वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 108
From जैनकोष
आलोयणमालुन्छण वियडीकरणं च भावसुद्धी य।
चउविहमिह परिकहियं आलोयणलक्खणं समये ।।108।।
आलोचना के लक्षणरूप भेद- आलोचना का स्वरूप कहने के प्रसंग में इस गाथा में आलोचना के भेद कहे गये हैं। आलोचना का पूर्णरूप जानने के लिये आलोचनाविषयक चार लक्षणों को जानना चाहिये। वे चार लक्षण हैं- आलोचन, आलुंछन, अविकृतिकरण और भावशुद्धि। ये भेद शुद्ध निश्चय परम आलोचना के कहे गये हैं। इनका लक्षण आगे की गाथावों में कहा ही जाएगा, पर संक्षेपरूप से यों समझ लो कि अपने समस्त दोषों को सूक्ष्मरीति से देख लेना आलोचन है। गुरुवों के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना, यही है व्यवहारआलोचना। अपने दोषों का आलुंछन कर देना, उघाड़ देना, इसका नाम है आलुंछन। अपने को विकाररहित कर देना, इसका नाम है अविकृतिकरण और अपने भावों को शुद्ध कर देना, इसका नाम है भावशुद्धि।
दिव्यध्वनि की परंपरा से सत्यार्थ का आगमन- ये चार भेद सारभूत आत्मा के हितकारी प्रकरण को करने वाले हैं। इनका वर्णन आगमपरंपरा से आया है। आगम का अर्थ है आगमन। जो भगवान अरहंत की दिव्यध्वनि की परंपरा से चला आया हो, उसे आगम कहते हैं। आज जितने भी शास्त्र हम आप श्रद्धापूर्वक देखते हैं, उन सब शास्त्रों में जो अर्थ भरा हुआ है, वह अर्थ मूल में भगवान् की दिव्यध्वनि से चला आया है। भगवान् अरहंतदेव जिनके चार घातियाकर्म नष्ट हो गए हैं, जो सर्वज्ञ वीतराग हो चुके हैं, उनके मुख-कमल से जो कुछ दिव्यध्वनि निकलती है, उस ध्वनि की परंपरा से यह समस्त आगम चला आया है।
दिव्यध्वनि की सर्वप्रियता- प्रभु की दिव्यध्वनि समस्त श्रोताजन-समूह को बहुत प्रिय होती है। यहां भी जब दिव्यध्वनि खिरती थी, उस समय श्रोताजन उस दिव्यध्वनि को सुनकर समस्त चिंतावों को दूर कर लेते थे। समवशरण की ऐसी महिमा गायी है कि वहाँ पहुंचने वाले जीवों पर कोई संकट नहीं रहता है। जहाँ ऐसा निर्मल पवित्र सर्वज्ञ परमात्मा विराज रहा हो, उसके निकट कोई पहुंचे और उसके कोई संकट रह जाए, यह नहीं हो सकता है। भगवान् अरहंतदेव जहाँ विराजे हुए हैं, उनके सौ-सौ योजन चारों तरफ सुभिक्ष हो जाता है, कोई रोग नहीं रहता है, सर्वप्रकार की संपन्नता प्रजा में हो जाती है। फिर समवशरण के निकट जो पहुंचे, समवशरण में जो पहुंचे, उसे कोई चिंता कैसे रह सकती है?
भ्रम से चिंता की बनावट- भैया ! चिंता तो अब भी जीव को कुछ नहीं है, किंतु भ्रम में कल्पना करके चिंता बना ली है। परपदार्थों से इस आत्मा का क्या सौदा है? पर की परिणति से आत्मा परिणमता नहीं। आत्मा जहां जाए, वहां यह परपदार्थ पहुंच जाए- ऐसा कुछ नियम नहीं है। आत्मा चेतन है और ये सब समागत पदार्थ अचेतन हैं। क्या वास्ता है इन परपदार्थों से इस आत्मा का? लेकिन भ्रम ऐसा विकट बन रहा है अज्ञान से इस जीव का कि यह पर से अपनी भलाई समझता है। मैं बहुत धनी होऊँ तो सुख मिलेगा, उससे ही मेरा भला होगा- ऐसा लोग सोचते हैं। अरे, परपदार्थों के विचार-विकल्प से बुरा ही हो जाएगा, समागम की बात तो दूर रही। स्वयं में कुछ भी चिंता की बात नहीं है, लेकिन भ्रम में इस जीव ने चिंतावों का पहाड़ बना लिया है। मेरे पास इतना वैभव हो, तब मैं कुछ कहला सकूँगा। अरे, इतना वैभव न हो, आधा हो तो? और मनुष्य ही तुम न होते, कोई कीट-पतंगे होते तो वैभव के नाम का भी कुछ तेरे पास होता क्या? प्रकट आसार हैं सर्वसमागम, लेकिन अज्ञानी प्राणी उनकी चिंता में कितने आकुलित हुए जा रहे हैं?
संकटहारी समवशरण- भगवान् के समवशरण में जहाँ धर्म का ही व्याख्यान है, प्रचार है, सैकड़ों, हजारों विशुद्ध मुनि जनों के दर्शन हो रहे हैं, परमौदारिक शरीर की कांति से झलझलाता हुआ समवशरण है, बीच में साक्षात् सकल परमात्मा के दर्शन हो रहे हों- ऐसा सुंदर अवसर पाकर कोई मनुष्य दु:खी रह जाए, यह कैसे हो सकता है? जिस मनुष्य में मिथ्यात्व भरा है, दु:खी ही रहने का जिसने अपना विरद ठान लिया है, उस पुरूष को समवशरण में पहुंचने का भाव भी नहीं हो सकता है। अरहंतदेव की दिव्यध्वनि एक अनुपम विशिष्ट आनंद को झराने वाली हैं।
विषय-सुख का कटु विपाक- भैया ! विषय-सुख में कहां आनंद भरा है? अपनी शक्ति बरबाद कर रहे हैं ये विषयसुख के लोभी जीव। अपना ज्ञानबल खो रहे हैं बहिर्मुग्ध प्राणी। इन विषय-सुखों में कहां मौज है? जो विषय-सुखों में मौज मानते हैं, उनकी अवश्य दुर्गति होती है, क्योंकि विषय-सुखों में आसक्त होकर यह मोही लग जाता है और उसमें फल में इसी जन्म में अनेक कष्ट आते हैं। जब ज्ञानबल घट जाता है तो उसे लोग पग-पग पर दबा सकते हैं। इसी जन्म में धन की हानि, बल की हानि आदि अनेक नुकसान होते हैं। कर्मबंधन तो खोटा होता ही है, इसके फल में परलोक में नरकगति मिलेगी, खोटी तिर्यंचगति मिलेगी और कुयोनियों में भटकना होगा। अपना यह निर्णय रखे कि ये विषय-सुख भोगते समय बड़े ही मनोरम लगे, लेकिन ये अपने को बरबाद करने वाले हैं, इनमें आनंद कहां रखा है? जैसे मीठे विषफल खाने में तो बड़े मधुर लगते हैं, स्वादिष्ट लगते हैं, पर उनके खाने का परिणाम मरण है। ऐसे ही पंचेंद्रिय के विषयों के सुख इन मोही जीवों को बड़े मधुर लग रहे हैं, पर ये विषय-सुख मीठे विषफल हैं। इनका फल क्या होगा? इसी भव में दुर्गति होगी और परभव में दुर्गति होगी।
आनंद का धाम- आनंद तो एक आत्मस्वरूप के यर्थाथ प्रकाश में है, क्योंकि यह आत्मा ही स्वयं आनंदस्वरूप है। आनंदस्वरूप आत्मा के दर्शन में आनंद ही झरता है। इस आनंदस्वरूप आत्मा की बात, इस आत्मा के हित की बात प्रभु की दिव्यध्वनि की परंपरा से चले आए हुए आगम से विदित होती है।
प्रभुकी निरीह अनक्षरात्मक दिव्यध्वनि- यह दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक है, फिर भी श्रोतावों के कानों में पहुंचकर अनक्षरात्मकता का रूप रखकर मानो सबको हित की शिक्षा देती है। भगवान् की यदि अक्षरात्मक वाणी हो, हम आप जैसे बोलते हैं- ऐसी भाषा उनकी हो तो इस तरह के क्रमपूर्वक बोलने में रागद्वेष की सिद्धि होगी। किसी ने कुछ पूछा, किसी ने कुछ सबका उत्तर दें, अपना व्याख्यान करने लगें- इस तरह की प्रक्रिया में कुछ न कुछ राग की बातें हो जायेंगी। भगवान् किसी के प्रश्न का उत्तर नहीं देते हैं। उनकी तो समय पर दिव्यध्वनि खिरती है। भले ही कोई विशिष्ट पुण्य आत्मा, चक्री आदि असमय में आ जाए तो असमय में भी दिव्यध्वनि खिर सकती है, किंतु वहां भी वे वीतराग हैं, वे अपनी ओर से विकल्प करके दिव्यध्वनि नहीं खिराते हैं, किंतु जैसे मेघ असमय में अपनी इच्छा से गरजते हैं- ऐसे ही वे भगवान् तो अपने आनंद में ही मग्न रहते हैं, पर दिव्यध्वनि स्वयं ही खिरती है। वह दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक है। देव, शास्त्र, गुरु की पूजा में आप लोग पढ़ते हैं कि ‘‘जिसकी धुन है ॐकार रूप, निरअक्षरमय महिमा अनूप।’’
दिव्यध्वनि में सर्वभाषात्मकता का अतिशय- इस ॐकार की निरंतर गर्जना में अनक्षरात्मकता ध्वनित होती है, जिसमें मानों सभी अक्षर पड़े हुए हैं। जैसे ॐकार शब्द को लिखकर इसके कई टुकड़े बनाकर विधिवत् उन्हें रखने से समस्त अक्षरों को आप देख सकते हैं। जितने स्वरव्यन्जन हैं, उन्हें ॐ के अवयवों को विधिपूर्वक लगाकर आप दिखा सकते हैं। जैसे आजकल कुछ ऐसे छपे हुए चौकोर खिलौने आते है कि जिनको किसी विधि से लगावो तो ऊँट बन जाए और किसी अन्य विधि से लगावो तो घर बन जाए। ऐसे ही ॐ शब्द का जो आकार है, उसके छोटे अंश कर लो, न ज्यादा छोटे और न ज्यादा बड़े, फिर उन अवयवों से तुम समस्त अक्षर बना सकते हो। ऐसे ही भगवान् की दिव्यध्वनि में जो भी शब्द निकलते हैं, वे अनक्षरात्मक होते हैं, फिर भी मानों उनमें समस्त अक्षर भरे होते हैं। समवशरण में एक अतिशय यह भी होता है कि वहां किसी भी भाषा के लोग पहुंचे, हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, पन्जाबी, कन्नड़, तैलगू, अरबी, फारसी इत्यादि किसी भी भाषा वाले वहां पहुंचे तो दिव्यध्वनिरूप उपदेश सबको अपनी अपनी भाषा में अपनी-अपनी योग्यता से समझ में आ जाएगा।
अनंत दिव्यध्वनियों में स्वरूपप्रणयन की समानता- प्रभु की दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक होती है। उस दिव्यध्वनि के जानने में कुशल चार ज्ञान के धारी गणधर होते हैं। वर्तमानकाल में जो आगम प्राप्त है, वह भगवान् महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि की परंपरा से प्राप्त हुआ है। जितने भी तीर्थंकर हुए हैं, सबकी दिव्यध्वनि में एक ही वर्णन है। एक तीर्थंकर का तीर्थ चलने के कुछ समय बाद फिर धर्म की कुछ हानि होने लगती, उस समय फिर कोई तीर्थंकर उत्पन्न होता है और जब वे सयोगकेवली बनते हैं तो उनकी दिव्यध्वनि खिरती है। उस दिव्यध्वनि में वही वस्तुस्वरूप का यर्थाथ प्रतिपादन है, जो अनंत तीर्थंकरों ने अपनी दिव्यध्वनि में बताया है।
गणेश का समर्थ ज्ञान- भगवान् महावीर की दिव्यध्वनि का परिज्ञान करने में कुशल गौतम महर्षि थे। गौतम को गणधर कहो अथवा गणेश कहो, एक ही बात है। जो समूह का धारी हो सो गणधर है, जो गण का ईश को गणेश। वे गणधर अनेक साधुसंग के आचार्य होते हैं, गणधर होते हैं। गणधर का पद तीर्थंकर के बाद का दूसरा नंबर समझिये। सर्वज्ञ, सर्वज्ञान के प्रभु, सर्वविद्यावों के ईश्वर तो अरहंत भगवान् हैं। अब अरहंत भगवान् से पहिले कौनसा पद ऐसा है, जो ज्ञान में बड़ा कुशल हो? वह है गणेश। अरहंत भगवान् का नाम महादेव भी है। जो महान् देव हो, वह महादेव है और गणधर का नाम गणेश है, यों महादेव के निकट गणेश ही आते हैं। महादेव अर्थात् सकलपरमात्मा अरहंतदेव पूर्णसर्वज्ञ हैं, भगवान् हैं, भगवंत हैं और उनकी दिव्यध्वनि को झेलने में समर्थ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान के धारी गणेश हैं, गणधर हैं।
सिद्धांतशास्त्रोक्त आलोचना के प्रकार- श्री गणेश के, गणधर के मुख-कमल से यह समस्त द्वादशांग प्रतिपादित हुआ था, उसी समस्त सारभूत विषय को जिसमें लिपिबद्ध किया गया है, ऐसा यह सिद्धांतशास्त्र जिसमें वस्तुस्वरूप का और क्षेत्रकाल का यथार्थ प्रतिपादन किया गया है, उन समस्त शास्त्रों का जो प्रयोजन है, अर्थ है, सार है, उन सार का प्रतिपादन करने वाला जो यह वचनरूप आगम है, उस आगम आलोचना की चार पद्धति कही गयी हैं- आलोचना, आलुंछन, अविकृतिकरण और भावशुद्धि।
आलोचनाप्रकारों के क्रम में आलोचन व आलुंछन- दोषों का निर्देशन करना, दोषों का उखाड़ देना, अपने को विकाररहित करना और शुद्धभावरूप परिणति होना- ये चार बातें दोष-शुद्धि के प्रसंग में क्रम से आती हैं। इसी कारण आलोचना के इन चार लक्षणों का यहां क्रम रखा गया है। यह कल्याणार्थी भव्यपुरूष प्रथम तो अपने दोषों का निवेदन करता है, अपने से करे, गुरु से करे, जो जैसी पात्रता का है और जिस वातावरण में आया हुआ है, आलोचना करता है। ये दोष मैं नहीं हूं, मैं दोषों से रहित ज्ञानानंदस्वरूप परमात्मतत्त्व हूं। ऐसा अपना संस्कार और ज्ञान करके उन दोषों को उखाड़ फेंक दे, अपने उपयोग में न रखे- यह हुआ आलुंछन।
आलुंछन का विवरण- आलुंछन का अपर नाम आलुंछन भी है। जैसे साधुजन अपने केशलोच कर देते हैं, उखाड़ फैंक देते हैं, इसी प्रकार इस आत्मक्षेत्र में जो आत्मदोष आ गए हैं, उनका लोच कर देते हैं। ये बाल भी खून के मल हैं। शरीर में जो धातुवें हैं, उन धातुवों के प्रतिनिधिरूप दो धातुएँ हड्डी और खून हैं। इनमें से हड्डी का मल निकलता है तो वह नाखून के रूप में निकलता है और रुधिर का मल रोम, केश के रूप में फूटता है। जैसे ये साधुजन रुधिर के मलरूप निकले हुए केशों को उखाड़ फैंक देते हैं। इसी प्रकार इस परमसाधु आत्मा की शक्ति के मलरूप विभावरूप जो रागद्वेष आदिक भाव हैं, उनको उखाड़ कर फैंक देते हैं। यों यह जीव आलुंछन करता है।
अविकृतिकरण व भावशुद्धि- जब आलुंछन हो गया तो फिर जैसा साफ है, तैसा अविकारीभाव रह गया। अब विकार नहीं रहा है, यह हुआ अविकृतिकरण। फिर जैसा शुद्धभाव है, स्वभाव है, सहजभाव है स्वरूपास्तित्त्वमात्र तद्रूप वर्तने लगे, यह हुई भावशुद्धि। इस तरह इस ज्ञानी साधु ने आलोचना के प्रसंग में अपने को निर्दोष बनाया।
आत्मनिष्ठ संतों का प्रणमन- हे भव्य पुरुषों ! ये आलोचना के भाव मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रधान हेतुभूत हैं। ऐसा जानकर इन आलोचनालक्षणों को अपने में घटित करें, इनका प्रयोग करें। जो जन इन आलोचना के लक्षणों को अपने आत्मा में लगाते हैं, वे निज आत्मनिष्ठ होते हैं। जो अपने आत्मा में उपयोग की स्थिरता को लाते हैं, आत्मनिष्ठ हैं-ऐसे निज आनंदरसलीन साधु-संतों को हमारा भावनमस्कार हो।