वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 169
From जैनकोष
जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ।।169।।
व्यवहारनय से परप्रकाशकता का समर्थन—केवली भगवान लोक और अलोक को जानते हैं। आत्मा से नहीं जानते हैं, ऐसा यदि कोई व्यवहारनय की दृष्टि रखकर कहता है तो उसको क्या दूषण होता है? इस गाथा में व्यवहारनय की अपेक्षा केवली भगवान के ज्ञान का निर्णय किया है। प्रत्येक आत्मा ज्ञानस्वरूप है। ज्ञान का काम जानने का है। किसी भी पदार्थ का कोई भी गुण, कोई भी शक्ति खाली नहीं रह सकती। प्रत्येक शक्ति प्रति समय अपना काम करती है। आत्मा में ज्ञान शक्ति है जिस शक्ति के प्रताप से यह आत्मा निरंतर जानता रहता है। यह जानन ज्ञेयाकारग्रहणरूप है जिससे ज्ञेयों का जानना-सिद्ध ही है। सर्व आत्मावों के ज्ञानस्वरूपत्व का स्मरण—आत्मा शब्द का अर्थ ही यह है—‘अतति सततं गच्छति जानाति इति आत्मा।’ जो निरंतर जानता रहे उसका नाम आत्मा है। कोई भी स्थिति हो, कैसी भी स्थिति हो, आत्मा का ज्ञान बंद नहीं होता। जिसे जैसी योग्यता मिली है वह अपनी योग्यतानुसार जानता ही रहता है। पर हम आप मनुष्य हैं, जरा विशेष अनुभव हैं। क्या ये पशु पक्षी नहीं जानते हैं? ये भी चलते फिरते नजर आते हैं। ये भी हाँकने की आवाज देने से चलने लगते हैं। खड़े होने का संकेत देने से अर्थात् पुचकारना आदि करने से वे खड़े हो जाते हैं। इससे हम सभी सुगमतया जान जाते हैं कि इनमें जानने की शक्ति है। पर जो कीड़ा, मकोड़ा, पशु, पक्षी आदिक हैं क्या ये नहीं जानते हैं? इनमें भी हम इससे अनुमान कर लेते हैं कि वे चीजें उठाकर ले जाते हैं। जैसे मीठा आदि कोर्इ चीज हुई तो ये चींटा-चींटीं आदि उठाकर ले जाया करते हैं। ये जमीन में अपना घर भी बनाते हैं। इन सब बातों को देखकर वहाँ भी यह अनुमान कर लिया जाता है कि इन कीड़े-मकौड़ों में भी निरंतर जानते रहने की शक्ति है। ये जो पेड़-पौधे खड़े हुए हैं, क्या ये समझते नहीं हैं? इनमें भी जानने समझने की शक्ति है। उनकी योग्यता कुछ कुंठित है इस कारण वे खुद को अपनी ही तरह जानते हैं उसे हम आप लोग पहिचान नहीं पाते हैं। लेकिन हरा-भरा होना, सूख जाना आदि इन सब बातों को देखकर यह अनुमान किया जाता है कि इनमें भी जान है। और जिनमें जान है वे जानते ही रहते हैं, यह तो संसारी जीवों की बात है। यही जीव अपना विकास कर-करके जब मनुष्यपर्याय में आया और वहाँ सम्यग्ज्ञान जगा, वैराग्य हुआ, अपने इस आनंद के निधान आत्मा की ओर झुकाव हुआ, इस आत्मा भगवान का आलंबन लिया तो इसके प्रताप से वे कर्मों का विनाश करके केवली प्रभु हो जाते हैं। ये समस्त लोकालोक को युगपत् जानते रहते हैं। आत्मा की प्रभुस्वरूपता का ज्ञान—भगवान प्रभु कोई विलक्षण चीज हैं, हमसे न्यारी जाति के हैं, ये शासक हैं, हम उनके शासन में रहने वाले हैं ऐसी बुद्धि रख-रखकर उनको न देखें किंतु वे मेरी ही जाति के हैं, मेरा भी स्वरूप उनके जैसा हो सकता है ,विशेषता तो वीतरागता और सर्वज्ञता की है। रागद्वेषादिक विकार जब नहीं रहे तो वीतरागता हो जाती है, और यह ज्ञान जब इंद्रिय की अपेक्षा न रखे, केवल अपने ही ज्ञान का आलंबन ले तो इसमें ऐसी शक्ति प्रकट होती है कि आत्मा की ही शक्ति से समस्त लोकालोक को जानने लगता है। ये सब स्वरूप मैं हो सकता हूँ, ऐसी जिसके अंदर भावना नहीं है उसे वास्तविक मायने में जैन नहीं कहा जाता है। अपनी परख और कर्तव्य—भैया ! अपने द्रव्य की बात टटोलो। इस जीवन से जीकर मैंने अपना उद्देश्य क्या बनाया है, धन जोड़-जोड़कर क्या किया जायेगा, क्या होगा उसका? आखिर सब कुछ छोड़कर तो जाना ही होगा। फिर यहाँ का कुछ भी समागम हमारे काम न आयेगा। जिस गति में जायेगा यह जीव उसही गति के योग्य सुख-दु:ख भोगेगा। धन कमाते रहने का ही संकल्प और प्रोग्राम न होना चाहिए। क्या करना है इस जीवन में? ये मायामयी पुरुष जो सभी कर्म और कषायों के प्रेरे हुए हैं खुद ही अशरण हैं। यहाँ के मायामयी लोगों से कुछ अपनी प्रशंसा के शब्द सुनने को मिले, क्या इतने भर प्रयोजन के लिए यह हमारा अमूल्य जीवन है? वह भी सारभूत नहीं है। हमारे जीवन का प्रयोजन यही हो कि हमें ज्ञानभावना करना है, मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, इस प्रकार की प्रतीति रखकर सदैव इतनी ही भावना बनानी है। जैसे हम अपने मन में सैकड़ों विकल्प बना रहे हैं, बजाय उन विकल्पों के अधिकाधिक समय ज्ञानस्वरूप मैं हूँ, ज्ञानमात्र मैं हूँ, ऐसी भावना में व्यतीत होना चाहिए। प्रभुता का पथ—प्रभु जो केवली हैं, अरहंत सिद्ध हैं उन्होंने केवल ज्ञानभावना ही भायी थी जिसके प्रसाद से कर्मों को दूर कर आज सर्वज्ञ हुए हैं और उनके चरणों में हम सब भक्त जन नमस्कार करते हैं। यही स्वरूप मेरा है। जिस पथ को उन्होंने अपनाया था उसी पथ से हम आप भी चल सकते हैं। वह पथ है रत्नत्रय का पथ। उस पथ पर हम भी चल सकते हैं। मैं ज्ञानमात्र हूँ, ऐसी भावना रहे, ऐसी श्रद्धा रहे, ऐसा ही उपयोग स्थिर रहे तो एक ज्ञानस्वरूप के ग्रहण के प्रताप से वे समस्त वैभव मिल जायेंगे जो वैभव प्रभु के प्रकट हुए हैं। अपने को प्रभुस्वरूप निहारकर प्रभु की टोली में अपना शुमार करो। मोहियों की टोली में अपना शुमार न करो। हितकारी झुकाव का निर्णय—जीव के दो ही तो प्रकार हैं—संसारी जीव और मुक्त जीव। यद्यपि हम संसारी हैं, किंतु अपना झुकाव कहाँ होना चाहिए? संसारियों में रुलने-मिलने का झुकाव होना चाहिए या जो प्रभु का स्वरूप है ऐसे ही स्वरूप के स्वभाव वाला में हूँ ऐसी चिंतना करके प्रभु की ओर झुकाव होना चाहिए। जीवन में निर्णय तो कर लो। यह निर्णय ठीक न हो सके तो जीवन विक्षिप्त रहेगा; मन यत्र-तत्र डोलेगा और अपना निर्णय सही हो जायेगा तो जीवन स्वर्णिम हो जायेगा। अब तक के अनुभव के आधार पर भी आप जान जायें कि हमारा प्रेम हमारा मोह परिजनों से, धन वैभव से सब से रहा, क्या उस मोह के फल में आत्मा में कुछ विकास हुआ है? क्या आत्मा में कुछ शांति हुई है? अरे ! न भी शांति हो लेकिन कुछ मौलिक शांति होने योग्य कुछ शांतिमय स्वरूप का स्पर्श भी किया क्या? यह सब जो कुछ भी किया गया है वह असार और व्यर्थ है। प्रभु केवली के स्वरूप को निरखकर उनकी ओर ही झुकाव हो, उन जैसा बनने का ही प्रोग्राम हो, मैं ऐसा हो सकता हूँ, ऐसा अपने आपमें दृढ़ विश्वास हो तो प्रभु पूजा सफल है। प्रभु का ज्ञान और आनंद—केवली भगवान के ज्ञान के संबंध में यह प्रसंग चल रहा है कि प्रभु जानते क्या हैं? कितने ही लोग तो ऐसी भी शंका कर बैठते हैं कि भगवान अब अकेले रह गये हैं, सिद्ध लोक में विराजमान् हैं, उनका किसी भी दूसरे के साथ कुछ संबंध नहीं है तो वह अकेले ही सिद्ध लोक में विराजे-विराजे क्या करते होंगे? उनका जी कैसे लगता होगा? यहाँ तो कुटुंब हैं, मित्रजन हैं, कारोबार हैं, उपयोग फँसा रहता है, समय ठीक निकल जाता है, पर प्रभु का समय कैसे कटता होगा, ऐसी भी कुछ जन आशंका कर बैठते है, लेकिन यह तो बतावो कि यहाँ हम आप लोगों को जो काम करने पड़ते हैं वे सब काम आकुलता के कारण किया करते हैं या निराकुलता के कारण किया करते हैं? हमारे इन सब कामों में आकुलता ही कारण है। काम न करना पड़े ऐसी स्थिति आये तब निराकुलता होती है। मेरे करने को अमुक काम पड़ा है, ऐसी बुद्धि जब तक रहती है तब तक आकुलता रहती है।
वस्तु का परिपूर्ण स्वरूप और पर में अकर्तृत्व—हम आपका स्वरूप परिपूर्ण है, इस देहमंदिर में विराजमान् यह आत्मा भगवान अपनी शक्ति से परिपूर्ण है, यहाँ अधूरापन भी कुछ नहीं है। ज्ञान और आनंद का यह निधान है। इसका स्वरूप ही ज्ञान और आनंद है। अलग से और कुछ रूप नहीं है, ज्ञान और आनंद—इन दो गुणों को निकाल दो अर्थात् न मानो तो फिर आत्मा नाम की कुछ चीज ही न रहेगी। यह ज्ञान और आनंद का पिंड है। यह जो कुछ कर पाता है अपने आपमें ही किया करता है, अपने से बाहर किसी भी परपदार्थ में कुछ भी परिणमन करने की सामर्थ्य अपने में नहीं है।
अकर्तृत्व के भाव में अनाकुलता का वास—कोई बालक आपकी आज्ञा के विरुद्ध चल रहा हो, बड़ा हो गया है, कमाने वाला भी हो गया है, उसे परवाह ही नहीं है आपकी, और वह आपकी आज्ञा न मानता हो तो आप अपने चित्त में कुड़ कर रह जाते हैं। आप कर क्या सकते हैं उसका? ऐसे ही समझो कि जब बालक छोटा भी हो, आपकी आज्ञा भी मानता हो तब भी आप बालक का कुछ नहीं कर रहे हैं, तब भी आप केवल अपनी ही कल्पनाएँ बना रहे हैं। बाह्य वस्तु चाहे मेरे मन के अनुकूल भी बन जायें तो भी मैं बाह्यवस्तु का कर्ता नहीं हूँ और कभी कोई चीज मेरे प्रतिकूल भी हो जाय तो मैं किसी परचीज का कर्ता नहीं हूँ, मैं सर्वदा अपना ही परिणमन किया करता हूँ। मेरे करने योग्य काम कुछ बाहर में है ही नहीं। अपना पर में अकर्तृत्व—जो जीव मोह और प्रेम में आकर परिश्रम करते हैं वे भी किसी से मोह और प्रेम नहीं करते हैं, अपने आपमें ही मोह और प्रेम का परिणमन किया करते हैं। इस आत्मा की देह से आगे कुछ करतूत नजर ही नहीं आती। देह में भी करतूत नजर नहीं आती। शरीर जब बड़ी उम्र का हो जाता है तो बूढ़ा होना पड़ता है। क्या यह जीव चाहता है कि मैं बूढ़ा हो जाऊँ, क्या यह चाहता है कि मेरा शरीर दुर्बल और क्षीण हो जाय, क्या यह दु:ख चाहता है? पर होना पड़ता है। हमारा वश जब शरीर पर नहीं चल सकता तो अन्य जीवों पर या अन्य वैभव पर तो क्या वश चलेगा? यह तो सब पुण्योदय का ठाठ है। जिसने जैसा पूर्वभव में सुकृत किया, निर्मल परिणाम किया, दया, दान, परोपकार, सबके सुखी रहने की भावना, अपने विषयों पर विजय आदिक पुण्य के कार्य किये उनका फल है यह जो कुछ समागम प्राप्त हुआ है। क्या किसी के हाथ पैर सिर धन कमाया करते हैं? यह जब आता है तो आपको भी विदित नहीं होता है कि किस ढ़ंग से आ गया और यह वैभव जब जाता है तो आपको भी विदित नहीं होता है कि यह वैभव किस रास्ते से जायेगा? यह तो पुण्य और पाप के अनुसार होने वाली बात है। उसे कोई जीव यों मानते हैं कि मैं कमाता हूँ उसमें कर्तृत्व की बुद्धि लादें तो वह पाप कर रहा है। पाप और महापाप—बाहर में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह—ये पाँच पाप माने गये हैं। किसी जीव का दिल दु:खाना, प्राण लेना हिंसा है, किसी के संबंध में झूठ बोलना झूठ है, हिंसा है, पाप है। किसी की चीज चुरा लेना चोरी है, हिंसा है, पाप है। किसी परस्त्री पर, परपुरुष पर मन में विकार लाना कुशील है, पाप है, हिंसा है और परिग्रह में बुद्धि फँसाये रहना, खूब परिग्रह जोडना, मैं अधिक से अधिक धनी कहलाऊँ ऐसा भाव करना पाप है, हिंसा है। ठीक है इन सब 5 पापों से भी मूल में महान पाप अज्ञान है। जिस जीव के अज्ञान होता है उसको सदैव महापाप लगता रहता है। अज्ञान का महापाप—कोई यह सोचे कि जानकार मनुष्य तो जान-बूझ कर पाप करते हैं, इसलिए अधिक पाप होता होगा और कोई मूर्ख देहाती अथवा ये कीड़े-मकौड़े, पशुपक्षी ये मनुष्यों जैसा जान नहीं पाते, छल, कपट, झूठे लेख आदि नहीं कर पाते, इनमें कम पाप लगता होगा, ऐसा नहीं है। जिस जीव के अज्ञान पड़ा हुआ है उसके महापाप अपने आप है। भला सामने कोई थोड़ी सी आग पड़ी हो, दो चार अकुल का जलता हुआ कोयला पड़ा हो, आप उसे देख रहे हैं, किसी ने पीछे से धक्का मारा, आपको आगे बढ़ना ही पड़ा और आग पर आपका पैर पड़कर चलना हो तो आप कितनी जल्दी पीछे से पैर रखकर आगे निकल जाते हैं, आप ज्यादा चल नहीं पाते हैं क्योंकि आपके ज्ञान में है कि यह आग है और आग पर पैर रक्खेंगे तो पैर जल जायेगा। किंतु पीछे आग पड़ी हो, जहाँ आपके ज्ञान में भी नहीं है और किसी वजह से आपने अपना पैर पीछे रक्खा है तो आप उसमें ज्यादा जलेंगे, क्योंकि उस आग का आपको ज्ञान नहीं है। इसी तरह जो पुरुष समझदार है, जानकार है कि अमुक चीज में पाप लगता है और इस पाप का फल बुरा होता है ऐसा अनुभव होने पर पूर्वकृत कर्मों की प्रेरणा से कदाचित् करना भी होता है तो वह उस चीज में आसक्त होकर नहीं करता है। जिस जीव को अपने स्वरूप का भान ही नहीं है, पर के स्वरूप का भी यथार्थ परिज्ञान नहीं है और विषय कषायों से हमारी बरबादी है ऐसा कुछ भान नहीं है उसके निरंतर महापाप चलता रहता है। अज्ञान सबसे बड़ा पाप है। प्रभु का तृतीय नेत्र—प्रभु का ज्ञान इतना निर्मल है कि वह समस्त लोक और अलोक को जानता है, जो कुछ भी है वह सब प्रभु के ज्ञान में ज्ञात है। व्यवहारनय से, यह भगवान चूँकि केवल ज्ञानरूपी तीसरा नेत्र उनके प्रकट हुआ है सो वे अरहंत भगवान, सकल परमात्मा, महादेव हैं, जिनका कि हम आप लोग स्तवन करते हैं। वह तीसरा नेत्र है केवलज्ञान, जिस ज्ञान के द्वारा समस्त विश्व को ये जानते रहते हैं। यह सकल परमात्मा जीवनमुक्त है, शिवस्वरूप है। शिव नाम है कल्याण का। यह कल्याणमय शिवस्वरूप परमात्मा केवलज्ञानरूप तृतीय लोचन से विभूषित हैं। ये अब अपुनर्भव पद को पायेंगे जहाँ से फिर संसार न होगा, ऐसी मुक्ति को प्राप्त करेंगे और अनंत काल तक जैसा कि सब कुछ आज जाना, जानते रहेंगे। वस्तुस्वातंत्र्य—यह लोक छह प्रकार के द्रव्यों से भरा हुआ है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इनके बाहर सब आकाश ही आकाश है। प्रभु लोक व अलोक सबको जानते हैं, इस व्यवहार की प्रधानता से हमें यह देखना है कि प्रभु समस्त बाह्य पदार्थों को जानते हैं, यों प्रभु के ज्ञान के स्वरूप का विचार करने में चतुर ज्ञानी पुरुष प्रभु का स्वरूप कह रहा है। यह समस्त जगत उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वरूप है। एक-एक अणु, हम आप सभी जीव व समस्त पदार्थ निरंतर नवीन-नवीन परिणतियों में गुजरते हैं, और पुरानी-पुरानी परिणतियों को विलीन करते रहते हैं, ऐसा वस्तु का स्वरूप है। किसी के स्वरूप को कोई दूसरा बदल नहीं सकता है, किसी के सुख को कोई दूसरा पैदा नहीं कर सकता, किसी जीव के दु:ख को कोई दूसरा जीव दे नहीं सकता। सब केवल अपने ही सुख-दु:ख के कर्ता भोक्ता, अपने ही विकल्पों में अनुभव करने वाले हैं। कभी सम्यक्त्व जग जाय, सुभवितव्यता आ जाय तो यह जीव अपने को निर्विकल्परूप में अनुभव कर लेता है। यह जीव अपने को ही करता है, दूसरे को कोई कुछ नहीं कर सकता है। ये चेतन, अचेतन समस्त संसार निरंतर परिवर्तन करते जा रहे हैं, किसी दूसरे के प्रवर्तन में हमारा कोई दखल नहीं है। शांतिकारक प्रत्यय—देखिये, अपने आपमें शांति का अनुभव करना हो तो यह विश्वास अभी बना लीजिए कि मैं जो कुछ करता हूँ अपने का ही कर पाता हूँ, दूसरे पदार्थ में तीन काल भी मेरा दखल नहीं है, मेरा दखल किसी पर में न पहिले था, न वर्तमान में है और न आगे होगा। हम अपना ही काम कर रहे हैं, आप अपना ही काम कर रहे हैं, भले ही आपका प्रेम, आपकी जिज्ञासा हमारे ज्ञान में जगे और उसकी प्रेरणा से हम कुछ बोलने लगें और आपको कुछ मन में कल्याण की भावना जगे और उससे प्रेरित होकर आप अपने आपमें इस जिनवाणी के शब्दों का कुछ मनन करने लगें तो आपने अपने में अपना काम किया, हमने अपने में अपना काम किया। न हम आपमें कुछ कर पा रहे हैं और न आप हममें कुछ कर पा रहे हैं, ऐसा यह वस्तु का स्वतंत्रस्वरूप है। ऐसी जो दृष्टि बनाए उसको कभी अशांति नहीं हो सकती। प्रभु का हितमय उपदेश—इस लोक में हमारा अधिकारी, हमारा शरण, सर्वस्व, हमारा रक्षक अन्य कोई नहीं है। हम ही ढंग से चलें, ढंग से रहें, ढंग से सोचें तो हम अपने में शांति पा सकते हैं। दूसरे के हाथ की बात नहीं है कि कोई हमें शांति दे। प्रभु अरहंतदेव भी स्पष्ट घोषणा कर रहे हैं कि हे जीव ! यदि तुम संसार के संकटों से सदा के लिए दूर होना चाहते हो तो पहिले तो हमारे ध्यान का आलंबन लो, कोई हर्ज नहीं, लेकिन अंत में मेरे ध्यान का भी आलंबन छोड़कर तुम्हें अपनी ही शुद्ध, अभेद, ज्ञानस्वरूप का ध्यान करना होगा तो संसार के संकटों से छूट जावोगे। जैनसिद्धांत ने स्वतंत्रता का महाघोष किया है। प्रत्येक वस्तु अत्यंत स्वतंत्र हैं। स्वातंत्र्य की सत्तासिद्धता—जैसे भारत में कुछ वर्ष पूर्व यह नारा बुलंद किया गया था कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। यह हुकूमत करने वाली सरकार, विदेशी सरकार हम लोगों पर हुकूमत करना छोड़ दे, हमें हमारा शासन दे। स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, यह नारा पहिले उठाया गया था, किंतु वस्तु में तो यह नारे वाली बात स्वयमेव पड़ी हुई है। प्रत्येक वस्तु का यह प्रकट घोष है कि स्वतंत्रता मेरा सत्तासिद्ध अधिकार है। चूँकि हम सत् हैं अतएव पूर्ण स्वतंत्र हैं। जो है वह स्वतंत्र हुआ ही करता है। यों जब सब पदार्थ स्वतंत्र हैं, अपने आपमें अपना परिणमन कर रहे हैं तो मैं किसका कर्ता हूँ और किसका भोक्ता हूँ? मैं सबसे निराला केवल अपने स्वरूपमात्र हूँ। मैं अपने ज्ञानस्वरूप हूँ, इस प्रकार की ज्ञानभावना जगे और हम परमात्मा के निकट, उनकी ओर अपना उपयोग बनाये रहें तो हमारा जीवन सफल है।