वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 159
From जैनकोष
केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं।।159।।
शुद्धोपयोगाधिकार में दोनों नयों से शुद्धोपयोग का विलास—नियमसार ग्रंथ में शुद्धोपयोग अधिकार नाम का अंतिम अधिकार है, इसमें शुद्धोपयोग का वर्णन किया गया है। व्यक्तरूप शुद्धोपयोग केवलज्ञान और केवलदर्शन है और शक्तिरूप शुद्धोपयोग सहजज्ञान और सहजदर्शन है। शुद्धोपयोग का अवलोकन, आलंबन समस्त कर्मों के विनाश करने का हेतुभूत है। ग्रंथ के व्यक्तव्य में यह सब वर्णन आ चुका है, फिर भी मानो चूलिकास्वरूप एक उपसंहारात्मक पद्धति से स्वरूप का और अपने कर्तव्य का और उस कर्तव्य के फल का स्मरण दिलाने के लिए यह गाथा आ रही है। इस गाथा में बताया है कि केवली भगवान व्यवहारनय से सबको जानते हैं और देखते हैं किंतु निश्चयनय से केवली प्रभु अपने आत्मा को ही जानते और देखते हैं। इस परमज्ञान के स्वपरस्वरूपप्रकाशकता का प्रतिपादन किया गया है। आत्मा ज्ञानस्वरूप है, ज्ञान का काम जानना है। जानना किसी विषय को ही लेकर होता है, जिसमें कुछ जाना न जाय और जानना हो जाय, ऐसा जानने का स्वरूप नहीं बनता है, तो जो जानन परिणमन है उस परिणमन का ईप्सिततम क्या है, अपना वह जानना किसे है? इस तथ्य को दो नयों से बताया गया है। वस्तु का अभिन्नकारकत्व—निश्चय से प्रत्येक पदार्थ अपने अभिन्न परिणमन को करता है और उस परिणमन में जो व्यवस्था हुई, परिणमन हुआ उस परिणमन को करता है, ऐसा परिणमन अपने आपके ही परिणाम से करना है। इस परिणमन का फल, ऐसा परिणमन होने से अपने आपका सत्त्व रखना यह फल भी उसही पदार्थ में हुआ करता है। परिणमन चूँकि एक परिणति है, जो परिणमन हुआ वह अगले समय में नहीं रहता है, यों यह परिणमन अध्रुव है, मूल व्यक्त नहीं होता है, किसी मूल से निकलता है। अध्रुव का स्रोत कोई ध्रुव होता है। ध्रुव के बिना अध्रुव व्यक्त नहीं होता है। जैसे पत्ता पेड़ से गिरता है, यह गिरने वाला पत्ता अमूल नहीं है, यह किसी एक ध्रुव पदार्थ से निकलता है, उसे लोक में जिसे ध्रुव कहते हैं यह है पेड़। तो जैसे ध्रुव से अध्रुव का निकलना होता है ऐसे ही इस आत्मपरिणमन का इस ध्रुव आत्मा से निकलना होता है। यह परिणमन अपने आत्मा में होता है, यों षट् कारक का वर्तन अभेदरूप से अपने आपके अपने आपमें है। इस दृष्टि से आत्मा ने जो कुछ जाना वह आत्मा को ही जाना। आत्मा जाननरूप परिणमन किसी दूसरे पदार्थ में नहीं कर सकता है। जो जानन का ही वर्तन हो, ज्ञेयाकार परिणमन हो, निज क्षेत्र में निज ज्ञेयाकार परिणमन हुआ उसे ही इस आत्मा ने जाना। और ऐसा जानते हुए की स्थिति में क्या वास्तव में जाना, इसे निश्चय से बताया नहीं जा सकता। तो उस जानन में जो परपदार्थ विषय हुए उन परपदार्थों का आशय करके प्रतिपादन किया जाता है कि आत्मा ने परपदार्थों को जाना। दृष्टांतपूर्वक व्यवहारनय व निश्चयनय की पद्धति का समर्थन—यहाँ एक दृष्टांत लो। जैसे हम दर्पण को हाथ में लेकर देख रहे हैं, पीठ पीछे दो तीन बालक खड़े हुए हैं, उनको हम नहीं देख रहे हैं। वे हमारे पीठ के पीछे हैं, किंतु उन बालकों का निमित्त पाकर यह दर्पण उन बालकों के आकाररूप परिणम रहा है, वह प्रतिबिंबित हो रहा है। हम एक दर्पण को ही देख रहे हैं, पर दर्पण को देखते हुए भी हम बालकों की चेष्टा का भी बयान करते जाते हैं। अब इस बालक ने टाँग उठाई, अब इसने जीभ निकाली, ये सब वर्णन करते जाते हैं, देख रहे हैं सिर्फ दर्पण को, यों ही हमने किसे देखा, इसका उत्तर लेना चाहें तो दृष्टांत रूप में निश्चय से तो हमने दर्पण को देखा। यहाँ निश्चय का अर्थ केवल दृष्टांत के प्रयोजन तक लेना, और व्यवहार से हमने बालकों को देखा, जाना। ऐसे ही हमारा यह ज्ञानप्रकाश यह स्वच्छ ज्ञानस्वरूप दर्पण से भी विलक्षण अधिक स्वच्छ आदर्श है। इस ज्ञान की स्वच्छता में जगत् के सब पदार्थ झलक जाते हैं और जगत् में जो-जो पदार्थ हैं उनका आकार यहाँ ग्रहण में आता है, अर्थात् यह आत्मा ज्ञेयाकाररूप परिणमन करता है अर्थात् परज्ञेयों का आश्रय विषय करता है, निज ज्ञेय में उनके अनुरूप अपना जानना बनाता है, ऐसा ज्ञेयाकाररूप परिणमते हुए हम केवल अपने आत्मा को ही जान रहे हैं किंतु ऐसा जानते हुए में हम बखान सब परपदार्थों का कर सकते हैं, उन्हें जान लेते हैं। ज्ञान की प्रकाशकता का नयों द्वारा दिग्दर्शन—हम सीधा परपदार्थों को नहीं जान रहे, स्पष्ट सीधा यथार्थरूप से हम अपने ही परिणमन को जान रहे हैं पर उस परिणमन को हम जान रहे हैं यह बताना चाहे तो किसी परपदार्थ का नाम लेकर ही बता सकेंगे। जैसे आप इस चौकी को देख रहे हैं, जान रहे हैं, आप तो अपने देह में विराजमान् हैं, आपका आत्मा तो उसके भीतर ही अपने स्वरूप में है, उस आत्मा में जितने गुण हैं, शक्ति हैं वे आपके आत्मा में ही हैं। आपके आत्मा से निकलकर इस चौकी तक कुछ नहीं आया और आप जो कुछ कर रहे हैं वह अपने स्वरूप में ही कर रहे हैं। आपका कुछ भी करना स्वरूप से निकलकर चौकी में नहीं आया, तब आप जो जान रहे हैं वह जानना भी आपका कौन करता है? आप अपने आप अपने को ही जान रहे हैं, आपका जानना आपके स्वरूप से निकलकर इस चौकी में न आ जायेगा। आप अपने आपमें ही अपने आपको जान रहे हैं कि यह चौकी है, वास्तव में सीधा आपने चौकी को नहीं जाना, अपने आपको जाना है। ऐसे ही इस प्रकरण में पूर्ण शुद्ध चरमविकास को प्राप्त उपयोग के संबंध में बताया जा रहा है कि केवली भगवान निश्चय से तो अपने आपको ही जानते देखते हैं और व्यवहार से समस्त जगत् को जानते देखते हैं। व्यवहार से बहिर्द्रव्यालंबनता—आत्मा में ज्ञानशक्ति और दर्शनशक्ति है। इस ज्ञान-दर्शन गुण का विकास न होने दे, आवरण हो जाय, इस प्रकार का निमित्तभूत कर्म है—ज्ञानावरण, दर्शनावरण घातिया कर्म। उसके ध्वस्त हो जाने से सकल प्रत्यक्षभूत निर्मल केवलदर्शन प्रकट हो जाता है, उस केवलज्ञान, केवलदर्शन से यह केवली भगवान तीनलोक तीनकाल के समस्त चेतन-अचेतन पदार्थों को, उनके गुण पर्याय को एक ही साथ जानते और देखते हैं। यह भगवान परमेश्वर समस्त लोक को, समस्त पर्यायों को एक साथ जानते देखते हैं, ऐसा प्रतिपादन करना, किसी परपदार्थ का नाम लेकर उपचार करके, आश्रय करके किया गया है, इस कारण यह वर्णन व्यवहारनय से समझना। व्यवहार और निश्चय का मूल अंतर यह है कि बाह्य द्रव्य का आलंबन करके बनाया जाय वह तो व्यवहार है और जो केवल स्वद्रव्य की ही बात स्वद्रव्य का ही नाम लेकर स्वद्रव्य में ही बताया जाय, वह निश्चयनय का वर्णन है। यह प्रभु केवली भगवान व्यवहार से समस्त लोकों को जानते हैं। वर्तमान वृत्ति बताने के लिये दो पद्धतियों का आश्रय—यहाँ यह भाव न लेना कि वह व्यवहार से जानते हैं। सबको तो यह सबका जानना उनका यथार्थ नहीं है। वह जो कर रहे हैं उस ही को व्यवहारनय से बताना और निश्चयनय से बताना—इन दो पद्धतियों का यहाँ आश्रय लिया गया है। वह जानते वही का वही है जैसा निश्चयनय से दिशामात्र बतावेंगे अथवा व्यवहारनय से बतावेंगे। परद्रव्य का आलंबन लेकर बताने के कारण पराश्रित वर्णन व्यवहारनय का प्रतिपादन हुआ और एक स्व का ही आलंबन लेकर बताने के कारण निश्चयनय का प्रतिपादन हुआ। ये प्रभु कार्यपरमात्मा हो चुके हैं, फिर भी निश्चयनय से अपने आपको अर्थात् इस कारणपरमात्मा को जानते और देखते हैं। स्वपरिणमन के अनुभव की ही शक्यता—जैसे आपने किसी दूसरे का बुखार जानना चाहा तो थर्मामीटर लगाकर उसका बुखार उन नंबरों से जान जाते हैं, इसे 102 डिग्री बुखार है। वहाँ पर आप उसकी बीमारी का अनुभव नहीं कर पा रहे हैं, किंतु उसकी बीमारी की मर्यादा को ध्यान में लाकर जो अपना ज्ञान बना रहे हैं उस ज्ञान का अनुभव कर रहे हैं, रोगी की बीमारी का अनुभव नहीं कर रहे हैं। वह आपके ज्ञान का अनुभव कैसा है, उसको बताने का ढंग यही है कि आप उस विषय को बता दें कि इसके इतनी डिग्री बुखार है, हम ऐसा जान रहे हैं। वहाँ आपने निश्चय से तद्विषयक जो ज्ञान किया है उस ज्ञान का ही अनुभव किया है, रोगी के बुखार का अनुभव नहीं किया है, ऐसे ही हम आप सब सर्वत्र सर्वदा जो भी संकल्प-विकल्प ज्ञान करते हैं उसका ही अनुभव करते हैं, दूसरे का अनुभव नहीं करते हैं। एक वस्तु का अन्यवस्तु से संबंध का प्रभाव—देखो भैया ! परमार्थत: मेरा इन परपदार्थों के साथ जानने तक का भी सीधा संबंध नहीं है। मैं सदा अपने को जानता हूँ और कल्पनाएँ, विकल्प उठते हैं इस कारण मैं परपदार्थ के विषय में रागद्वेष करता हूँ। मैं केवल अपना ही करने वाला हूँ, जरा अपनी ओर दृष्टि दो। परपदार्थों को ‘मैं करता हूँ, इस विकल्प-अंधकार में दबे रहने का फल अच्छा नहीं होता। यह सब मायाजाल है जो सदा से ही अपने को ही करता आया है और भविष्य में भी सदा अपने को ही करता रहेगा। यह मिथ्यावासना आपको ही क्लेश देगी। इस मिथ्यावासना को हटावो। न मैं किसी का कुछ करता हूँ, न मैं किसी का कोई अधिकारी हूँ, न मैं किसी का कुछ स्वामी हूँ—इस ज्ञानप्रकाश को बनाएँ, वास्तव में यह ही तथ्य की बात है।
अपना-अपना कर्मफल—जिस जीव के विशेष पुण्य का बंध हुआ उसको तो सुखी होना आवश्यक है। वह लौकिक सुखों में कैसे सुखी हो, उसका निमित्तभूत आप बनते हैं तो आप अपने चिंतन में दूसरे व्यक्ति को आदर देकर सेवा किया करते हैं। बच्चों का भाग्य है और आपसे बड़ा भाग्य है उन बच्चों का जिनकी कि आप सेवा किया करते हैं। आप उन बच्चों को खिला-पिलाकर, बहलाकर उनकी सेवा कर रहे हैं तो इस प्रसंग में आप यह बतावो कि भाग्य आपका बड़ा हुआ या उन बालकों का भाग्य बड़ा हुआ? पुण्य विशेष आपसे उन बालकों का ज्यादा है। यह भी संभव है कि आप जब बालक थे तब बहुत पुण्य के साथ आये थे, आपकी भी ऐसी ही सेवा शुश्रूषा होती थी। ज्यों-ज्यों उमर बढ़ती गयी, रागद्वेष, विषय-वासनाएँ बढ़ती गयीं, उन सभी इच्छावों ने आपके पुण्य को जला डाला। आप कुछ कम पुण्यवान् रह गये, यह भी संभव है।
पुण्यफलप्राप्ति के बालक—जिनका पुण्य महान् है ऐसे बालकों के प्रति आप यह कल्पना जब तक नहीं कर पाते हैं कि ये मेरे बालक हैं, मैं इन्हें पालता पोषता हूँ तब तक आप उन बालकों की सेवा नहीं कर सकते हैं। उनकी सेवा करने के लिए ही आपमें ममता और कर्तव्य बुद्धि उत्पन्न हो रही है, वस्तुत: आप भी वहाँ केवल अपने परिणाम को ही कर रहे हैं, किसी दूसरे की रक्षा आप नहीं करते हैं, न आप दूसरों को पालते-पोषते हैं, न आप किसी दूसरे के अधिकारी हैं, न स्वामी हैं, आप तो केवल अपने आपमेंहीअपना परिणाम बनाये जा रहे हैं, भला पर को जानने तक का भी संबंध न हो वहाँ पर के अधिकार और स्वामीपने का संबंध हो जाय, यह अघटित बात कैसे हो सकती है? कल्याण में विविक्तता की अनिवार्यता—भैया ! जब तक मोह न त्यागोगे तब तक शांति का अनुभव न आ पायेगा। अपना ही तो चित्त है, अपना ही तो उपयोग है, अपने आपमें है, इस उपयोग को केवल अपने में ही लगायें, बाह्य समस्त पदार्थों का विषय त्याग दें तो क्या ऐसा किया नहीं जा सकता? क्या इसमें कुछ कठिनाई आ रही है? यह है मोक्षमार्ग की बात। संसार के संकटों से छूटना है तो अपने आपको केवलरूप में अनुभव करना ही होगा और अपने आपके कैवल्य में ही संतोष पाना होगा। इन बाह्य पदार्थों से निवृत्त होना ही होगा, कभी भी हो लें। कोई पुरुष तो भोगों को बिना भोगे ही भोगों को त्याग देते हैं, कोई पुरुष भोगों को भोगकर उन्हें असार, अहितरूप समझकर त्याग देते हैं। कोई पुरुष उन भोगों में ही मरकर अंत में परवश होकर भोगों को त्याग देते हैं। बुद्धिमानी तो इसमें है कि जो भोग आखिर छूट ही जायेंगे उन भोगों को पहिले ही छोड़कर अपने जीवन में आराम पायें। छूटना तो नियम से है। जिस पदार्थ का संयोग हुआ है वह पदार्थ रह न सकेगा। अब यह अपनी मर्जी है कि हम उससे किस तरह छूटें? परिहारविधियों पर एक दृष्टांत—एक कथानक में यह घटना बतायी है कि भंगिन विष्टा का एक टोकरा भरे हुए लिए चली जा रही थी। शहर के कुछ भले लोगों ने विचारा कि यह खुला हुआ विष्टा का टोकरा लिए जा रही है, इससे तो बहुत से लोगों को कष्ट पहुंचेगा, सो ऐसा करें कि एक कपड़ा ढाँकने को दे दें सो ढाँक लेगी, सो एक बहुत सुंदर तौलिया दे दिया। अब वह बहुत सुंदर तौलिया से ढका हुआ टोकरा लिए जा रही है, रास्ते में तीन व्यक्तियों ने सोचा कि इस टोकरी में कोई अच्छी चीज होगी, देखना चाहिए। भंगिन ने उनसे कहा—भाई ! क्यों पीछे लगे हो, इसमें मल भरा हुआ है। इतनी बात सुनकर उन तीनों में से एक लौट गया। उन दो को विश्वास न हुआ, सोचा कि यह हमें बहका रही है। कुछ दूर जाकर भंगिन बोली—भाई ! क्यों पीछे लग रहे हो, इसमें तो मल भरा हुआ है। तो वे दोनों बोले कि हम ऐसे नहीं मानेंगे, हमें तो दिखावो। उसने दिखाया तो देखकर उनमें दोनों में से एक वापिस लौट गया, एक को अभी भी विश्वास न हुआ। वह पीछे लगा रहा। भंगिन बोली, भाई ! तुम क्यों पीछे लगे हुए हो, इसमें मल भरा हुआ है। वह बोला कि हमें तो विश्वास नहीं है, हम तो अच्छी तरह से सूँघ-साँघ कर देखेंगे। जब समझ जायेंगे कि हाँ यह विष्टा है तब मानेंगे। उसने तौलिया उठाकर विष्टा को खोल दिया, अच्छी तरह से सूँघ-साँघ कर जब वह समझ गया कि हाँ यह विष्टा है तब वापिस लौट गया। ससद्विधि भोगों से निवृत्त होने का अनुरोध—ऐसे ही इन भोगों को ये महापुरुष तीन पद्धतियों से त्यागते हैं। कोई तो उपदेश पाकर अपने ज्ञान से समझकर तुरंत भोगों को त्याग देते हैं, कोई भोगों का अनुभव करके त्यागते हैं और कोई भोगों में लिप्त रहकर अंत में विवश होकर त्यागते हैं। ये सभी भोगसाधन प्रकट भिन्न हैं, इनसे उत्तमविधि पूर्वक निवृत्त होने का उद्यम करें और अपने आनंदघन ज्ञानप्रकाश का अनुभव करके अपना कल्याण करें, यही मानवजन्म की सफलता है। पदार्थसमूह—इस लोक में 6 प्रकार के पदार्थ हैं—जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इन 6 में से आकाश तो लोक में भी है और लोक से बाहर भी है। आकाश असीम है, शेष 5 द्रव्य केवल लोक के अंदर ही हैं। लोक उसे ही कहते हैं जहाँ समस्त द्रव्य दिख जायें याने पाये जावें। इन 6 प्रकार के द्रव्यों में धर्मद्रव्य एक है, अधर्मद्रव्य एक है, आकाशद्रव्य एक है, कालद्रव्य असंख्यात हैं, जीव और पुद्गल अनंत हैं। यह सब गणना कैसे अनुमान में आये? एतदर्थ प्रथम एक का स्वरूप जानिये। एक पदार्थ के लक्षण में अखंडता का विवरण—एक पदार्थ उतना होता है जिसका कि दूसरा हिस्सा न हो सके अथवा एक परिणमन जितने में पूरे में होना ही पड़ता है उतने को एक द्रव्य कहते हैं। जैसे हम आप सब जुदे-जुदे जीव हैं क्योंकि हम आप किसी के जीव के कभी दो हिस्से नहीं होते। ऐसा नहीं होता कि शरीर में आधा जीव रह जाय और आधा जीव अलग हो जाय। जब कभी यह जीव शरीर से कुछ बाहर भी रहता है तब भी शरीर से और जहाँ तक बाहर जाय, फैला रहता है। उस स्थिति में भी ऐसा नहीं है कि जीव आधे-आधे भाग में है और बीच भाग में नहीं है। जैसे आपने कभी देखा होगा कि किसी छिपकली की पूँछ लड़ते-लड़ते टूटकर गिर जाती है, आधा धड़ एक जगह तड़फता रहता है और वह पूँछ एक तरफ तड़फती रहती है तो कहीं ऐसा नहीं है कि आधा जीव आधे भाग में है और आधा जीव आधे भाग में है, बीच में कुछ नहीं है। जीव तो उन दोनों भोगों में पूर्णरूपेण फैला हुआ है, वहाँ कहीं ऐसा नहीं होता कि आधा जीव आधे शरीर में रह गया और आधा जीव आधे शरीर में रह गया। थोड़ी देर बाद जो शरीर का मूल द्रव्य प्राण है, हृदय है, मुख है, जो भी हैं वे सब एक मूल शरीर में आ जाते हैं।
एक पदार्थ के लक्षण में परिणमन के एकत्व का विवरण—आत्मा प्रत्येक एक अखंड है, हमारा परिणमन जो कुछ भी होता है, वह पूरे आत्मप्रदेश में होता है। हम ज्ञान करें तो पूरे आत्मा में होगा, हम राग करें तो पूरे आत्मा में होगा। ऐसा नहीं है कि हमारा कुछ परिणमन आधे आत्मा में हो और आधे आत्मा में न हो। इन दो लक्षणों से इस द्रव्य की पहिचान होती है। इस तरह निरख लो, हम आप सब अलग-अलग जीव हैं। हमारा अनुभव आपमें नहीं होता, आपका अनुभव हममें नहीं आता, इस प्रकार स्वतंत्र-स्वतंत्र एक-एक जीव करके अनंतानंत जीव हैं।
एकत्व के लक्षण के आधार पर पुद्गलों की गणना—इन पुद्गलों में भी एक-एक अणु करके अनंतानंत पुद्गल अणु हैं, दिखने में जो स्कंध आते हैं, ये एक चीज नहीं हैं। ये सब अनंत परमाणुवों के समूह हैं और इसी कारण जैसे कभी कपड़े में आग लग जाय तो एक खूँट जल रहा है बाकी कपड़ा नहीं जल रहा है, वह कुछ देर से जलेगा। यह बात तब पायी जाती है जब वह कपड़ा एक चीज नहीं है, कपड़ा एक चीज होता या चौकी आदिक कोई भी पदार्थ एक चीज होता तो आग लगने पर एक ही साथ वह सारा पदार्थ जल जाता। पर ये सब अनंत परमाणुवों के पुंज हैं। जिस पर्याय में जहाँ जो परिणमन होता है वह पूरे में होना ही पड़ता है। इस तरह एक-एक परमाणु करके अनंत परमाणु पुद्गल हैं, ये समस्त द्रव्य अपने आपके स्वरूपसर्वस्व को लिए हुए स्वतंत्र हैं। इनमें जब विभावपरिणमन होता है तो किसी परपदार्थ की उपाधि का निमित्त पाकर होता है, परंतु उपादान केवल अपने स्वरूप को लिए हुए ही परिणमता है, किसी परनिमित्त के स्वरूप का ग्रहण करके नहीं परिणमता है। यों अनंतानंत पदार्थ हैं।
सारभूत पदार्थ—उन सब पदार्थों में जाननहार चेतन व्यवस्थापक ये जीवपदार्थ हैं, इसी कारण समस्त पदार्थों में सारभूत पदार्थ जीव माना गया है। यह ज्ञानवान है और समस्त जीवों में, जिन जीवों के शुद्ध चरम विकास हो गया है, पूर्ण हो गया है, जिनका नाम केवलज्ञान है, जिनका दर्शन केवलदर्शन है ऐसा प्रभु, परमात्मा, अरहंतदेव, सिद्ध भगवान, यह समस्त जीवों में भी श्रेष्ठ है। स्वरूपदृष्टि से यद्यपि समस्त जीव एक स्वभाव वाले हैं, किंतु रागादिक भावों का अभाव होने से जिन्हें शुद्ध विकास प्रकट हुआ है वे परमात्मा केवली कहलाते हैं।
प्रभु के ज्ञान की स्वपरप्रकाशकता की पद्धति—केवली भगवान के संबंध में इस प्रकरण में यह बात बतायी जा रही है कि केवली भगवान निश्चय से तो अपने आत्मा को जानते हैं और व्यवहार से समस्त लोक को जानते हैं। भगवान के प्रदेश में कैसी ज्ञानपरिणति चल रही है? इसके बताने के दो प्रकार हैं। भगवान में जो कुछ होता है वह तो एक ही प्रकार की बात है, उसको जब विषय की मुख्यता लेकर कहते हैं तो यह कहा जाता है कि प्रभु सबको जानते हैं और जब अभिन्न आधार की मुख्यता लेकर कहा जाता है तब प्रभु अपने आत्मा को जानता है यों निश्चय से कहा जाता है। इस प्रकरण में यह जानना चाहिए कि ज्ञान का यह स्वभाव है कि वह स्वपरप्रकाशक होता है। अपने आपका प्रकाश करने वाला है ज्ञान, और परपदार्थों का भी प्रकाश करने वाला है ज्ञान। ज्ञान की स्वपरप्रकाशकता पर एक दृष्टांत—जैसे एक लौकिक दृष्टांत दिया जा रहा है कि प्रदीप जलता है, उस प्रदीप में दो प्रकार के धर्म हैं, एक तो अपने आपको प्रकाशित करना और एक पर को प्रकाशित करना। जहाँ पर को प्रकाशित करने की बात कही जाय वहाँ यह अर्थ लेना कि परपदार्थ प्रकाशित होता है उसमें निमित्तभूत यह प्रदीप बनता है, ऐसी दो प्रकार की बातें दीपक में पायी जाती हैं। घट आदिक पदार्थ जो कि प्रकाशित हो रहे हैं दिया के जलने से, दिया से, ये घट आदि से जुदे हैं, एक नहीं हैं फिर भी दीपक में यह बात देखी जा रही है कि स्व को भी प्रकाशित करे और पर को भी प्रकाशित करे। ऐसे ही भगवान का ज्ञान सारे लोकालोक पदार्थों से अत्यंत जुदा है, फिर भी कुछ ऐसा पाया जाता है कि अपने आपको तो ये जानते ही हैं और समस्त लोक को भी जानते हैं। सर्वज्ञानों में स्वपरप्रकाशकता की दृष्टि—जैसे प्रभु के ज्ञान में स्वपर का प्रकाश करने की सामर्थ्य है ऐसे ही हम और आपके ज्ञान में भी अपने को और पर को जानने की सामर्थ्य है। इस समय जब हम अपनी चीजें जान रहे हैं तो यह निश्चय समझिये कि मेरा ज्ञान, मेरा गुण, मेरी ज्ञानशक्ति कहीं मेरे आत्मा को छोड़कर बाहर निकलकर इन पदार्थों को नहीं जान रही है। मेरी ज्ञानशक्ति मेरे ही प्रदेशों में रहकर मेरे ही में परिणम करके इस प्रकार से अपनी वृत्ति कर रही है कि जिसका आकार, जिसका जानन इन सब रूपोंरूप हो रहा है। इस प्रकार ज्ञान में ऐसी अलौकिक सामर्थ्य है, किंतु हम आप लोग अपने आपके इस ज्ञानस्वरूप की सुध नहीं लेते हैं। ज्ञान के ज्ञान का आनंद– भैया ! अतुल आनंद ज्ञान के ज्ञान में ही पड़ा हुआ है। भोगों के ज्ञान में, जड़ पदार्थों के ज्ञान में आनंद नहीं है। उन लोगों के ज्ञान में भी जब भी आनंद होता है तो वह आनंद अपने आपका ही आनंद है, भोगों का आनंद नहीं है। किंतु मोही जीवों की दृष्टि पर की ओर व्यामुग्ध रहती है, अतएव ये यही समझते हैं कि मुझे आनंद भोगों से मिला है, परपदार्थों से मिला है। अरे वे भोग वे परपदार्थ और क्या होंगे? पंचेंद्रिय के विषयभूत ही तो हैं। स्पर्शन का विषय स्पर्श है, स्पर्श अचेतन में होता है। रसना इंद्रिय का विषय रस है, रस अचेतन में होता है। घ्राणेंद्रिय का विषय घ्राण है, यह भी जड़ पुद्गल में ही होता है, चक्षुइंद्रिय का विषय रूप है यह भी पुद्गल में है। श्रोत्रेंद्रिय का विषय शब्द है, शब्द भी पुद्गल में पाये जाते हैं। शब्द पुद्गल की पर्याय है और वे भी सब गुणों की पर्यायें हैं। इन अचेतन पदार्थों में ज्ञान भी नहीं है, आनंद भी नहीं है, तब उन पदार्थों से मेरे में ज्ञान कैसे आ जाय, आनंद कैसे आ जाय? इन पदार्थों को विषय करके जो हमारे में एक विशिष्ट प्रकार का ज्ञान बनता है उस ज्ञान का आनंद लूटा करते हैं, भोगों के भोगने के समय भी भोगों से आनंद नहीं है। जो आनंदस्वरूप है उसकी ओर दृष्टिपात नहीं करते और जहाँ न आनंद है और न ज्ञान है ऐसे परपदार्थों की ओर आकर्षित होते रहते हैं। इस ही भूल में अब तक संसार में रुलते चले आये हैं और यही भूल जब तक रहेगी तब तक संसार में रुलते रहेंगे। आत्मविश्राम का अनुरोध—यह मनुष्यजन्म बहुत दुलर्भ जन्म है। अनेक कुयोनियों से निकलकर आज मनुष्य हुए हैं तो मनुष्य भव को भोगों में, मोहरागद्वेष में न खोयें किंतु अपने आपकी सुध लें। अपने आपके ज्ञानामृत का पान करके तृप्त रहा करें, जिन बाह्यपदार्थों को देखकर हर्षमग्न हुआ करते हैं वे बाह्य पदार्थ विनश्वर हैं और उनकी ओर से मेरे में कोई गुण नहीं आता है, वे अपनी ही जगह हैं, मैं अपने आपमें कल्पनाएँ करके अपना ही जाल गूँथ करके विकल्पों के अनुसार हम कुछ से कुछ माना करते हैं। परमार्थ से मेरा ज्ञान, मेरा आनंद किसी दूसरे पदार्थ से नहीं मिलता है। एक बार ऐसा उत्तम साहस करके समस्त परपदार्थों को भूलकर अपने आत्मा में परमविश्राम तो लें। अलौकिक आनंद की झलक होगी और उसही आनंद में यह सामर्थ्य है कि हमारे संसार के सकल संकट विनष्ट हो जायेंगे, उसके प्रताप से यह ज्ञानस्वरूप की चर्चा चल रही है? जैसे दीपक प्रकाशात्मक होने से अपने आपको भी प्रकाशित करता है और घट आदिक जो भिन्न पदार्थ हैं उनको भी प्रकाशित करता है, इसही प्रकार ज्ञानज्योति से स्वयं ज्ञानात्मक जो निज आत्मा है उस आत्मा को भी जानता है। आत्मदेव की देहदेवालय से भी विविक्तता—जैसे शीशी के अंदर पारा रहकर भी शीशी से अत्यंत भिन्न है, पारे का कुछ भी अंश शीशी में नहीं आता और शीशी का कुछ भी अंश पारे में नहीं जाता। पारा शीशी के अंदर पड़ा हुआ भी अपने स्वभाव से भिन्न है, यों ही जानो कि इस देह के अंदर रहकर भी यह आत्मा देह से जुदा रहने का अपना स्वभाव बनाये हुए है। बल्कि शीशी के जितनी जगह में काँच है वहाँ पारे का तो निवास ही नहीं है, किंतु यहाँ जिस-जिस जगह भी शरीर है उन-उन अणुवों में इस आत्मा का निवास है, इतने पर भी इस देह से यह आत्मा पूरा विविक्त ही रहने का स्वभाव रख रहा है। ज्ञानभावना का प्रताप—जो केवल आत्मा को ही जानना चाहता है और इसके उपाय में ज्ञान का क्या स्वरूप है, ज्ञान क्या काम करता है, ज्ञान का जानन क्या है? वह केवल जानन प्रकाश में ही अपना उपयोग देगा, केवल प्रकाशमात्र ही अपने आपकी भावना करेगा, वह इस विविक्त आत्मा को पा लेगा, पहिचान लेगा। अपने आत्मा का परिचय, अपने आपकी प्राप्ति एक ज्ञानभावना में बसी हुई है। हम अपने आपको मैं केवल ज्ञानमात्र हूँ, केवल जाननहार हूँ, जानन ही मेरा स्वरूप है, इस ज्ञानमात्र की बराबर भावना रहे। मैं ज्ञानमात्र हूँ, इस रुचि के साथ रहें। इस दृढ़ता के साथ रहें कि जो शरीर है वह भी विस्मरण हो जाय, लोक भी कुछ है यह भी विस्मरण हो जाय, गाँव-नगर, घर-कुटुंब, धन-वैभव समस्त परपदार्थ भूल जायें, उन्हें ध्यान में न लिया जाय, ‘केवल ज्ञानमात्र मैं हूँ’ इस प्रकार की निरंतर भावना बनाएँ तो अपने आपके दर्शन ज्ञानानुभव के रूप में होंगे। निमित्तनैमित्तिक योगपरंपराखंडिनी ज्ञानभावना—अहो इस जीव ने अपने आपको नानारूप माना है। यद्यपि यह जीव अशुद्धपर्याय में नानारूप हो रहा है, मनुष्य, तिर्यंच आदिक नाना पर्यायोंरूप है, रागद्वेष-मोह नाना रूप है, तथापि अपने को नानारूप मान-मानकर कुछ भी लाभ न होगा, हम संसार के संकटों से मुक्त न हो सकेंगे। यह नानारूपता मेरे स्वभाव की नहीं है। यह ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक योग का वाचक बन गया है। यह विनश्वर चीज है और इस निमित्तनैमित्तिक योग का खंडन, परिहार हम केवल अपने आपको ज्ञानमात्र भावना करके, ज्ञानमात्र की उपलब्धि करके मिटा सकते हैं और दूसरा कोई उपाय नहीं है। पर को पर जानकर, निज को निज समझकर पर से हट जायें और निज में ही लग जायें, यह ही एक उपाय है कि हम सब संकटों को दूर कर सकते हैं। सबसे पहिले हमें निज को निज और पर को पर पहिचानना होगा। धन, वैभव, परिजन, मित्रजन इनसे सुख मान रहे हैं, इस भ्रम का खंडन करना होगा। इन बाह्य समागमों में सुख तो क्या उल्टा क्लेश ही होता है। अविवेकप्रेरित कल्पनायात्रा—धन-वैभव को, परिजन-मित्रजनों को अपना स्वरूप, अपनी वस्तु मानने में क्लेश ही क्लेश होता है। आनंद नहीं मिलता है, यह जीव उस क्लेश को ही आनंद समझता है। जो एक भूले रास्ते पर चल रहा है वह भूला तो है ही, पर उस भूल की ओर बढ़ाता चला जा रहा है। भूल को भूल न माने तो वह तो भूल बढ़ती ही जायेगी, वह भूल से कभी वापिस नहीं हो सकता, यों ही हम आप अंतरंग में अपनी यात्रा करते जा रहे हैं। काहे की यात्रा? कल्पनाओं की यात्रा, ज्ञानपरिणमन की यात्रा, कभी हम किसी कल्पनारूप परिणम रहे, कभी किसी कल्पनारूप परिणम रहे, ऐसी कल्पनाओं के परिणमन की भीतर में यात्रा कर रहे हैं। हे यात्री, जरा विराम ले, इस भूल की यात्रा में तू अपनी भूल को बढ़ाता मत जा। कुछ ठहर और अपने आपमें सोच कि जिन कल्पनाओं में हम इतना बढ़े जा रहे हैं उन कल्पनाओं से मेरा हित नहीं है। विनश्वर जीवन में अविनश्वरलाभ का प्रयत्न—हे आत्मन् ! मेरा हित एक निस्तरंग निर्विकल्पज्ञानप्रकाशमात्र के अनुभव में है, उसकी दृष्टि कर, उसके लिए यत्न कर। उस ही उपाय के करने के लिए अपने इस मनुष्यजीवन को जानो। मेरे मनुष्य होने का प्रयोजन एक यही होना चाहिए कि मैं अंतरंग में ऐसा उपाय और पुरुषार्थ बना लूँ कि सदा के लिए जन्म-मरण, भूख-प्यास, संयोग-वियोग, ये सारे क्लेश दूर हो जायें जो कि कल्पनाओं से उत्पन्न हुए हैं। यह पुरुषार्थ यदि किया जा सका तो हम लोगों का मनुष्य जन्म पाना, श्रावक कुल पाना, जैनेंद्रमार्ग पाना—ये सब सफल हैं। शुद्ध उपयोग की चर्चा—नियमसार के इस अंतिम अधिकार में शुद्धोपयोग का वर्णन चल रहा है। इस प्रसंग में पर्यायशुद्ध उपयोग की बात कही जा रही है किंतु जिसका अध्यात्म लक्ष्य है वह कुछ भी वर्णन करे समस्त वर्णनों में उसकी शक्ति रूप शुद्ध अंस्तत्त्व का प्रकाश होता ही रहता है। यह तो शुद्धोपयोग का वर्णन है किंतु जहाँ आस्रव, बंध जैसे सांसारिक तत्त्वों का भी वर्णन चल रहा हो तो अध्यात्मवेदी उन सब वर्णनों में अपने लक्ष्यभूत मूल डोर पर ही आते रहते हैं। शुद्धोपयोग के अर्थात् केवलदर्शन, केवलज्ञान के संबंध में यह बताते हुए कि केवली प्रभु व्यवहारनय से सबको जानते हैं और निश्चयनय से आत्मा को जानते हैं। प्रसंग चलते-चलते इस समय ज्ञान का स्वरूप चल रहा है। अपनी चर्चा—यह चर्चा किसी अन्य पदार्थ की न समझना, यही समझना कि यह चर्चा हमारी है, हमारे ज्ञान की है। ज्ञान स्वपरप्रकाशक होता है। इस प्रकरण को लेकर चलना है। खूब उपयोग लगाकर ध्यान से सुनियेगा तो कोई भी बात विदित हुए बिना न रहेगी, ज्ञानातिरिक्त जानते जाइए, हम आपके जानन का गुण है। वह ज्ञान स्वपरप्रकाशक है अर्थात् स्व का ज्ञान करता है और पर का भी ज्ञान करता है। इस स्वपरप्रकाशकता के संबंध में त्रिस्थानीय उत्तर लगाइए। यह ज्ञान स्व का प्रकाश करता है और पर का प्रकाश करता है अर्थात् आत्मा को भी जानता है और पर को भी जानता है। इस संबंध में तो बहुत कुछ कहा गया है। ज्ञान की स्वपरव्यवसायात्मकता—अब स्वपरप्रकाशता की दूसरी सीढ़ी पर आइए। यह ज्ञान स्वपरव्यवसायी है अर्थात् स्व का भी निश्चय करता है और पर का भी निश्चय करता है। इस व्याख्या में न्यायशास्त्र की झलक है, सो दर्शनशास्त्र की पद्धति से इसका अर्थ समझना है। कोई कोई दार्शनिक ज्ञान को स्वसम्वेद्य नहीं मानते। उनका मंतव्य है कि ज्ञान सबको जानता है और जो ज्ञान सब चीजों को जानता है, उस ज्ञान को जानने के लिए एक नया ज्ञान और करना पड़ता है तब यह ठीक बैठता है कि मेरा वह ज्ञान ठीक है और जिस नए ज्ञान का यह निर्णय बनाए कि वह ज्ञान ठीक है इस ज्ञान को भी जानने के लिए एक नया ज्ञान और करना पड़ता है, वह यह निर्णय करेगा कि यह द्वितीय ज्ञान ठीक है। अब यह तृतीय ज्ञान भी ठीक है, इसे समझने के लिए चतुर्थ ज्ञान और करना पड़ेगा। उनका यह रोजगार बड़ा लंबा चौड़ा है। कभी अंत ही न होगा। अनवस्था दोष के वारण के यत्न में ‘‘आवश्यकता नहीं है, वहाँ जानने का अंत है’’ ऐसा उनका मंतव्य है, किंतु ज्ञान ऐसा चमत्कारी गुण है कि वही ज्ञान जो परपदार्थों को जान रहा है परपदार्थों का भी निश्चय रखता है और वही ज्ञान अपने आपका भी निश्चय रखता है कि यह ज्ञान सही है, ऐसा स्व पर व्यावसायात्मक यह ज्ञान है। स्वव्यावसायिता के बिना परव्यावसायिता का अभाव—जो ज्ञान अपने आपका व्यवसाय नहीं करता, निश्चय नहीं करता कि मैं ठीक हूँ, तो जिस ज्ञान से जानता हूँ उसी का ठिकाना नहीं, फिर पदार्थ कहाँ ठीक होगा? जो भी ज्ञान किसी बाह्यपदार्थों को जानता है वह ज्ञान अपने आपके व्यवसायपूर्वक ही पर को जानता है, जो ज्ञान अपने आपका निश्चय नहीं रखता है वह ज्ञान पर का भी निश्चय नहीं रख सकता। यों दर्शनशास्त्र की पद्धति से ज्ञान की स्वपर-प्रकाशकता जानो।
अध्यात्मस्वपरप्रकाशकता—अब अंतिम श्रेणी में स्वपर-प्रकाशकता का अर्थ लगाएँ, यह है निश्चय अध्यात्म की पद्धति। निश्चय से ज्ञान, ज्ञान के आधारभूत अपने आत्मा को ही जानता है बाह्य को नहीं। बाह्य को जानता तो है, पर उस पद्धति का जिक्र नहीं कर रहे हैं। किस प्रकार जानता है बाह्य को, यह बहुत कुछ कहा जा चुका है। यह ज्ञान अपने आत्मा में ही निश्चयत: जानता है और इस आत्मा में ज्ञान के अतिरिक्त अन्य भी गुण हैं, अन्य पर्यायें हैं उनमें से ज्ञान कर्ता के रूप में ज्ञान तो स्व है और ज्ञानातिरिक्त अन्य समस्त आत्मीय गुण हैं, पर यह ज्ञान इस आत्मा के आत्मगत आत्मीय परगुणों का भी निश्चय करता है और आत्मीय निज गुण का अर्थात् जाननहार ज्ञानगुण का भी निश्चय करता है याने आत्मनिजगुण का भी निश्चय करता है। यों निश्चयपक्ष से भी स्वपर-प्रकाशकता बनी हुई है।
ज्ञाता के ज्ञान से मोह का प्रक्षय—हम ज्ञान से जानते हैं, जिस ज्ञान से जानते हैं उस ज्ञान का ज्ञान होने पर हमारा मोह दूर हो जाता है। मैं वास्तव में क्या हूँ? इसका शुद्ध ज्ञान हुए बिना मोह दूर नहीं हो सकता। मैं ज्ञान-ज्योति हूँ, सबसे विविक्त अपने सहज स्वभाव में तन्मय ऐसा एकत्व-विभत्व स्वरूप हूँ, ऐसा जब अपने आपका परिचय नहीं होता तो भीतर से यह कुश्रद्धा बन जाती है कि मकान मेरा है, परिजन मेरे हैं, ये मुझे सुख देते हैं, ये मुझे दु:ख देते हैं। अरे प्रियतम् ! अपने अंतस्तत्त्व को सँभाल कर देख। बाहर में सभी जीव अपनी-अपनी योग्यतानुसार अपना-अपना परिणमन करते हैं, न कोई तुझसे मित्रता करता है और न कोई शत्रुता करता है, वे तो अपने आपके परिणमन से ही फुरसत नहीं पाते हैं। प्रत्येक पदार्थ अपने आपके परिणमन में ही अपने को बनाए रहते हैं। मेरा जगत् में कहीं कुछ नहीं है। मेरा तो यही मैं ही हूँ। ऐसे इस ज्योतिस्वरूप अपने आपकी खबर न रहे तो इसमें रमने का गुण तो है ही, जब इसे अपना खिलौना न मिलेगा तो पर खिलौनों में रमेगा ही। चारित्र गुण कहाँ जाय, वह तो कुछ न कुछ अपना निष्कंप स्वरूप जब न अनुभूत हुआ तो यह फिर बाहर में रमण करेगा, बाहर में लगेगा। स्वरूपनिर्णय का परिचय—भैया ! हित तो अपना अपने आपके स्वरूपनिर्णय में है और स्वरूपनिर्णय तभी अपना सच्चा समझिये जब अपने में कषायों की पकड़ न रहा करे। मैं श्रेष्ठ हूँ, मैं बड़ा हूँ, सबमें जानकार हूँ, अमुक परिस्थिति का हूँ आदिक कुछ भी लगाव चलता है तो वहाँ स्वनिर्णय में अटक है अभी। धर्मचर्चा के नाम पर भी यदि क्रोध, मान, माया, लोभ आदि का प्रसंग आता है तो समझना चाहिए कि अभी हमें स्व का निर्णय नहीं हुआ है। स्व का व्यवसाय होने पर उपेक्षाभाव प्रकट हो जाता है। अरे जहाँ इस निर्णय की डींग मारी जा रही हो कि मैं स्वतंत्र हूँ, परद्रव्य स्वतंत्र हूँ, किसी की क्रिया से मेरा परिणमन नहीं है वहाँ यदि उसके विरुद्ध कोई बात कहे तो वह अपने में बड़ा खेद मानता है, अपनी बात उस दूसरे को मनाने के लिए तैयार हो जाता है। तो बतावो कहाँ रहा स्वनिर्णय? स्व निर्णय का फल है उपेक्षा भाव। सहज अविकार स्वभाव—यह सहज ज्ञान निर्विकार निरंजन स्वभाव में ही निरत रहता है। स्वभाव दृष्टि से कहा जा रहा है, परम निश्चय दृष्टि से। निश्चय स्वात्माश्रित होता है। निश्चय और व्यवहार ये भी बदलते रहते हैं, पर परमनिश्चय नहीं बदलता है। जो निश्चय किसी व्यवहारदृष्टि के मुकाबले निश्चय कहलाता है उससे और अंतरंगदृष्टि मिल जाने पर वह निश्चय व्यवहार बन जाता है और निश्चयस्वरूप द्वितीय उपस्थित हो जाता है, पर यहाँ परमनिश्चय से बात कही जा रही है। यह सहज ज्ञान सतत् ही शाश्वत अविकार स्वभावी है। स्वभाव तका जा रहा है, जो चाहे विभावपर्याय से तिरोभूत भी हो फिर भी प्रज्ञा छेनी में इतनी करामात है कि वह किसी भी प्रकार आवृत्त हुआ भी शुद्ध अंतस्तत्त्व को निरख लेता है, ज्ञान की अटक नहीं रहती है किसी आवरण से। हाँ, जो ज्ञान ही आवृत्त हो उसकी बात अलग है । इस ज्ञान द्वारा हम कितने ही पदार्थ को फाड़कर भीतर प्रवेश कर जाते हैं। जैसे हड्डी का फोटो लेने वाला एक्सरे यंत्र चमड़ी को, खून को, मांस-मज्जा को—सबको छोड़कर केवल हड्डी का फोटो लेता है—ऐसे ही यह ज्ञान अपने आपके अंत:स्वरूप को जानना चाहे तो यह न कपड़े से अटकता है, न चमड़े से, न खून से, न मांस-मज्जा से, न हड्डी से, न रागादिक भावों से और न संकल्प-विकल्पों से। एक शुद्धपारिणामिक भाव स्वरूप इस सहजस्वभाव का ग्रहण कर लेता है। सहज परमपारिणामिक भाव—पारिणामिक भाव का अर्थ शब्द में स्वभाव नहीं है, किंतु फलित अर्थ स्वभाव से है। जिसका परिणाम प्रयोजन है उस भाव को पारिणामिक भाव कहते हैं, जिसका परिणत रहना ही प्रयोजन है। प्रयोजक ध्रुव होता है, ध्रौव्य अथवा नित्यता ही अपरिणामीपन को नहीं कहते हैं, किंतु वस्तु के भाव के होते रहने का व्यय न हो, सदैव होते रहना—इसका नाम है नित्य। तो यह एक स्वभाव है, जिसका किसी न किसी रूप में निरंतर परिणाम चलता है और वह परिणाम इस स्वभाव के स्वाभत्व को कायम रखने के लिये चलता है। तो उन सब परिणामों का जिसके प्रयोजन है, जो प्रयोजन है, वह है पारिणामिक भाव। फलित अर्थ सहज स्वभाव हुआ। शाश्वत स्वभाव त्रिकाल निरुपराग है। एक क्षण भी स्वभाव में यदि उपराग आया हो तो इसका उपराग किसी भी समय नष्ट न हो सकता था, उसका तो लक्षण विकारी ही बनेगा। यों स्वभाव अविकारी ही रहता है। परिणमन विकारी हो तब भी स्वभाव अविकारी है। अविकारस्वभाव के समर्थन में एक दृष्टांत—जैसे लोकदृष्टांत में पानी गर्म हो गया। अग्नि का सन्निधान पाकर वह अपने आपके स्पर्श गुण के परिणमन में गर्म हुआ है, किसी परवस्तु का वहाँ प्रवेश नहीं है, निमित्तनैमित्तिक योग अवश्य वहाँ है। गर्म हो जाने पर भी यह पूछा जाये कि इस पानी के स्वभाव में गर्मी है क्या? यदि कोई यह निर्णय कर ले कि पानी का स्वभाव भी गर्म है तो पानी का स्वभाव तो गर्म नहीं है। यदि पानी का स्वभाव भी गर्म है तो पानी कभी ठंडा नहीं किया जा सकता। अग्नि का स्वभाव गर्म है तो इसके ठंडा करने के लिये कोई पंखे झकोरता है क्या? पानी यदि गरम है तो उसको ठंडा करने के लिये पंखे झकोले जाते हैं। गर्मी होने पर भी हम आपकी यह अटल श्रद्धा है कि पानी का स्वभाव गरम है ही नहीं, न कभी हो सकता है—यह एक दृष्टांत की सीमा तक समझना है। पानी द्रव्य नहीं है, ठंडा होना भी गुण नहीं है, पर इस प्रसंग में पानी को द्रव्य माना और ठंडे को गुण माना और गर्मी को विभाव पर्याय माना। ऐसा मानने की दिशा हमें क्यों सूझी? इसका कारण यह है कि हम प्रकट यह पाते हैं कि अग्नि को किसी गर्म पदार्थ का, उपाधि का संयोग नहीं मिलता है तो पानी अपने ठंडेपन की ओर रहता है। स्वभाव अविकारी होता है। यों ही प्रत्येक पदार्थ का स्वभाव अविकारी है।
ज्ञान की आत्मगतस्वपरप्रकाशकता—निज सहज अविकार स्वभाव में निरत होने से यह सहज ज्ञान स्वप्रकाशक है और यह ही ज्ञान यद्यपि आत्मा से भिन्न वस्तु नहीं है। समझाने के लिये गुणगुणी का भेद होता है, यों संज्ञा प्रयोजन आदिक की अपेक्षा से इसे प्रतिपादन के लिये छाँट लो और यह देख लो कि यह ज्ञान अपने को भी जानता है और आत्मा में जो श्रद्धा, चारित्र, आनंद आदिक अनेक गुण हैं, उनका भी प्रकाशक होता है। ये पर हैं आत्मगत। परपदार्थों की बात नहीं कह रहे हैं। आत्मगत ज्ञानातिरिक्त गुण भी ज्ञानेतर होने से ज्ञान की अपेक्षा पर है। यह ज्ञान ज्ञान का प्रकाशक है और श्रद्धा, चारित्र, आनंद आदिक गुणों का भी प्रकाशक है। अध्यात्म परमनिश्चय से यह है स्वपरप्रकाशकता।
अभिन्नकार्यकारणता—यह आत्मा केवली प्रभु निश्चय से निज कारणपरमात्मा को जानता है अर्थात् आत्मस्वरूप को जानता है और व्यवहार से समस्त सत्समूह को जानता है। कार्यपरमात्मा हो जाने पर भी कारणपरमात्मत्व समाप्त नहीं हो जाता। प्रतिसमय कार्यपरमात्मत्व चलता है, वह कारणपरमात्मत्व का आश्रय लेकर ही चल रहा है केवली प्रभु में भी। कारण के बिना कार्य होते रहना संभव नहीं है। यह ज्ञान जब कर्मबंध का छेद होता है, तब अक्षय मोक्ष सुख का अनुभव करता हुआ सहज विकासमय विकसित रहता है। अब यह ज्ञान अत्यंत शुद्ध हो गया है। केवली भगवान का यह सर्वथा निरावरण ज्ञान निज रस की अतिशयता से अत्यंत गंभीर, धीर और एकस्वरूप है। यह अपने आपकी अचल महिमा में लीन बन रहा है। आत्मा का जगमग स्वरूप-‘सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि निजानंद रस लीन।’ ज्ञान की अपेक्षा आत्मा सर्वव्यापक है, लोक में ही नहीं वरन् अलोक में भी व्यापक है। लोक के बाहर आकाश के सिवाय और कुछ नहीं है। अलोक में एक भी जीव नहीं है, किंतु यह ज्ञान अलोक में भी व्यापक हो गया है। तो प्रभु लोक और अलोक के जाननहार हैं। ज्ञान से तो यह इतना व्यापक है, पर आनंद गुण के अनुभव से यह अपने आपके प्रदेशों से एक भी प्रदेश बाहर में नहीं है। आनंद का अनुभव अपने आपके ही प्रदेश में है। अनुभव तो निज ज्ञान का भी स्वात्मप्रदेश में है, पर ज्ञान का विषय व्यापक है और आनंद का विषय स्वात्मा ही है। इसी कारण यह बात घटित हो गई—‘सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि निजानंद रस लीन।’ ज्ञान से तो जग और आनंद से मग है यह आत्मा। यह है केवलज्ञानी पुरुष का जगमग शुद्ध स्वरूप। आत्मा की स्वपरप्रकाशकता की सिद्धि—इस गाथा में यह सिद्ध किया है कि ये केवलज्ञानमूर्ति अर्थात् केवली भगवान व्यवहारनय से तो निरंतर समस्त पदार्थों को जानते हैं और निश्चय से ये केवली प्रभु अपने स्वरूप को जानते रहते हैं। क्या हो रहा है वहाँ काम? वह तो एक ही प्रकार का है, उस पर प्रभुता की महिमा बताने के लिये ये निश्चय और व्यवहार दो भेद आ पड़े हैं। बहिर्द्रव्यों का आलंबन लेकर प्रतिपादन करने वाले व्यवहारनय से तो सर्वज्ञता बतायी गयी है और स्वद्रव्य का ही आलंबन लेकर प्रतिपादन करने वाले निश्चय से आत्मज्ञता बतायी गयी है। यहाँ यह नहीं समझना कि व्यवहार से जानते हैं तो वे बातें झूठ हैं याने जानते नहीं हैं वास्तव में, किंतु वास्तव में जानते हैं। पर क्या जानते हैं? इसका प्रतिपादन बाह्यवस्तु का आलंबन लेकर हो पाया है, इस कारण व्यवहारनय से पर का जानना कहा है। इस तरह इस गाथा में आत्मा की स्वप्रकाशकता सिद्ध की गयी है।