वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 173
From जैनकोष
परिणामरहियवयणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो।।173।। ईहापुव्बं वयणं जीवस्स य बंधकारणं होई। ईहारहियं वयणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो।।174।।
निरीह ज्ञाता-द्रष्टा प्रभु के बंधाभाव का समर्थन—पूर्व गाथा में यह बताया था कि केवली भगवान ईहापूर्वक जानते-देखते नहीं हैं इस कारण उनके बंध नहीं होता। उस ही विषय का विवरण इन दो गाथावों में किया गया है। मन के परिणामपूर्वक जो वचन निकलते हैं वे वचन जीव को बंध के कारण होते हैं, किंतु भगवान केवली सकल परमात्मा के मन के परिणाम से रहित वचन निकला करते हैं। सातिशय दिव्यध्वनि खिरती है, उससे केवलज्ञानी को बंध नहीं होता है। प्रभु के रागद्वेष रंचमात्र भी नहीं रहा। करते हों रागद्वेष, तो उनमें और हममें विशेषता क्या हुई? हम भी रागी-द्वेषी हुए और प्रभु भी रागीद्वेषी हुए, किंतु यह प्रभुता की बात नहीं है। शुद्ध पदार्थ ही प्रशंसा के योग्य है। भगवान आत्मा रागद्वेषरहित विशुद्ध है इस कारण यह अबंधक है और यह ही पूज्य है।
भगवान की सातिशय दिव्यध्वनि—जिसमें राग और द्वेष न हों उसके वचन भी नहीं निकला करते हैं। ऐसे वचन जो पदवर्ण सहित हों, संदर्भसहित बोले जायें, ऐसे वचन राग बिना नहीं निकला करते हैं। प्रभु के राग नहीं है इस कारण भगवान हम आप मनुष्यों जैसी बात, प्रीति नहीं करते। फिर भी उन्होंने साधक अवस्था में जब आत्मसाधना कर रहे थे उन समयों में यह भावना की थी कि जगत के ये प्राणी भ्रमवश अज्ञान से दु:खी हो रहे हैं। इनके सुखी होने का जरासा तो सुगम उपाय है, जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा समझ जायें, विपरीत ज्ञान न बनायें, फिर तो इनकी संसार के संकटों से मुक्ति हो ही जायेगी, इतना सीधा उपाय नहीं करते बन रहा है इन जीवों से, इनमें सुबुद्धि जगे और यह भ्रम-वासना विनष्ट हो, सब जीव सुखी हों, ऐसी भावना की थी। उस भावना में विशिष्ट पुण्य-प्रकृति का बंध हुआ था, जिन पुण्य-प्रकृतियों के कारण अब भगवान के जन्मसमय, भगवान के जीवन में प्रभुता प्रकट होने से पहिले ही इंद्रों ने, मनुष्यों ने, चक्रियों ने, सभी ने उनकी बड़ी महनीयता प्रसिद्ध की थी। यह प्रभु उस ही पुण्य-प्रकृति के उदय में और भव्य जीवों के भाग्य की प्रेरणा से बोलते तो हैं पर मुख से नहीं बोलते। सारे शरीर से एक ‘ॐ’ की प्रणव अनहद दिव्यध्वनि खिरती है। ‘जिनकी ध्वनि है ॐकार रूप, निरअक्षरमय महिमा अनूप।।’ उसमें अक्षर नहीं हैं, वचनपदविन्यास नहीं है। मेघगर्जनावत् है, किंतु सुहावनी है और अनेक मूल मंत्राक्षरों से भरी हुई दिव्यध्वनि निकलती है। उनके ये वचन बंध के करने वाले नहीं हैं। हाँ, अपनी बुद्धि से, अपने मन के परिणमन से वचन बोले जायें तो उससे बंध होता है।
प्रीतिकल्पना में बंधन—कोई मनुष्य किसी मनुष्य से प्रेमपूर्वक वचन बोलता है। वह भी बोलता है तो परस्पर में वह बँध जाता है, एक दूसरे के अधीन हो जाता है, एक दूसरे की सेवा करने के लिए दृढ़संकल्प हो जाता है। यह बंधन वचनव्यवहार से नहीं हुआ, किंतु उस वचनव्यवहार के कारण दूसरे के हृदय का प्रेम जाना, उस प्रेम से आकर्षित होकर परस्पर का बंधन बँधा, वचनों से बंधन नहीं बँधा। यदि यह विदित हो जाय कि यह ऊपरी मन से बिना राग के अथवा हमें फँसाने के लिए बहुत प्रेमपूर्वक बोल रहा है तो उसकी प्रेममयी वाणी को सुनकर भी बंधन नहीं होता क्योंकि जब तक यह अनुभव में न आये कि इसमें मेरे प्रति बहुत प्रेम है तब तक आकर्षण नहीं होता है। तो वचनव्यवहार करने पर भी जो बंधन हो जाता है वह वचनों का बंधन नहीं है, किंतु प्रेम की प्रतीति हुई उसका बंधन है। सारांश यह है कि जितने भी बंधन होते हैं वे मन के प्रयत्न से बंधन होते हैं, वचनों से नहीं। भगवान की अतींद्रियता व अमनस्कता—भगवान मनरहित है। मन एक भीतर की इंद्रिय है। जैसे यहाँ 5 इंद्रियाँ ऊपर से दिखती हैं इस ही प्रकार एक भीतर में इंद्रिय है जो इन पाँच इंद्रियों से भी सूक्ष्म है किंतु कार्य करने में इन पाँचों से भी तेज है, उसका नाम है अंत:करण। करण नाम इंद्रिय का है। 5 तो हैं बाह्यकरण और एक है अंत:करण। भीतर की इंद्रिय का नाम है अंत:करण। लोग कह तो देते हैं जरा अंत:करण से सोचिये, पर अंत:करण का क्या मर्म है इससे प्राय: लोग अपरिचित रहते है। जैसे कान, आँख, नाक आदिक जो बाह्य इंद्रियाँ हैं इनके माध्यम से, इनके उपयोग से हम पदार्थों को जानते हैं ऐसे ही हम अंतर में 8 पांखुरी के कमल के आकार बने हुए मन के उपयोग से हम बहुत सी बातें जान जाते हैं। जैसे इंद्रियों से जानने का विषय नियत है, कानों से केवल शब्द ही जाने जायें, आँखों से रूप ही समझा जाय, नासिका से गंध ही जानी जाय, रसना से रस ही चखा जाय, और स्पर्शन से स्पर्श जाना जाय, ऐसा नियत विषय मन का नहीं है कि यह मन किसे जाने? 5 इंद्रियों के विषयों को छोड़कर बाकी सब कुछ जो भी ज्ञात होता है वह सब मन का विषय है। इन छहों प्रसंगों में बंधन है। भगवान जैसे इंद्रियज्ञान से रहित हैं ऐसे ही मानसिकज्ञान से रहित हैं। वे केवलज्ञानी हैं, उनके बंधन नहीं होता। प्रभु का स्वसहाय ज्ञान—भगवान मनुष्यगति में ही तो हुए हैं। जब शरीर न रहेगा तब वे गतिरहित कहलायेंगे, सिद्ध कहलायेंगे, पर जब तक शरीर है तब तक यह मनुष्यगति के ही तो कहलायेंगे। अरहंत प्रभु भगवान सकलपरमात्मा, सगुण ब्रह्म, मनुष्य ही तो हैं, इनके मन था। जिस मन का अभी आकार में वर्णन किया है उसका तो नाम है द्रव्यमन, पौद्गलिकमन, भौतिकमन और उस मन के निमित्त से जो कुछ ज्ञान किया जाता है वह ज्ञान है भावमन। प्रभु अरहंत के शरीर है, इस कारण द्रव्यमन कहाँ जायेगा? द्रव्यमन तो बना हुआ है। जैसे कि प्रभु में शरीर, रसना, नाक, आँख, कान बने हुए हैं ऐसे ही भीतर के मन की इंद्रिय भी बनी है, लेकिन जैसे भगवान इंद्रिय के द्वारा जानते नहीं हैं, किंतु आत्मीयशक्ति से समस्त पदार्थों को युगपत् स्पष्ट जानते हैं ऐसे ही प्रभु केवली मन के द्वारा जानते नहीं हैं किंतु मन के अवलंबन बिना आत्मीयशक्ति से समस्त विश्व को जानते हैं। निरिच्छ ध्वनि—ये केवली मनरहित हैं। मन की परिणतिपूर्वक वचन निकलना, सो बंध का कारण है, किंतु प्रभु का वचन मन की परिणति पूर्वक नहीं होता। प्रभु के मुखारबिंद से निकली हुई वाणी यद्यपि यह वाणी सर्वांग से विनिर्गत होती है, किंतु जैसे यह सर्व अंग से प्रकट हुई, मुख से भी प्रकट हुई। वाणी सबके मुख से ही निकलती है, इस कारण मुखारबिंद से निकली हुई वाणी केवली के भी बतायी जाती है। वे वचन, वह दिव्यध्वनि इच्छापूर्वक नहीं है। प्रभु का वचन मनुष्यों के हृदय को आह्लाद उत्पन्न करने वाला है। सम्यग्ज्ञानीसमागम की दुर्लभता—भैया ! जगत में सब कुछ मिल जाना सुगम है, पर सम्यग्ज्ञानियों का संग मिलना अति दुर्लभ है। इस लोक में सर्वत्र मोही-मोही जीव ही तो भरे पड़े हैं। ये स्थावर कीड़ेमकौड़े, ये सब तो प्रकट ही मोही हैं, अज्ञानी हैं, सिवाय एक अपने यथातथा जीवन बिताने के और कुछ इन्हें लाभ नहीं है। जिनकी जो पद्धति है उस पद्धति से आहार करते हैं और अपने मोह में जीवन व्यतीत करते हैं। जो उन्हें शरीर मिला है उस शरीर को ही अपना सर्वस्व समझते हैं और शरीर की रक्षा में ही उनका मौज रहा करता है। पशुपक्षी भी वह मोही जगत् है, यह मनुष्य समाज भी मोही जगत् है, किसी देश में चले जावो आत्मा की दृष्टि रखने वाले, मोह और कषायों पर विजय करने वाले पुरुष कितने मिलेंगे? जो संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हैं, जगत् के समस्त पदार्थों के मात्र ज्ञाताद्रष्टा हैं, किसी भी पदार्थ के प्रति रंचमात्र भी श्रम नहीं करते हैं, किसी को अपनाते नहीं हैं, ज्ञानस्वरूप अपने आपको ही मान रहे हैं ऐसा ज्ञानानुभव करने वाले संतजन इस ज्ञानानुभूति के प्रसाद से घातिया कर्मों का नाश कर सर्वज्ञ होते हैं, ऐसे सम्यग्ज्ञानियों का संग मिलना बहुत दुर्लभ है। पर की उपेक्षा—जैसे किसी उदास बच्चे का मन भरने के लिए अनिष्ट चीज, साधारण तुच्छ चीज हाथ में दे दो तो वह उसे फेंक देता है, उसका उस तुच्छ चीज में मन नहीं रमता है। जिसे जो अनभीष्ट है उसमें कहाँ रमेगा वह? यों ही इस ज्ञानीसंत पुरुष को एक ज्ञानस्वरूप की उपासना के अतिरिक्त सब कुछ अनिष्ट है। किसी भी बाह्य पदार्थ में उसका चित्त नहीं रमता। जो केवलज्ञान की ही उपासना किया करता है, ऐसा विरक्त संत इस लोक में दुर्लभ है। उसका संग मिले, यह बहुत ही विशेष पुण्य की बात होगी। मोही जनों में रम-रमकर या उनमें ही सिर मार-मारकर कुछ भी मेरा हित न होगा, ऐसा जानता है ज्ञानी, इस कारण अनिष्ट वस्तु को यों ही फेंक देता है, परपदार्थ की उपेक्षा करता है। आत्मत्व और परमात्मत्व—केवली भगवान परमवैराग्य और ज्ञान के फल हैं। उनकी इच्छापूर्वक वचनरचना नहीं है इसलिए वह महिमावंत हैं, समस्त लोक के नाथ हैं। एक राजा था, वह न भगवान को माने, न आत्मा को माने। इस विषय पर मंत्री से बहुत कुछ विवाद कभी-कभी चला करता था। एक बार वह राजा घोड़े पर सवार हुआ मंत्री के दरवाजे के सामने से निकल रहा था। मंत्री भी बाहर खड़ा हुआ था। राजा कहता है मंत्री तुम हमें आत्मा और परमात्मा की बात जल्दी समझावो, 5 मिनट में समझा दो। मंत्री बोला—महाराज 5 मिनट भी न लगेगा, पाव मिनट लगेगा; आपको हम आत्मा और परमात्मा की बात पाव मिनट में समझा देंगे किंतु हमारा कसूर जो जंचे वह माफ हो। राजा बोला—अच्छा माफ। इसके अनंतर राजा के हाथ से मंत्री ने कोड़ा छीन लिया और दो चार कोड़े राजा को जमा दिये, तो राजा बोला—अरे ! रे ! रे ! भगवान। मंत्री बोला, जिसने अरे ! रे ! रे !कहा है वह तो है आत्मा और जिसको भगवान कहा है वह है भगवान। अब समझ में आया कुछ? राजा बोला—हाँ अब समझ में आया तो आत्मा की बात कौन नहीं जानता? जिसमें सुख-दु:ख अनुभव, तर्क-वितर्क के अनुभव जग रहे हैं वही तो आत्मा है। जिसमें मैं मैं की अंत:ध्वनि चलती है, मैं हूँ मैं हूँ, वह कुछ तो है और जब यह मैं जाननहार पदार्थ रागद्वेष रहित दोषरहित और अपने गुणों के विकास से परिपूर्ण हो, वही भगवान है। निरीह और ईहासहित ज्ञान का फल—हम आप जितना नेह भगवान को तजकर अन्य पदार्थों में लगायेंगे उतने ही हम दु:खी और भ्रांत बनते चले जायेंगे। मंगल प्रभुस्वरूप है, लोक में उत्तम यह प्रभुरूप है और शरण भी ऐसी प्रभुता ही है। यह भगवान प्रभु तीनों लोक के गुरु हैं, इन्होंने घातिया कर्मों का नाश किया है, इनके ज्ञान में समस्त विश्व ज्ञात हो रहा है। इनके न बंध की कल्पना है, न मोक्ष की कल्पना है, न इनमें बेहोशी है और न होश है किंतु शुद्ध ज्ञानस्वरूप है। यह सब माहात्म्य किस बात का है? प्रभु ने समस्त परपदार्थों का मोह त्याग कर रागद्वेष से परे होकर केवल एक स्वच्छ ज्ञानप्रकाश की ही उपासना की थी, उसका यह फल है कि सारा विश्व उनके ज्ञान में झलक रहा है। हम लोग जान-जानकर अर्थात् राग कर-करके अपने प्रयोजन से, स्वार्थ से पदार्थों को जानने में लगते हैं। फल यह होता है कि हम ज्यों के त्यों रहते हैं, ज्ञान में जरा भी बढ़ नहीं पाते हैं। जो पुरुष बाह्य पदार्थों में मोह त्यागकर केवल ज्ञानप्रकाश का ही आश्रय लेता है उसका ज्ञान इतना विशिष्ट हो जाता है कि उसको लोक और अलोक सब कुछ प्रतिभास हो जाते हैं। प्रभुमहिमा—भगवान में न धर्म का प्रपंच है, न कर्म का प्रपंच है। जैसे लोग व्यवहारधर्म किया करते हैं, व्यवहारधर्म में इंद्रिय का उपयोग लगाते हैं, ये भी प्रयत्न प्रभु के नहीं हैं। राग का अभाव हो जाने से उनके अतुल महिमा प्रकट हुई है। इस लोक में भी जो मनुष्य पक्षपात नहीं करता, रागद्वेष में नहीं उलझता उस पुरुष की यहाँ भी महिमा गायी जाती है। लोगों का आकर्षण पक्षपातियों की ओर नहीं होता, किंतु सरल पुरुषों के प्रति लोगों को आकर्षण होता है। प्रभु तो रागद्वेष से बिल्कुल परे हैं, वे तो अपने ही सुख में लीन हैं। इस प्रभु के बंधन नहीं है। शुद्धविकास की प्रभुता—इस शुद्धोपयोग अधिकार में आत्मा के ज्ञान और दर्शन—इन दो उपयोगों का वर्णन चल रहा है। इस प्रसंग में यह कहा जा रहा है कि भगवान का ज्ञान और दर्शन अतीव स्वच्छ है। उनका न अब जन्म होगा और न मरण होगा, न वे अब संसार में रुलेंगे, किंतु समस्त ज्ञेय पदार्थों को जानकर वे सदा अपने आनंदरस में लीन रहते हैं, रहेंगे। प्रभु नाम है ज्ञान और आनंद के शुद्ध विकास का। प्रभु को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और आनंदघन कहा करते हैं। हम आप सब कुछ जानने, सब कुछ देखने और आनंद पाने की अभिलाषा रखते हैं। इन तीनों की पूर्णता प्रभु में है, इसी कारण उन्हें सच्चिदानंद स्वरूप कहा करते हैं। उन भगवान के रागद्वेष की वासना न होने से बंध नहीं है। वे स्वतंत्र और सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, आनंदघन हैं। इनके ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग का शुद्ध विकास हुआ है जिससे केवली प्रभु निज और परसमस्त पदार्थों को युगपत् जानते और देखते रहते हैं।