वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 150
From जैनकोष
अंतरबाहिरजप्पे जो वट्टइ सो हवेइ बहिरप्पा।
जप्पेसु जो ण वट्टइ सो उच्चइ अंतरंगप्पा।।150।।
निश्चय परमावश्यक के अनधिकारी व अधिकारी―निश्चय परआवश्यक का अधिकारी कौन है और अनधिकारी कौन है? इस दिशा का वर्णन करते हुए आचार्यदेव बहिरात्मा और अंतरात्मा का फिर भी परिचय दे रहे हैं। जो पुरुष अंतरंग जल्प व बहिर्जल्पवाद में रहते हैं वे तो बहिरात्मा होते हैं और तो किसी भी जल्प में नहीं वर्तते हैं वे अंतरात्मा होते हैं।
द्रव्यलिंगी साधु की शुभाशुभभावों में अटक―कोई पुरुष जिनलिंग को धारण करके, दिगंबर मुद्रा की दीक्षा भी ग्रहण कर ले, किंतु आत्मा का क्या स्वरूप है? उस मर्म का परिचय न हो तो वह कठिन तपस्या करके भी तपोधन नहीं है। वह श्रमण पुण्यकर्म की इच्छा से स्वाध्याय, प्रत्याख्यान, स्तवन आदिक बाह्य जल्पों को करता है। पुण्यकर्म बँधेंगे तो हमें मोक्ष मिलेगा, ऐसा उसकी आकांक्षा रहती है। वह मोक्ष में अपने कल्पित सुखों का उत्कृष्टरूप मानता है। मोक्षसुख और सांसारिक सुख दोनों ही बिल्कुल विपरीत चीजें हैं, ऐसा उसे भान नहीं है। सब क्रियावों में वह सावधान रहता है, पर उसकी सावधानी, उसकी प्रेरणा इस पर्यायबुद्धि से मिली हुई है, मैं साधु हूँ,मुझे स्वाध्याय करना चाहिए, स्तवन करना चाहिए, मेरी क्रियावों में कोई दोष न रहे, बिल्कुल निर्दोष हमारी क्रियाएँ सधती रहें, इससे हमारा यह साधुजीवन सफल होगा और परलोक में आनंद मिलेगा, ऐसी उसकी वासना बनी है, इन वासनावों के कारण वह क्रियाकांडों को निर्दोष पालकर इतना महान् श्रम करके भी श्रमणाभास है।
श्रमणाभास का सत्कारविषयक लोभ―यह साधु शयन, गमन, ठहरना आदि सभी कार्यों में सत्कार आदि का लोभी है। भोजन के समय भी बड़ी-बड़ी भक्ति हो ऐसा अंतर्जल्प करता रहता है। यदि कोई त्रुटि हो गई तो उस साधु का चित्त बिगड़ जाता है। यद्यपि भोजन के समय साधुवों को श्रावक की भक्ति का देखना जरूरी है, क्योंकि श्रावक की भक्ति से आहार की शुद्धि का परिचय मिलता है। जिसमें भक्ति न हो तो समझना कि आहार भी यों ही लापरवाहीसे बनाया है, निर्दोष नहीं है। तो यद्यपि श्रावकों की भक्ति देखना साधुजनों को आवश्यक है, किंतु यह श्रमणाभास तो अपना अपमान समझता है अगर किसी की भक्ति में कमी हुई। जबकि योग्य साधु समतापूर्वक निरीक्षण करते हैं और कोई अयोग्य आचरण दिख जाये, जो क्षम्य न हो सके ऐसी त्रुटि दिखने पर समतापूर्वक ही विहार कर जाते हैं, लेकिन यह श्रमणाभास अपनी पर्यायबुद्धि के कारण अपने सम्मानअपमान का सवाल सामने रखकर भक्त को देखता है। यह ऐसे सत्कार के लाभ का लोभी है। ये सभी लोग पूजक हैं, हम पूज्य हैं, हमारा पद बड़ा है, ऐसा चित्त में बसा है इस कारण सभी बातों में अपने सम्मानअपमान का निर्णय वह करता है।
साधुवों की सम्मानअपमान में समता―अरे !साधु पुरुष तो सम्मान और अपमान में समान बुद्धि रक्खा करते हैं। सम्मान से बढ़कर अपमान में अपना लाभ समझते हैं। सम्मान में बुद्धि ठिकाने नहीं रह सकती है।सम्मान में अपने आत्मस्वरूप से चिग जाना संभव है। सम्मान से अधिक लाभ देने वाली चीज अपमान है। अपमान नाम है उसका जो मान को नष्ट करे। जो मानकषाय को नष्ट करे ऐसी घटना हानि करने वाली है या लाभ करने वाली? लोग तो अपनी शान रखने के लिए योग्य अयोग्य सभी काम कर डालते हैं।
झूठी शान की चेष्टा―राजा भोज के समय में या किसी अन्य विद्या से भी राजा के समय एक ऐसी घटना घटी होगी जिसका कि साहित्य में कहीं वर्णन है। सभा भरी हुई थी। राजा ने विद्वानों से कहा कि कोई ऐसी कविता आज दिखावो जो कभी सुनी न हो, बड़ी विलक्षण हो। उन विद्वानों में से एक कवि ऐसा बैठा था जो चतुर भी था, किंतु उसकी चतुराई की कद्र न होने से कई दिनों से उसे कोई पुरस्कार भी नहीं मिला था। उसके मन में बदला लेने की भावना थी। उसने कहा―महाराज मैं ऐसी कविता दिखाऊँगा जो कभी भी किसी ने आज तक न देखी हो। ऐसी विलक्षण कविता आज मैं सुनाऊँगा। जेब से उसने एक कोरा कागज निकाला जिसमें कुछ भी न लिखा था और कहा―महाराज यह है वह कविता जो बड़ी विलक्षण है। राजा ने कहा अच्छा देखें। सो वह विद्वान बोला―महाराज दिखायेंगे मगर यह कविता इतनी ऊँची है कि यह उसी को दिख सकती है जो एक बाप का हो। राजा ने कागज को लेकर देखा तो उसमें कुछ भी न लिखा था, पर इस शान के मारे कि सभा के लोग कहीं यह न कह बैठें कि यह एक बाप का नहीं है सो वह कागज देखकर बोला वाह ! यह बड़ी सुंदर कविता है। पास में एक वृद्ध पंडितजी बैठे थे,उन्होंने भी उस कागज को देखकर कहा―वाह ! यह बड़ी सुंदर कविता है। इसी तरह से दसों लोगों को दिखाया तो सभी ने वही बात कही। उन सबने यही सोचा था कि अगर मैंने कह दिया कि इसमें कुछ नहीं लिखा है तो सभी कहेंगे कि यह एक बाप का नहीं है। तो भाई अपनी शान रखने के लिए योग्यअयोग्य सभी काम लोग किया करते हैं। वह शान एक पर्यायबुद्धि की ही बात है,तत्त्व कुछ नहीं है।
ज्ञानी की वृत्ति―कौन जानता है मुझे कि यह मैं आत्मा अमूर्त शुद्धज्ञानानंदस्वरूप हूँ। जो जानता है उसको सम्मान और अपमान के विकल्प नहीं होते हैं। वह तो एक अलौकिक निराली दुनिया में पहुंचा हुआ है। जो श्रमण समस्त क्रियावों में, स्थितियों में दूसरों से सत्कार आदि के लाभ का लोभी है वह अपने अंतरंग में कुछ न कुछ जल्पगल्प शब्द गढ़ता रहता है। ऐसा जीव तो बहिर्मुख है। बहिर्मुख पुरुष के निश्चय परमआवश्यक कर्म नहीं हो सकता है। सर्वप्रयत्नों से जिसने अपने आत्मस्वरूप की और ही उपयोग किया है, जो किसी भी समय शुभ और अशुभ किसी भी विकल्पजाल में नहीं प्रवर्तता है वह है परम तपस्वी। अपने उपयोग को उपयोग के स्रोतभूत चैतन्यस्वभाव में लगाना, यही है वास्तविक प्रतपन और परमार्थ तपश्चरण।ऐसा परमतपस्वी ही साक्षात् अंतरात्मा है। जो विशिष्ट अंतरात्मा है प्रगतिशील उसके ही निश्चय परमआवश्यक काम होता है। हमारे लिए आवश्यक काम केवल अपना श्रद्धा,ज्ञान और अपने आपमें रमण करना है।
निराधार मोह―ये जगत् के जाल, परिजन का समागम, ये सब बरबादी के निमित्तभूत हैं। इनसे शांति, हित, आनंद कुछ नहीं मिलता है, ये तो संसार में रुलाने के ही कारण बनते हैं। यह परिजनों का समागम इस जीव को कुछ भी शांति दे पाता हो तो अनुभव करके देख लो। प्रथम तो यही घोर विपत्ति है कि जगत् के समस्त जीव एकस्वरूप वाले हैं। मुझमें और समस्त जीवों में स्वरूपदृष्टि से रंच भेद नहीं है। व्यक्ति की दृष्टि से जैसे अन्य जीव सब मुझसे न्यारे हैं ऐसे ही पूरे न्यारे ये घर में बसने वाले जीव भी हैं। फिर कोई ऐसी गुंजाइश नहीं है कि अनंत जीवों में से दो चार जीवों में आत्मीय बुद्धि की जाय, लेकिन मोह का अँधेरा छाया है इसलिए ऐसी दृष्टि पड़ गई है कि ये परिजन तो मेरे हैं और बाकी जीव मेरे कैसे हो सकते हैं? कदाचित् कोई परिजन भी नहीं है, किंतु एक वार्तालाप करके कुछ प्रेम बढ़ गया है तो उसमें भी ऐसा मालूम होता है कि यह मुझे अपना सर्वस्व सौंपे हुए है, यह तो मेरा ही है। अरे जब यहाँ यह देह तक भी अपना नहीं है तो किसकी आशा रखते हो?
ज्ञानी का आत्मशोधन―यह जीव इस मोह विडंबना में ही फँस-फँस कर अपने धर्मकर्तव्य से विमुख हो जाता है और मोह-मोह में ही अपना जीवन खो देता है। जीवन बड़े वेग से गुजर रहा है। मृत्यु के निकट अधिक-अधिक पहुंच रहे हैंलेकिन दो चार वर्ष भी बिना मोह किए अपने आत्मा की सुध लेते रहने में यह नहीं व्यतीत कर पाता है। सबसे बड़ी विपदा तो यह लगी है कि यह मेरा अपमान हो रहा है ऐसी बाह्यदृष्टि की। जैसे कोई मर रहा हो और मरते समय में उसे विषयभोगों के साधन सामने सारे कोई इकट्ठे कर दे तो उसे वे नहीं सुहाते हैं। हालत तो यह हो रही है कि मर रहे हैं, अब इनके भोगने की क्या सुध करें? जैसे फांसी लगने को हो तो फंदा लगने से पहिले उसे बड़ी-बड़ी खानेपीने की सरस चीजें पेश करें तो भी उनके खाने में उसका चित्त न लगेगा। वह तो जानता है कि अब हम मरने वाले है। ऐसे ही जिसको अपने वर्तमान बंधनविपदा का परिज्ञान है, भव-भव के संचित कर्मजालों से हम बंधे हुए हैं और उन कर्मों के उदय में हमारी बड़ी-बड़ी दुर्गतियां हो सकती हैं ऐसा जिसके ध्यान है उस ज्ञानी विरक्त पुरुष के समक्ष ये सूक्ष्म भी विषयभोग के साधन आ जायें तो भी रुचिकर नहीं होते हैं, और कोई सम्मान अथवा अपमान करे तो उनको वह अपने चित्त में स्थान नहीं देता है, उसे तो अपनी पड़ी है कि मेरा जो यह उत्कृष्ट सहजस्वरूप है उसकी संभाल में लगें, इसमें ही भलाई है और मायामयी जीवों की परिणति को निरखकर सम्मान अथवा अपमान करने की कल्पना यह मुझे शरण नहीं है।
विकल्पजालों का स्वच्छंद विचरण―भैया ! जो शुद्ध आशय के होते हैं, जिनकी दृष्टि निर्मल है,वे सम्मान अपमान इत्यादि बाहरी चीजों में अपना ज्ञानधन नष्ट नहीं करते हैं। लोक में कितना महान् विकल्पजाल है? एक ही सेकेंड में यह मन कितने विकल्प कर डालता है, इसको बंबई, कलकत्ता इत्यादि जाने में एक सेकंड भी नहीं लगता है। कितनी तीव्र दौड़ है इस मन की? ये विकल्पजाल अपनी इच्छा से स्वच्छंद होकरउछल रहे हैं इस आत्मा में। यह आत्मा विवश हो गया है भ्रम के कारण।अपने महान् स्वरूपधन की स्मृति न होने से यह कायर बन गया है और इस पर अब विकल्पजाल स्वच्छंद होकर नाच रहे हैं। और यह मोही बनकर उन विकल्पजालों की हाँ में हाँ मिलाकर मूढ़ बन रहा है।
ज्ञानी द्वारा नयपक्षों का उल्लंघन―सम्यग्दृष्टि पुरुष,प्रगतिशील अंतरात्मा जन विकल्पजालों से भरे हुए समस्त नयपक्षों की कक्षा को लांघ डालते हैं। नयपक्षों में पड़े कि विकल्प बढेंगे, आकुलता बढेगी। आत्मा का शुद्ध आनंद न जग सकेगा, इस कारण इस नयपक्ष के जालों को लांघ करके एक समता की समतल पृथ्वी में स्थिर रहते हैं। ज्ञानी पुरुष अपने इस आत्मस्वभाव को निरखते हैं। यह आत्मस्वभाव अंतरंग में, बहिरंग में सर्वप्रदेशों में एक शुद्ध ज्ञानप्रकाश को लिए हुए है। यह ज्ञानप्रकाश रागद्वेष की बाधावों से परे है। रागद्वेष अज्ञान है, मेरा स्वरूप तो ज्ञान है, ऐसा ज्ञानमात्र समतारस से भरपूर निजस्वभाव को प्राप्त होता है जो कि एक अनुभूति मात्र है। किसी को बताया नहीं जा सकता कि यह मैं आत्मा क्या हूं? यह विकल्पों द्वारा जाना नहीं जा सकता। किंतु स्वयं ज्ञान के अनुभवरूप परिणमे तो अनुभूति में ही अनुभव करता रहता है।
निरापद निजगृह का संवास―यह मैं आत्मा शुद्ध ज्ञानप्रकाशमात्र हूँ,जगत् के समस्त पदार्थों से अत्यंत न्यारा हूँ। कल्याणार्थी भव्य आत्मा का कर्तव्य है कि सब जल्पवादों को छोड़ने का यत्न करे। जैसे बड़ी गर्मी के दिनों में वहाँ विकट लू चल रही है, कोई एक छोटी कोठी या तलघर की बड़ी ठंड मिल जाय तो उसमें बैठे हुए बड़ा आनंद होता है। उस कोठी से बाहर थोड़ा भी मुख निकालकर देखा तो लपटों की ज्वाला से यह मुख झुलस जाता है। ऐसी कोठी में बसकर बाहर निकलने की चाह नहीं की जाती है। ऐसे ही अपने निज शुद्ध ज्ञायकस्वरूप में जो उपयोग स्थित है वह बहुत आनंदमग्न है। इसके बाहर सब जगह संताप की ज्वालाएँ बरस रही हैं, घर में जाये तो वहाँ भी नाना विकल्प, संताप, अनुताप, खेद, राग की आकुलता, कठिन विपदा इसके सिर पड़ती है, दुकान जाय तो वहाँ भी इसे बहुत विकल्प जाल बनाना पड़ता है। कैसे अपना चिंतितकाम बने, इसके लिए निरंतर व्याकुलसा बना रहता है। किसी सभा सोसायटी में बैठे तो वहाँ भी कितने प्रकार के विकल्पजाल यह बनाया करता है। इसे बाहर में किसी भी जगह आराम नहीं मिलता है। आराम का साधन तो अपने आपके आत्मा के अंदर में है, शुद्ध ज्ञानमात्र अपना अनुभव बनायें तो वहाँ किसी प्रकार का क्लेश नहीं है।
जल्प विकल्पों के त्याग का उपदेश―हे कल्याणार्थी भव्य पुरुषो ! भवभय के करने वाले इन अंतरंग बहिर्जल्पों को त्याग करके समतारस से परिपूर्ण एक इस चैतन्य चमत्कार मात्र आत्मतत्त्व को देखो। इसका ही स्मरण करो तो मोह मूल से नष्ट हो जायेगा। मोहभाव के क्षीण हो जाने पर फिर अंतरंग में यह लौकिक लाभ प्राप्त कर लेता है। इस आत्मा का सब कुछ धन,सारी समृद्धि इस आत्मा में ही भरी पड़ी हुई है। अपने आपकी यह महत्ता नहीं आंकता है। इस कारण असार भिन्न विनाशीक पदार्थों में लगकर यह मोही जीव अपनी कितनी बरबादी कर रहा है, इस बात को वह खुद भी नहीं जानता है, किंतु ज्ञानीजन यह समझ पाते हैं कि ये मोहीजन व्यामोह में आकर अपना कितना नुकसान किए जा रहे हैं, निजस्वरूप का कितना घात किए जा रहे हैं? अब बाह्य कल्पनाजालों में चित्त न रमाकर कुछ अपने आत्मस्वरूप की सुध लेना चाहिए। यह निज आत्मा का आश्रय ही भला कर सकेगा। यह ही हम आप सबका परमार्थ शरण है। इसकी ही दृष्टि, भक्ति, उपासना करें, बस यहाँ से ही सच्चा मार्ग मिलेगा और शाश्वत आनंद प्राप्त होगा।