और पदज्ञान से नीचे एक-एक अक्षर बढ़कर जितने भेद हैं वे सब अक्षरसमासश्रुतज्ञान हैं ।
प्रश्न 68―पदश्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―अक्षरसमास श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर बढ़ने पर पदश्रुतज्ञान होता है ।
प्रश्न 69―एक द्रव्यश्रुतपद में कितने अक्षर होते हैं ?
उत्तर―एक द्रव्यश्रुतपद में 16348307888 अक्षर होते हैं । इन अक्षरों से उत्पन्न हुए भावश्रुत को भी उपचार से पदश्रुतज्ञान नाम से कहते हैं ।
प्रश्न 70―पदसमास श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―पदश्रुतज्ञान से ऊपर और संघातश्रुतज्ञान से नीचे एक-एक अक्षर बढ़कर जितने भेद होते हैं वे सब पदसमास श्रुतज्ञान कहलाते हैं ।
प्रश्न 71―संघातश्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―उत्कृष्ट पदसमास में एक अक्षर बढ़ने पर संघातश्रुतज्ञान होता है । इसके द्वारा चार गतिमार्गणा में से एक मति मार्गणा का प्ररूपण हो जाता है ।
प्रश्न 72―संघातश्रुतज्ञान में कितने पद होते हैं ?
उत्तर―संघातश्रुतज्ञान में संख्यात पद होते हैं ।
प्रश्न 73―संघातसमास श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―संघातश्रुतज्ञान से ऊपर और प्रतिपत्तिश्रुतज्ञान से नीचे एक-एक अक्षर बढ़कर जितने भेद होते हैं वे सब संघातसमास श्रुतज्ञान कहलाते हैं ।
प्रश्न 74―प्रतिपत्तिश्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―उत्कृष्ट संघातसमास में एक अक्षर बढ़ने पर प्रतिपत्तिश्रुतज्ञान होता है । प्रतिपत्तिश्रुतज्ञान के पदों के द्वारा 1 मार्गणावों के एक-एक भेद प्ररूपित हो जाते हैं ।
प्रश्न 75―प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान से ऊपर और अनुयोग श्रुतज्ञान से नीचे एक-एक अक्षर बढ़कर जितने भेद होते हैं ये सब प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञान हैं ।
प्रश्न 76―अनुयोग श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―उत्कृष्ट प्रतिपत्तिसमास में एक अक्षर बढ़ने पर अनुयोग श्रुतज्ञान हो जाता है । अनुयोगश्रुतज्ञान के पदों द्वारा 14 मार्गणावों का पूर्ण प्ररूपण हो जाता है ।
प्रश्न 77―अनुयोगसमास श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―अनुयोगश्रुतज्ञान से ऊपर और प्राभृत श्रुतज्ञान से नीचे एक-एक अक्षर बढ़कर जितने भेद होते हैं वे सब अनुयोगसमास श्रुतज्ञान हैं ।
प्रश्न 78―प्राभृतप्राभृत श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―उत्कृष्ट अनुयोगसमास श्रुतज्ञान में एक अक्षर बढ़ने पर प्राभृतप्राभृत श्रुतज्ञान होता है ।
प्रश्न 79―प्राभृतप्राभृत श्रुतज्ञान में कितने अनुयोग हैं ?
उत्तर―प्राभृतप्राभृत श्रुतज्ञान में संख्यात अनुयोग हैं ।
प्रश्न 80―प्राभृतप्राभृत समास किसे कहते हैं ?
उत्तर―प्राभृतप्राभृत से ऊपर और प्राभृत से नीचे एक-एक अक्षर बढ़कर जितने भेद होते हैं वे सभी प्राभृतप्राभृत समास कहलाते हैं ।
प्रश्न 81―प्राभृतश्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―उत्कृष्ट प्राभृतप्राभृतसमास से ऊपर एक अक्षर बढ़ने पर प्राभृतश्रुतज्ञान होता है ।
प्रश्न 82―प्राभृतसमास श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―प्राभृतश्रुतज्ञान से ऊपर और वस्तु श्रुतज्ञान से नीचे एक-एक अक्षर बढ़कर जितने भेद होते हैं वे सब प्राभृतसमास श्रुतज्ञान हैं ।
प्रश्न 83―वस्तुश्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―उत्कृष्ट प्राभृतसमास के ऊपर एक अक्षर बढ़ने पर वस्तुश्रुतज्ञान होता है ।
प्रश्न 84―वस्तुश्रुतज्ञान में कितने प्राभृत होते हैं ?
उत्तर―वस्तुश्रुतज्ञान में 20 प्राभृत होते हैं ।
प्रश्न 85―वस्तुसमास श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―वस्तुश्रुतज्ञान से ऊपर और पूर्व श्रुतज्ञान से नीचे एक-एक अक्षर बढ़कर जितने भेद होते हैं वे सब वस्तुसमास श्रुतज्ञान हैं ।
प्रश्न 86―पूर्वश्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―उत्कृष्ट वस्तुसमास में एक अक्षर बढ़ने पर पूर्वश्रुतज्ञान होता है ।
प्रश्न 87―पूर्वसमास श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―पूर्वश्रुतज्ञान से ऊपर जब तक लोकबिंदुसार नामक 14वां पूर्व पूर्ण हो जाता है तब तक एक-एक अक्षर बढ़कर जितने भेद हैं वे सर्व पूर्वसमास श्रुतज्ञान हैं ।
प्रश्न 88―उत्कृष्ट पूर्वसमास से ऊपर क्या कोई श्रुतज्ञान नहीं है ?
उत्तर―उत्कृष्ट पूर्वसमास से ऊपर भी श्रुतज्ञान होता है ।
प्रश्न 89―फिर उत्कृष्ट पूर्वसमास से ऊपर वाले श्रुतज्ञान को श्रुतज्ञान के उक्त भेदों में क्यों नहीं अलग नाम से बताया ?
उत्तर―उत्कृष्ट पूर्वसमास से ऊपर जितना श्रुतज्ञान रह जाता है वह सब एकद्रव्य श्रुतपद के बराबर भी नहीं है, इसलिये इस प्रकिया में उसे अलग भेद करके बताया नहीं है ।
प्रश्न 90―इस अवशिष्ट श्रुतज्ञान को किस नाम से बोलते हैं ?
उत्तर―अवशिष्ट श्रुतज्ञान का नाम अंगबाह्य है । इसमें सामायिकादि 14 विषयों का वर्णन है ।
प्रश्न 91―विषयवार की अपेक्षा से अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के कितने भेद हैं ?
उत्तर―विषयवार की अपेक्षा से श्रुतज्ञान के मूल 2 भेद हैं―(1) अंगबाह्य, (2) अंगप्रविष्ट ।
प्रश्न 92―अंगबाह्य में कितने भेद हैं ?
उत्तर― अंगबाह्य के 14 भेद हैं (1) सामायिक, (2) चतुर्विंशतिस्तव, (3) वंदना, (4) प्रतिक्रमण, (5) वैनयिक, (6) कृतिकर्म, (7) दशवैकालिक, (8) उत्तराध्ययन, (9) कल्पव्यवहार, (10) कल्प्याकल्प्य, (11) महाकल्प्य, (12) पुंडरीक, (13) महापुंडरीक, (14) निषिद्धिका ।
प्रश्न 93―सामायिक नामक अंगबाह्य श्रुतज्ञान में किसका वर्णन अथवा ज्ञान है ?
उत्तर―सामायिक श्रुतांग में नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव―इन छह पद्धतियों द्वारा समताभाव के विधान का वर्णन है ।
प्रश्न 94―चतुर्विंशतिस्तव श्रुतांग में किसका वर्णन है ?
उत्तर―चतुर्विंशति तीर्थंकरों के नाम, अवगाहना, कल्याणक, अतिशय व उनकी वंदना विधि व वंदनाफल का वर्णन इस श्रुतांग में है ।
प्रश्न 95―वंदना नामक श्रुतांग में किसका वर्णन है ?
उत्तर―एक जिनेंद्र की व एक जिनेंद्रदेव के अवलंबन से जिनालय की वंदना की विधि का वर्णन वंदना नामे अंगबाह्य श्रुतज्ञान में है ।
प्रश्न 96―प्रतिक्रमण नामक श्रुतांग में किसका वर्णन है ?
उत्तर―देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ऐर्यापथिक व औत्तमाधिक, इन सात प्रकार के प्रतिक्रमणों का काल व शक्ति के अनुसार करने की विधि का वर्णन है ।
प्रश्न 97―वैनयिक नामक अंगबाह्य श्रुतज्ञान में किसका वर्णन है ?
उत्तर―इस श्रुतांग में ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय व उपचारविनय, इन चार प्रकार के विनयों का वर्णन है ।
प्रश्न 98―कृतिकर्म नामक श्रुतांग में किसका वर्णन है ?
उत्तर―अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु, इन पांचों परमेष्ठियों की पूजाविधि का वर्णन कृतिकर्म नामक अंगबाह्य श्रुतज्ञान में है ।
प्रश्न 99―दशवैकालिक श्रुतांग में किसका वर्णन है ?
उत्तर―दस विशिष्ट कालों में होने वाली विशेषता व मुनिजनों की आचरणविधि का वर्णन दशवैकालिक श्रुत में है ।
प्रश्न 100―उत्तराध्ययन श्रुतांग में किसका वर्णन है ?
उत्तर―कैसे उपसर्ग सहना चाहिये, कैसे परीषह सहना चाहिये इत्यादि अनेक प्रश्नों के इसमें
उत्तर दिये गये हैं ।
प्रश्न 101―कल्पव्यवहारनाम श्रुतांग में किसका वर्णन है ?
उत्तर―साधुओं के कल्प्य याने योग्य आचरणों के व्यवहार याने आचरण का कल्प्यव्यवहार में वर्णन है ।
प्रश्न 102―कल्प्याकल्प्य श्रुतांग में किस विषय का वर्णन है ?
उत्तर―द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव के अनुसार मुनियों के लिये यह योग्य है व यह अयोग्य है―इस प्रकार सब कल्प्य और अकल्प्यों का इस श्रुतांग में वर्णन है ।
प्रश्न 103―महाकल्प नामक अंगबाह्य श्रुत में किसका वर्णन है ?
उत्तर―काल व संहनन की अनुकूलता की प्रधानता से साधुओं के योग्य द्रव्य, क्षेत्र आदि का वर्णन इस श्रुतांग में है ।
प्रश्न 104―पुंडरीक नामक बाह्म भूत में किसका वर्णन है ?
उत्तर―इस श्रुतांग में चार प्रकार के देवों में उत्पत्ति के कारणभूत पूजा, दान, तप, व्रत आदि के अनुष्ठानों का वर्णन है ।
प्रश्न 105―महापुंडरीक श्रुतांग में किस विषय का वर्णन है ?
उत्तर―इस श्रुतांग में इंद्र व प्रतींद्रों में उत्पत्ति के कारणभूत विशिष्ट तपों के अनुष्ठान का वर्णन है ।
प्रश्न 106―निषिद्धि का नामक श्रुतांग में किस विषय का वर्णन है ?
उत्तर―दोषों निराकरण में समर्थ अनेक प्रकार के प्रायश्चितों का वर्णन निषिद्धि का नामक बाह्यश्रुत में है ।
प्रश्न 107―अंगप्रविष्ट के कितने भेद हैं ?
उत्तर―अंगप्रदिष्ट के बारह भेद है―(1) आचारांग, (2) सूत्रकृतांग, (3) स्थानांग, (4) समवायांग, (5) व्याख्याप्रज्ञप्ति, (6) ज्ञातृकथांग, (7) उपासकाध्ययनांग, (8) अंत:कृदृशांग, (9) अनुत्तरोपपादिकदशांग, (10) विपाकसूत्रांग, (11) प्रश्नव्याकरणांग और (12) दृष्टिवादांग । इन बारह अंगों में से सबसे अधिक विस्तृत दृष्टिवाद अंग है, इसके भी भेद प्रभेद अनेक हैं ।
प्रश्न 108―दृष्टिवाद अंग के कितने भेद हैं ?
उत्तर―दृष्टिवाद अंग के 5 भेद है―(1) प्रथमानुयोग, (2) परिकर्म, (3) सूत्र, (4) चूलिका और (5) पूर्व । इनमें से परिकर्म, चूलिका और पूर्व के भी अनेक भेद हैं ।
प्रश्न 109―परिकर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तर―परिकर्म के 5 भेद हैं―(1) चंद्रप्रज्ञप्ति, (2) सूर्यप्रज्ञप्ति, (3) जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, (4) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, (5) व्याख्याप्रज्ञप्ति ।
प्रश्न 110―चूलिका के कितने भेद हैं ?
उत्तर―चूलिका के 5 भेद है―(1) जलगता, (2) स्थलगता, (3) मायागता, (4) आकाशगता और (5) रूपगता ।
प्रश्न 111―पूर्व के कितने भेद हैं ?
उत्तर―पूर्व के 14 भेद हैं―(1) उत्पादपूर्व (2) अग्रायणीपूर्व, (3) वीर्यानुवाद, (4) अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, (5) ज्ञानप्रवादपूर्व, (6) सत्यप्रवादपूर्व, (7) आत्मप्रवादपूर्व, (8) कर्मप्रवादपूर्व, (9) प्रत्याख्यानवादपूर्व, (10) विद्यानुवादपूर्व, (11) कल्याणवादपूर्व, (12) प्राणवादपूर्व, (13) क्रियाविशालपूर्व और (14) लोकबिंदुसारपूर्व ।
प्रश्न 112―परिमाण की अपेक्षा कहे गये 18 प्रकार के अक्षरात्मक श्रुतज्ञान में से किन भेदों में किन अंग पूर्व आदि का समावेश होता है ?
उत्तर―चौदह पूर्वों को छोड़कर बाकी श्रुतज्ञान वस्तु समासपर्यंत 16 भेदों में समादिष्ट है और चौदह पूर्व पूर्वश्रुतज्ञान पूर्वसमासश्रुतज्ञान में समाविष्ट है ।
प्रश्न 113―आचारांग में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―इसमें मुनियों के आचार का वर्णन है कि वह किस तरह समस्त आचरण करे, यत्नपूर्वक भाषण करे, यत्नपूर्वक आहार विहार करे आदि । इस अंग में 8 हजार पद हैं । एक पद में 16348 37888 अक्षर होते हैं?
प्रश्न 114―सूत्रकृतांग में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―सूत्रकृतांग में 36 हजार पद हैं । इस अंग में सूत्रों के द्वारा ज्ञान विनय आदि अध्ययन क्रिया, कल्प्याकल्प्य आदि व्यवहारधर्मक्रिया व स्वसमय और परसमय के स्वरूप का वर्णन है ।
प्रश्न 115―स्थानांग में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―स्थानांग में 42 हजार पद हैं । इस अंग में प्रत्येक द्रव्यों के 1, 2, 3 आदि
अनेक भेद, विकल्पों का वर्णन है । जैसे जीव एक है, जीव दो हैं―मुक्त और संसारी । जीव के तीन भेद हैं―कर्मयुक्त, जीवन्मुक्त, संसारी इत्यादि ।
प्रश्न 116―समवायांग में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―इसमें 1 लाख 64 हजार पद है । इस अंग में सदृश विस्तार वाले सदृश धर्म वाले, सदृश संख्या वाले जो-जो पदार्थ हैं उन सबका वर्णन है । जैसे 45 लाख योजन वाले 5 पदार्थ हैं―ढाई द्वीप, सिद्धक्षेत्र आदि ।
प्रश्न 117―व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―इस अंग में दो लाख अट्ठाइस हजार पद हैं । इसमें साठ हजार प्रश्न और उत्तर हैं । जैसे जीव नित्य है या अनित्य जीव वक्तव्य है या अवक्तव्य इत्यादि ।
प्रश्न 118―ज्ञातृधर्मकषांग में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―इसमें पाँच लाख छप्पन हजार पद हैं । इसमें वस्तुओं का स्वभाव तीर्थंकरों का माहात्म्य, दिव्यध्वनि का समय व स्वरूप, गणधर आदि मुख्य ज्ञाताओं की कथावों का वर्णन है ।
प्रश्न 119―उपासकध्ययनांग में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―इसमें ग्यारह लाख सत्तर हजार पद हैं । इसमें श्रावकों की प्रतिमा, आचरण व क्रियाकांडों का वर्णन है । श्रावकोचित मंत्रों का भी इसमें वर्णन है ।
प्रश्न 120―अंतकृद्दशांग में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―इसमें 23 लाख 28 हजार पद हैं और इसमें उन अंतःकृत केवलियों का वर्णन है जो प्रत्येक तीर्थंकरों के तीर्थ में दश दश मुनि घोर उपसर्ग सहन करके अंत में समाधि द्वारा संसार के अंत को प्राप्त हुए हैं ।
प्रश्न 121―अनुत्तरोपपादिकदशांग में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―इसमें 9244000 पद हैं । इसमें प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में होने वाले उन दश दश मुनियों का वर्णन है जो घोर उपसर्ग सहन करके समाधि भाव से प्राण तज करके विजयादिक अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए हैं ।
प्रश्न 122―प्रश्न व्याकरणांग में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―इसमें 9316000 पद हैं । इसमें अनेक प्रश्नों के द्वारा तीन काल संबंधी धनधान्यादि लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवन, मरण, जय, पराजय आदि फलों का वर्णन है ।
प्रश्न 123―विपाकसूत्र में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―इसमें एक करोड़ चौरासी लाख पद हैं और इसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार शुभ अशुभ कर्मों का तीव्र भेद आदि अनेक प्रकार के फल (विपाक) होने का वर्णन है ।
प्रश्न 124―दृष्टिवाद अंग में कितने पद हैं और इसमें किसका वर्णन है ?
उत्तर―इस अंग में 108 करोड़ 68 लाख 56 हजार पांच पद हैं । इसमें 363 मिथ्यामतों का वर्णन और निराकरण है । लोक, द्रव्य, मंत्र, विद्या, कलाओं, कथाओं आदि का भी वर्णन है ।
प्रश्न 125―प्रथमानुयोग में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―इसमें 5 हजार पद हैं । इसमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र और प्रतिनारायणों की कथाओं व इनसे संबंधित उपकथाओं का वर्णन है ।
प्रश्न 126―परिकर्म में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―इसमें 1 करोड़ 81 लाख 5 हजार पद हैं । इसमें भूवलय आदि के संबंध में गणित के करणसूत्रों का वर्णन है । इसके चंद्रप्रज्ञप्ति आदि जो 5 भेद हैं उनके वर्णन में इसके पदों और विषयों का विवरण होगा ।
प्रश्न 127―चंद्रप्रज्ञति में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―चंद्रप्रज्ञप्ति में 36 लाख 5 हजार पद हैं और इसमें चंद्र इंद्र के विमान, परिवार, आयु, गमन आदि का वर्णन है एवं चंद्रविमान का पूर्णग्रहण अर्द्धग्रहण कैसे होता है इत्यादि तद्विषयक सभी वर्णन हैं ।
प्रश्न 128―सूर्यप्रज्ञप्ति में कितने पद है और किसका वर्णन है ?
उत्तर―इस परिकर्म में 5 लाख 3 हजार पद हैं और इसमें सूर्य प्रतींद्र के विमान, परिवार, आयु, गमन, ग्रहण आदि सभी बातों का वर्णन है ।
प्रश्न 129―जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―इस परिकर्म में 3 लाख 25 हजार पद हैं और इसमें जंबूद्वीप के क्षेत्र, कुलाचल, ह्रद, मेरु, वेदिका, वन, अकृत्रिम चैत्यालय, व्यंतरों के आवास, महानदियों आदि का वर्णन है ।
प्रश्न 130―द्वीपसागरप्रज्ञप्ति में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―इसमें 52 लाख 36 हजार पद हैं । इसमें असंख्याते द्वीपसमुद्रों के विस्तार, रचना, अकृत्रिम चैत्यालय आदि का वर्णन है ।
प्रश्न 131―व्याख्याप्रज्ञप्ति में कितने पद हैं और इसमें किसका वर्णन है ?
उत्तर―इसमें रूपी अरूपी द्रव्य, जीव अजीव द्रव्य, अनंतरसिद्ध परंपरासिद्ध एवं अनेक पदार्थों का व्याख्यान है । इसमें 84 लाख 36 हजार पद हैं ।
प्रश्न 132―सूत्र नामक दृष्टिवादांग में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―इसमें 88 लाख पद हैं । इसमें 363 मिथ्यामतों का विशेष विवरण है और उन समस्त पूर्वपक्षों का निराकरण है । न्यायशास्त्रों का उद्गम इस सूत्र नामक दृष्टिवाद अंग से हुआ है ।
प्रश्न 133―चूलिका में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―इसके जलगता आदि 5 भेदों के प्रत्येक के 20989200 पद हैं । इन पाँचों के पदों का जोड़ 104946000 होता है । इतने चूलिका में समस्त पद हैं । इन भेदों के विषय विवरण में चूलिका के विषय का वर्णन हो जावेगा ।
प्रश्न 134―जलगता चूलिका में किसका वर्णन है ?
उत्तर―जल में अथवा जल पर किस प्रकार गमन किया जा सकता है, अग्नि का स्तंभन, भक्षण कैसे हो सकता है ? अग्नि में प्रवेश अथवा अग्नि पर बैठना कैसे हो सकता है ? इन सब बातों के करने के मंत्र, तंत्र, तपस्याओं का इसमें वर्णन है ।
प्रश्न 135―स्थलगता चूलिका में किस बात का वर्णन है ?
उत्तर―इसमें ऐसे मंत्र-तंत्र आदि का वर्णन है, जिसके प्रमाद से मेरु, पर्वत, भूमि में प्रवेश किया जा सकता है और शीघ्र गमन किया जा सकता है ।
प्रश्न 126―मायागता चूलिका में किस गत का वर्णन है ?
उत्तर―अद्भुत मायामय बातें दिखाना, जो वस्तु यहाँ नहीं है उसे शीघ्र हाजिर करना, किसी की गुप्त बात को बता देना आदि इंद्रजाल संबंधी बातों का इसमें वर्णन है ।
प्रश्न 137―आकाशगता चूलिका में किसका वर्णन है ?
उत्तर―इसमें ऐसे मंत्र-तंत्र आदि का वर्णन है, जिसके प्रभाव से आकाश में नाना प्रकार से गमन किया जा सकता है ।
प्रश्न 138―रूपगता चूलिका में किस बात का वर्णन है ?
उत्तर―इसमें सिंह, वृषभ आदि अनेक प्रकार के रूप बना लेने के कारणभूत मंत्र-तंत्र आदि का वर्णन है ।
प्रश्न 139―पूर्वनामक दृष्टिवाद अंग में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―समस्त पूर्वों में 95505000 पद हैं । इसके उत्पादपूर्व आदि 14 भेद हैं, उनके बिषयों के विवरण में पूर्वों का विषय जान लिया जाता है ।
प्रश्न 140―उत्पादपूर्व में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―इसमें एक करोड़ पद हैं । इसमें प्रत्येक पदार्थ के उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य और उनके संयोगी धर्मों का वर्णन है ।
प्रश्न 141―अग्रायणीपूर्व में कितने पद हैं और किसका वर्णन है ?
उत्तर―इसमें 96 लाख पद हैं और इसमें 5 अस्तिकाय, 6 द्रव्य, 7 तत्त्व, 700 सुनय, 700 दुर्नय आदि का वर्णन है । यह विषय द्वादशांग का एक मुख्य विषय है ।
प्रश्न 142―वीर्यानुवादपूर्व में कितने पद हैं और किस बात का वर्णन है ?
उत्तर―इस पूर्व में 70 लाख पद हैं, इसमें आत्मा की शक्ति, परपदार्थ की शक्ति, द्रव्य गुण पर्याय की शक्ति, काल की शक्ति, तपस्या की शक्ति आदि अनेक प्रकार की शक्तियों का वर्णन है ।
प्रश्न 143―अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व में किसका वर्णन है और इसमें कितने पद हैं ?
उत्तर―इस पूर्व में स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादवक्तव्य आदि सप्तभंगी का वर्णन है जिससे द्रव्य का स्वरूप ज्ञात होता है । इसमें 60 लाख पद हैं ।
प्रश्न 144―ज्ञानप्रवाद पूर्व में किस बात का वर्णन है और इसमें कितने पद हैं ?
उत्तर―इस पूर्व में पांचों सम्यग्ज्ञान और तीनों मिथ्याज्ञानों के स्वरूप, भेद, विषय, फल आदि का वर्णन है । इसमें 9999999 पद हैं (एक कम एक करोड़ पद हैं ।)
प्रश्न 145―सत्यप्रवादपूर्व में किस बात का वर्णन है और इसमें कितने पद हैं ?
उत्तर―शब्दोच्चारण के 8 स्थान, 5 प्रयत्नों का, वचन के भेद, बारह प्रकार की भाषा, दस प्रकार के सत्यवचन, अनेक असत्यवचन, वचनगुप्ति, मौन आदि अनेक वचन संबंधी विषयों का वर्णन है । इसमें 1 करोड़ 6 पद हैं ।
प्रश्न 146―आत्मप्रवादपूर्व में किस बात का वर्णन है और इसमें कितने पद हैं ?
उत्तर―इसमें आत्मतत्त्वसंबंधी विषयों का वर्णन है । जैसे आत्मा किसे करता है, किसे भोगता है, आत्मा का शुद्ध स्वरूप क्या है आदि । इसमें 26 करोड़ पद हैं ।
प्रश्न 147―कर्मप्रवादपूर्व में किसका वर्णन है और इसमें कितने पद हैं ?
उत्तर―इसमें कर्म की अनेक अवस्थाओं का वर्णन है । जैसे―कर्मों के मूल भेद कितने है ? उत्तर भेद कितने हैं ? बंध, उदय, उदीरणा कैसे होती है आदि । इसमें एक करोड़ अस्सी लाख पद हैं ।
प्रश्न 148―प्रत्याख्यानपूर्व में किस बात का वर्णन है और इसमें कितने पद हैं ?
उत्तर―इसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व पुरुष के संहनन के अनुसार सदोष वस्तु का त्याग, उपवासविधान, व्रत आदि का वर्णन है । इसमें 84 लाख पद हैं ।
प्रश्न 149―विद्यानुवादपूर्व में किस बात का वर्णन है और इसमें कितने पद हैं ?
उत्तर―विद्यानुवाद में अंगुष्ठप्रसेन आदि 700 अल्पविद्या और रोहिणी आदि 500 महाविद्याओं के स्वरूप, सामर्थ्य, साधनविधि और मंत्र-तंत्र का तथा सिद्ध विद्याओं के फल का वर्णन है । इसमें एक करोड़ दस लाख पद हैं ।
प्रश्न 150―कल्याणवादपूर्व में कितने पद हैं और इसमें किसका वर्णन है ?
उत्तर―इस पूर्व में 26 करोड़ पद हैं और इसमें तीर्थंकरों के पंचकल्याणक का, षोडश कारण भावनाओं का, ग्रहण, शकुन आदि के फलों का वर्णन है ।
प्रश्न 151―प्राणानुवादपूर्व में किस बात का वर्णन है और इसमें कितने पद हैं ?
उत्तर―इसमें आयुर्वेद संबंधी चिकित्सा, नाड़ीगति, औषधियों के गुणा अवगुण आदि सर्वविषयों का वर्णन है । इसमें 13 करोड़ पद हैं ।
प्रश्न 152―क्रियाविशाल पूर्व में किन बातों का वर्णन है और इसमें कितने पद हैं ?
उत्तर―संगीत, काव्य, अलंकार, कला, शिल्पविज्ञान, गर्भाधानादि क्रिया आदि नित्य और नैमित्तिक क्रियाओं का इसमें वर्णन है । इसमें 9 करोड़ पद हैं ।
प्रश्न 153―लोकबिंदुसार पूर्व में कितने पद हैं और इसमें किसका वर्णन है ?
उत्तर―इस पूर्व में 12 करोड़ 50 लाख पद हैं । इसमें तीनों लोकों का स्वरूप, मोक्ष का स्वरूप और मोक्ष प्राप्त करने के कारण, ध्यान आदि का वर्णन है ।
प्रश्न 154―पूर्ण श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―पूर्ण श्रुतज्ञान श्रुतकेवली के होता है । द्वादशांग के पाठी व ज्ञाता तो इंद्र, लौकांतिकदेव व सर्वार्थसिद्धि के देव भी होते हैं, किंतु अंगबाह्य से अपरिचित होने से वे श्रुतकेवली नहीं कहलाते । श्रुतकेवली निर्ग्रंथ साधु ही हो सकते हैं ।
प्रश्न 155―श्रुतज्ञान क्या सर्वथा परोक्ष ही होता है या किसी प्रकार प्रत्यक्ष भी हो सकता है ?
उत्तर―शब्दात्मक श्रुतज्ञान तो सर्व परोक्ष ही है, स्वर्ग आदि बाह्य विषय ज्ञान भी परोक्ष ही है । मैं सुख-दुःखादिरूप हूँ, ज्ञानरूप हूँ, यह ज्ञान ईषत् परोक्ष है । शुद्धात्माभिमुख स्वसम्वेदनरूप ज्ञान प्रत्यक्ष है, हाँ केवलज्ञान की अपेक्षा परोक्ष है ।
प्रश्न 156―यदि श्रुतज्ञान क्वचित् प्रत्यक्ष है तो “आद्ये परोक्षम्” इस सूत्र से विरोध आ जायेगा ?
उत्तर―“आद्ये परोक्षम्” यह उत्सर्ग कथन है । जैसे मतिज्ञान परोक्ष होकर भी अपवादस्वरूप, सांव्यवहारिक को प्रत्यक्ष भी माना है, वैसे श्रुतज्ञान परोक्ष होकर भी अपवादस्वरूप अंतर्ज्ञान प्रत्यक्ष माना जाता है ।
प्रश्न 157―अवधिज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से व वीर्यांतराय के क्षयोपशम से मूर्त वस्तु की आत्मीय शक्ति से एकदेश प्रत्यक्ष जानने को अवधिज्ञान कहते हैं । अवधि मर्यादा को कहते हैं । जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा को लेकर जाने उसे अवविज्ञान कहते हैं । अवधिज्ञान से पहिले के सब ज्ञान भी मर्यादा के भीतर ही जानते हैं ।
प्रश्न 158―इससे तो मनःपर्ययज्ञान मर्यादा रहित जानने वाला हो जायेगा ?
उत्तर―नहीं, मनःपर्ययज्ञान भी अवधिज्ञान से पहिले का ज्ञान है, क्योंकि वास्तव में ज्ञानों के नाम इस क्रम से हैं―(1) मतिज्ञान, (2) श्रुतज्ञान, (3) मनःपर्ययज्ञान, (4) अवधिज्ञान, (5) केवलज्ञान ।
प्रश्न 159―सूत्र में व इस गाथा में तो “मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम्” ऐसा क्रम दिया है ।
उत्तर―मनःपर्ययज्ञान ऋद्धिधारी संन्यासी मुनि के ही होता है, इस विशेष प्रयोजन को दिखाने के लिये मनःपर्ययज्ञान व अवधिज्ञान के बाद ओर केवलज्ञान से पहिले लिखा गया है ।
प्रश्न 160―अवधिज्ञान का दूसरा अर्थ भी कोई है ?
उत्तर―है । अबाग्धानादवधि: इस व्युत्पत्ति के अनुसार अवधिज्ञान का यह अर्थ है जो नीचे विशेष क्षेत्र लेकर जावे सो अवधिज्ञान है । अवधिज्ञान का क्षेत्र नीचे विशेष होता है, ऊपर कम होता है । पूर्ण अवधिज्ञान की बात विशेष है ।
प्रश्न 161―अवधिज्ञान के कितने भेद हैं ?
उत्तर―अवधिज्ञान के 2 भेद है―(1) गुणप्रत्यय अवधिज्ञान, (2) भवप्रत्यय अवधिज्ञान । गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य, तिर्यंचों का कहलाता है । भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव नारकियों के होता है ।
प्रश्न 162-―क्या अवधिज्ञान के अन्य प्रकार से भी भेद हैं ?
उत्तर―अवधिज्ञान के 3 भेद हैं―(1) देशाववि, (2) परमावधि और (3) सर्वावधि । देशावधि चारों गतियों में हो सकता है । परमावधि और सर्वावधि मनुष्य के ही और तद्भव मोक्षगामी के ही होते हैं ।
प्रश्न 163―अवधिज्ञान के और भी अन्य प्रकार से भेद हैं क्या ?
उत्तर―अवधिज्ञान के 6 भेद है―1) अनुगामी, (2) अननुगामी, (3) वर्द्धमान, (4) हीयमान, (5) अवस्थित, (6) अनवस्थित ।
प्रश्न 164―इन सब भेदी के स्वरूप क्या हैं ?
उत्तर―इन सब भेदों के स्वरूप आदि जानने के लिये गोम्मठसार जीवकांड आदि सिद्धांत ग्रंथ देखें । इस टीका में विस्तारभय से नहीं लिखा जा रहा है ।
प्रश्न 165―मनःपर्ययज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―जो ज्ञान इंद्रिय व मन की सहायता बिना आत्मीय शक्ति से दूसरों के मन में तिष्ठते हुये विकल्प को व विकलागत रूपी पदार्थ को एकदेश स्पष्ट जाने उसे मनःपर्ययज्ञान कहते हैं ।
प्रश्न 166―क्या मनःपर्ययज्ञान मन के अवलंबन से प्रकट नहीं होता ?
उत्तर―मन:पर्ययज्ञानोपयोग होने से पहिले ईहामतिज्ञान होता है और ईहामतिज्ञान मन के अवलंबन से प्रकट होता है । इस तरह मनःपर्ययज्ञान से पहिले तो मन का अवलंबन है, किंतु मन:पर्ययज्ञानोपयोग के समय मन का अवलंबन नहीं है ।
प्रश्न 167―मन:पर्ययज्ञान के कितने भेद हैं ?
उत्तर―मनःपर्ययज्ञान के 2 भेद हैं―(1) ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान, (2) विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान ।
प्रश्न 168―ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―जो मनःपर्ययज्ञान पर के मन में स्थित सरल सीधी बात को जाने वह ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान है ।
प्रश्न 169―विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―जो मनःपर्ययज्ञान पर के कुटिल मन में भी स्थित, अर्धचिंतित, भविष्य में विचारी जाने वाली, भूतकाल में विचारी गई आदि बातों को जाने वह विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान है ।
प्रश्न 170―केवलज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―जो स्वतंत्रता से केवल आत्मशक्ति द्वारा त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायों सहित समस्त द्रव्यों को सर्वदेश प्रत्यक्ष जाने उसे केवलज्ञान कहते हैं । यह ज्ञान सर्व प्रकार उपादेयभूत है ।
प्रश्न 171―इस ज्ञान की उत्पत्ति का साधन क्या है ?
उत्तर―निज श्रद्धात्मतत्त्व का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरण रूप एकाग्र ध्यान केवलज्ञान की उत्पत्ति का साधन है ।
उत्थानिका―अब उक्त ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के वर्णन का नयों से विभाग करते हुए उपसंहार करते हैं―