वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 103
From जैनकोष
जं किंचि मे दुच्चरित्तं सव्वं तिविहेण वोस्सरे।
सामाइयं तु तिविहं करेमि सव्वं णिरायारं।।103।।
दुश्चरित्र के प्रत्याख्यान का संकल्प- निश्चयप्रत्याख्यान के परमभाव को लिये हुए ज्ञानी संत अपने आपमें शिवसंकल्प कर रहे हैं कि जो कुछ भी मेरा दुश्चरित्र हुआ हो, उस दुश्चरित्र को मैं मन, वचन, काय से परित्याग करता हूं। ज्ञाताद्रष्टा रहना तो सत्चरित्र है, इसके विपरीत जितनी भी रागद्वेषमय वृत्ति है, वह सब आत्मा का दुश्चरित्र है। लोक में दुश्चरित्र मोटे पाप को कहते हैं। किसी की चोरी कर ली, किसी का धन हड़प लिया, किसी की मारपीट कर दी- इसे दुश्चरित्र कहते हैं; किंतु अध्यात्ममार्ग में, हितपंथ में रोड़ा अटकाने वाली जितनी भी रागद्वेषमय प्रवृत्तियां हैं, वे सब परमाध्यात्म की दृष्टि में दुश्चरित्र हैं, क्योंकि वे सब अपने आपमें दोष हैं। मेरा गुण वह है, जो मेरे ही सत्त्व के कारण, पर की उपाधि के बिना अपने आप हो। जो परोपाधि पाकर होता है, वह नियम से स्वभाव के विपरीत परिणमन होता है। कालद्रव्य सबके परिणमन में निमित्त है, किंतु उसमें उपाधिपना नहीं है। पर की उपाधि से कोई भलापन नहीं आता, बल्कि कुछ ऐेब ही आते हैं। भले ही उन ऐबों में से बड़े ऐब के मुकाबले छोटे ऐबों को गुण मान लिया जाये; पर वे सब ऐब हैं, दोष हैं, जिनमें रागद्वेष का किसी भी प्रकार लवलेश हो।
साकारवृत्ति का निराकारवृत्तिकरण- यह भेदविज्ञानी परमतपोधन संत चिंतन कर रहा है कि पूर्वकाल में संचित कर्मोदय के कारण, चारित्र-मोह का उदय होने पर जो कुछ भी दुश्चरित्र बना हो, उस सबका मैं मन, वचन, काय का शुद्धिपूर्वक परित्याग करता हूं और समतापरिणाम करता हूं तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय को मैं निराकार करता हूं, सामायिक को निराकार करता हूं। जब तक कोई विकल्प है, भेददृष्टिपूर्वक प्रभु का स्मरण है, तब तक वह सामायिक साकार है। जब विकल्परहित अभेदस्वरूप का अनुभव है, पूर्ण समता है, तब सामायिक निराकार है। साकार सामायिक उत्कृष्ट नहीं होती, उसमें आकार बसा हुआ है, कुछ ध्यान कर रहा है, किसी का ध्यान कर रहा है, भेद भी है, विकल्प भी है और इसी कारण चंचलता भी है, वे सब ध्यान बदलते रहते हैं। यह साकार ध्यान हैं। जहां आकार न रहे, विकल्प न रहे, यों कह लीजिए कि जैसे लोग खबर रखा करते हैं ऐसी खबर न रहे, केवल एक शुद्ध ज्ञानप्रकाश का ही अनुभव चले, उस स्थिति को कहते हैं निराकार कर देना। अपने को साकार करना बुरा है और निराकार करना अच्छा है, पर अज्ञान में जीव साकार रहने में खुश हैं। निराकार की तो उनकी दृष्टि ही नहीं है।
साकारभक्ति का निराकार भक्तिकरण- मैं इस भेदात्मक प्रभुभक्ति को अभेदरूप निराकार करता हूं। हमारी पूजा तब तक साकार है जब तक अपनी खबर हो, प्रतिमा की खबर हो, मंदिर में खड़े हैं तो इसकी भी खबर है कौनसा पद पढ़ रहे हैं यह भी खबर है, हम क्या चढ़ा रहे हैं यह भी खबर है, वह सब साकार-पूजा है। ऐसी पूजा करते हुए किसी क्षण ये सब ख्याल छूट जायें, यह भी ख्याल न रहे कि मैं कहां हूं? सामने क्या है? केवल एक शुद्ध ज्ञानपुन्ज, जिसकी प्राप्ति के लिये, जिसकी दृष्टि के लिये यह पूजन किया जा रहा है, वह ज्ञानज्योतिमात्र ही प्रकाश में रहे तो वह हो गई निराकार पूजा। साकार पूजा प्राक् पदवी में आवश्यक है। साकार पूजा में अधिक समय व्यतीत है, होना ही चाहिए, पर पूजा करने वाले की यह दृष्टि है कि मैं यह साकार पूजा कर रहा हूं और निराकार पूजा चाहता हूं- ऐसी जिसकी दृष्टि है, वह साकार पूजा करते हुए भी किसी क्षण उस निराकारस्वरूप की झलक पा सकता है। जिस क्षण निराकारस्वरूप की झलक पाई, वहीं निराकार पूजा में उतर गया। यहां निराकार पूजा का अर्थ यह नहीं है कि द्रव्य से पूजा छोड़कर की जाये या द्रव्य से की जाये, चाहे द्रव्य का आलंबन लेकर करें अथवा द्रव्य का आलंबन न लेकर करें। भेदपूर्वक गुणस्मरण करते हुए जिस काल उस अभेद आत्मतत्त्व का दर्शन हो, बस वहीं निराकार पूजा होती है।
साकार रत्नत्रय का निराकारीकरण- साकार पूजा, साकार भक्ति, साकाररत्नत्रय- ये सब अनुत्कृष्ट अवस्थाएँ हैं। जहां आकार का विलय हो जाता है, वह उत्कृष्ट हित की अवस्था है। 9 पदार्थों का श्रद्धान करना, 7 तत्त्वों की प्रतीति रखना, यह मैं आत्मा हूं, ये सब परद्रव्य हैं- इस प्रकार का भेदज्ञान रखना, महाव्रत पालते हुए मुझे समीतिपूर्वक चलना चाहिये- ऐसी वृत्ति करना इत्यादिरूप भेदरूप सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र का होना- यह सब साकार रत्नत्रय है। जब निज सहजस्वरूप का ही झुकाव हो, उसका ही परिज्ञान हो और ज्ञाताद्रष्टा रहकर उसका ही निर्विकल्पानुभव हो, वह है निराकार रत्नत्रय की विधि। मैं इस साकार रत्नत्रय को निराकार रत्नत्रय करता हूं। ऐसे इस प्रत्याख्यान के प्रसंग में ज्ञानी पुरुष अंतर में शिवसंकल्प कर रहा है।
सर्वज्ञानियों के प्रायोजनिक श्रद्धा की समानता- सभी ज्ञानी मनुष्य गृहस्थ हों अथवा प्रमत्तावस्था के साधुजन हों, क्षयोपशम प्राय: समान रह सकता है, ज्ञानधारा भी समान रह सकती है, श्रद्धान भी समान रहता है। अब अध्यात्म आचरण की बात है, उसमें इतना अंतर हो जाता है कि गृहस्थजन चूँकि अनेक कार्यों में व्यस्त हैं, परिग्रह उन्होंने रखा है। इस समागम में यह प्राकृतिक बात है कि श्रद्धान् किए हुए और सम्यक् पारिज्ञात किये हुए कारणपरमात्मस्वरूप में चित्त स्थिर नहीं रह सकता है और जिसने बाह्य तथा आभ्यंतर समस्त पारिग्रहों का त्याग किया है, उनमें यह स्वाभाविक बात हो जाती है कि बाह्य की ओर से विकल्प हट जाता है और वे इस सहज शुद्ध आत्मतत्त्व की स्थिरता के पात्र होते हैं तथा निराकार दर्शन का रूप रखने के वे पात्र होते हैं। उनके निराकार दर्शन का समय अधिक रह सकता है, इसलिये हितप्रगति में साधुव्रत आना अनिवार्य है, परंतु स्वाद का परिचय दोनों को हो गया।
स्थिरता का भेद होने पर भी स्वादसाभ्य- जैसे कोई अमीर पुरुष सेरभर मिठाई खरीदकर खाये और कोई गरीब पुरुष वही मिठाई 1 छटांक लेकर खाये तो स्वाद तो दानों को वही आया। अंतर इतना रहा कि अमीर ने छककर खाया और गरीब को केवल स्वाद मिला। यों ही सम्यग्दृष्टि गृहस्थजन भी उस तत्त्व का स्वाद तो जीतते हैं, जिस तत्त्व के स्वाद में साधुजन छके रहा करते हैं; पर ये गृहस्थ के झंझटों में, आजीविका के साधनों में, विकल्पों में बसे रहने के कारण उस स्वाद को जानते तो हैं, किंतु स्थिरता के लिये तरसते हैं। गृहस्थ का नाम उपासक है। जो मुनिधर्म की उपासना करे, भावना रखे, उसे उपासक कहते हैं, क्योंकि मुनिधर्म की उपासना करके उस निष्परिग्रही अवस्था में ही इस पवित्र झलक को स्थिर रखा जा सकता है और फिर वह श्रेणी पायी जा सकती है, जिसकी सुंदर धारा को पाकर यह जीव मुक्त हो सकता है।
सकलपापप्रत्याख्यान का संकल्प- यह प्रत्याख्याता पुरुष अपना संकल्प कर रहा है कि जो कुछ भी मुझसे दुश्चरित्र हुआ है, उसका मैं मन से त्याग करता हूं, वचन से त्याग करता हूं और काय से त्याग करता हूं। ऐसे दुश्चरित्र को न मन से करूँगा, न वचन से करूँगा और न काय से करूँगा। अब इन बाह्य वृत्तियों को न मन से कराऊँगा, न वचन से कराऊँगा और न काय से कराऊँगा। इन क्षोभमयी कषाययुक्त वृत्तियों को न मन से अनुमोदूंगा, न वचन से अनुमोदूंगा और न काय से अनुमोदूंगा। पाप किये जाने की विधियां 108 प्रकार की होती है। पापकार्य करना, पापकार्य करने के साधन जुटाना, पापकार्य का संकल्प करना- ये तीन पापमय वृत्तियां हैं। प्राय: ऐसा होता है कि जब कोई मनुष्य पापकार्य करता है तो प्रथम पापकार्य करने का संकल्प आता है, फिर उन कार्यों के साधन जुटाता है, फिर पापकार्य करता है। इन 3 पापों का नाम है संरंभ, समारंभ और आरंभ। ये तीन प्रकार के पाप क्रोध के वश किये जाते हैं, मान, माया और लोभ के वश किये जाते है। अत: ये पाप 12 प्रकार के हो गये। क्रोध से किया संरंभ, मान से किया संरंभ , माया से किया संरंभ और लोभ से किया संरंभ, इसी तरह 4 समारंभ और 4 आरंभ- ये 12 प्रकार के पाप मन से भी किये जा सकते हैं, वचन से भी किये जा सकते हैं और काय से भी किये जा सकते हैं, तब ये 12×3=36 हुए। ये 36 प्रकार के पाप किए हुए, कराए हुए और अनुमोदे हुए, तब कुल 36×3=108 प्रकार के पाप हुए। ये प्रत्याख्याता पुरुष 108 प्रकार के पापों के भविष्य में न किए जाने का संकल्प कर रहा है।
यथार्थ होने पर ही निराकारवृत्ति की पात्रता- सर्वथा निष्पापावस्था निराकारावस्था होती है। ये विचार, विकार, विकल्प आदि इस विभाव सहज चैतन्यप्रभु का घात करने वाले होते हैं। इस कारण उस दृष्टि में ये सब दुश्चरित्र हैं। कोई कम है, कोई अधिक है; कोई अधिक विडंबना में डालने वाला है कोई कम विडंबना में डालने वाला है। जहां शिवमार्ग पाने की पात्रता भी रह सकती है, ऐसे मंद भी अनेक प्रकार के दोष हैं, लेकिन ये दोष ही हैं- ऐसा इस ज्ञानी को विदित है। जिस ज्ञानी की दृष्टि में यह बात समाई हुई है कि मैं पूजता हूं और इस भगवान को पूजता हूं- ऐसे पूजक और पूज्य में दो जगह दूर-दूर खड़े हुए इतना भेद डाला गया हो तो वह विकल्प भी दोष है। इतना सूक्ष्ममर्म तक जिस ज्ञानी को विदित है, वह ज्ञानी ही विकल्प भाव त्यागकर निर्विकल्पस्वरूप में पहुंच सकता है।
गृहस्थजनों को शिक्षण- भैया ! श्रद्धा सब सम्यग्दृष्टियों की मोक्षमार्ग में एकसी होती है- चाहे गृहस्थ हो और चाहे साधु हो और इतना ही नहीं, बल्कि चाहे पशु-पक्षी भी हो। जो भी सम्यग्दृष्टि है, उन सबका निर्णय आत्महित के बारे में एक प्रकार का है। तिर्यंच उस मोक्षमार्ग पर नहीं चल पाते हैं, गृहस्थ मोक्षमार्ग पर कुछ-कुछ चल पाते हैं, साधुजन खूब चल लेते हैं, पर श्रद्धान् सबका एक समान है कि आत्महित इस अवस्था में है। उस उपाय का, उस अवस्था का श्रद्धान् सब ज्ञानी जीवों के बराबर बना हुआ है। यहां साधुजनों को उपदेश है इस ग्रंथ में। ये साधु ही यहां संकल्प कर रहे हैं, पर साधुवों की बात को जानकर गृहस्थजन भी तो कुछ शिक्षा लिया करते हैं। यह साधु परमयोगी, भेदविज्ञानी, आध्यात्मिक तपस्वी चिंतन कर रहा है कि मैं इन सब वृत्तियों को निराकार करता हूं। जो भेदरूप 9 पदार्थों का श्रद्धान् है, अनेक प्रकार से स्वरूप का परिज्ञान है और जो कुछ भी साधुजन आचरण करते हैं, व्रत पालते हैं, नियम करते हैं, उन सबको मैं निराकार करता हूं, एक अपने ब्रह्म में लीन होना चाहता हूं- ऐसी भावना वह साधु कर रहा है।
उपास्य के ज्ञान से उपासक की दृढ़ता- भैया ! हम क्यों इस विषय को जानें, क्यों साधुवों की भीतरी कला को परखें? उसका प्रयोजन यह है कि जब तक इस महान् पवित्र कार्य के किए जाने का संकल्प न हो तब तक गृहस्थावस्था में गृहस्थ के योग्य किए जाने वाले धर्मकार्य भी उत्तम रीति से नहीं हो सकते है। भगवान के स्वरूप का यथार्थपरिचय न हो तो हम बाहरी क्रियावों से भक्ति-पूजन, गीत, नाचगाना, और और भी समारोह सब कुछ करें, पर मोक्षमार्ग तो नहीं मिल सकता। बस इतना लाभ है कि घर की विषय-कषाय यहां दबी हुई हैं। कभी-कभी तो मंदिर में रहकर भी क्षोभ उखड़ सकता है, यह तो भीतरी मन की बात है। खैर, दबी सही, इस समय विषय-कषाय भूले हुए हैं और एक धर्म के नाम पर शुभोपयोग में लगे हुए हैं और ऐसा किया भी जाना चाहिए; किंतु उस ज्ञानी को यह सब विदित है कि मुझे वास्तव में करना क्या चाहिए?
व्यवहारसाधना की आवश्यकता- कोई पुरुष ऐसा सोचे कि मंदिर दर्शन करने जाते है तो वहां बीसों आदमी होते हैं, मन ही वहां पर नहीं लगता, प्रभु के स्वरूप पर वहां चित्त ही नहीं जमता तो मंदिर जाने से क्या लाभ है? ऐसा सोचकर बैठ जायें तो बतावो ऐसे मंदिर आना छोड़ देने से क्या लाभ पाया? अरे, इन प्रसंगों में लगे रहने से नहीं भी मन लग रहा है, पर रोज-रोज दर्शन, भक्ति करने के सिलसिले में कोई दिन ऐसा भी आ सकता है कि हमें सत्य निराकारस्वरूप का दर्शन भी हो जाए और शिक्षा की बात भी मिलती रहे। इस कारण ये बाह्यचारित्र, बाह्यश्रद्धान्, बाह्यज्ञान भी आवश्यक है, पर इतनी बात और समा जाए कि इन सब बातों के करने का ध्येय तो यह निराकार दर्शन है, परमविश्राम है, इससे सभी आचरणों में बल आ जाता है।
धर्मसाधक की सामान्य में आस्था- प्रत्याख्यान के प्रसंग में ज्ञानी उन समस्त शुभ-अशुभ विभावों का परित्याग करके स्वभाव की उपासना का संकल्प ठान रहा है। यह स्वभाव त्रिकाल निरावरण सामान्यस्वरूप है। विशेष का आलंबन छोड़कर यह साधक सामान्य की ओर आ रहा है। लोक में असर विशेष का है सामान्य का नहीं है, किंतु धर्ममार्ग में आदर-सामान्य के अवलंबन का है, विशेष का नहीं। यह लोकव्यवहार विभावक्रियावों से भरा हुआ है और यहां परमार्थतत्त्व की चूंकि खबर नहीं है, इसलिए वे व्यवहारीजन विशेष-विशेष स्थितियों में बड़प्पन माना करते है। कोई विशेष धनी हो अथवा विशेष नेता हो अथवा विशेष काम करने में कुशल हो अथवा विशेष धनवान हो उसका आदर होता है, लोग उसे महत्त्व देते हैं कि यह गांव का प्रमुख है, धनी है, प्रतिष्ठा वाला है, जो यह करता है सो होता है आदिक विशेष-विशेष स्थितियों का सम्मान किया जाता है; लेकिन अध्यात्मक्षेत्र में ये सब विशेष स्थितियां मोक्षमार्ग में साक्षात् साधक नहीं हैं। यहां तो जो भी जितना परपदार्थों का मूल करके केवल एक निज ज्ञानस्वरूप में रमेगा, उतना ही उसका कल्याण है और बड़प्पन है। फलत: धर्मसाधना करने वाले की स्थिति विशेष से हटकर सामान्य की ओर रहती है।
निर्गुणवर्तना- यह प्रत्याख्यानकर्ता अपने में शिवसंकल्प कर रहा है कि मैं इस व्यवहारसामायिक को, साकारसामायिक को निराकार करता हूं और भेदरूप चारित्र को अभेदरूप करता हूं। 5 महाव्रतों का पालन करना, 5 समीतियों का धारण करना, गुप्तियों का सेवन करना, प्रभुभक्ति करना, प्रतिक्रमण करना, शास्त्र सुनाना- ये समस्त धर्म के काम हैं, चारित्र के काम हैं, भेदरूप हैं। इस भेदरूप चारित्र को मैं अभेद चारित्र करता हूं अर्थात् वह भिन्न-भिन्न प्रकार से धर्म करने की बात न रखकर केवल एक अभेद ज्ञानस्वभाव आत्मतत्त्व को धारण करता हूं। इस प्रकार यह सबको निराकार बना रहा है। अन्य लोग भी सगुणब्रह्म और निर्गुणब्रह्म इनका भेद रखकर सगुणब्रह्म से श्रेष्ठता निर्गुणब्रह्म की कहते है। सगुण का अर्थ है कि जहां भेददृष्टि हो और निर्गुण उसे कहते हैं कि जिसके भेदभाव टल जाएँ और अभेद शुद्ध अर्थ परिणमन रहें।
गुण का रहस्य- गुण-गुण सब कोई कहते हैं, पर यह गुण शब्द कैसे बना है और इसका असली अर्थ क्या है? अब इसे परखिये। जिन बातों से भेद डाला जाए, अंतर बताया जाए, विशेषता बतायी जाए, उसे गुण कहते हैं। विशेषता भेद से ही तो बतायी जाएगी। भेद से ही विशेषता होती है, भेद से ही गुण निरखे जाते हैं। यह मैं आत्मा स्वयं अपने आप कैसा हूं? इसका निर्णय करने बैठे तो जैसा है, वैसा बताया भी नहीं जा सकता। जैसे कोई मिश्री खाये तो उसका स्वाद कोई बताया जा सकता है क्या? सही मायने में यथार्थ कोई नहीं कह सकता है? उसे कोई कहना चाहेगा तो भेद करके कहेगा कि शक्कर से अधिक मीठी है अथवा कोई भेदव्यवस्था बतावेगा। देखो, शक्कर में भी कुछ मल है, उस मल को भी दूर करके जो मिश्री बनती है, वह समझ लो कि कितनी मीठी होगी? अत: मुकाबला बताकर भेद डालकर ही वर्णन किया जा सकता है। यथार्थ जैसा है, उसका वर्णन करना कठिन है। आत्मा स्वयं कैसा है? सर्वविकल्पों को दूर करके परमविश्राम में रहकर अपने आपमें इस आत्मतत्त्व का अनुभव तो किया जा सकता है, पर बताया नहीं जा सकता है। उसको बताने की पद्धति गुणभेद है। देखो, जो जाने, सो आत्मा। तो क्या आत्मा केवल जानता है, इतनी ही बात है क्या? इसमें क्या श्रद्धा नहीं है? सब है और इसके अलावा यह आत्मा सूक्ष्म है, अमूर्त है, असंख्यातप्रदेशी है, कितनी ही बातें बतायी जायेंगी, लेकिन उन सब भेदों में जो एक प्रमुख बात है, गुण है, जिस गुण की वृत्ति के द्वारा सर्वगुणों की व्यवस्था बनायी जाती है, उस ज्ञानगुण का नाम लेकर आत्मा की पहिचान करायी जाती है।
सामान्य के आश्रय में शांति- प्रत्येक पदार्थ अपने में अद्वैतस्वरूप है, अभेदरूप है। उन अद्वैतपदार्थों का प्रतिपादन द्वैतीकरण के बिना नहीं हो सकता, भेद करके ही बताया जाएगा। तो जब हम भेद करने की ओर आते हैं तो क्षोभ, रागद्वेष, कल्पना, विकल्प हुआ करते हैं और हम जितना अभेद की ओरआते हैं, उतना ही रागद्वेष, कल्पना, विकल्प, विचार सब शांत हो जाते हैं। तो शांति का संबंध सामान्य के अवलंबन के साथ है, विशेष के अवलंबन के साथ नहीं है। हां इतनी बात और है कि उन विशेष-विशेषों में मुकाबलेतन किसी विशेष की अपेक्षा कोई विशेष शांति का कारण बनता है, पर वहां भी विशेष के आलंबन से शांति नहीं हुई, किंतु अधिक विशेषरूप विषयकषाय के आलंबन को त्यागने के कारण शांति हुई है। यों जितना हम सामान्य की ओर आयेंगे, उतना ही हम धर्ममार्ग में बढेंगे। पूजा करें तो वह विशेष है, जिस प्रकार की पूजा करते हैं, वह विशेष क्रिया है। उस विशेष क्रिया में भी शांति तो नहीं दिख रही हैं। इतना जरूर लाभ है कि विषयकषायों के अंदर पापमयी कार्यों से यह बहुत लाभदायक है और उन विशेष अशांतियों के मुकाबले यह शांति का स्थान है, पर उस पूजा करते हुए में जब कभी अर्ंतदृष्टि जगे, भगवान् के केवलस्वरूप पर ही दृष्टि रहे कि भगवन् ! तुम इतने ऊँचे थे, तुम्हारे अमुक पिता थे, अमुक माता थी, तुम अमुक कुल में हुए हो, अमुक नंबर के तीर्थंकर हो, इसकी ओर दृष्टि न रहे, केवल वह आत्मा जैसा निर्दोष गुणपुंज है, मात्र वैसी ही दृष्टि हो और उससे भी भीतर एक स्वभावदृष्टि में पहुंचे तो वहां एक सामान्य स्थिति बनती है। विशेष बिल्कुल भूल गये, अब वहां विकल्प न रहे, इस अभेद में, सामान्य में, निराकार स्थिति में आत्मा का धर्ममार्ग बढ़ा।
अभेदानुपचार वर्तना- यह प्रत्याख्याता साधु संकल्प कर रहा है कि मैं इस भेदोपचारचारित्र को अभेदाचाररूप करता हूंऔरअभेदोपचारचारित्र कोअभेदानुपचाररूप करता हूं। भेदविकल्प को छोड़कर इस अभेद भाव को भी निश्चयनय के अवलंबन की पद्धति से जब निरखा जा रहा है, तब यह अभेदोपचार है। उस तत्त्व को निश्चयदृष्टि से भी छोड़कर नयातीत, पक्षातिक्रांत जैसा यह अद्वैतस्वरूप है, उस रूप ही वर्तने को अभेदानुपचार कहते है। क्या करना है धर्म? ऐसा अंदाज कर लीजिए। लोग तो हाथ-पैर हिलायें-डुलायें, वचनों से थोड़ा कुछ गा दें, इससे हमारा घर खुश रहेगा, हमारी जिंदगी सुखी रहेगी इतने से ही संतुष्ट हो जाते हैं। पर करना क्या है, जिससे धर्म मिले? जिस धर्म के प्रसाद से संसार के संकटों के कारणभूत कर्म दूर होते हैं और विशुद्धानंद जगता है। वह धर्म इन विकल्पों के परे है, इस भेदभाव से दूर है, एक अभेद सहजज्ञानस्वभाव में अभेदरूप से डूब जाने में है, सहजस्वभाव में मग्न होने में है। इस प्रकार अभेदानुपचार सामायिक को यह स्वीकार करता हुआ सहज उत्कृष्ट तत्त्व में अविचलरूप से स्थित होता है। पहिले तो इस जीव ने साधुव्रत में जो विकल्परूप चारित्र ग्रहण किया था, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धिरूप, जिसका कि विकल्पों से संबंध है, जिसके उद्यम से साधना करनी होती है, इस चारित्र को निराकार कर देने का संकल्प किया है, आगे इस भेदरूप रत्नत्रय को अभेद रत्नत्रयरूप किया, भेदचारित्र को अभेदरूप किया; यों सर्वविकल्पों से परे होकर अपने एकत्वस्वरूप में रमे तो इसमें परमहितरूप चित्स्वभाव का अभेदानुभव होता है।
परमवंद्य तत्त्व- योगीजन क्या किया करते हैं? वह कौनसी उनकी मूल औषधि है, जिसके प्रसाद से सारा लोक उनकी ओर वंदन को झुकता है? केवल बाह्यकार्य देखकर जो वंदन करते हैं, उन्होंने वह सारतत्त्व नहीं निरख पाया, इसलिये जैसे के ही तैसे रह गये। इन बाह्यक्रियाकांडों के कारण भेद रख लिया, बड़ी सावधानी से समितिरूप प्रवृत्ति की, पांचों पापों का त्याग किया, मौन रखा, कुछ भी कार्य किया, इन बाह्यवृत्तियों से वह वंदनीयता नहीं है, किंतु वे बाह्य से हटकर सामान्य की ओर रहने का अंतरंग में यत्न किया करते हैं, यही उनकी एक पूजनीय कला है, जिसके प्रताप से वे लोक में वंदनीय होते हैं। ऐसे वे निराकार दर्शन में होने से निराकार चारित्रवान् रह जाते हैं।
द्रव्यस्वभाव और आचरण की सव्यपेक्षता- भैया ! चारित्र का अनुसरण और द्रव्य का अनुसरण- इनका भी परस्पर संबंध है। जैसा यह मैं स्वरूप से आत्मद्रव्य हूं, उसके अनुकूल यदि चारित्र होता तो वह चारित्र है और चारित्र के अनुकूल द्रव्य में वह तत्त्व व्यक्त होता है। शुद्ध तत्त्व की दृष्टि है। इन दोनों का परस्पर में अपूर्व सहयोग बना रहता है। इस कारण हे मुमुक्षजनों ! उस द्रव्य का आश्रय लेकर अथवा चारित्र का आश्रय लेकर इस मोक्षमार्ग का अधिरोहण करो। चारित्र भी पालो, तत्त्वदर्शन भी करो और चारित्र को अभेदरूप करके तत्त्वरमण के पुरुषार्थी रहो तो किसी समय ये सारे विकल्प दूर होकर निर्वाण हो सकेगा। अनुकूलता, प्रतिकूलता, ये सारे विकल्प छोड़ने हैं, तब धर्म होता है, केवल गान-तान से धर्म की प्राप्ति नहीं है। विशेष से हटकर सामान्य की ओर लगे, वहां धर्म का दर्शन है।
धर्मप्रकाश- अहा, इन साधुसंतों की बुद्धि इस विशुद्ध चैतन्यतत्त्व में लगती है, जो अपने इस परमार्थ संयम में सावधान रहते हैं, जिनमें धर्मविकास हो रहा है- ऐसे यतीजन हमारे वंदनीय हैं, इनकी उपासना से अपने आत्मा का ज्ञानबल प्रकट होता है, जिस ज्ञानबल के प्रसाद से यह आत्मा शांत हो जाता है। विषयसुख में आदर-बुद्धि न हो, इस चेतन-अचेतन, धन-वैभव, परिग्रह में आस्था न हो, अपने आपको जो कुछ भला-बुरा हो सकता है, वह अपने आपमें अकेले में ही परखें। ऐसा इस लोक में अपने को अकेला निरखें तो इस एकत्व की दृष्टि से अपने में धर्म का विकास होगा।