वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 121
From जैनकोष
कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरत्त अप्पाणं।
तस्स हवे तणुसग्गं जो भवइ गिव्विअप्पेण ।।121।।
कायादिव्युत्सर्ग में निश्चयप्रायश्चित- शरीर आदिक परद्रव्यों में स्थिरता को छोड़कर जो भव्य पुरुष आत्मा को निर्विकल्परूप में ध्याता है, उसके कायोत्सर्ग कहा गया हैं, शुद्धनय प्रायश्चित्त के अधिकार में यहाँ निश्चय कायोत्सर्ग का वर्णन है, शरीर और अन्य समस्त परपदार्थों में ममता का न करना, बुद्धि का न लगाना इसका नाम कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग इस शब्द के कहने पर सभी परद्रव्यों की ममता का त्याग समझना चाहिए। उत्सर्ग के मायने हैं ममता का त्याग करना और कायोत्सर्ग का अर्थ है शरीर से ममता का त्याग करना।
कायोत्सर्ग में सर्व परद्रव्यों का उत्सर्ग- यहाँ यह शंका नहीं करनी है कि शरीर से तो ममता छोड़ दें और अनेक बाह्यपदार्थों में ममता करते रहें। प्रथम तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि पुरुष धन, मकान, इज्जत आदि धनादिक बाह्य अन्य द्रव्यों में तो ममता रहे किंतु शरीर में न रहे। जो किसी भी परतत्त्व में ममता करते हैं उनके इस शरीर की ममता अवश्य है। चाहे कुछ व्यवहार में यह बात न मालूम पड़े लेकिन शरीर की ममता हुए बिना बाह्य तत्त्वों में ममता हो ही नहीं सकती। फिर दूसरी बात यह है कि जितने भी परपदार्थ हैं, जो ममता के विषय बन सकते हैं उन सब परपदार्थों में अग्रगण्य कष्ट का कारण शरीर है। जब शरीर की ममता का त्याग करने को कहा जाय तो उसका अर्थ है कि सभी की ममता का परिहार करना चाहिए। कोई पुरुष अपने बच्चे से यह कह जाय कि देखो यह दही रखा है ना, इसे देखते रहना बिल्ली न खा जाय और वह मंदिर चला जाय। अब वह बच्चा केवल बिल्ली को ही देखे और चाहे दसों कौवे आकर दही खा जायें तो क्या वह कौवे को खा लेने देगा? अरे ! उसका अर्थ यह है कि बिल्ली और बिल्ली जैसे जितने भी दधिभक्षक प्राणी हैं वे न खा जाय। इसी प्रकार जब यह कहा जाय कि शरीर से ममता न करना, तो क्या इसका यह अर्थ है कि धन, मकान आदि से ममता करते रहना? अरे ! इसका अर्थ है कि शरीर और शरीर जैसे समस्त बाह्य पदार्थों में ममता न करना।
प्रमुख के त्याग में गौण के त्याग का भी समावेश- जैसे दधिभक्षकों में सबसे खतरनाक बिल्ली है और वह घर में रहा करती है इसलिए बिल्ली का नाम लिया गया है, पर बिल्ली का नाम लेने से सभी दधिभक्षकों की बात समझ लेनी चाहिये, इसी प्रकार ममता के विषयभूत पदार्थों में सबसे प्रधान शरीर है और यह एकक्षेत्रावगाही है, निकट रहने वाला है, इसका परित्याग कराया गया है तो इसका अर्थ यह है कि समस्त परपदार्थों की ममता का परिहार करें।
निश्चय और व्यवहार कायोत्सर्ग- शरीरादिक में ममता का परिहार करना, सो निश्चय कायोत्सर्ग है। व्यवहार कायोत्सर्ग खड़े हो जायें अथवा पद्मासन से ही विराजे हों ऐसी मुद्रा रखना कि इस शरीर की ओर ध्यान नहीं रख रहे हैं, अथवा मच्छर आदिक कोई जंतु काटे भी तो भी चिगना नहीं, काय से ममता नहीं है, ऐसी मुद्रा का जो परिणाम है, वह बनाये रहना, यह है व्यवहारकायोत्सर्ग।
कायोत्सर्ग के अर्थ का विवरण- काय नाम है इस दृश्यमान् पिंड का, जो आदि सहित है, कभी से उत्पन्न हुआ है, अंत सहित है, कभी इसका खात्मा हो जायेगा। मूर्तिक है, रूप, रस, गंध, स्पर्श का पिंड है, ऐसी जो विजातीय विभावव्यन्जन पर्याय है तन्मात्र जो जीव का आकार बन गया है अथवा इस जीव का जो एक पर्याय बन गया है इसे काय कहते हैं। जीव तो इस काय के स्वरूप से विपरीत है। यह शरीर आदि सहित है तो जीव आदि रहित है। इस जीव की उत्पत्ति कभी नहीं हुई, यह स्वत:सिद्ध वस्तु है। शरीर का अंत होगा, किंतु इस जीव का कभी अंत न होगा, यह अनंत है। यह शरीर मूर्तिक है, रूप, रस, गंध, स्पर्श का पिंड है, सड़ने वाला है, किंतु यह जीव अमूर्त है, इसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं हैं। न सड़ता है, न गलता है, न जलता है। यह आत्मा तो अपने स्वरूपमात्र है, ऐसा शुचि होने पर भी कर्मउपाधि के वश में जो पर्यायें प्रकट हुई हैं, नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव गतियों के देहों के आकार जो बन गए हैं वे सब काय हैं। काय का परिहार करना, काय में ममत्व न करना, सो कायोत्सर्ग है। ‘आदि’ शब्द से मकान, खेत, स्वर्ण कुटुंब सभी परद्रव्यों की बात जानना, इन सबसे ममता न होना, इसे कहते हैं कायोत्सर्ग।
यथार्थ परिणाम के बिना धर्मपालन का अभाव- भैया ! कायादिक सब स्थिर भाव को छोड़ दें, इतना भर जानते रहें कि ये सब नष्ट होने वाले हैं तो भी ममता कम हो जायेगी। धन नहीं छोड़ा जाता है न सही, किंतु जो सच बात है यह अनित्य है, भिन्न है, जो यथार्थ बात है उतनी बात मानने में भी कष्ट है क्या? मकान नहीं छोड़ा जाता न सही, पर यह मकान ईंटभींटों का है, इसमें मेरा कुछ स्वरूप नहीं लगा है, यह भिन्न चीज है, मिट जायेगी, इससे बिछुड़ना होगा, यह बात सत्य है या असत्य? यदि सत्य है तो इतनी बात मानने में क्या कठिनाई हो रही है? मोही जीव अनित्य को नित्य मान रहे हैं। भले ही वे वचनों से कभी-कभी कह दें कि सब असार हैं, कुछ रहने का नहीं हैं, पर अंतर में स्पष्ट बोध नहीं होता है। जैसे कोई मर जाय तो मरघट में सभी कहते हैं कि सबको एक दिन मरना है, पर मुख से कहा जाता है, अपने बारे में स्पष्ट बोध यह नहीं हो पाता कि मैं भी किसी दिन मर जाऊँगा, ऐसा भीतर में अनुभूत नहीं होता है। वचनों से बोला जाता है, किंतु जिसे लगन बोलते हैं वह इस तरह की लगन नहीं है। इन शरीरादिक परद्रव्यों को इतना तो मानना ही मानना कि ये सब मिट जाने वाले हैं, मेरे साथ सदा न रहेंगे, इतनी बात मान लो तो आपने धर्म पालन का प्रारंभ किया।
धर्म का सहजसिद्ध स्थान- धर्म का पालन किसी मंदिर में, क्षेत्र में, किसी भी जगह नहीं है कि वहाँ बैठे हों और धर्म मिल जाय या वहाँ हाथ पैर का परिश्रम करें तो मिल जाय। धर्म तो आत्मा के स्वभाव का नाम है, वस्तुवों के यथार्थ परिज्ञान का नाम है। मंदिर में भी रहकर, तीर्थयात्रा में भी जाकर यह श्रद्धा बनायी जा रही है कि यह मेरा घर है। अरे ! एक महीना घर छोड़े हो गया, लल्ला क्या करता होगा? अब तो जल्दी चलें, कितनी ही भीतर में ऐसी प्रतीतियां बनी हुई हैं। जहाँ अनित्य में नित्य की श्रद्धा है, भिन्न में आत्मीयता की श्रद्धा है यह वासना बनी है तो धर्मपालन कहाँ से हो जायेगा? यह सब दिल का बहलावा है। यदि परमार्थ पद्धति से ज्ञान नहीं है सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं है, वस्तुस्वरूप पर दृष्टि नहीं है तो समझ लीजिए कि यह सब दिल का बहलावा है। पूजा कर आए, दर्शन कर आए, मन रम गया। सो थोड़ीसी मंदकषाय तो अवश्य है, परंतु साथ ही साथ दिल बहलाने का प्रयोजन लगा हुआ है, धर्मपालन नहीं हो रहा है, धर्मपालन तो रत्नत्रय की साधना बिना नहीं हो सकता है।
अनित्य में अनित्यत्व की श्रद्धा का प्रताप- भैया ! कम से कम इतना तो मान ही लेना चाहिए कि मेरे इस ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा का एक इस आत्मस्वरूप को छोड़कर अन्य सब कुछ नहीं है, जो कुछ मिले हैं ये परपदार्थ नियम से छूटेंगे, साथ सदा न रहेंगे, इतनी बात भीतर में विश्वास सहित मान लो तो इस जैन धर्म का पाना, श्रावक कुल का पाना भी सफल है, और जैसे जन्मे, बड़े हुए, ममता करते आये, वैसी ही ममता बनी रही, सम्यक्त्व का कुछ प्रकाश न हो सका तो बतावो धर्मपालन कहाँ हुआ? मनुष्यजीवन की सार्थकता कहाँ रही? यों तो अनंत भवों से कीड़े, मकौड़े, पशु, पक्षियों से निकलते आये हैं, जन्मे और मरे, उसही पद्धति में यह मनुष्य भव भी निकल जायेगा, जन्मे और मरे। कोई तत्त्व की बात नहीं मिल सकती। यह समागम कुछ दिनों का है, मिट जायेगा और साथ ही ममता करने का जो पाप है वह ले जायेगा। इन बाह्य पदार्थों में यह श्रद्धा बनावो कि ये मिट जायेंगे। इस शरीर में बस रहे हैं फिर भी यह श्रद्धा रखें कि यह भिन्न है, सदा रहने वाला नहीं है और मैं आत्मा सदा रहने वाला हूं, जिसमें किसी भी परतत्त्व का प्रवेश नहीं है। यह ज्ञानानंदमात्र है, ऐसे निज कारणपरमात्मतत्त्व को ध्यावो।
सहज अध्यात्मयोग एवं निश्चयप्रायश्चित- इस आत्मा के ध्यान करने का कारण है सहज अध्यात्मयोग, जिस योग में विकल्पों का कोलाहल नहीं है, निर्विकल्प है, व्यवहार क्रियाकांडों का कुछ आडंबर नहीं है, केवल एक ज्ञान द्वारा ज्ञानस्वरूप का ग्रहण हो रहा है। इस प्रकार के सहज अध्यात्मयोग के बल से इस आत्मतत्त्व का जो ध्यान करता है वही सहज तपश्चरण का अधिपति है, उसके ही निश्चयकायोत्सर्ग होता है। यह उपयोग जब केवल शुद्ध कारणसमयसार में अपने चैतन्यस्वरूप में लगता है वहाँ ही वास्तव में कायोत्सर्ग होता है। किसी परद्रव्य का विकल्प न उत्पन्न हो, वह तो सहज वैराग्य से भरपूर है, ऐसा योगी पुरुष का जो यह कायोत्सर्ग है उसको ही निश्चय प्रायश्चित्त कहते हैं।
योगीश्वरों के सतत कायोत्सर्ग की वृत्ति- जो योगीश्वर अपने आत्मा में लीन रहते हैं उनके तो निरंतर कायोत्सर्ग बना हुआ है, ऐसे संतपुरुष लेटे हों अथवा बैठे हों अथवा ईर्यासमिति से चल रहे हों तब भी अध्यात्मयोग के समय उनके कायोत्सर्ग बना रहता है। इन संयमी पुरुषों को कायसंबंधी क्रियावों का भी लेप नहीं है, ये योगीश्वर जनसमूह में रुचि नहीं रखते हैं। भले ही रहना पड रहा हो, फिर भी उनसे विविक्त ही रहते हैं और यथावसर प्राय: निर्जन एकांत में ही निवास करते हैं, उनको वाणी बोलने की आस्था नहीं है अर्थात् वे वचन बोलने की क्रियावों को आत्महित नहीं मानते हैं। जो मन से किसी भी प्रकार के विकल्पों को करने में उत्सुकता नहीं करते हैं; जो मन, वचन, काय इन तीन गुप्तियों का पालन करते हैं उनके ही परमार्थ आत्मध्यान होता है और उन योगीश्वरों के निरंतर कायोत्सर्ग प्रवर्तित रहता है।
धर्म और धर्मपालन- भैया ! धर्मपालन के लिए सर्वत्र एक ही काम करना है, निज सहज शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप की दृष्टि करना है और यह धारणा रखनी है कि मैं सबसे न्यारा केवल ज्ञानानंदस्वरूपमात्र हूं, यह सहज ज्ञानानंदस्वरूप चैतन्यतत्त्व सतत-प्रकाशमान् है, इसे ढूँढ़ने कहीं नहीं जाना है। यही अपने आपको भूलकर बाह्य की दृष्टि लगाये फिरता है। यह अपना परमशरण, शांति का निधान जिसके आश्रय से आनंद उत्पन्न होता है उसकी दृष्टि से यह योगी पुरुष भव-भव के संचित कर्मों को दूर करता है। जगत् में कहीं कोई शरण नहीं मिलेगा। सभी परपदार्थ हैं, अपने को अपना स्वरूप ही शरण है। जब इस देह से भी भिन्न अपने आपके यथार्थस्वरूप का भान होता है वहाँ संकट एक भी नहीं ठहर सकता है। कोई ममता करता है तो ममता ही संकट है, ऐसी स्थिति में अन्य की परिणति को संकट कहना बेकार है। मैं अपने ही स्वरूप से चिगकर ममता परिणाम में आया, वही एक संकट है। कम से कम इतना तो निर्णय रखो कि जो कुछ यह समागम है न यह कुछ मेरा है और इन समागमों के संबंध में जो ख्याल बना हो वह ख्याल भी मेरा कुछ नहीं है। मैं तो परमब्रह्मस्वरूप सदा ज्ञानानंदमय प्रवर्तने वाला आत्मा हूं।
नि:संकट सहजानंद अंतस्तत्त्व की उपासना का अनुरोध- ये संसार के सुख केवल कल्पनामात्र में रमणीक लगते हैं। यह संसार का सब कुछ मेरे ग्रहण करने के लायक नहीं है। जो संसार के सुखों का ग्रहण करेगा वह जन्ममरण के दु:ख पाता रहेगा। क्या वजह है कि जब सभी जीव एक समान हैं तो उन अनंत जीवों में से दो-चार जीवों को जो अपनी कुटिया में रहते हैं उन्हें मान रक्खा है कि ये मेरे हैं और उनके अलावा बाकी सब जीवों को गैर मान लिया। भले ही गृहस्थावस्था में हैं, उनका पोषण करना है, यह बात तो अलग है, किंतु अंतरंग में ऐसी श्रद्धा जमी हो कि यह मेरा है तो यह श्रद्धा निरंतर दु:ख ही करती रहेगी। कितनी ही सुख-सामग्री मिलती जाय, कितना ही धन वैभव हो जाय, पर विपरीत श्रद्धान है तो दु:खों से मुक्ति नहीं हो सकती। कुछ न कुछ कल्पनाएँ बनाकर सब जगह यह दु:ख मानता रहेगा। यह आत्मतत्त्व तो समस्त संकटों से स्वयं ही मुक्त है, यह तो अपने पर संकट लादता है, जो पुरुष नि:संकट राग, द्वेष, मोह से रहित केवल प्रकाशमात्र अपने आपका स्वरूप निरखते हैं वे पुरुष क्लेशमुक्त अब भी हैं।
ज्ञानप्रकाश का सामर्थ्य- भैया ! कल्याणार्थ में इन भवसुखों का भी अंतरंग से परित्याग करता हूं, ऐसा उत्साह तो हो। नहीं छोड़ सकते वह बात अलग है किंतु यथार्थ ज्ञान में ही इतनी सामर्थ्य है कि वह आकुलतावों को दूर कर देता है। जैसे सूर्य के प्रकाश में इतनी सामर्थ्य है कि कमल को प्रफुल्लित कर देता है। न भी सूर्य का प्रकाश आया हो, दोपहर तक सूर्य नहीं निकला है किंतु सूर्य निकलने के समय जब आसमान में लाली छा जाती है उस ही समय ये कमल प्रफुल्लित हो जाते हैं। न हो सके चारित्र, न हो सके त्याग, लेकिन सच्चा ज्ञान का प्रकाश यदि आत्मा में आया हो तो यह आत्मा उसी समय से त्याग चारित्र की ओर आने लगता है, संकटमुक्त होने लगता है। मैं उसे ही अपना परमशरण, परम सर्वस्व मानता हूं, ऐसा उसके दृढ़ निर्णय है, ऐसे भले निश्चय के साथ जो अपने आपमें विश्राम लेता है वह संसार के संकटों से छूट जाता है।
अंतस्तत्त्व के परिचय बिना क्लेशों का उपभोग- अहो ! मैं इस परमब्रह्म प्रभु परमात्मा को जो मेरे अंतर में विराजमान् है उसे मैंने नहीं जाना था, इसी कारण से बाह्य में उपयोग दौड़ने का संकट भोगा है। यह मोही जीव मानता तो यह है कि लोक का वैभव मिल गया, विशेष धन इकट्ठा हो गया, मैं प्रभु बन गया हूं, मैं समर्थ हो गया हूं, मैं सबसे उत्कृष्ट हूं लेकिन यह नहीं समझता कि यह वैभव दुष्कर्म की प्रभुता बढ़ाता है, आत्मा की प्रभुता नहीं बढ़ाता है। रागद्वेष, संकल्प, विकल्प की परेशानियों से यह जीव बरबाद हुआ है, हैरान हुआ है ऐसा इसने नहीं माना है और तृष्णावश बाह्य वैभव के संयोग में अपने आपको महान् समझता है, इसी से संसरण का संकट भोगता है।
विषफल के उपयोग के अपराध के परिहार के लिए निश्चयप्रायश्चित- ये समस्त फल जो पृथ्वीकाय, वनस्पति काय, कंचनकामिनि, कुटुंब, धन संपदा जो कुछ नजर आते हैं ये संसार विषवृक्ष के फल हैं। जैसे विषवृक्ष के फलों को कोई खाये तो ये विषवृक्ष फल भले ही उस काल में मीठे लगें, लेकिन वे प्राण हरने वाले होते हैं, इसी प्रकार यह जीवलोक का ठाठ वैभव भले ही मोहवश इस मोही जीव को रुचिकर मालूम हों, लेकिन ये बड़े क्लेश संताप के कारण होते हैं। इन सब विषवृक्षों के फलों को त्यागकर, पंचेंद्रिय के भोगों का परित्याग कर इस ही चिदानंदस्वरूप निज आत्मतत्त्व में रमकर विशुद्ध आत्मीय आनंद का अनुभव करूँगा, ऐसा यह ज्ञानी उन समस्त अपराधों को नष्ट करने के लिए निश्चयप्रायश्चित कर रहा है, निश्चय नियम कर रहा है, अपने आपको अपने आत्मा में नियमित करके सदा संकटों से छूटने का पुरुषार्थ कर रहा है।
नियमसार प्रवचन अष्टम भाग संपूर्ण