वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 127
From जैनकोष
जस्स सण्णिहिदो अप्पा संजमे नियमे तवे।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।127।।
योग की परमसामायिक व्रत- जिसका आत्मा संयम में, नियम में और तप में सन्निहित है उसके सामायिक स्थायी है, ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा है। जो पुरुष बाह्य मायाजालों के प्रपंचों से पराड्.मुख हैं, जिन्होंने समस्त इंद्रियों के व्यापार को जीत लिया है और जो इसी कारण भावीकाल में मुक्त होगा ऐसे योगी के संयम में अपना आत्मा जो सन्निदित होता है यही परमसामायिक है।
सामायिक व्रत का पात्र- आत्मा स्वतंत्र आनंदस्वभाव वाला है, यह अपने आनंदस्वभाव को न मानकर और अपने इस शुद्ध स्वरूप में न प्रवेश करके जो बाहर-बाहर डोलता है इससे इसे क्लेश है। बहुत बड़े साहस की बात है सदा के लिए संसार के संकट मिटा लेना, अपने को केवल शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप में रत कर लेना, यह बड़े ऊँचे पुरुषार्थ और भवितव्य की बात हैं। यह जन्म-मरण न करना पड़े, ये संयोग-वियोग, सुख-दु:ख, ये समस्त परिवर्तन खत्म हो जाएँ और निरंतर शुद्ध ज्ञानरूप वर्ता करें, अपने आनंदरस में लीन रहा करें ऐसी स्थिति पा लेने का मार्ग जो पा ले उससे अधिक अमीर और किसे कहा जाय? जो अंतस्तत्त्व की रुचि से आत्मस्वरूप में सन्निहित हो जाता है ऐसे समृद्धिशाली योगीश्वर के ही समता परिणाम ठहरता है।
अज्ञान में आनंद की दिशा का भी अभाव- भैया ! आनंद जब भी मिलेगा, समता में ही मिलेगा। पक्ष में, रागद्वेष में आनंद नहीं मिलता। कितना घोर यह अज्ञान है कि भीतर श्रद्धा में यह बात मान ले कोई कि ये दो तीन प्राणी मेरे हैं, बाकी सब गैर हैं, यह बहुत बड़ी विपदा की बात है। वे गृहस्थ धन्य हैं जो घर में रहते हुए भी अपने परमब्रह्मस्वरूप की ओर रुचि लगाये रहते हैं। यों कुत्ता, गधा आदि अनेक पशु पक्षी भी अपने उदर की पूर्ति कर लेते हैं और मौज से खेला करते हैं, लीला करते हैं। मनुष्यभव में भी इतनी ही बात यदि रही, खाया, खोया, मौज माना और रौद्रध्यान की लीला की, बाह्य परिग्रहों में आसक्ति रखकर अपना सब कुछ समर्पण इस अज्ञान जड़ विभूति को कर दिया, ऐसा यदि यहाँ व्यवहार चला आया तो वह तत्त्व तो न मिल सकेगा।
पशुवों में मानव की श्रेष्ठता का कारण धर्मपालन- पंचेंद्रिय के विषयों में ही रमण करके पशुवों से उत्कृष्टता मनुष्य की नहीं कही जा सकती है। मनुष्य में श्रेष्ठता है तो एक धर्म की है। एक धर्म को निकाल दो तो यह भी मनुष्य बिना पूँछ, सींग का पशु है। ये पूँछ सींग तो मनुष्य से ज्यादा हैं। पशुवों के पास पशुवों के ये दो हथियार हैं, मनुष्य तो निहत्था है, मनुष्य से पशु बड़े ही हैं, घट नहीं हैं। लेकिन एक धर्म की बात हो तो मनुष्य जैसा जीवन लोक में कहीं नहीं है। वह धर्म क्या है? यही अपने शुद्ध स्वरूप का परिचय पा लेना, जिस परिचय से यह आत्मा आनंद विभोर हो जाता है। और भी स्थल दृष्टि से देखो, जब कुछ साथ रहना ही नहीं है, कभी जीवन के अंत में तो वियोग होना है सबका, फिर अपनी इस जिंदगी में पर से माथा रगड़कर कितना समय पूरा किया जा सकता है, अंत में नियम से विछोह होगा ही।
परमसमाधि की योग्यता- भैया ! जो बात आगे होगी उसको अभी से क्यों नहीं मानते? यदि यह ध्यान में रहे कि जो कुछ हमें मिला है इसका वियोग नियम से होगा तो वर्तमान में भी शांति मिलेगी, तृष्णा न बढ़ेगी। जो कुछ भी समागम है, यह सब अध्रुव हैं, विनाशीक हैं, इतनी बात का जिसे पता रहे उसे ज्ञानी कहते हैं, इसमें अपूर्व आनंद भरा हुआ है। जो योगी सत्य ज्ञान के कारण बाह्य मायाजालों से पराड्.मुख हैं, किसी भी इंद्रजाल से अपनी आसक्ति नहीं लगाये हैं, उन्हीं पुरुषों के समता अर्थात् परमसमाधि प्रकट होती है। यह सारा लोक केवल इंद्रिय के व्यापार से ही निरत है। पशु, पक्षी मनुष्य जहाँ जावो तहाँ देखो, इंद्रिय के विषयों में रहा करते हैं, मन की उड़ान में ही अपना समय गँवा रहे हैं। ज्ञानस्वरूप के प्रसंग में उपयोग रमाये, ऐसा जिसको आप पा रहे हैं। जिन बिरले संतों के यह अनुभूति जगती है उसही को लोग पूज्य कहते हैं, आदर्श मानते हैं। लोक में जितने भी कुदेव हैं, वे सब देव के नाम से पूज्य हैं। जिस काल में इस भक्त को इन कुदेवों की कुदेवता ध्यान में आ जाय तो फिर वह क्या पूजेगा? जितने भी कुगुरुवों की मान्यता है वह सब गुरुवों के नाम पर है। यदि उनकी इस मान्यता की अयथार्थता का पता पड जाय तो उनका कोई न मानेगा।
सच्चाई की दृढ़ता में सफलता की अवश्यंभाविता- भैया ! यहाँ भी देखो, व्यापार सच्चाई के नाम पर चलता है। चाहे कितना ही झूठ व्यवहार भी करे, पर उसमें सच्चाई का नाम न रहे तो किसी का व्यापार नहीं चल सकता है। सच्चाई के नाम पर ही व्यापार चलता है। यदि पूर्णरूप से सच्चाई का व्यवहार रक्खे तो क्या व्यापार न चले? चलेगा, पर उस सच्चाई की ओर दृष्टि नहीं है ना, और यदि कोई हिम्मत करके एक बार भी सच्चाई का काम करे कि हमें सच्चाई नहीं छोड़ना है, चाहे हानि हो जाय तो उसका व्यापार अच्छा चलता है, पर लोग तो यह सोचते हैं कि यदि हम सच्चाई से काम करेंगे तो फिर मुनाफा क्या मिलेगा? मान लो लाख रूपया कमाने पर टैक्स में 80 हजार चले गए तो चले जाने दो- वह तो सच्चाई की चीज है, जो 10-20 हजार रह गए वे गुजारे के लिए काफी हैं, पर वे तो 80 हजार जा रहे हैं उनमें तृष्णा का भाव उत्पन्न होता है। उससे सच्चाई में ढिलाई होती है। यदि सच्चाई के साथ जो कुछ भी आय हो वही गुजारे के लिए काफी है, ऐसा संतोष हो तो कहीं क्लेश नहीं है।
सात्त्विक वृत्ति व परोपकार- सात्त्विक रहन-सहन गृहस्थों के लिए बड़े श्रृंगार की चीज है। अपने शरीर के मौज के लिए खर्चा बढ़ाना, अट्टसट्ट चीजें खाना, यह तो बीमारी पैदा करने के लिए है। अट्टसट्ट खाया, बीमारी पैदा हुई, लो और खर्चा बढ़ गया। सात्त्विक रहन-सहन में सब अपने संतोष की बात है। जो कुछ द्रव्य आता है वह सब पर के उपकार के लिए आ रहा है, मेरे गुजारे के लिए तो इतना नियत है, ऐसी वृत्ति रहे। ऐसी वृत्ति में यदि लाखों का धन भी आ जाय तो भी अपनी उस सही वृत्ति में अंतर न डाले, तो देखो उसे कितना संतोष रहता है? कितना ही समागम वृद्धिगत हो जाय और संतोष न मिल सके तो वह समागम किस काम का है? जैसे कोई कहते हैं ना, यदि कोई बड़ा धनी बहुत अधिक बीमार रहे, खटिया से भी न उठ सके, रोटी भी न खा सके, तो लोग कहते हैं कि यह धन किस काम का है, सुख से रोटी भी नहीं खा सकता, उसका धन किस काम का है, ऐसे ही यहाँ जानो कि जिसे संतोष नहीं मिल सका, धर्म की ओर उपयोग लगाने की जिसे फुरसत नहीं है उसका बढ़ा हुआ वह धन किस काम का है?
परमसंयम में परमसमाधि- तत्त्वज्ञान का उपयोग ही परमवैभव है। जिस योगी के यह तत्त्वज्ञान प्रकट हुआ है उसका आत्मा संयम में सन्निहित रहता है और इस संयम के प्रसाद से निरंतर आनंद मग्न रहता है। संयम बाह्य में तो यह है कि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह- इन पांचों प्रकार के पापों का त्याग रहे, और अंतरंग का संयम यह है कि मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति रहे, इंद्रियों का व्यापार रुक जाय। उपयोग उपयोग के स्रोतभूत ज्ञानस्वभाव में केंद्रित हो जाय, उसका नाम है अंतरंगसंयम। जिसका आत्मा इस संयम में सन्निहित है, उसके परमसमाधि प्रकट होती है। एक शुद्ध ज्ञान प्रकट होता है जिसमें सत्य आनंद अनुभवा जाता है। इस प्रकार आत्मा का नियम है जो आत्मा का नियतस्वभाव है उस नियतस्वभाव में ही आत्मा को बनाए रहना। कोई कहे कि आप नियम से चलो, तो उसका परमार्थ अर्थ यह है कि तुम अपने निरपेक्ष नियत ज्ञानस्वभाव में स्थिर रहने का यत्न करते हुए रहो, यह है परमार्थ नियम से चलना। जो इस परमब्रह्म चैतन्यस्वभाव आत्मा का निजस्वरूप है उसही में अपने उपयोग का आचरण करे, ऐसे नियम में जो ठहरता है उसके समता स्पष्ट प्रकट है।
परमनियम से परमसमाधि- निश्चयनियम की साधना के अर्थ बाह्य में परिमित समय के लिए आचरण का नियम किया जाता है। जैसे आज जब खा लिया तो 48 घंटे न खायेंगे, यह नियम हो गया। उस नियम का प्रयोजन यह है कि भोजन करने का भी विकल्प न करके और इस ही निर्विकल्प ज्ञान प्रकाश का बहुत लंबे काल तक ध्यान रक्खें, इसके लिए आहार का त्याग है। यदि इस लक्ष्य का परिचय नहीं है, लक्ष्य नहीं है तो तो उसका आहार परित्याग लंघन का रूप रख लेगा। जैसे रोगी पुरुष लंघन किया करता है। करे क्या, रोग से बेचैन है, भूख प्यास लगती नहीं है। खाये तो पीड़ा उत्पन्न होती है। अब उसका लंघन ही सहारा है। इस प्रकार जो यश का रोगी है, कीर्ति का दौरा-दौरा बनाना चाहता है ऐसा पुरुष दस दिन तक का उपवास ठान ले तो वह 10 दिन का उपवास भी लंघन करने की तरह है। अपने यश के लिए उसने आहार का परित्याग किया है। आहार-परित्याग का परमार्थ प्रयोजन यह है कि मैं खाने का विकल्प तक न करूँ और निरंतर इस निर्विकल्प शुद्ध ज्ञानस्वरूप का अनुभव करता रहूं- ऐसे ज्ञानी पुरुष को अपने अंत:स्वरूप में उत्साह जगा है, इसके फल में उपवास हो रहा है, ये बाह्य नियम इस अंतरंग नियम के पालने के लिए हैं। यों जिसका जो अंतरंग आचरण में, नियम में, परमब्रह्म चैतन्यस्वरूप आत्मा में ठहर जाने का नियम है उसके परमसमाधि प्रकट होती है।
परमआचरण में परमसमाधि- जो पुरुष सम्यग्दर्शन आचरण किये है नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सक, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना- इन 8 अंगों का परमार्थपद्धति से और व्यवहारपद्धति से जो पालन कर रहा है, ऐसे दर्शनाचारवान् पुरुष के परमसमता का भाव प्रकट होता है। जो ज्ञानाचार में कुशल हैं, समता शास्त्र पढ़ना, शुद्ध पढ़ना, अर्थ जानना, गुरुवों की विनय करना, अपने गुरु का नाम न छिपाना आदिक जो ज्ञानाचार हैं उनमें जिनकी वृत्ति है उनके यह समताभाव प्रकट होता है। जो 5 महाव्रत, 5 समिति, 3 गुप्ति का सुविधि पालन कर रहे हैं, जो संसार, शरीर, भोगों से विरक्त रहा करते हैं, ऐसे योगियों के यह परमसमाधि प्रकट होती है। जो 6 प्रकार के बाह्य तप और 6 प्रकार के अंतरंगतप इनमें जो सावधान हैं, ऐसे पुरुषों के परमसमता का भाव प्रकट होता है और इन्हीं सब कामों के करने की जो शक्ति लगाते हैं ऐसे पुरुषों के ही यह कल्याणरूप समता प्रकट होती है। यह समता ही निर्वाण का कारण है। सदा के लिए संकटों से छूट जाएँ इसका उपाय केवल स्वरूप की दृष्टि करना है। स्वाध्याय में, मंदिर में, पूजन में, तपस्या में सर्वत्र एक ही उपाय करना है संकटों से छूटने के लिये। वह उपाय है संकटरहित, निर्विकल्प, स्वतंत्र ज्ञानानंदस्वरूप अपने आत्मा को निरखना।
मोही की विपदा- मोही जीव बड़ी विपदा में हैं, मोह छोड़ा भी नहीं जाता और मोह करने से संतोष भी नहीं आ पाता। जैसे एक कहावत है कि ‘भई गति सांप छछूँदर जैसी’ जैसे सांप किसी छछूँदर को पकड़ ले तो छछूँदर उस सांप से निगली भी नहीं जाती और छोड़ी भी नहीं जाती। दोनों दशावों में सांप की बरबादी है। इसी तरह मोहभाव से ग्रस्त हुआ प्राणी ऐसी दयनीय दशा को प्राप्त है कि कितना भी दु:ख पा ले, कलह कितनी ही हो जाय, एक दूसरे को प्रतिकूल मानने लगें तिस पर भी मोह छोड़ा नहीं जाता है, ऐसी हालत है तो फिर आनंद कहाँ से प्राप्त हो? जो अपने आत्मस्वरूप के दर्शन में परमोत्साह जगाता है उससे वह समस्त दुराचारों का परिहार करता है। इन बाह्य पदार्थों में कुछ मेरा है, इस प्रकार का जो भाव नहीं रखता है, यों इस मोक्षमार्ग में जो कदम रखता है उसके परमसमता प्रकट होती है।
परसमाधि के लिये परमप्रसाद का सहयोग- यह मेरा परमात्मा जो सदा आनंद का अनुभव कराने के लिए तैयार विराजा हुआ है यह परम गुरुवों के प्रसाद बिना प्राप्त नहीं हो पाता। सर्वोत्कृष्ट विभूति जिसके प्राप्त हो उसके समान दाता जगत में कौन होगा? इस निर्विघ्न तत्त्वज्ञानी योगियों के प्रसाद से पाया हुआ यह निरन्जन निज कारणपरमात्मा जिनके उपयोग में सदा निकट है उन वीतराग सम्यग्दृष्टि पुरुषों के, जो वीतराग चरित्र का पालन कर रहे हैं, यह समताव्रत स्थायी रहा करता है। परमसमाधि के प्रकरण में उपाय भी बताये जा रहे हैं और इनका अधिकारी कौन है? यह भी बताया जा रहा है। जो शुद्ध दृष्टि वाले जीव हैं वे यह जानते हैं कि तप में, नियम में, संयम में, आचरण में सर्वत्र यह आत्मा ही उपादेय है।
निरपेक्ष शुद्ध तत्त्व की झांकी- भैया ! प्रत्येक कार्य के करते हुए में इस शुद्ध निरपेक्ष आत्मस्वरूप का ही लक्ष्य रहे कि यह मैं हूं। यदि यह ही गुत्थी सुलझ जाय तो संकट मिटेंगे। मैं वास्तव में क्या हूं, यह स्पष्ट हो जाय तो उसे फिर संसार में संकट नहीं हैं। जो शुद्ध आत्मतत्त्व का ही लक्ष्य रखता है, जो सदा अकंप भवभय के हरने वाले इस आत्मतत्त्व का ध्यान करता है उसके परमसमाधि प्रकट होती है। इस ही परमसमाधि के प्रसाद से यह आत्मा संसार के संकटों से सदा के लिये सर्वथा छूट जाता है, अत: हम सबका कर्तव्य है कि हम सदा यह विश्वास बनाएँ कि मैं सबसे न्यारा एक ज्ञानज्योतिमात्र हूं और सहज आनंदस्वरूप हूं।