वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 141
From जैनकोष
जो ण हवदि अण्णवसो तस्स हु कम्मं भणंति आवासं।
कम्मविणासणजोगो णिव्बुदिमग्गोत्ति पिज्जुत्तो।।141।।
वक्तव्य प्रतिपादन―इस नियमसार ग्रंथ में जिस बात का वर्णन करना था, उस समस्त वक्तव्य का वर्णन हो चुका है। जीव क्या है? जीव अजीव से न्यारा हो सकता है, क्योंकि इसमें शुद्धभाव का स्वभाव है। अब शुद्ध भाव के प्रकट करने के लिए प्रतिक्रमण, प्रायश्चित, प्रत्याख्यान और आलोचना―ये समस्त अंतरंग तप किए जाते हैं। उनके फल में परमसमाधि प्रकट होती है और अंत में यह योगी परमभक्ति को प्राप्त होता है, इसमें ही निर्वाण का सुख है। यों वक्तव्य तत्त्व प्रतिपादित हो चुका।
अभीष्टप्राप्ति का परम उपाय―अब उस समस्त तत्त्व के प्रतिपादन के बाद चूलिका के रूप में पुन: दो अधिकारों का विवेचन किया जायेगा। पहिले तो निश्चय पद्धति में निर्वाण की प्राप्ति का पुरुषार्थ बताया है। दूसरी बात, इस पुरुषार्थ के प्रताप से जीव की स्थिति कैसी हो जाती है? इन दो अधिकारों में से प्रथम अधिकार का नाम है निश्चय परम आवश्यक व दूसरा अधिकार है शुद्धोपयोग। यह निश्चय परमआवश्यक अधिकार है। व्यवहार में तो 6 आवश्यक कार्य योगीश्वरों के द्वारा किये जाते हैं―समता, वंदन, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग―ये 6 आवश्यक कार्य बताए गए हैं। इस अधिकार में निश्चय से परमआवश्यक काम क्या है? इन 6 कामों में आधारभूत वास्तविक काम क्या है और इन 6 के विकल्पों में भी उलझन मालूम होती है तो मेरा परमआवश्यक एक काम क्या है? उसका उत्तर इस अधिकार में दिया गया है।
आवश्यक शब्द का भाव―भैया !क्या पूछा जा रहा है कि आवश्यक काम क्या है? लोग कहते हैं कि अभी हमें फुरसत नहीं है, एक आवश्यक काम पड़ा है। उससे कहो कि भाई ठहरो। ...अजी, हमें बड़ा आवश्यक काम पड़ा है।....क्या? दुकान खोलना है अथवा कचहरी जाना है अथवा रसोई बनाना है, इनको लोग आवश्यक काम कहते हैं, लेकिन आवश्यक शब्द से क्या अर्थ निकलता है? वह एक पवित्र अर्थ है, किंतु मोही जीवों ने आवश्यक शब्द की मिट्टी पलीत कर दी है। आवश्यक शब्द में मूल में दो शब्द है, अ और वश। अवश और अवश के करने योग्य काम का नाम है आवश्यक और आवश्य में क प्रत्यय लगाकर आवश्यक बन गया है। जो पुरुष अन्य के वश में नहीं है उसे अवश कहते हैं अर्थात् जो दूसरे के अधीन नहीं है उस पुरुष का नाम है अवश।
स्ववशता का अधिकार―अवश का उल्टा है परवश। परवश मायने जो पर के अधीन है और जो पर के अधीन नहीं है उसे कहते हैं अवश।यहाँ दूसरे से मतलब है पंचेंद्रिय के विषय और इन विषयों के साधनभूत परिजन, संपदा आदिक से और इस मन का विषय है यश, प्रतिष्ठा की चाह और उसके साधनभूत ये मायाचारी असार पुरुष कुछ मेरे लिये बक दें, प्रशंसा की बातें, ये सब हैं पर-चीजें। जो इन पर-चीजों के वश नहीं है उसे अवश कहते हैं। ऐसे अवश पुरुष के करने का जो काम है उसे कहते हैं आवश्यक। लेकिन लोग अनावश्यक को आवश्यक कहने लगे। दुकान, मकान, कमाई, गप्प, पालन-पोषण, ये सब अनावश्यक काम है, आवश्यक नहीं। जो निरंतर अपने आत्मा के ही अधीन रहते हैं अर्थात् ज्ञानानंदस्वभावमात्र आत्मतत्त्व को निरखकर जो इसमें ही तुष्ट रहते हैं, ऐसे पुरुषों का जो कुछ भी अंतरंग में भावात्मक पुरुषार्थ होता है उन्हें कहते हैं आवश्यक। स्ववश पुरुष कौन हो सकता है? अपने आत्मा में ही संतुष्ट रहे, आत्मा को ही निरखता रहे, अपनी आत्मा के ही नियंत्रण में रहे, ऐसा स्ववश पुरुष कौन हो सकता है? जो उत्कृष्ट इस जिनमार्ग के अनुसार अपना आचरण बना सकते हैं वे पुरुष स्ववश बन सकते हैं।
जिनमार्ग की शुद्धता―यह जिनमार्ग बड़ा शुद्ध मार्ग है, जिनेंद्रदेव द्वारा प्रतिपादित यह मार्ग उनके द्वारा अनुभूत किया हुआ भी है। जैसे मार्ग में चलकर किनारे पहुंचकर कोई दूसरे को मार्ग बनाये, उसका बताना सच्चा है और कोई उस रास्ते से गया ही न हो और बताता फिरे, यह है मेरा मार्ग, तो उसका बताना झूठ है। जैसे किसी नदी के एक किनारे एक मुसाफिर खड़ा है, उसे कोई ऐसा अमीर रईस पुरुष जो कि नदी पार हो गया है वह बताए कि भाई हम इस रास्ते से चलकर इस किनारे पहुंचे हैं, तुम भी सीधे इसी मार्ग से चलकर इस किनारे आ सकते हो, ऐसी बात पर लोग विश्वास करते हैं और उस मार्ग से चलकर वे नदी पार हो जाते हैं, ऐसे ही जिनेंद्रदेव संसार से मुक्त होने के मार्ग से चले और उस मार्ग से चलकर वीतराग सर्वज्ञ हुए हैं तब वे निरीह दिव्यध्वनि के द्वारा प्रतिपादन कर रहे थे कि हे भव्यजीवों ! इस शुद्ध मार्ग से आवो तो तुम भी हमारी तरह परमात्मविलास को भोगोगे। उनका कहा हुआ मार्ग अनुभूत है, इस कारण यथार्थ है।जिनमार्ग में परमार्थ अहिंसा की प्रधानता―जिन-मार्ग में अहिंसा की ही सर्वत्र विशेषता है। परमार्थत: अहिंसा नाम दूसरे के प्राणों के न हरने का नहीं है। वह तो औपचारिक रूप है।अहिंसा नाम तो अपना जो ज्ञानदर्शन प्राण है उस प्राण का घात न करने का है। जब किसी दूसरे जीव के बारे में हम उसके विनाश का संकल्प करते हैं अथवा अपने काय की क्रियावों द्वारा उसका विनाश करते हैं तो वह जीव मारा गया, उसका विनाश हुआ, यह तो हिंसाभाव का बाह्य परिणाम है, किंतु उस पर हाथ पटकें इन बातों से यहाँ हिंसा नहीं लगी, यहाँ जो इरादा बनाया, विपरीत आशय बनाया, कुसंकल्प किया, अपने चैतन्यस्वरूप से विमुख हुए, इसकी हिंसा लगी है। इस हिंसा के करने वाले प्राणी बाहर में इसी प्रकार का उपद्रव कर देते हैं, यह औपचारिक रूप है, लेकिन कैसे जाने कि इस जीव ने हिंसा की है, उसकी चेष्टा दूसरे के दिल को दुखाने की हो तो उससे ही यह अंदाज हो जाता है कि इस जीव ने अपने आपके चैतन्य परमात्मतत्त्व के प्राण का घात किया है।
अहिंसा की मुद्रा―वह अहिंसा कैसे निष्पन्न हो, उसका मार्ग इस जिनशासन में कहा गया है। ओह ! इस मार्ग में चलने वाले जो योगीश्वर हैं उनकी बाह्य चेष्टा भी इतनी पवित्र है कि लोग अनुमान कर सकते हैं कि अहिंसा का तत्त्व इस मार्ग से चलकर प्राप्त होता है। जो अहिंसा तत्त्व के परमसाधक हैं उन योगियों की मुद्रा नग्न, दिगंबर केवल हाथ में पीछी और कमंडल होता है, उनके पास न लाठी है, न शस्त्र है, न त्रिशूल है। यदि वे सब चीजें हों तो लोग यह भय खा सकते हैं कि कभी महाराज को गुस्सा न आ जाय तो त्रिशूल भोंक दें अथवा लाठी मार दें। जब तक जीव के साथ कषाय है तब तक उसका विश्वास क्या? अभय का स्वरूप है वह। किसी पुरुष को भय नहीं रह सकता। कैसी है वह मुद्रा कि निर्विकार स्वरूप है।उस नग्न पुरुष के कभी विकार होगा तो तुरंत प्रकट हो जायेगा। लोग देख रहे हैं कि कैसी शांत मुद्रा और अविकार मुद्रा में हैं, जिन्हें किसी प्रकार का आरंभ नहीं करना है और इसीलिए न उनके पास झोंपड़ी है, न खेती है, न तक्की-गद्दा है, मात्र शरीर उनका परिग्रह है।
पीछी का प्रयोजन-पिछी आवश्यक है जीवदया के लिए। कोई जीव-जंतु शरीर पर आ जाय उसे हाथ से न हटाकर पीछी से हटाते हैं। हाथ कड़ा होता है, मक्खी, मच्छर को हाथ से हटावो तो उसे क्लेश होगा, ये मोर पक्षी जंगलों में अपने पंख छोड़ देते हैं जिनमें कोई वैज्ञानिक खोज करे तो कोई धातु का तत्त्व उससे निकल सकता है जिसमें ऐसी प्रकृति है कि कीड़े भी नहीं पड़ते, पसीना भी नहीं लगता, ऐसी कोमल पीछी से उन जीवों को हटाते हैं अथवा बैठें, सोयें तो स्थान को साफ करने में उपयोग करते हैं।
अनन्यवशता के अधिकारी―देखो भैया ! शांत, अविकार, दयास्वरूप जिनकी बाह्य मुद्रा है वे भीतर में क्या करते रहते होंगे? वहाँ अहिंसा का अनुमान होता है। खैर, द्रव्यलिंगी मुनि भी बाह्य में इतना आचरण कर लेते हैं इसलिए वह यथार्थ अनुमान नहीं है, लेकिन जिनको भीतर में अहिंसा तत्त्व का महान् आदर जगा है उनकी बाह्य मुद्रा ऐसी होती ही है। जो जीव जिन-मार्ग के आचरण में कुशल हैं वे ही पुरुष अनन्यवश हो सकते हैं अर्थात् अवश हो सकते हैं क्योंकि सदा ही वे अपने अंत:स्वरूप की ओरझुके रहते हैं। सदैव अंतर्मुखरूप होने के कारण वे पुरुष अनन्यवश हुआ करते हैं अर्थात् साक्षात् स्ववश हैं।
स्नेह की हितबाधकता―दूसरे जीवों में स्नेह करना नियम से दु:ख का कारण होता है। इसमें दूसरी बात की गुंजाइश नहीं है, व्यर्थ का स्नेह है। कोई स्नेह करे और जिस दूसरे से स्नेह किया जा रहा है वह अपनी कषायों के अधीन होकर अपने मन की वृत्ति करे, क्या पड़ी है परजीवों से अंतरंग से स्नेह किया जाय? क्यों अपने आत्मा को दूसरों के साथ खोया जा रहा है, क्यों अपनी गरदन क्रूर पुरुषों के सामने रक्खी जा रही है? जो विवेकी पुरुष हैं, निकट भव्य हैं वे अपनी आत्मा की संभाल रखते हैं, वे पर के वश नहीं होते हैं;जो ऐसे स्ववश पुरुष हैं उन पुरुषों के ही यह व्यवहार होता है, जिस व्यवहार में ज्ञानी और अज्ञानी सभी लोग धर्मबुद्धि को करते हैं, किंतु अंतरंग में जो निश्चय पुरुषार्थ है उसे अज्ञानी नहीं कर सकते, उसका अधिकारी ज्ञानी पुरुष ही है।
व्यवहारप्रपंचविमुखता―जो व्यवहार क्रियाओं के प्रपंचों से विमुख है उसके ही यह परमआवश्यक होता है। योगीजन प्रभु की वंदना भी कर रहे हैं, सिर झुका रहे हैं, हाथ जोड़ रहे हैं, ऐसा करते हुए भी वे जानते हैं कि यह भी मैं अज्ञानमय चेष्टा कर रहा हूँ,प्रभु की वंदना और उसके लिए अपने शरीर से इतना बड़ा प्रयत्न और इस चेष्टा को भी वे यों देख रहे हैं कि यह अज्ञानमय चेष्टा हो रही है। ज्ञानभावमय ज्ञानमयी चेष्टा तो केवल ज्ञानप्रकाश के अनुभव की होती है, यह शरीर की चेष्टा और ऐसे अनुराग के विकल्प यह सब अज्ञानमयी चेष्टा है।फिर करते क्यों हैं, यह प्रश्न हो सकता है। अज्ञानमयी चेष्टावों को दूर करने के लिए ही यह अज्ञानमयी चेष्टा किसी पद तक की जाती है।
दृष्टि का फल―भैया ! फल दृष्टि का मिलता है, क्रियाओं का फल नहीं मिलता है। कोई पुरुष अनमना होकर आपका काम करे तो आप यह कहेंगे कि इसने कुछ नहीं किया। मन लगाकर करता तो आप उसे करने का काम लेते। मन तो था नहीं, अनमना बनकर जबरदस्ती किया, उससे आप राजी नहीं होते हैं और यह कहते हैं कि कुछ किया ही नहीं है। ऐसे ही ये योगीपुरुष अनमने होकर शरीर की वेदनादिक चेष्टाएँ करते हैं, इस कारण वे करते हुए भी नहीं करने वाले हैं। जहाँ उनकी दृष्टि है, जहाँ उनका मन लगा हुआ है करने वाले तो उस तत्त्व के हैं।
अनमना व निजमना―अनमना किसे कहते हैं? आप लोग जानते होंगे, किसका नाम अनमना है? ये भाई अनमने हो गये, इसके मायने क्या है? व्यवहारी लोग तो यह अर्थ करते हैं कि ये खेदखिन्न हो गये हैं, परंतु अनमने का अर्थ खेदखिन्न नहीं होता, किंतु अन्यमना: मायने अन्य तत्त्व में मन लग गया है, जिसका अन्य तत्त्व में मन लग जाय उसे अनमना कहते हैं। जिस पुरुष का मन अपने आत्मस्वरूप को छोड़कर अन्य तत्त्व में, परभाव में लग जाय, वह पुरुष अनमना है, यहाँ स्वमना बिरला ही कोई संत पुरुष मिलेगा।सबके सब मनुष्य एक छोर से लेकर अंत तक देखते जावो प्राय: सब अनमने मिलेंगे। जो अनमना बनेगा वह दु:खी होगा यह प्राकृतिक बात है। सुखी होना है तो अनमना मत बनो, निजमना बनो। अनमना बनने से आकुलता ही होगी। जो निजमना बने उसके सर्वसंकट दूर हो जायेंगे। यह अवश पुरुष निजमना बन रहा है, इस कारण वह संकटों से छूटने का उपाय पा लेगा।
परमावश्यक का माहात्म्य―जो व्यवहारिक क्रियाओं के प्रपंचों से दूर हैं उन पुरुषों के ही ये परमावश्यक कर्म होते हैं। यह निश्चयदृष्टि से परमावश्यक कर्म की व्याख्या है। इस निश्चय परमावश्यक के बिना कोई पुरुष आकुलता से दूर नहीं हो सकता है। इसके उपयोग में अपने आत्मा की श्रद्धा है। यहाँ निश्चय धर्मध्यान चल रहा है। यह उपयोग अपने आपके आत्मा से जुड़कर, मिलकर ज्ञानात्मक पुरुषार्थ कर रहा है, इस ही परमावश्यक में यह सामर्थ्य है कि इन कर्मों को दूर कर दे।
कर्मसंकटविध्वंस का उद्यम―भैया ! प्रभु से भीख मांगते रहने से कर्म दूर न होंगे। हे प्रभु ! मेरे अष्टकर्म ध्वस्त कर दो। देखो मैं मैसूर की बनी धूप चढ़ा रहा हूँ,अब तो प्रसन्न होकर मेरे भव-भव के कर्म दूर कर दो। यह तो सब आपका व्यावहारिक आलंबन है। इस सहज शुद्ध निश्चयस्वरूप का आप आलंबन लें तो समस्त कर्म दूर हो जायेंगे। घर-बार, कुटुंब की संपदा की ममता तो छोड़ते नहीं बनती और कर्मों के विध्वंस करने का कोई ढोंग करे तो वहाँ कर्म विध्वंस न होंगे। अहंकार और ममकार को त्यागकर किसी भी क्षण अपने इस स्वाधीन सहजस्वरूप का आश्रय बने तो ये कर्म दूर हो सकेंगे।ऐसा इस ज्ञानीपुरुष के निश्चयपरमावश्यककर्म होता है, ऐसा उन परम जिनयोगीश्वरों ने कहा है और इस ही स्वात्ममग्नता का रूप परम तपश्चरण मेंनिरत रह सकता है, इस ही निश्चय परमआवश्यक तत्त्व का वर्णन इस अधिकार में किया जायेगा।
निश्चय परमावश्यक कार्य-करने योग्य आवश्यक कामों में निश्चय से केवल एक ही पुरुषार्थ है, वह है मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति द्वारा निष्पन्न होने वाला जो परमसमाधिरूप योग है वह। जहाँ मन चंचल है, यहां-वहाँ भटकता है वहाँ योग की संभावना नहीं है, प्रत्युत वह विकल्पबाहुल्य प्राणी है, उसमें सर्वत्र बंधन ही बंधन है। मन को वश करना मुमुक्षु का प्रधान कर्तव्य है। इस मन को किस ओरलगाया जा रहा है? इसका निर्णय रक्खो और लगाने का उत्साह जगावो। इस जगत के अनंत प्राणियों में से अचानक अटपट जो कोई प्राणी आपके घर में आ गये हैं, बस गये हैं, वे खुद कर्मों के प्रेरे हैं, विषयकषायों के अभिप्रायों से परिपूर्ण, इस अपावन, दुर्गंधित, जीर्ण शरीर में बँधे हुए एक असहाय भिन्न प्राणी हैं। उनमें स्नेह करने से क्या लाभ पावेंगे? अपना भला तब है जब अपने सहज स्वरूप का निर्णय करके अपनी ओरझुकाव करें। तब दूसरों से मोह करने से न अपने को लाभ है और न जिनमें मोह किया जा रहा है उनको लाभ है।
अंत:आश्रय में लाभ―धर्म धर्मविधि से करें तो लाभ देता है। हम रूढ़िवश अपनी चर्यावों का पालन तो करें और उसका मर्म न ग्रहण कर सकें, निर्मोहता, निरहंकारता अपने न बना सकें तो धर्म का लाभ तो नहीं मिला। वह तो एक स्वार्थमयी कल्पना है। कोई चार मूर्ख पंडित भेष बनाकर अपनी उदरपूर्ति के लिये निकले। हम बड़े पंडित हैं, ऐसा जाप करते हैं कि रोग सब दूर कर देंगे तो एक सेठ ने उन्हें रख लिया, हमारे धन बढे़, समृद्धि हो इसका आप जाप कर दीजिये।....अच्छी बात। जाप क्या करें,कि एक को थोड़ासा मालूम था, सो कहता है कि ॐ विसनुं विसनुं स्वाहा तो दूसरा कहता है कि तुम जपा सो हम जपा स्वाहा। तीसरा कहता है कि ऐसा कब तक चलेगा स्वाहा। चौथा कहता है कि जब तक चले जब तक सही स्वाहा। तो केवल शब्दों के रटने मात्र से आत्मा में प्रभाव नहीं पड़ता, किंतु यह ज्ञान अपनी ओरलक्ष्य बनाकर प्रगति करे तो प्रभाव होता है।
स्वयं पर स्वयं के परिणमन का प्रभाव―दुनिया में प्रभाव किसी दूसरे का दूसरे पर नहीं पड़ा करता है। खुद का ही प्रभाव खुद पर पड़ता है। किसी देहाती आदमी को न्यायाधीश के पास कचहरी में जाना पड़े तो उसके हाथ-पैर ढीले हो जाते हैं तो क्या जज का प्रभाव उस देहाती पर पड़ा? नहीं। उस देहाती का जो अज्ञान है, कल्पना है, कायरता है, नासमझी है उससे उसने अपने में स्वयं भय पैदा किया और खुद डर करके अपनी विडंबना बनायी। वह देहाती जज से नहीं डरता है, अपनी ही गल्ती से अपने आपमें डरता है। दूसरे का तो डर है ही नहीं। वह मुझ पर क्या प्रभाव बनायेगा? यह जीव खुद ही अपनी कल्पना बनाकर अपने आप पर प्रभाव जमाता है।यहाँ मंदिर में हम आप दर्शन करने आते हैं, हम आप पर न भगवान प्रभाव डालते हैं और न यह मूर्ति प्रभाव डालती है,हम आप स्वयं ही धर्म में लगने वाले हैं और ज्ञानमयी अपनी दृष्टि सजग बनाते हैं तो आपका खुद का अपना प्रभाव आप पर पड़ता है। यह प्रभाव जिस स्थान में जिसके समक्ष उत्पन्न हुआ, उसका आप आदरपूर्वक सम्मान करके बोलते हैं कि सब भगवान का प्रताप है। भगवान का तो प्रताप है, किंतु यह परक्षेत्र में स्थित भगवान का प्रताप नहीं है, किंतु हम आपमें अंत:विराजमान् भगवान का प्रताप है।
प्रभुपरिचय की आवश्यकता―अहो ! यह प्राणी अपनी समझ न होने पर दर-दर भीख मांगता और भटकता फिरता है। अरे किसी भी प्रकार निजप्रभु को पहिचानो। साधुजनों के लिये बताया है कि उनका आत्मा स्वयं अपने आत्मतत्त्व के दर्शन में निरत रहा करता है। उन्हें मूर्तिमुद्रा के आलंबन की आवश्यकता नहीं रहती है, मिल जाय सुगम तो वे उसका उल्लंघन नहीं करते, किंतु गृहस्थजनों को मूर्ति का आश्रय करना कर्तव्य बताया है, यह भेद किस बात का है? यह अपने आपमें विराजमान् भगवान की प्रसन्नता जिसको अधिकरूप से हुई है वह तो है साधु और जिसके भगवान की प्रसन्नता अधिकरूप में नहीं हुई है, वह है श्रावक और इस ही भेद पर एक को आश्रय बताया है और एक को निराश्रय बताया है।
वचनगुप्ति बिना भी समाधियोग का अभाव―जिसका मन चंचल है उसके तो यह परमसमाधि का योग हो ही नहीं सकता। वचनयोग भी जिसका चंचल रहता है, अधिक बोलना, बिना विचारे बोलना, बिना संभाले बोलना, अपने आपको सबसे महान् समझकर बोलना,यह सब वचनों का दुरुपयोग है। जिसे समता का आनंद चाहिए उसको वचनों का निरोध करना होगा। इस वचनगुप्ति के प्रसाद से अपने आपमें एक बल प्रकट होता है जो खोटी बातें, बेकार के गल्पवाद, चर्चाएँ कर रहे हैं उन्हें उसके फल में ज्ञान प्रकट नहीं होता है। अरे ! वह आत्मा निर्बल होता हुआ योग से दूर तो रहता ही है, पर चतुर्गतिरूप संसार का भटकना भी बना रहता है। हमारा कर्तव्य है कि हम वचनों को संभाल कर बोलें। जब वचन क्रोध की स्थिति में बोले जाते हैं तो मुँह तन जाता है और उस समय मुँह का आकार ऐसा बन जाता है कि जैसे मानो तना हुआ धनुष हो। जैसे धनुष की डंडी टेढ़ी होती है और उस पर डोर बँधी रहती है, सो तनने पर यह डोर भी टेढ़ी हो जाती है, ऐसे ही ये ऊपर नीचे के ओंठ भी धनुष जैसे टेढ़े हो जाते हैं और उनमें से जो वचन निकलते हैं वे भी इतने कठोर और तेज निकलते हैं कि मानो धनुष से बाण निकलते हों। ये वचन-बाण जिसके लग जाते हैं उसके घाव की दवा किसी के हाथ नहीं है।
वचनगुप्ति के यत्न की आवश्यकता―यही जीभ अच्छे वचनों के उपयोग में भी आ सकती है जिससे लाभ है। सब प्रकार से शांति मिले, मित्रता बढे़, धन की प्राप्ति हो, वातावरण सुख का रहे, मधुर वचन बोलने में सर्वत्र आनंद ही आनंद है। कठोर निंदा भरे, अहंकार भरे वचन बोलने से एक भी लाभ नहीं होता, सो सोच लीजिये। खुद की बरबादी, वातावरण को विषैला बनाना, जनता की निगाह में नीचा बन जाना और कष्ट आए तो किसी का अनुग्रह भी न मिलना, अनेक वहाँ क्लेश हैं। उत्तम तो यह है कि हित,मित,वचन बोलें;खोटे वचनों का परिहार करें और उससे भी उत्तम यह है कि सर्व प्रकार के वचनों का निरोध करें और निज सहजस्वरूप में ही अपना उपयोग बनाएँ तो ऐसी वचनगुप्ति से परमसमाधिभाव प्रकट होता है। वही परमयोग है और वही परमावश्यक काम है।
आत्मोत्थान में कायगुप्ति का सहयोग―शरीरों का भी यथातथा प्रवर्ताना और पापमयी कार्यों में लगाने योग्य आचरण करना, ये सब संसार में ही रुलाने के कारण हैं। पापों से किसी का भी लाभ नहीं होता। जो मनुष्य पाप करके कदाचित् धन भी कमा लें तो वह धन की कमायी पाप करने से नहीं हुई, किंतु पूर्वकाल में पुण्य विशेष किया था जिसके कारण इससे भी अधिक लाभ होना था, किंतु पाप करके उस लाभ को हीन कर दिया गया है।थोड़ा ही लाभ हो पाया है, यह है उसकी स्थिति, किंतु पापी, मोही प्राणियों में यह सुबुद्धि कहां जग सकती है? पापमय आचरण से आत्मा का कुछ उद्धार नहीं होता है, न पापवृत्ति से इस भव में कोर्इ आनंद प्राप्त होगा और न परभव में ही कोई आनंद प्राप्त हो सकेगा। यह परमसमतारूप जो परमयोग है, कायगुप्ति से उत्पन्न होने वाला जो यह आत्मसहयोग हे उसमें सामर्थ्य है कि समस्त कर्मों का विनाश कर दे। यही परमयोग, परमपुरुषार्थ निश्चयपरमावश्यक साक्षात् मोक्ष का कारण है, इसी कारण यह निवृत्ति का मार्ग कहा जाता है। निवृत्ति मायने निर्वाण अर्थात् समस्त विकल्पजालों का बुझ जाना। जहाँ सर्वप्रकार के विकल्पों से हटकर निर्विकल्प अवस्था रह जाय, ऐसी दशा की प्राप्ति का उपाय यह निश्चय परमावश्यक है।
आत्मा की धर्मस्वरूपता―अहो !यह आत्मा तो स्वयं ही धर्मस्वरूप विराजा है। इसमें जो अधर्म आ गया है उसको हटा दीजिए। यह तो धर्मरूप स्वयं ही पहिले से है। जैसे जितने मनुष्य उत्पन्न होते हैं वे एक ढंग से उत्पन्न होते हैं, एक समान हाथ-पैर होते हैं, वहाँ किसी प्रकार का भेद नहीं है कि यह इसाई है, यह मुसलिम है, यह सिक्ख है, यह बौद्ध है, यह जैन है। उत्पत्ति तो सबकी एक सी होती है, एक-सा ही सबके शरीर का ढांचा है। कुछ बड़ा होने पर कोई दाढ़ीबढ़ा ले, यह अलग बात है, कोई सिर के बाल रखाकर, कोई मूँछों की कुछ चाल बनाकर एक संप्रदाय का रूप दे दे तो ये तो सब बनावटी बातें हैं, किंतु स्वयं अपने आप तो सब एक ही तरह से पैदा होते हैं, एक प्रकार का शरीर है, भेद नहीं है। ऐसे ही आत्मा का जो धर्म है, स्वभाव है उसमें भेद नहीं है, वह तो सब जीवों में एक समान है। बस इस धर्म में जो अधर्म घुस गये हैं, मैं अमुक जाति का हूँ,अमुक कुल का हूँ,अमुक मजहब का हूँ आदिक अनेक प्रकार की जो कल्पनाएँ लग गयी हैं इन अधर्मों को निकाल देने पर तो स्वयं धर्मस्वरूप है। फिर जो इस आत्मा में सहजप्रकाश मिले, अनुभव में आये, उसकी दृष्टि बनाएँ, वही शुद्धोपयोग है।
अशुद्धता के परिहार में शुद्धस्वरूप की उपलब्धि―इस शुद्धोपयोग को पाकर ज्ञानी-संत पुरुष इस ज्ञानतत्त्व में अपने को मग्न कर लेते हैं जो नित्य आनंद के प्रसाद से भरा हुआ है। धर्ममय तो स्वयं आत्मा है। धर्म से जीव को आनंद ही मिलता है। धर्म से विडंबना नहीं होती है, किंतु धर्म में जो अधर्म पड़ा हुआ है, ज्ञानानंदस्वरूप आत्मतत्त्व में जो विषयकषायों का विकल्प समाया हुआ है, उससे आकुलता होती है। मूल में, स्वरूप में तो यह आत्मधर्म ज्यों का त्यों ही है। स्वर्ण को शुद्ध कोई नहीं बनाता। अरे ! स्वर्ण तो स्वयं अपने स्वरूप में शुद्ध ही है, उसे कौन शुद्ध बनायेगा। स्वर्ण की डली से बने हुए गहने में जो अशुद्धता मिली है ताव लगाकर, योग लगाकर उस अशुद्धता को निकाल दिया तो जो था, वही का वही रह गया है। इसको ही लोग कहते हैं कि इस सुनार ने इस सोने को शुद्ध बना दिया है। कहां शुद्ध बनाया है? वह तो जो था सो ही है।
मार्मिक अर्थ में मर्म का परिचय―एक मास्टर साहब बच्चों को पढ़ा रहे थे। बच्चों को डांटतेडपटते हुए कह दिया कि हमने बीसों गधों को मनुष्य बना दिया है। एक कुम्हार इस बात को सुन रहा था। सोचा कि हमारे कोई बच्चा नहीं है, सो एक गधे का एक बच्चा इन मास्टर साहब से बनवा लें, सो मास्टर से कहा कि मास्टर साहब हमारे ऊपर भी कृपा कीजिए, कोई हमारे बच्चा नहीं है, सो आपको मैं एक गधा दूँगा, बच्चा बना देना। मास्टर ने सोचा कि आज अच्छा कोई टट्टू मिला। कहा―अच्छा भाई ले आवो गधा, हम गधे से मनुष्य का बच्चा बना देंगे। ले आया वह कुम्हार गधा। मास्टर साहब ने कहा, देखो 7 दिन के बाद 8वें दिन ठीक 12 बजे आ जाना, तुमको बना बनाया बच्चा मिल जायेगा। मास्टर तो जानता था कि यह देहाती आदमी है या तो एक आध घंटा पहिले आयेगा या बाद में, सो गलत टाइम पर आने से कुछ कहकर टाल दिया जायेगा। मास्टर ने उस गधे को 20, 25 रुपये में बेचकर अपना काम चलाया। अब आया वह 8वें दिल तीन बजे। मास्टर साहब से अपना बच्चा मांगा तो मास्टर साहब ने कहा कि तू तो देर करके आया है, तेरा बच्चा बनकर पढ़-लिखकर होशियार होकर न्यायालय में पहुंचकर न्याय कर रहा है, वह जज बन गया है, अब तो हमारे वश की बात रही नहीं कि उसे ला सकें, तू ला सकता हो तो ले आ, तो वह गधे का तूमरा लेकर जिसमें कि वह गधा दाना खाया करता था, पहुंचा न्यायालय के द्वार पर। जज दिख रहा था। कुम्हार कहता है―ओह, ओह आजा, अरे !तीन घंटे में ही तू हमसे नाराज हो गया है। सब लोग देखकर विस्मय में पड़े। चपरासी ने उसके कान पकड़कर वहाँ से भगा दिया। तो शब्द का मर्म समझना चाहिये। बीसों गधों को मनुष्य बनाया, इसका अर्थ यह नहीं है कि चार पैर वाले गधा जानवरों को मनुष्य बनाया, किंतु उसका सीधा अर्थ यह है कि बीसों मूर्ख बच्चों को योग्य बनाया। यों ही हमारी समस्त क्रियावों में ऐसा सीधा ही अर्थ नहीं ले लेना है कि ऐसे हाथ करके चढ़ावो तो मोक्ष मिलेगा। अरे ! यह तो आलंबन है। अपने आत्मा को शुद्ध ज्ञानपुंज पर जमावो तो निर्वाण मिलेगा, यह उसका अर्थ है।
संकटहरण यत्न-यह आत्मा स्वयं धर्मस्वरूप है, नित्य ही इसमें आनंद का प्रसार हुआ करता है। इस रसीले ज्ञानस्वरूप में अपने को लीन करके अविचल ढंग से निष्कंप प्रकाश वाली जो सहज अपनी ज्ञानलक्ष्मी है उसको यह प्राप्त कर लेता है। यह सब एक अपने आपके स्वरूप का निर्णय और अपने आपकी ओरझुकाव का फल है। कैसी भी कठिन विपदा आयी हो घबरायें नहीं, वह तो पर का परिणमन है, उससे अपना कुछ संबंध नहीं है। अपने आपको ज्ञानानंदस्वरूप निरख करके अपने आपकी ओरझुक जावो, सब विपदा दूर हो जायेगी। विपदा क्या है? एक खोटी कल्पना बना ली है, उन खोटी कल्पनावों को त्याग दें। कुछ समय इस निर्विकल्प ज्ञानप्रकाश की ओर अपना उपयोग लगावें तो सब आपत्तियां दूर हो जायेंगी। महापुरुष स्वाश्रय में होते हैं, अपने आपके आत्मस्वरूप का आलंबन लेते हैं, उस स्वाश्रितता के प्रताप से उत्पन्न हुआ यह आवश्यक कर्म है, यही तो साक्षात् धर्म है। यह धर्म इस धर्मस्वरूप सत्चित् आनंदमय, परमब्रह्म में अतिशयरूप से प्रकट होता है। इस आत्मधर्म को प्रकट करने में जो कुशल है, जो तत्त्वज्ञान के बल से बलिष्ट है, ऐसा पुरुष इस धर्म का आश्रय करके निर्वाण को प्राप्त कर लेता है अर्थात् समस्त संकटों से दूर हो जाता है।
आकिंचन्य स्वरूप के प्रत्यय में समृद्धि-देखो ! यह धर्म अपने को आकिंचन्यस्वरूप देखने में है। तेरा इस जगत में कुछ नहीं है, जो मेरा कुछ नहीं है इस जगत में, ऐसा मान कर रहे, उसको सर्वातिशयरूप रूप से सिद्धि प्राप्त हो जाती है। देखो ! भोजन करने में भी न न करें आप, तो परोसने वाले प्रेमपूर्वक खूब परोसते हैं और आप मांगकर खायें, लावो-लावो कहें तो परोसने वाले का दिल नहीं रहता है। जब भोजन में भी न न के फल में अच्छा परोसन मिलता है। तो ऐसी ही सब समागमों की बात है। इस धन-संपदा में आप अंतरंग से न न करेंगे और अपने आकिंचन्यस्वरूप को निरखेंगे तो सदा ही आपको बड़ीबड़ी समृद्धियां प्राप्त होंगी, अंत में निर्वाण हो जायेगा तो वहाँ भी अनंतचतुष्टय संपन्न बने रहेंगे। अपने आपको आकिंचन्य निरखियें और ज्ञानस्वरूप निज अंतस्तत्त्व में उपयोग को झुकाने का यत्न कीजिए,यही वास्तविक आवश्यक काम है।