वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 1
From जैनकोष
णमिऊण जिणं वीरं अणंतवरणाणदंसणसहावं।वोच्छामि णियमसारं केवलिसुदकेवलीभणिदं।।1।।अनंत उत्तम ज्ञानदर्शन स्वभाव वाले वीर जिनेंद्र को नमस्कार करके केवली और श्रुतकेवली के द्वारा कहे इस नियमसार का वर्णन करूँगा।नियमसार का संक्षिप्त परिचय―यह नियमसार नामक एक ग्रंथ है, अब इसका प्रारंभ हो रहा है। नियमसार ग्रंथ में पहिले पढ़े गए परमात्मप्रकाश के विषय की भांति एक सहजस्वभाव का वर्णन किया गया है। इसमें चरणानुयोग का भी निश्चयदृष्टि से वर्णन करते हुए उसी ज्ञायकस्वभाव के आलंबन पर बल दिया गया है। इसमें मोक्षमार्ग का वर्णन है। अनादिकाल से भटकते हुए चले आए इन प्राणियों को कैसे मोक्षमार्ग मिले ? उसका मौलिक अमोघ उपाय इस ग्रंथ में बताया गया है।वीर जिनेंद्रदेव को प्रणमन―इस ग्रंथ के आदि में इसके रचयिता श्री कुंदकुंददेव मंगलाचरण में जिनेंद्र वीर को नमस्कार कर रहे हैं। आज के समय जिनेंद्र वीर का शासन चल रहा है और जब तक भी यह धर्मपरंपरा रहेगी, वीर प्रभु का शासन कहा जाएगा। जैसे ऋषभदेव के निर्वाण के बाद अजितनाथ स्वामी के तीर्थंकर बनने के पहिले जितना समय था, वह ऋषभदेव का शासन कहलाता था। इसी प्रकार सब तीर्थंकरों का समय है। पार्श्वनाथ भगवान् के तीर्थंकर होने के बाद जब तक वीरप्रभु तीर्थंकर नहीं हुए, तब तक पार्श्वनाथ के शासन का समय था। अब जिनेंद्रवीर के शासन के बाद जितने समय तक धर्मपरंपरा रहेगी (समझ लीजिए पंचमकाल तक) तब तक वीरप्रभु का शासनकाल कहलायेगा। इसी कारण वीरप्रभु की विरदवृत्ति से प्रभावित होकर कुंदकुंददेव ने जिनेंद्रवीर को नमस्कार किया है।वीर शब्द का अर्थ―वीर शब्द का अर्थ है–वि ईर, इसमें तीन शब्द हैं। वि का अर्थ है विशिष्ट, ई का अर्थ है लक्ष्मी और र का अर्थ है देने वाला। विशिष्टां ईं राति ददाति इति वीर:। जो विशिष्ट ज्ञान लक्ष्मी को देवे, उसे वीर कहते हैं। लक्ष्मी का नाम है ज्ञानदर्शनस्वभाव का, पर लोकव्यवहार में लोगों ने हजरों लाखों करोड़ों की संपदा का लक्ष्मी नाम रख दिया है। चार हाथों से रुपये बरसाती हुई, जिसके दोनों ओर हाथी माला लिए हों या कलशों से भी अभिषेक सा करते हुए ऐसा रुपक भी बनाया, किंतु लक्ष्मी शब्द में जो अर्थ भरा है, उस अर्थ से भाव निकलता है ज्ञान दर्शन स्वभाव। उसे लक्ष्मी कहो या लक्ष्म कहो, एक ही शब्द है। लक्ष्म शब्द नपुंसक शब्द है, लक्ष्मी शब्द स्त्रीलिंग शब्द है, पर शब्द वही है। लक्ष्म का अर्थ है लक्षण, चिह्न। अपने आपका जो चिह्न है, आत्मा का स्वरूप है प्रतिभास चैतन्यज्ञानदर्शन। इसी प्रकाश का नाम है लक्ष्मी। ऐसी विशिष्ट लक्ष्मी को जो दे सकते हैं, उसे वीर कहते हैं।मूलभाव और रूढि―भैया ! पहिले जितने धर्म के पर्व मनाये जाते थे, उन सब पर्वों में कल्याण की पुट रहती थी, किंतु जैसे-जैसे समय गुजरता गया कि उसका रुपक बिलकुल विलक्षण हो गया है। एक दीवाली त्यौहार को ही लें। दीवाली दो बार मनायी जाती है–सुबह और शाम। अमावस्या के सबेरे व शाम। अमावस्या के सुबह तो वीरप्रभु के निर्वाण होने की दीवाली है और शाम के समय वीरप्रभु के मुख्य गणधर इंद्रभूति अथवा गौतम उनके केवलज्ञान की दीवाली है। सुबह वीरप्रभु मोक्ष गए और शाम को गौतम गणधर को केवलज्ञान हुआ। कभी-कभी अमावस्या के दिन सुबह 8-9 बजे तक ही अमावस्या रह जाती है और चौदस के दिन दोपहर के बाद या शाम के बाद अमावस्या शुरू हो जाए तो चौदस को रात्रि को लोग दीवाली मना लेते हैं। वे चौदस के भाव से दीवाली नहीं मानते। मानते हैं अमावस के भाव से, किंतु संध्या को अमावस्या पहिले पड़ गई।दीवाली का मूलविरुद्ध रुपक―यह दीवाली है ज्ञानलक्ष्मी की दीवाली। अब धीरे-धीरे देखो, आज क्या रुपक बन गया ? उस ज्ञान को तो भूल बैठे और मात्र धन, पैसा, रोकड़ बही, तराजू, बांट, घोड़ा–ये ही सब सजाए जाते हैं और इनको ही पूजा जाता है। बजाज लोग होंगे तो गजों को पूजेंगे, पंसारी पसरट वाले होंगे तो तराजू बांट पूजेंगे। कोई लेखक या मुनीम होंगे तो अपनी कलम दवात पूजेंगे और सेठ साहब अपनी रोकड़ पूजेंगे। क्या से क्या रूपक बन गया ? त्यों–त्यों समय गुजरता गया, उसका असली प्रयोजन भूलते गए और अपने स्वार्थ या मंशा के अनुकूल तत्त्व आने लगे।रक्षाबंधन का मूल भाव―रक्षाबंधन का त्यौहार ले लो। मूल में क्या रूप था ? अकंपनाचार्य आदि मुनिराजों को उस दिन श्री विष्णु ऋषिराज ने उपद्रव से बचाया था। जब दूसरे दिन लोगों ने उनके आहार के लिए उनके अनुकूल पथ्य भोजन बनाया। उस नगर में बड़ी खुशी छाई थी। जहाँ सात सौ मुनियों का संघ जलाया जा रहा हो और किसी समर्थ महापुरुष के द्वारा उपसर्ग बचा लिया गया हो, उस समय नगरवासियों के हर्ष का क्या ठिकाना है ? हर्ष के मारे सारा नगर उछल रहा था। मुनिराज आये तो उनको भोजन मुख्यता से क्या दिया गया ? जो गले में जल्दी गिल जाय सेवई अथवा पतली खीर।रक्षाबंधन का उत्तरकाल में निर्वाह―वह साल तो गुजर गया। अब आया दूसरा साल। तो दूसरे वर्ष उन मुनियों का उपसर्ग हुआ और आहार दें, ऐसा-ऐसा तो न हुआ। वह तो एक दफा हो गया। जब दूसरा वर्ष आया तो उपसर्ग का और उस खुशी का ध्यान तो रहा कुछ, पर उस कार्य को कैसे निभायें ? सो कुछ स्मरण के लिए सूचक कोई बात बनाई। अब और साल गुजरा, रक्षा का तो ध्यान रहा कि रक्षा होनी चाहिए। रक्षा की थी विष्णुकुमार मुनि ने, सो सबकी रक्षा करना अपना भी कर्तव्य है। बड़े महापुरुषों ने यदि बड़ी रक्षा की थी तो अपन छोटी-छोटी रक्षा कर लें। सो जो साधर्मीजन हुए उस समय उनकी रक्षा का सूत्रपात हुआ। फिर और समय गुजरा तो उन व्रती, त्यागी, साधर्मी आदि लोगों का भी ख्याल भूल गए और सोचा कि अपने ही घर में तो बुवा है, बहिनें हैं, गरीब हैं, विधवा हैं, दु:खी हैं इनका ही रक्षण करें। सो उनके रक्षण पर दृष्टि हुई।रक्षाबंधन का रूढिरूप―फिर कैसा क्या हुआ, हम इतिहास के जानने वाले तो नहीं है, पर अंदाज से बात बतला रहे हैं। धीरे-धीरे असली बातों का लोप हुआ और अपने मन माफिक बातें आईं। खैर कुछ दिन यों ही चला। फिर यह हुआ कि चलो बहिन, बुआ, विधवायें कोई बाँधे, उन्हें पैसा दें उनकी कुछ मिठाई खावें। वे मिठाई देने लगीं तो लोग उन्हें पैसे देने लगे। फिर चलते-चलते जितनी मिठाई दें उसके अनुपात से लोग पैसे देने लगे। अगर छटांक भर मिठाई धर दी तो उसको मिल जायेगी अठन्नी और अगर 2.50 सेर धर दी तो उसको मिल जायेंगे बीस रुपये। क्या से क्या रूप बिगड़ता चला जाता है ? जो हित की और असली बात है वह तो छिपती चली जाती है। लक्ष्मी शब्द का अर्थ भी यों वैभव हो गया। यह सब समय का काम है।वीर की विशेषता―प्रभु वर्द्धमान स्वामी का वीर भी नाम है। इस वीर शब्द का अर्थ है जो विशिष्ट ज्ञानलक्ष्मी को देवे। संस्कृत भाषा जानने वाले इसका स्पष्ट अर्थ जानेंगे। वि ईर ऐसे तीन शब्दों से मिलकर वीर बना है। ऐसे वीरप्रभु का इस ग्रंथ के आदि में स्मरण किया तो विशेषण क्या दिया है कि जो अनंत उत्तम ज्ञानदर्शन स्वभाव वाला है, जो स्वयं ज्ञान का भंडार हो उस ही का तो ऐसा निमित्त है कि उससे दूसरे को भी ज्ञान प्राप्त हो। तो प्रभु वीर अनादि अनंत स्वभाव वाला है।प्रभुस्वरूप का अनुमान―इसके अंदाज के लिये जरा कुछ देर बाहरी विकल्पों को त्यागकर अपने आपके अंतर की स्वभाव की परख करें–मैं किस रूप हूँ, किसके द्वारा रचा गया हूँ, मेरा क्या आकार प्रकार है। इस ओर दृष्टि दें तो क्या मिलेगा ? अपने आपमें अपनी पकड़ करने के लिए एक ज्ञानदर्शनात्मक चैतन्यस्वभाव है। इसमें स्पर्श है नहीं जो छूकर समझें कि यह मैं आत्मा हूँ। रस है नहीं जो चखकर जाना जाय कि यह आत्मा तो मीठा है और यह आत्मा खट्टा है। कहते तो हैं लोकव्यवहार में ऐसा कि इससे मत भिड़ना, नहीं तो खट्टा खावोगे। यह बड़ा कड़ुआ पुरुष है, यह बहुत मीठे मिजाज का है, पर ये सब रूपक कहे हैं अलंकार में। आत्मा में रस नहीं है जो चखकर जान लिया जाय कि आत्मा कैसा है ? आत्मा में गंध नहीं जो सूँघ लिया जाय कि कैसा गंध है, इसमें रूप नहीं जो नेत्रों से जान लिया जाय कि कैसा रूप है ? ज्ञान का व्यक्तरूप आनंद―भैया ! कोई लोग कहते हैं कि जब बड़े ध्यान में बैठते हैं तो भीतर में सफेद उजेले का झक्काटा दीखता है। पर है क्या सफेद ? है क्या सफेद रंग का उजाला जैसा कि बिजली की रोशनी में सूर्य चांद की रोशनी में सफेद उजाला है ? नहीं है। पर जब यह ज्ञान की स्वच्छता जानने के लिए उद्यम करते हैं तब इसे पूर्व स्वच्छता के दिख जाने के नाते कुछ उजाला महसूस करते हैं किंतु जब ज्ञानस्वरूप अनुभव में आता है तब वहाँ उजाला, झक्काटा नहीं होता, किंतु अनंत उत्तम सहज स्वाधीन आनंद का अनुभव करते हैं। ज्ञान का यदि कुछ रूप माने तो आनंदरूप तो हो सकता है मगर उजाला, झक्काटा, सफेद आदि रूप यह नहीं हो सकता।ज्ञानविकास की आनंदसहभाविता―भैया ! आनंद उपजाता हुआ यह ज्ञान प्रकट होता है। जैसे एक जगदीशी टीका है वेदांत में, उसमें एक दृष्टांत दिया है कि कोई नई बहू थी। उसके प्रथम बार गर्भ रह गया। बहू बोली सास से कि सासूजी, जब हमारे बच्चा पैदा हो तो हमें जगा देना, ऐसा न हो कि सोते हुए में हो जाय। तो सास उत्तर देती है, कि बेटी घबड़ाओ मत जब बच्चा पैदा होगा तो तुम्हें जगाता हुआ ही पैदा होगा। तो यह ज्ञान जब प्रकट होता है तो आनंद को विकसितकर प्रकट होता है। ऐसा वास्तविक ज्ञान कहीं न होगा जो ज्ञान की वृत्ति भी चल रही हो और क्लेश का अनुभव भी कर रहा हो। जहाँ क्लेश है, दु:ख है, शल्य है, चिंता है, विकल्प है वहाँ ज्ञान का विलास नहीं है, वहाँ अज्ञान का विलास है। जहाँ ज्ञान अपने शुद्ध ज्ञान में प्रकट हो रहा है वहाँ शुद्ध आनंद है।कुंदकुंदाचार्य का परिचय―भगवान् वीर जिनेंद्र अनंत श्रेष्ठ ज्ञान दर्शन स्वभाव वाला है, विकास वाला है, ऐसे जिनेंद्र वीर को नमस्कार करके कुंदकुंदाचार्य देव नियमसार ग्रंथ को कहने का संकल्प करते हैं। ये कुंदकुंदाचार्य 12, 13 वर्ष की अवस्था में मुनि हो गए थे, और फिर 10-15 वर्ष के ही बाद उनके समय के समस्त मुनिसंघ ने उन्हें आचार्यपद दिया। पुत्र को बचपन से माता कैसा बना लेती है ? इसका उदाहरण कुंदकुंददेव हैं। जब कुंदकुंददेव बच्चे थे, उनकी माँ पालने में झुलाती थी तो झुलाती हुई माँ क्या गीत गाया करती थी, वह गीत ज्ञान से भरा था–शुद्धो बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि, संसारमायापरिवजितोऽसि।संसारस्वप्नं त्यज मोहनिद्रां श्रीकुंदकुंदं जननीदमूचे।।कुंदकुंद की माँ कुंदकुंद से कह रही है कि हे बालक ! तू शुद्ध है, बुद्ध है, निरंजन है, संसार की माया से रहित है, तू संसारस्वप्न को मोह नींद को छोड़।बाल्य में शुद्धदर्शन―वैसे भी बचपन बड़ा शुद्ध होता है, ज्यों-ज्यों उमर बढ़ती जाती है और विभाव अपना घर बसाते हैं तब यह टेढ़ा बनता है, कुटिल बनता है। किंतु बालक तो अपने बचपन में सरल और शुद्ध होते हैं लेकिन कुंदकुंद की माँ का उस बचपन पर ध्यान नहीं है, किंतु उसकी आत्मा का ध्यान है। बचपन में मनुष्य के पुण्य ज्यादा होता है क्योंकि पूर्वभव की तपस्या करके नया-नया पुण्य यहाँ आया है। जैसे-जैसे उसकी उमर बढ़ती है उसका पुण्य खराब होता जाता है। मोह बढ़ा, राग बढ़ा, छल-कपट करने लगा, धोखा देने लगा फिर धीरे-धीरे पुण्य खत्म हो जाता है। यहाँ तो कुंदकुंद की माँ उनके आत्मस्वरूप को देखकर बोल रही है कि तू शुद्ध है।बालक की सरलता―एक बाबू साहब एक सेठ के कर्जदार थे। सो बाबूजी ने देखा की सेठ जी आ रहे हैं, हमसे रुपये मांगेंगे। सो अपने लड़के से कह दिया कि तुम चबूतरे पर खेलो–सेठ आयेगा, पूछेगा कि तुम्हारे बाबू कहाँ हैं, तो तुम कह देना कि बाबू साहब बाहर गए हैं। अब वह खेलता रहा चबूतरे पर। सेठजी ने आकर पूछा कि तुम्हारे बाबू घर हैं ना? तो बोला कि बाबू जी बाहर गए। फिर पूछा कि कितने दिनों में आयेंगे ? तो बोला कि ठहरो बाबू जी से पूछकर अभी बतायेंगे। देखो ना, बच्चे की सरलता।ज्ञानी माता पिता की बालक पर हितदृष्टि―कुंदकुंददेव की माँ पालने में झूलते हुए बच्चे से कह रही है कि तू शुद्ध है, ज्ञायकस्वरूप है, रागद्वेष मोह आदिक से रहित है, ज्ञानस्वरूप है, निरंजन हे, तू कर्ममल अंजन से परे है, विभाव तुझसे परे है। तू संसार के स्वप्न को, मोह की नींद को तोड़। हितकारिणी माँ थीं वह। नहीं तो माँ यों कहती कि तू बड़ा हो, राजा हो, विवाह कर, ऐसे गीत गाती। पर यह तो बड़े पुरुषों की अलौकिक बात है। उनको जब बालक पर प्रेम उमड़ेगा तो यों उमड़ेगा कि यह सम्यग्ज्ञानी बने, सम्यग्दृष्टि हो, अपने आपका कल्याण करे। ऐसी उत्तम भावना होती है। पिता रक्षक का नाम है। पाति इति पिता, जो रक्षा करे उसे पिता कहते हैं। जीव की रक्षा ज्ञान से है। धन कितना ही जोड़कर रख जाओ, मगर वह अज्ञान में है तो अधीर रहेगा, विह्वल रहेगा और संकट घिर जायेंगे। इस कारण वास्तव में वही पिता का नाता निभाता है जो अपने बालक को मोक्षमार्ग की विद्या सिखाने में लगाता है।कुंदकुंदाचार्य का संकल्प―ऐसे कुंदकुंददेव कुमार अवस्था में साधु हुए। शात्रों का उन्होंने अध्ययन किया। गुरुपरंपरा से गुरुचरणों में रहकर अध्यात्मविद्या का मर्म जाना। बड़ी युक्तियों में वे बड़े कुशल थे। ऐसे योगी कुंदकुंददेव कहते हैं कि केवली भगवान् और श्रुतकेवली भगवान् ने जो कहा है ऐसे मोक्ष और मोक्षमार्गरूप इस नियमसार को मैं कहूँगा।आगमोपदेश की परंपरा―इस नियमसार ग्रंथ में जो कुछ तत्त्व बताया जायेगा वह केवली भगवान् और श्रुतकेवली के द्वारा प्रणीत है। इसका मूलकर्ता तो केवली भगवान् है अर्थात् वीतराग सर्वज्ञ हितोपदेशी अरहंत भगवान् की जो दिव्यध्वनि खिरती है वह दिव्यध्वनि समस्त आगमों का मूल कारण है। उस दिव्यध्वनि को सुनकर गणधरदेव द्वादशांग अंग बाह्यरूप आगम की रचना करते हैं। फिर उन श्रुतदेवता की परंपरा से आचार्य उसका व्याख्यान करते हैं। इन आचार्यों के व्याख्यान की परंपरा से आज जो कुछ आगम हमारे आपके सामने है वह उस मूल परंपरा से है।दूषित वचनों की अप्रतिष्ठा―यद्यपि बीच में कुछ लोगों ने कुछ संस्कृत श्लोक भी रचकर या फिर थोड़ा मिला जुलाकर रचना भी कर दी है किंतु सांचे रत्नों में जैसे खोटे रत्न कब तक चल सकेंगे ? प्रथम ही वह पारखी उन खोटे रत्नों को अलग बता देगा। मान लो एक पारखी न कर सका तो दूसरा पारखी उसे अलगकर दिखायेगा। रह नहीं सकता है खोटा रत्न असली में मिलकर, असली बनकर। इसी प्रकार जो रागपूर्ण वचन हैं, तत्त्वविरुद्ध वचन हैं वे किन्हीं पुरुषों के द्वारा आगम में मिला भी दिये जायें तो भी टिक नहीं सकते हैं। पारखीजन उन्हें पहिचानते हैं और विनाशीक जानकर उन्हें अलग कर देते हैं।प्रयोजनभूतविषय में सदोष व निर्दोष वचन के परिचय की सुगमता―प्रयोजनभूत तत्त्व के संबंध में सदोष और निर्दोष वचन का जानना बहुत कठिन नहीं है। जिन वचनों से स्वभाव पर दृष्टि जाय, रागद्वेष मोह दूर करने की शिक्षा मिले वे वचन प्रमाणीक हैं और जो रागद्वेष मोह को धर्म बतायें, कुपथ पर ले जाने की प्रेरणा करें वे वचन एकदम मालूम ही पड़ जाते हैं कि ये सदोष हैं। सदोष वचन आगम में कब तक टिक सकेंगे ? उन्हें पारखी अलग कर देते हैं। यह निर्दोष व्याख्यानपरंपरा केवली और श्रुतकेवली से चली आयी है। आचार्यदेव यहाँ कह रहे हैं कि हम कपोलकल्पित बात नहीं कर रह हैं, किंतु जिस बात को केवली की दिव्यध्वनि में बताया गया, श्रुतकेवली के भाषण में बताया है वही तत्त्व बताया जायेगा। कपोलकल्पित बात कदाचित् सत्य भी हो तो भी सुनने वाले को केवल कहने मात्र से प्रमाणिकता नहीं आती। इस कारण आचार्यदेव ने स्वयं ही मंगलाचरण की गाथा में यह कह दिया कि केवली और श्रुतकेवली द्वारा कहे हुए तत्त्व को मैं कहूँगा।जिनशासन में मार्ग व मार्गफल के कथन की मुख्यता―भैया ! इस नियमसार में मार्ग और मार्गफल बताया जायेगा। जिनशासन में मार्ग और मार्गफल ये दो प्रकार के तत्त्व बताये गए हैं। कौन-सा तो मार्ग चलने योग्य है और उस मार्ग से चलने का क्या उपाय है ? यह जिनेंद्रशासन में बताया गया है। दूसरी बात मार्ग का फल बताया है–मार्ग तो है मोक्ष का उपाय। इस अनादि बंधनबद्ध वैभवदूषित इस आत्मा का संकटों से कैसे छुटकारा हो ? उस उपाय को मार्ग कहते हैं और वह मार्ग मिल जाय तो उस मार्ग से चलने का जो फल रहता है वह है मोक्ष। तो मोक्ष और मोक्ष का उपाय ये दो बातें जिनशासन में बतायी गई है।मार्ग शब्द का भाव―इस मार्ग शब्द का अर्थ है इष्ट स्थान खोजा जाता है जिसके द्वारा उसे मार्ग कहते हैं। जीव का सर्व अभीष्ट सिद्धजीवन है। यह जीव चिरकाल तक या तो निगोद में रहता है या सिद्ध अवस्था में तो निगोद की कोई सीमा नहीं होती है। चिरकाल तक जीव निगोद में रहता है और चिरकाल तक ही यह जीव मोक्ष में रहता है। मोक्ष की सीमा नहीं है। मोक्ष होने के बाद फिर कभी संसार में भटकना नहीं होगा। निगोद से तो निकलना हो जाता है। निगोद और संसार–इन दो दशाओं को छोड़कर जीव अन्य पद में बहुत काल तक नहीं रहता। उसका पशु-पक्षी जैसा जीवन सदा नहीं रहता। जैसे हम आप मनुष्य हुए वैसा ही वह जीवन सदा न रहेगा।जीवन का गुजरना―जैसे पर्वत से गिरने वाली नदी का वेग जो बह गया वह वापिस नहीं होता, इसी तरह इस जीवन का समय जितना गुजर गया वह गुजर गया, फिर उसका कुछ भी समय वापिस नहीं आ सकता है। जैसे जिसकी अवस्था 60-65 वर्ष की हो गयी, शरीर में शिथिलता आने लगी, बड़ा धनी है, बड़ा गणी है, बड़ा उसका यश है, खूब प्रतिष्ठा है, समाज में मान्यता भी है, पर वह चाहे कि मेरी उम्र 8 वर्ष के बच्चे की जैसी हो जाय तो नहीं हो सकती। एक साल क्या, एक दिन भी पीछे नहीं हो सकता है। जो समय गुजरा वह गुजर गया। यदि इसी समय में कोई कर्तव्य न कर पाया तो बतलाओ फिर क्या हाथ रहेगा ? कुछ भी हाथ न लगेगा, व्यर्थ ही जीवन खो दिया।जीवनसमय का दुरुपयोग व सदुपयोग―जीवन व्यर्थ खोने का अर्थ है जीवन को विषयों में, पापों में ही लगा देना। ज्ञान में समय गुजरे, प्रभु के स्मरण में समय गुजरे, अपने आत्मा के एकत्व की ओर उन्मुख हो, इस तरह से समय गुजरे तो वह है जीवन का सदुपयोग। और विषयों के सुख में समय गुजारा–खूब खाते हैं मौज से, बड़ा स्वाद आता है, आनंद लेते हैं, जो चाहे दृश्य देखते हैं, जो मन में आया उसी रूप को देखते हैं, विषयभोगों के साधन भी सुलभ बना लिए गए हैं, मनमाना विषयों में सुख लूटते हैं, ऐसे अज्ञानी जीव भले ही समझें की हम बड़ी चतुराई का काम करते हैं किंतु जो इस प्रभु की दशा हो रही है वह दयनीय हो रही है, वे समय का दुरुपयोग कर रहे हैं। यह मनुष्यजीवन बड़ा दुर्लभ है। उसकी दुर्लभता का वर्णन करने में किसी के हजारों जीभ भी हों तो भी वह समर्थ नहीं है।नरजीवन के श्रेष्ठता का अंकन―सारे लोक में दृष्टि पसारकर देख लो, मच्छर फिरते हैं, मेढक मछलियाँ हैं, पशु-पक्षी हैं, चूहा-बिल्ली हैं, कुत्ता-सूकर हैं, कीड़े-मकोड़े हैं, इनकी जिंदगी निहार लो क्या ऐसा बनना चाहते हो ? मन तो नहीं चाहता होगा। बड़ी तुच्छ दशा है। इन जगत् के जीवों की हालत को देखकर अपने आपके जीवन का मूल्य तो समझलो। क्या यह जीवन मोही जीवों के हाथ बेचना है ? जिनमें मोह और राग बढ़ाया है ऐसे घर के लोगों का ही क्या जाप करते रहना है ? धन संपदा, वैभव इज्जत क्या ये सदा रह सकते हैं ? इन असार बातों में कुछ भी सार न पाओगे।विवेक―यह मन केवल दो ही ठिकाने लगाने योग्य है। एक तो वीतराग सर्वज्ञ प्रभु के स्वरूप में और दूसरे अपने आत्मा के स्वभाव में। तीसरी जगह मन नहीं बेचना है। इन दो बातों की सिद्धि के लिए कुछ बोलते हैं, रहते हैं, व्यवहार करते हैं पर समर्पण तो उस चैतन्यस्वरूप को ही मन हो। जिनका संयोग हुआ है उनका वियोग अवश्य होगा। यह चंद दिनों का समागम है। यह सदा न रहेगा, और जितने दिन रहेगा उतने दिन बेहोश बेवकूफ मोही पापमय बनने का तो कारण होगा, पर पार करने का कारण न होगा। ज्ञानीपुरुष इस संतापपूर्ण जगत के अंदर भी अपनी सावधानी बनाए रहते हैं।निरंतर विशेष सावधानी―किसी के यहाँ मशीन या इंजिनियरिंग का काम हो रहा हो, आप आटा पीसने वाली चक्की के ही पास क्यों न हों ? कैसा संभलकर खड़े होते हैं। थोड़ा किसी ओर झुकाव न हो जाय अन्यथा पट्टे में लिपटकर मृत्यु हो जायेगी। किसी बड़े कारखाने के बीच जहाँ पेंच, पुर्जे अधिक चल रहे हों, कैसी सावधानी आप वहाँ वर्तते हैं, कहीं खत्म न हो जायें। जगह-जगह लिखा है–खतरा। इस लौकिक खतरे से इतनी सावधानी होती है और यह इस प्रभुस्वरूप पर जो बड़ा खतरा हो रहा है, बाह्यपदार्थ रुच जायें, चिंता, विशाद, शल्य, आकांक्षा, निदान घर कर जाय, इतना बड़ा जो उपसर्ग है जिससे दुर्गति होती है, जन्ममरण की परंपरा बढ़ती है, इस खतरे से सावधानी न चाहिए क्या ? क्या ये ही बाह्य जड़ अथवा चेतन परिकर तुम्हारे लिए सब कुछ हैं ? हाँ ठीक है, यदि यह मदद कर सकें तो ठीक है किंतु ऐसा किसी के नहीं है।खाली हाथ―भैया ! बहुत अतीत की बात नहीं है। जब सिकंदर मरने लगा, इतिहास में लिखा है, उसके देश में बड़ा साम्राज्य था। इस परिचित दुनिया में इसका एकछत्र राज्य था। बहुत-बहुत सुख के साधन थे, पर मरने से बचने के लिए उसके पास कोई उपाय न था। उसके अंतर में यह एक हाय भी थी कि कितना श्रम करके इतना वैभव जोड़ा और आज एकदम छूटा जा रहा है, अब विवेक भी काम कर रहा है, कुछ चिंतन भी काम कर रहा है। उस समय वह लोगों से कहता है कि मेरे मरने के बाद अर्थी निकाली जाय तो मेरे हाथ पसार दिये जायें ताकि लोग देखें कि मरने के बाद यह खाली हाथ जा रहा है।सर्वदा शून्य―भैया ! मरने पर ही क्या ? जब यह जीवित है तब भी खाली हाथ है। लाखों और करोड़ों की संपत्तियों के बीच भी हो और लोक व्यवस्था में लाखों करोड़ों रुपये बैंक में जमा हों, दस्तखतों से निकाले जायें लोकव्यवस्था में बड़ा अधिकार भी हो तो भी वह पुरुष खाली हाथ है। केवल अपना स्वरूप लिए हुए है, जैसे कि अपने स्वरूप के भाव भी बनाये हों वैसे भावों को लिए हुए है। भावों के अतिरिक्त इसके पास और कुछ नहीं है। अपने आपकी चर्चा है यह। दूसरे पर कहीं दृष्टि नहीं दना है।गुप्त में गुप्त गुप्ति का यत्न―बुद्धिमान् पुरुष वह है जो चुपचाप अपने आपमें अपने आपकी ही बात सोचकर अपने हित के लिए अपना निर्णय बनाकर अपने आपके कल्याण का यत्न करते हैं। किसी को दिखाने से क्या तत्त्व मिलेगा ? क्या दिखाना है, किन्हें दिखाना है ? तुम जिनको दिखाना चाहते हो, संभव है कि वे तुमसे भी अधिक मलिन हों। किसी को दिखाने से तुम्हें कोई सिद्धि होगी क्या ? किसके लिए क्या करना है, कोई यहाँ पूछने वाला नहीं है। सब जीव अपनी-अपनी धुन के हैं। स्वरूप ही ऐसा है। प्रत्येक जीव अपने स्वरूप चतुष्टय से संपन्न है। दूसरे की कोई दूसरा परवाह कर ही नहीं सकता। सब अपने-अपने स्वार्थ, सुख, दु:ख, हर्ष, विषाद इनमें लग रहे हैं। किसी अन्य का कोई दूसरा कुछ करने में समर्थ नहीं है।प्रतिभा का एक उदाहरण―मध्य प्रांत में खुरई के एक बड़े श्रीमंत सेठ थे। उनका मिजाज थोड़ा कड़ा भी था। उनकी एक त्री गुजर गई, दूसरी शादी हुई तो उस त्री को समझा दिया दासियों ने कि देखो सेठ जी बड़े कड़े मिजाज के हैं, उनकी आज्ञा का उल्लंघन करोगी तो आफत में पड़ोगी। त्री ने कहा कि अच्छी बात है देखूँगी। एक बार सेठ साहब के सिर में बहुत दर्द हुआ। उन्होंने हुक्म दिया कि सेठानी से कहो दवा लावे। खबर पहुँची सेठानी को। अब वह सोचती है कि यह तो मंगलाचरण है अभी, यह तो पहिली बार की बात है। इसमें यदि अपनी कला चला ली तो जीवन भर दु:ख से बची रहूँगी। ऐसी बात सुनने के अनंतर ही वह तो पलंग पर पड़ गयी, कराहने लगी, मुझे बड़ी पीड़ा है, मेरे सिर में दर्द हो गया और दिल धड़क रहा है। यह खबर सेठ जी के पास पहुँची कि सेठानी के सिर में बड़ा दर्द है। सेठ जी झट सेठानी के पास दौड़कर गए, पूछा कहाँ दर्द है, कैसे क्या हुआ ? सो बहुत देर के बाद में कहा कि आपके सिर दर्द की बात सुनकर मुझे बड़ा क्लेश हुआ, दिल धड़ गया। अब तो सेठजी में होश ठिकाने आ गया। कला खिल चुकी।खुद का खुद के प्रयोजन में बंधन―प्रयोजन यह है कि कोई सोचता हो कि किसी पर मेरा अधिकार है, कोई मेरे कहने से चलता है–ऐसा सोचना असत्य है। सब अपने-अपने परिणमन से अपना कार्य करते हैं। कोई आपसे कितना ही वायदा करे कि हमारा तुम पर बड़ा अनुराग है, हम कभी भी तुमसे विलग नहीं हो सकते। यह उसके वर्तमान परिणामों की बौखलाहट है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई जीव किसी दूसरे जीव से बेप्रयोजन ही बँध जाय। चाहे बड़ा हो, चाहे छोटा हो, चाहे घर का प्रमुख हो, चाहे देश का प्रमुख हो, प्रत्येक जीव अपने-अपने भावों के अनुसार अपना परिणमन करते हैं। ऐसा यह जगत है। यहाँ अपने को बहुत सावधान रहना है।बुद्धिदोष की विपदा―भैया ! सबसे बुरी विपदा है अपने में बुद्धि दोष का आ जाना। इससे बढ़कर और विपदा नहीं है। बुद्धि का दोष जिनके बढ़ जाता है उनहें ही पागल कहते हैं ना, जो कभी सड़क पर भी फिरते हो कोई बड़े घर का आदमी, जो प्रतिष्ठित घर का हो, धनी हो और दिमाग खराब हो जाय तो लोग उसको कितनी दयनीय दशा में देखते हैं ? अरे बेचारा बड़ा दु:खी है। सबसे अधिक दु:खी कौन ? जिसकी बुद्धि मलिन है। जिसकी बुद्धि पूर्ण स्वच्छ है, सावधान है, वह दरिद्र हो, चाहे इष्टों का वियोग हो, चाहे कोई दूसरा सताता हो तब भी वह गरीब नहीं है क्योंकि बुद्धिवान् है। विवेक धन उसके बराबर बना हुआ है। जिसकी बुद्धि बिगड़ जाती है, विवेक काम नहीं करता है वह चाहे कितने वैभव के बीच हो, वह गरीब ही है क्योंकि उसे वर्तमान में शांति नहीं है और इतना ही नहीं वह भावी काल का भी अपना कुछ निर्धारण नहीं कर सकता।उपदेश का ध्येय शिवमार्ग व शिवमार्गफल―जिनशासन में इन दो बातों का वर्णन है–मार्ग और मार्गफल। मार्ग तो मोक्ष का उपाय है। किसे मोक्ष दिलाना है ? अपने आत्मा को। जिसे मोक्ष दिलाना है उसका स्वरूप तो जानो, उसकी श्रद्धा हो और जिसे छूटना है उस रूप में इसका अंतरंग में आचरण हो तो मोक्ष का मार्ग बनता है और उसका फल है निर्वाण की प्राप्ति। मोक्ष की तो लोग बड़ी प्रार्थना करत हैं। पूजा में, पाठ में, विनती में बोल जाते हैं कि हमें छुटकारा मिले। काहे से छुटकारा मिले ? कर्मों से छुटकारा मिले, देह के बंधन से छुटकारा मिले। छुटकारे के लिए बड़ी प्रार्थना करते हैं। और क्यों जी यदि थोड़े पैसों से छुटकारा हो जाय तो उसमें खेद क्यों मानते हो ? विनती में तो कहते हो कि छुटकारा मिले पर जरा-सा पैसों से छुटकारा हो जाय तो उसमें खेद काहे को मानते हो ? मानते हो ना, फिर तो यह सब ढोंग ढपारे की बात रही। जब व्यवहार के कार्यों से छुटकारा पाने में धैर्य नहीं रख पाते हो तो उस बड़े मोक्ष की बात तो एक स्वप्न देखेने की जैसी बात है।मुक्ति का आमूलचूल उपाय―इस ग्रंथ में संकटों से छुटकारा पाने का उपाय कहा जाता है। नियमसार ग्रंथ है यह। इसमें आगे जो वर्णन आयेगा वह बड़ा ही कलापूर्ण वर्णन है, जिसमें आत्मा के भीतर की बात बतायी जायेगी। तो उसे ग्रहण करके जो आनंद प्राप्त होगा वह आनंद असीम आनंद होगा। जैसे मिठाई-मिठाई सब एक होती है पर रसगुल्ला, इमरती, जलेबी, बरफी इन सबमें कुछ अंतर है ना। इसी तरह ये चार ग्रंथ–समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय एक ही तरह के आध्यात्मिक ग्रंथ हैं, फिर भी शैली और पद्धति से इनमें अंतर है। जो नियमसार का वर्णन आगे आयेगा उससे सब बातें स्पष्ट होगी। नियमसार शब्द का भाव है शुद्ध रत्नत्रयस्वरूप। नियम अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र और सार कहने से अर्थ निकला निश्चयस्वरूप विपरीततारहित। निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यक्चारित्र, इसका और इससे संबंधित समस्त अंत:क्रियाओं का इस ग्रंथ में वर्णन होगा।रागद्वेष के विजेता के नमस्करणीयता―ग्रंथ के आदि में कुंदकुंददेव ने अंतिम तीर्थंकर श्री वीरनाथ को नमस्कार किया है, जिसका तीर्थ आज चल रहा है वे वीर जिन हैं, जिनका अर्थ है कि अनेक जन्मोंरूपी अटवियों में बनियों में प्राप्त कराने का कारणभूत जो सर्व मोह रागद्वेषादिक हैं उन सबको जो जीतता है उसको जिन कहते हैं। जैसे यह कहना है कि श्री जिनवर को हमारा नमस्कार हो तो जिनवर कहने से अन्य लोग चौंक जायेंगे कि यह हमारे प्रभु को नहीं कह रहे हैं और इस ही को इन शब्दों में कहा जाय कि मोह रागद्वेष को जीतने वाले को हमारा नमस्कार हो तो यह सुनकर अन्य लोग न चौकेंगे। जिन को नमस्कार कहने में इस जैन का अभिप्राय यह है कि इसे किसी के शरीर से, माता पिता से या कुल जाति से या उनके जीवन चरित्र से यहाँ जैन का हठ नहीं है किंतु केवल यह ही आशय है कि जिसने मोह रागद्वेष शत्रुओं को जीता है उनको नमस्कार हो। शब्द भी वही कहते हैं जिन भगवान् और आशय भी उनका ऐसा ही है।व्यक्ति की दृष्टि से परे शुद्ध ज्ञानभाव की पूजा―भैया ! जो त्रिशला के नंदन हुए, सिद्धार्थ के पुत्र हुए, कुंडलपुर में जन्म लिया ऐसे प्रभु को देखना हम आपकी मंशा नहीं है, किंतु अपने आपके शुद्ध आत्मस्वरूप का परिचय करके जिसने विषय-कषाय को जीता, निर्मोह हुए, रागद्वेष रहित हुए और रागद्वेष रहित होने के कारण सर्वज्ञ भी जिन्हें होना पड़ा ऐसे आत्मा की ओर दृष्टि है किंतु त्रिशलानंदन, सिद्धार्थसुत इक्ष्वाकुवंश में जन्में, इस बात पर दृष्टि नहीं है। जैन सिद्धांत का लक्ष्य कितना पवित्र है ? केवल परमात्मतत्त्व इस दृष्टि में लिया जा रहा है कि जो शुद्ध निर्दोष परिपूर्ण परमात्मत्व है उसकी ही मेरे में भक्ति है।कल्याणार्थी की गुणदृष्टि―भैया ! ज्ञानी के रंच हठ नहीं है किसी व्यक्ति का, किसी नाम का, पर जिस शुद्ध तत्त्व को, निर्दोष परमात्मत्व को वे बताना चाहेंगे तो कोई शब्द ही तो कहेंगे। उन शब्दों का मतलब व्यक्ति से नहीं लिया जायेगा, किंतु जो निर्दोष और सर्वज्ञ हुए हैं उनका आशय लेना चाहिए। मुख्य मंत्र णमोकार मंत्र है। उसमें किसी व्यक्ति का नाम है ही नहीं, किंतु गुणों का नाम है। अरहंत–जिसने स्वभाव को घात करने वाले कषाय और कर्मों को जीत लिया है उनको अरहंत कहते हैं। अब कोई अरहंत नाम का भ्रम करके सोचे कि ये तो अरहंत राजा को मानते हैं और ऐसी कथा को गढ़ भी देते हैं। कोई अरहंत राजा हुए थे, उनसे यह जिनधर्म चला था। तो किसी पद को बताने के लिए जो शब्द कहे जायें उन शब्दों के अक्षरों पर दृष्टि नहीं देना है, किंतु जिस लक्ष्य के लिए शब्द कहा गया उस पर दृष्टि देना है। जो रागद्वेष मोह को जीत चुके हैं उनको नमस्कार हो, केवल यह ही अभिप्राय है अरहंत के नमस्कार में।परमेष्ठित्व की व्यक्ति―अरहंत पद के पश्चात् जब शुद्ध, बाह्य लेप रहित रहने की जो अवस्था होती है उसे सिद्ध कहते हैं। सिद्ध किसी व्यक्ति का नाम नहीं है किंतु जो अपने विकास में पूर्ण हो चुके हैं उन्हें सिद्ध कहते हैं। मंत्र में आराधनीय दो हैं–(1) जो पूर्ण शुद्ध हो चुके हैं ये हैं अरहंत और सिद्ध और (2) जो शुद्ध होने के प्रयत्न में लगे हैं वे हैं आचार्य उपाध्याय और साधु। कोई भी गृहवासी ज्ञान से जगकर, वैराग्य से संपन्न होकर आरंभ और परिग्रह को छोड़ देते हैं तो वे साधु होते हैं। जो भी साधु हुए हैं वे गृहवासी लोग ही हुए हैं। ऐसा भी कोई हुआ है कि जो घर में न पैदा हुआ हो, घर में न रहा हो, घर में न पला हो और हो गया हो साधु। ऐसा कोई सुना हो तो बतलाओ। चाहे कोई 8 वर्ष की उम्र वाला बालक ही साधु क्यों न हो जाय, पर रहा तो वह घर में ही था।अद्भुतपराक्रमी साधु―भैया ! एक आचार्य ऐसे भी हुए हैं कि उन्होंने पैदा होने के बाद कभी वस्त्र धारण नहीं किये और साधु हुए। पहिले बहुत बड़ी अवस्था तक बच्चे नग्न फिरा करते थे। बूढ़े आदमी जानते होंगे इस बात को। आज तो 6 महीने के बच्चे को भी अन्डरवीयर पहिना देते हैं और ऐसा पहिना देते हैं कि सारा दरवाजा नीचे से खुला रहे, नहीं तो कहाँ मूत धो-धोकर परेशान हों। तो पूर्व समय में नग्न रहा करते थे बालक, सो नग्न रहा बहुत दिनों तक वह बालक और नग्न ही अवस्था में मुनियों के संघ में रहा। ज्ञान और वैराग्य जगा तो कहा कि महाराज अब दीक्षा दीजिए। दीक्षा ले ली सो पैदा होने के बाद वस्त्र नहीं पहिना, और साधु हो गये। ऐसी नजीरें बहुत कम होती हैं। जैसे साधु होने के बाद महान् तपस्या करे और पानी आहार कुछ भी न खाये पिये और मोक्ष चला जाय, ऐसा भी नजीर है ना कोई ? बाहुबलि स्वामी है ना और भी अनेक हैं।साधुओं की वर्तमानता―तो ये आचार्य, उपाध्याय, साधु ये शुद्ध होने के प्रयत्न में लग रहे आत्मा है। उन साधुओं में जो नायक होता है वह आचार्य कहलाता है। जो अन्य मुनियों को दीक्षा दे, खुद आचरण पाले दूसरों को पालन कराये वह आचार्य है, सो मुनि और आचार्य तो आजकल दर्शन करने को मिल जाते हैं, परंतु उपाध्याय नहीं मिल पाते हैं क्योंकि उपाध्याय के लिए ज्ञान चाहिए। सो ज्ञानयोग होना बड़ा कठिन है कि जो उपाध्याय पद के लायक कहलाये। लेकिन होते थे ऐसे पहिले। वे दोनों ही साधु शुद्ध आत्मा होने के प्रयत्न में लग रहे हैं।भक्तों द्वारा शक्तिदेवता की आराधना―इन 5 पदों में किसी व्यक्ति को नमस्कार नहीं किया गया है। जैनसिद्धांत नमस्कार किऐ जाने वालों में व्यक्तित्व देखता ही नहीं है किंतु गुण देखता है। गुणों को नमस्कार है नाम को नमस्कार नहीं है, और बात भी ऐसी ही है। कोई किसी त्यागी को नहीं पूछता, और कोई त्यागी यह सोचे कि हमसे तो बहुत लोग बड़ा स्नेह रखते हैं, मुझसे लोगों का बड़ा अनुराग है, तो उसका सोचना झूठ है। किसी नामधारी त्यागी को समाज नहीं पूजता है। वही त्यागी यदि पागल हो जाय, गड़बड़ हो जाय, भ्रष्ट हो जाय तो फिर क्यों नहीं पूजते ? तो लोगों की दृष्टि गुणों की ओर होती है, नाम और व्यक्ति की ओर नहीं होती।नाम की पूज्यता की अहेतुभूता―यहाँ 24वें तीर्थंकर को नमस्कार किया है, इसमें वीरत्व को और जिनत्व को नमस्कार है। सिद्धार्थनंदन को नमस्कार नहीं है। यदि सिद्धार्थ कोई अपना नाम रख ले और उसका लड़का हो जाय तो वह भी तो सिद्धार्थनंदन है। जैसे आजकल तीर्थंकरों के नाम पर जो नाम चलते हैं उनकी क्या कमी है ? विहार प्रांत में सराक जाति में आदिनाथ नेमिनाथ ऐसे नाम होते हैं, और उनके कुल में भी ऐसे ही नाम चलते हैं। तो नाम रख लेने में कहीं पूज्यता नहीं होती। ऐसे ही उन का नाम था सिद्धार्थनंदन, त्रिशलानंदन। इस नाते से वे पूज्य नहीं थे किंतु उनमें जिनत्व था, जन्म–जन्मांतर अनेक जन्मोंरूप जंगल में भ्रमण के कारणभूत जो रागद्वेषादिक भाव हैं उन पर उन्होंने विजय प्राप्त की। ऐसे जिन वीर को नमस्कार किया जा रहा है।वीर का वाच्य―वीर शब्द के कहने से 7 हाथ की अवगाहना वाले कुंडलपुर के जन्मे हुए थे। ऐसी दृष्टि नहीं लेना है, किंतु जिनमें वीरत्व प्रकट हुआ है उन्हें दृष्टि में लेना है। यद्यपि यह वर्द्धमान वीरप्रभु प्रभु हुए हैं, इसलिए पूर्ण नाम लेकर नमस्कार किया जाता है, पर लक्ष्य में लेना है वीरत्व। वीर का अर्थ है जो विक्रांत हो, विक्रम करे, कर्मशत्रुओं को जीते, शूरता रखे उसे वीर कहते हैं। अब तो बहुत से वीर हैं चंदनपुर के वीर, कुंडलपुर के वीर। और हों कोई आसपास के पुराने गाँव के जो उजाड़ हो गए हों, उस क्षेत्र में कोई वीर नाम का हो। तो ऐसे तो अनेक वीर हैं। अरे जहाँ पर्याय को भी दृष्टि में न लेकर वीरत्व और जिनत्व को देखकर भक्ति की जा रही हो, उनके चंदनपुर और कुंडलपुर की तो कहानी ही छोड़ो।नाम व चरित्र की पकड़ विडंबना की जड़―वीरप्रभु जो कि चार नामों से प्रसिद्ध हैं–वर्द्धमान, सन्मति, महावीर और अतिवीर। ये सब चारित्रों से संबंधित हैं। पर बात यह बतायी जा रही है कि किसी जीवन चारित्र से हम भक्ति नहीं करते हैं किंतु गुणविकास के कारण भक्ति करते हैं। आज जो परमात्मा के नाम पर ही इतने विवाद खड़े हो गए देश में उसका कारण है नाम और चारित्र की पकड़। जिसने ईसा प्रभु को माना है, बस उनका ख्याल है कि जो ईसा हुए हैं, जो यों जंगल में रहते थे, यों लोगों से बोलते थे, अमुक जाति के थे, भेड़े साथ में रखते थे, लोगों के संकट दूर करते थे वे प्रभु है। चरित्र से प्रभुता मान ली। इसी प्रकार जो जिन को देवता कहते हैं उनके जो चरित्र लगा है बस उस चरित्र के रूप के कारण ही भगवत्ता मानते हैं। तब इसमें विवाद हो गए, विसम्वाद हो गए।हितभावरूप दर्शन की अभीष्टता―रागद्वेष मोह न होना और सारे विश्व का ज्ञाता बनना, यह बात तो सबको पूज्यता के लिए इष्ट होगी। चारित्र छोड़कर, जो मन, वचन, काय की क्रिया हो, भली भी हुई हो तो भी उसे दृष्टि में न लेकर केवल इस दृष्टि को भाव में लिया जाय कि जिसने रागद्वेष मोह को दूर किया हे ऐसा शुद्ध ज्ञानपुंज हमारा प्रभु है। तो सब एक छाया में उपस्थित हो जायेंगे।हितमार्ग के अविरुद्ध चरित्र की श्रोतव्यता―भैया ! प्रभुता के मर्म से अविदित जैन नामधारी भी नाम, व्यक्ति और चरित्र की ही हठ करके और उसमें ही परमात्मत्व देखकर, तत्त्व से च्युत होकर विसम्वाद में पड़ जाते हैं। अब इस मूल बात को न भूलें, और फिर व्यक्ति और चारित्र की ओर भी दृष्टि रखें तो वह व्यवहारभक्ति बन सकेगी। प्रभु वीर का वर्द्धमान तो पहिला नाम था और जब दो मुनिराज कुछ मन में तत्त्वशंका रखते हुए जा रहे थे और यह बालक वर्द्धमान उन दोनों को दिख गया तो देखते ही उनकी शंका दूर हो गयी। ऐेसे कथानक के आधार से उनका नाम सन्मतिनाथ पड़ा और बचपन में जब वे खेल रहे थे तो एक देव परीक्षा करने आया साँप का रूप बनाकर, तो खेलने वाले सभी साथी खेल छोड़कर भाग गए और वह साहसी बालक सर्प से खेलने लगा। उसके फन पर ही पैर रखकर लीला करने लगा उस समय से उनका नाम महावीर है। इस तरह की घटनाओं के आधार पर चार नाम पड़े हैं। इन नामों करके सहित परमेश्वर महादेवाधिदेव, अंतिम तीर्थंकर उनको प्रणाम करके इस नियमसार को कहेंगे।महंतों की महंतों के प्रति महती कृतज्ञता―भैया ! जिससे उपकार हुआ उसको जो छिपाये उसके गुणों के विकास में बाधा रहती है। इस कारण कृतज्ञता प्रकट कर देना यह संतों का स्वाभाविक गुण है। यदि वीर प्रभु की वाणी न होती तो आज पदार्थ का स्वरूप हम कहाँ से पाते और शांति कैसे मिलती ? शांति जो हम आपको जब कभी मिलती है वह भेदविज्ञान का प्रताप है। पर की ओर लगने में भिड़ने में शांति कभी हो ही नहीं सकती जितना हम पर से हटते हैं, ज्ञानद्वारा हम अपने आपके अकेले स्वरूप में विचरते हैं उतनी ही तो शांति है और बाकी शांति की आशा न रखिए। चाहे लखपति हो जावें, करोड़पति हो जावें, कितना ही परिवार हो जावे पर शांति नहीं मिलती। बड़े आदमियों के ठाटबाट देख लो–उन्हें शांति उससे नहीं प्राप्त हो सकती। शांति ज्ञान पर ही निर्भर है।महान् लाभ के प्रोग्राम में तुच्छ हानि की उपेक्षा―भैया ! चाहिए क्या ? सुख, शांति, आनंद। उसका उपाय है–सम्यग्ज्ञान। तो वस्तुस्वरूप का बोध करना कितना बड़ा काम है ? दुकान से बड़ा है या नहीं ? दुकान से तो बड़ा है और घर के लोगों के स्नेह से बड़ा है कि नहीं ? उससे भी बड़ा है। यह सबसे बड़ा काम है और जो बड़ा काम होता है उसको करते हुए में अगर छोटी बातों का नुकसान भी हो जाय तो उसमें रंज न होनी चाहिए। धन में कुछ कमी हो जाय, परिवार में कोई क्षति हो जाय तो उसके ज्ञाता दृष्टा रहना चाहिए। यदि ऐसा न कर सके तो अशांति होगी। एक ही उपाय ह शांति का, सम्यग्ज्ञान होना। ये वीरदेव निर्मल ज्ञानदर्शन से युक्त हैं। जो समस्त पदार्थों के जानने में समर्थ हैं। तीन लोक तीन काल के चर और अचर द्रव्यगुण पर्याय सर्व को यथावत् एक साथ जानने का जिनके जौहर प्रकट हुआ है, उस वीरजिन को नमस्कार करके इस नियमसार को कहेंगे, ऐसा कुंदकुंदाचार्य देव संकल्प कर रहे हैं।वर्णनीय नियमसार―भैया ! इस ग्रंथ में किसको कहेंगे ? नियमसार को। नियम अर्थात् सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र उसका सार मायने शुद्ध निश्चयरूप परमार्थरूप रत्नत्रय। इसका निरूपरण इस ग्रंथ में किया जायेगा। ऐसा विरूपण अपनी बुद्धि से ही नहीं प्रकट किया, किंतु समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जानने वाले केवलियों ने बताया और समस्त द्रव्य श्रुत के जानने वाले श्रुतकेवलियों ने बताया, वही तत्त्व जो अनंत तीर्थंकरों ने अपने-अपने समय को बताया अथवा जो आत्मा में स्वरूप बसा हुआ है, सहजभाव है उसका विरूपण जो चला आ रहा है उस ही अनंत संतों के द्वारा विरूपित तत्त्व को यहाँ कुंदकुंदाचार्य कहेंगे। अपनी रुचि से जो शात्र बनाया जाय उसमें प्रामाणिकता नहीं आती। रुचि भी काम देती है पर साथ ही उन अनंत ज्ञानियों के ज्ञान से मेल खाता हो तब तो समझो कि वह समीचीन है, ऐसे प्रवाहरूप में चले आए हुए इस नियमसार अर्थात् शुद्ध रत्नत्रय स्वरूप का इसमें वर्णन चलेगा।महनीय के ही महनीयता―कुंदकुंदाचार्य देव यहाँ वीर जिनेंद्र को नमस्कार कर रहे हैं। सो मानो ऐसी उत्सुकता से नमस्कार कर रहे हैं कि हे वीर जिनेंद्र ! तुम्हारे जैसे वीतराग सर्वज्ञ प्रभु के रहते हुए मैं किस अपने समान महा मुग्धचारित्र वाले अन्य देवताओं को नमस्कार कर सकता हूँ? कोई किसी का चारित्र यों बताए कि एक पुरुष है और वह जहाँ चाहे, जो चाहे चुरा लेता है और खा लेता है, हलवाई की दुकान में अकेले घुस जाय तो मिठाई खा लेता है, दूध वाले की दुकान में घुस जाय तो दूध दही खा लेता है और जहाँ जाता है वहाँ स्त्रियों में रम जाता है, तो इस चरित्र को सुनकर क्या आप में भक्ति उमड़ेगी या जो गृहस्थ की भांति स्त्री रखे हो, पुत्र रखे हो, ऐसा कोई हो तो क्या उसके प्रति आपकी भक्ति जगेगी ? ऐसे देव तो हमारी ही तरह मोहमुग्ध है। संसार की ऐसी रीति है कि कोई विलक्षण बेढंगा काम करने लगे तो उसमें प्रभुता मानने लगते हैं, किंतु मेरी ही तरह मोह मुग्ध जो हैं उनको मैं कैसे पूजूँ? धर्माश्रय का परमार्थ आश्रय―हे प्रभु ! जो रागद्वेष कषाय से परे है, ज्ञान की अत्यंत स्वच्छ महिमा जिसके प्रकट हुई है ऐसा स्वरूप ही मेरा आराध्य है, मैं कहाँ जाऊँ? ये रागद्वेष शिष्यगण, परिवारजन, भक्तजन क्या मेरे कोई शरणभूत है ? सब मेरे उपयोग को यत्रतत्र भटकाने में ये आश्रय बनते हैं। मैं किसकी शरण जाऊँ जो मेरे लिए एक मात्र हो। आप अभी देख लो–धर्म के नाम पर भगवान् जिनेंद्र या प्रभुमूर्ति, मंदिर इनके लिए सब लोग कितने न्यौछावर रहते हैं ? घर का काम बिगड़े तो एक को ही चिंता है अन्य को, परवाह ही नहीं और मंदिर का या संस्था का कोई काम आ जाय तो सबको चिंता और सबको परवाह है। कोई बात बिगड़ने लगे तो सबको चिंता हो जाय। चाहे उन सबने उस धर्म का यथार्थस्वरूप न भी जाना हो, पर नाम तो है धर्म का। जिसके नाम पर इतना लट्टू होते हैं उसका यदि स्वरूप समझ में आ जाय तब तो फिर कहना ही क्या है ? प्रभु वीर का उपकार―हे प्रभु ! तेरा जैसा विजयी निर्दोष गुण की खान आनंद निधान केवल ज्योतिपुंज है, उसको छोड़कर मैं किस जगह अपना सिर झुकाऊँ? मानो इस उत्सुकता के साथ सर्वप्रथम जिनेंद्रदेव को नमस्कार किया गया है। दूसरी बात यह है कि लोग सिद्ध की अपेक्षा अरहंत की याद ज्यादा करते और अरहंतों की अपेक्षा उन्हीं में तीर्थंकर की याद ज्यादा करते और उनमें अंतिम तीर्थंकर की अधिक याद करते हैं तो ये प्रभु साक्षात् उपकार के जो कारण हुए हैं सो उनकी स्मृति में कृतज्ञता ही कारण है। यह तो देव का प्रकरण है ना। कदाचित् कोई गुरु को भी पहिले नमस्कार और भगवान् को पीछे नमस्कार करे, किसी की ऐसी कृतज्ञता बन जाय तो किसी की बन भी जाती है।गुरु का गौरव―भैया ! एक कथानक में सुना होगा कि एक सेठ ने किसी पशु को मरण समय णमोकार मंत्र दिया। सो वह पशु मरकर देव बन गया। जब अवधिज्ञान से उसने जाना कि अमुक श्रावक ने मेरी गति सुधारी तो मध्यलोक में आया। एक जगह मुनिराज भी बैठे थे और वह सेठ भी बैठा था तो उसने पहिले सेठ को नमस्कार किया, पश्चात् मुनि को नमस्कार किया। तो कृतज्ञता की लहर जिसमें जैसी दौड़ जाय उस तरह से प्रवृत्ति होती है। आप कहें कि यह तो ठीक नहीं, हाँ मुनि की भक्ति रखने वाला हो सेठ और सेठ को अगर पहिले ही नमस्कार करले तो वह मुनि को ही तो नमस्कार हुआ। जैसे मानो कोई जिनभक्त ब्रह्मचारी क्षुल्लक या मुनि इनका आप यथायोग्य विनय करते हैं तो किस नाते से करते हैं ? मंदिर में भी बैठे हों क्षुल्लक या मुनि तो आप वहाँ पर भी पहिले उनको नमस्कार कर डालते हैं ना, तो चूँकि ये जिनेंद्र के भक्त है सो भक्त के नाते से ही विनय किया गया है ना। तो वह जिनेंद्र का विनय समझिए। न जिनेंद्र के भक्त हों तो कोई पूछले तो जानें।वीरभक्ति, वीरभक्त व वीरशक्ति की विशेषता―गुरु के नमस्कार में भी प्रभुभक्ति ही तो अंतर में बसी है ना, यह कृतज्ञता की कुछ पद्धति होती है पर आशय विपरीत हो जाय तो उसमें दोष आता है। चूँकि यह आप्त का प्रकरण है इसलिए वीर जिनेंद्र को नमस्कार किया है और साथ ही यह भी ध्वनित है कि वीर को ही क्यों नमस्कार किया तो उनकी वाणी दिव्यध्वनि की परंपरा से आज तीर्थ चल रहा है। जिस परंपरा से आए हुए तत्त्व को हम शब्दों में बाँध रहे हैं यह भी साथ ध्वनित है। जिस प्रकार स्वच्छ वीर जिनेंद्र हुए उस ही प्रकार का स्वच्छ हमें भी होना है। उस वर्गरहित मोक्ष की प्राप्ति के लिए हम यह उद्यम कर रहे हैं। यह तो शुद्ध लक्ष्य हो जाने की विशेषता है।शात्ररचना का प्रयोजन निज परम विशुद्धि―आचार्य देव कुछ नहीं चाहते हैं, न यश, न नाम, न अन्य कुछ, किंतु मेरा उपयोग रागद्वेष की वृत्ति से दूर रहे इसके लिए यह उपक्रम है शात्र रचना और फिर इसको बढ़कर अन्य लोगों का उपयोग भला होना, यह तो भुसा की तरह एक गौण प्रयोजन और फल है। हम लोग उनके मुख्य प्रयोजन को चाहे न आंक सकें और उपकार हम लोगों का होता है अधिक, इसलिए यही गुण गाये कि कुंदकुंदाचार्य प्रभु न हम जैसे पामरों के उपकारों के लिए अध्यात्मग्रंथों की रचना की है। हम यह बोलते हैं पर कुंदकुंदाचार्य प्रभु ने हम लोगों का ख्याल रखकर कि भिंड के फलाने-फलाने लोग होंग या इटावा में कोई नियमसार पढ़ेंगे, उनका उपकार होगा इसलिए बनाया या अन्य किसी के ख्याल से शात्ररचना की ऐसा नहीं है, किंतु अपने उपयोग को शुद्ध रखने के लिए और मोक्षमार्ग से उपकार होता है। सो उस मोक्षमार्ग की मूर्ति खींची है।भक्तिपद्धति―भैया ! जो जिस पर लट्टू हो जाता है उसके मन में वही समाया रहता है। सबको भूलकर उसकी शकल बनाए, उसके गीत गाए, उसके भजन बनाए, गद्गद् स्वरों में एकांत में विनती करे–ये सब बातें होने लगती हैं। किसी को दिखाने का प्रयोजन नहीं है। यहाँ जिनकी पूजा कर रहे हैं, जल्दी जाना है अथवा नहीं जाना है, आदत है, जल्दी जल्दी बांच रहे हैं और कोई चार आदमी बड़े दर्शन करने आ जायें तो उनको देख करके फिर राग से गायेंगे। क्योंकि उददेश्य ही पुष्ट नहीं है कि इतने समय सबको भूलकर मैं क्या हूँ, किस परिवार का हूँ, मेरे में कोई भार है क्या, सर्व बातों को भूलकर अपने को निर्भार अनुभवकर चिदानंद स्वरूप को निरखकर उस ही ज्ञानपुंज की ओर हमें झुकना चाहिए था, यह उद्देश्य तो न रहा, इसलिए मन यत्र तत्र भटकता है। बड़ी बातें करते हैं और करते कुछ नहीं हैं।परमपूजा क लिये कमर कसकर भक्त की तैयारी―पूजा की प्रस्तावना में पढ़ते हैं ना–अर्हन् पुराणपुरुषोत्तमपावनानि वस्तूनि नूनमखिलान्ययमेक एव। अस्मिन् ज्वलद्विमलकेवलबोधवह्नौ पुण्यं समग्रमहमेकमना जुहोमि। बड़ी लय से आप पढ़ते हैं ना, भगवान को रिझाने के लिए कि हे अरहंत ! हे पुराण ! हे पुरुषोत्तम ये जो नाना पवित्र चीजें रखी हैं ना, जल, चंदन, अक्षत आदि द्रव्य और इतने बड़े हम और धोती दुपट्टा और यह वेदी और यह विराजे भगवान् कितनी चीजें हैं वहाँ उस जगह ? कहते हैं कि नाथ मुझे अन्य कुछ दिखता ही नहीं है। हमें ये अक्षत, पुष्प कुछ नहीं दिखते। हमें तो केवल एक ही चीज दिख रही है, अयं एक एव। यह जाज्वल्यमान् तेजस्वी ज्ञानस्वरूपी ही हमें दिख रहा है, सो इस जाज्वल्यमान् निर्मल केवल ज्ञानरूपी अग्नि में समस्त पुण्य को एक मन होकर मैं स्वाहा करता हूँ। जो आप रोज-रोज पूजन में कहते हो, उसका ही यह अर्थ किया जा रहा है। चाहे करते कुछ हो हमें पता नहीं है।पूजा से प्रथम महान् संकल्प―आप रोज पूजा करने से पहिले यह कहते हो कि इस जाज्वल्यमान् ज्ञानाग्नि में सारे पुण्य को मैं स्वाहा करता हूँ। कितना निर्मल चित्त होकर यह भक्त पेश होता है प्रभु के दरबार में। केवल ज्ञानपुंज ही उसे दिख रहा है और जो चार पाँच लड़के हैं उनकी रंच खबर नहीं है क्योंकि सर्वत्र सब द्रव्यों को जानता है, उनका भार उन पर है, मेरे से कुछ उनका बनता ही नहीं है। यहाँ तो केवल आत्मस्वरूप के दर्शन को वह आया है। इस जाज्वल्यमान् ज्ञान में सारी पुण्य चीजों को मैं जलाता हूँ।पुण्य वैभव का स्वाहा―कितनी पुण्य चीजें है अभी उसके पास ? 9.25 आने का कुछ द्रव्य है। पतली चिटक धर लिया, बादाम न मिलता हो तो कमलगट्टा हो गए, चिरमटी भी आ गयी हैं। सारी चीजें मिलकर सवा नौ आने की चीजें धरी हैं और कहते हैं सारा पुण्य स्वाहा कर रहा हूँ, यह उस पर नखरे बगरा रहे हैं। प्रभु की ओर से पूछ दें, कोई ऐसा तो भक्त कहता है कि नहीं महाराज मैं इतने ही द्रव्य को स्वाहा नहीं करता हूँ, किंतु इसके अतिरिक्त जितना भी वैभव है लाखों का, हजारों का, करोड़ों का उस सारे वैभव को मैं न्यौछावर करता हूँ। हेय चीजें हैं ये सब। उनको मैं क्या दिल में रखूँ? उन सबको मैं स्वाहा करता हूँ।द्रव्यपुण्य का स्वाहा―तब फिर मा नो भगवान् बोले कि ऐ भक्त तुम चतुराई पर चतुराई बगरा रहे हो, तुम जानते हो कि धन वैभव तो मेरा है नहीं, सो जरा कहकर तो मियामिट्ठू बन लें, भगवान् के प्यारे बनलें, मैं सर्ववैभव को त्यागता हूँ, क्योंकि यह सब तो मरने पर भी न जायेगा, ये सारी चीजें मेरे से भिन्न हैं तो इन चीजों को स्वाहा कहकर भगवान् के मियामिट्ठू बन लें, क्या यह बात है भक्त !भावपुण्य का स्वाहा―भक्त कहता है कि नहीं महाराज इतनी ही बात नहीं है। जिस पुण्यकर्म के उदय से यह वैभव मिला हो उस पुण्यकर्म को भी मैं स्वाहा करता हूँ, मुझे कुछ न चाहिए, ये सब हेय हैं। प्रभु का वकील बोला―अच्छा, जानते हो कि ये भी पौद्गलिक हैं, मेरे आत्मा से अतयंत भिन्न है, सो कह लो प्रभु से। भक्त कहता है कि महाराज यह बात नहीं है। वे द्रव्य पुण्यकर्म जिसके परिणाम के कारण बद्ध हुए ऐसे शुभोपयोगरूप भावों को भी मैं स्वाहा करता हूँ। मायने क्या करता हूँ कि आपकी जो वर्तमान में भक्ति कर रहा हूँ इस परिणाम को भी मैं स्वाहा कर रहा हूँ। अब क्या रह गया ? जिस ज्ञानपुंज की पूजा कर रहे हैं वह ज्ञानपुंज ही मेरे ध्यान में रह गया, ऐसी तैयारी के साथ बड़ी भक्ति से आप भगवान् से रोज कह जाते हैं। तो अब सोचना चाहिए कि भगवान् के आगे हम सरासर झूठ तो न बोलें। न इतना न कर सकें तो लक्ष्य तो रहे कि हमने ऐसा कहा है और हमारे करने को इतना काम पड़ा है।महान् कार्य के लिये महान् यत्न―यहाँ कुंदकुंदाचार्य देव एक बहुत बड़ा काम करने जा रहे हैं ना, तो उसके लिए पहिले अपने मन को बहुत निर्मल स्वच्छ दृढ़ बना लें। कौन-सा काम करने जा रहे हैं ? जो बड़े-बड़े गणधर देवों ने जिस प्रभुता की बताने में समर्थ न हो सका तो हम लोग फिर क्या रहे ? भैया ! यद्यपि संभव है कि इसमें प्रवचनसार, समयसार, नियमसार इनमें कोई-कोई दोहा कोई-कोई गाथा शायद वह ही हो जो गणधरदेव अपने मुख से बोल गए हों। हो सकता है मगर पूरी उनकी वचनावली परंपरा में आज नहीं रही। उस मर्म को व्यक्त करते हैं। तो जिस मर्म को बड़े-बड़े गणधर देव भी अपनी वाणी से पूरा-पूरा व्यक्त न कर सके हों, जिससे सर्वजन समझ सकें तो हम मंदपुरुष उनके समक्ष क्या हैं ? इतने बड़े काम को करने की तैयारी में कुंदकुंदाचार्य देव पहिले प्रभुस्मरण करके अपने मन को गंभीर बना रहे हैं।पुन: पुन: वीरस्मृति―यह नियमसार ग्रंथ है जिसे प्रत्यक्ष ज्ञानधारियों ने बनाया है, श्रुतकेवलियों ने विरूपा है। समस्त भव्य जीवों के हित करने वाले ऐसे नियमसार नामक परमागम को कहूँगा। इस प्रकार कुंदकुंदाचार्यदेव एक विशिष्ट देवता को नमस्कार करने के बाद अब इस ग्रंथ को कहेंगे। अभी ग्रंथ बनाने के प्रारंभिक प्रक्रम में फिर भी प्रभु की याद बारबार आती ही है। ये प्रभुबाल बालब्रह्मचारी थे। भजनों में लोग गाया करते हैं, ‘छोड़ दिया सकल परिवार चला वीरा, माता समझावति है।’ अरे मेरे वीर क्यों जाते हो, माता रुदन मचाती है, पिता भी एक कोने में बैठा शोक कर रहा है। वह मानता ही नहीं है। बाल्यकाल में ही ब्रह्मचर्य जैसा दुर्धरव्रत धारण करके निष्परिग्रह रहकर यह प्रभु मौन रहे, जब तक केवलज्ञान नहीं हुआ। बड़े आदमी या तो सच बोलेंगे नहीं तो मौन रहेंगे। मुनि अवस्था से ये प्रभु मौन रहे हैं।वीर प्रभु की त्रिलोक पूज्यता―वीर प्रभु को केवलज्ञान हुआ, तीनों लोक के जीवों ने उन्हें पूजा, मनुष्यों ने भी, देवों ने भी, अधोलोक के जीवों ने भी। तीन लोक के सारे जीव उनके चरणों में आए। सब तो नहीं आ सकते पर ऊर्ध्वलोक के इंद्र, मध्यलोक के इंद्र और अधोलोक के इंद्र आ गये तो समझो सभी आ गए। मेरु की जड़ से नीचे अधोलोक माना जाता है। भवनवासी और व्यंतर के आवास मेरु से नीचे जाकर है। उनमें रहने वाले वे अधोवासी कहलाते हैं। तो जब सभी लोकों के इंद्र उनके चरणों में आ गए तो सभी आ गए समझिए। यह तो बात आजकल काश्मीर के विषय में है कि काश्मीर को चुनने वाली उनकी जो समिति है उसने एक मत से भारत में मिलना स्वीकार कर लिया। तो इसका अर्थ है कि समस्त काश्मीर ने स्वीकार कर लिया। जब ऊर्ध्वलोक के इंद्र चरणों में आए तो सबही ने नमस्कार किया समझिये। सारे कहाँ आ सकते हैं ? किसी-किसी के तो भाव नहीं आता होगा। मगर जब इंद्र आ गए तो सबका आना समझ लीजिए।वीतरागता का प्रताप―इस तरह तीन लोक के सकल जीवों के द्वारा यह प्रभु पूज्य हैं। इनका एकछत्र तीन लोक में राज्य फैला है। क्या फैला है, ज्ञानसाम्राज्य। वे राज्य को ठुकरा कर आये थे। अब तीन लोक का राज्य मिला है। अब इस संसार में नहीं भटकते हैं, अब जन्म नहीं लेते हैं, अनंत काल के लिए निर्दोष जन्ममरणरहित अनंत आनंदमय हो गए। वे वीर नाथ जिसकी भी दृष्टि में आते हैं तो इसी प्रकार आया करते हैं कि समवशरण है, उस समवशरण के बीच गंधकुटी है, वहाँ जिनका निवास है। चारों ओर से देवी देवता देवांगनाएँ गायन करते हुए, बड़े-बड़े बाजा बजाते हुए जहाँ नाच कर रहे हों और तीन लोक के समस्त जीव जिनके चरणों में झुक रहे हों, यह सब किसका प्रताप है ? एक वीतरागता का प्रताप है। वीतरागता के कारण यह सारा सकल समाज नृत्य, गान करते हुए उनके चरणों में पहुँच रहा है। ऐसे शरीर से तो वे समवशरण में विराजमान् हैं और अंतर से वे केवलज्ञान लक्ष्मी सहित विराजमान् हैं। ऐसे वीरदेव को प्रणाम करके अब कुंदकुंदाचार्यदेव द्वितीया गाथा का अवतरण करते हैं।