वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 178
From जैनकोष
पुणरागमणविरहियं णिच्चं अचलं अणालंवं।।178।।
प्रभु की अव्यावाधस्वरूपता—जिन उपास्य आत्मावों के शुद्धोपयोग का परम विकास हुआ है वे प्रभु परम उत्कृष्ट स्थिति में हैं और उन ही जैसा स्वभाव मुझ आत्मा में है, इसका वर्णन इस गाथा में है। प्रभु भगवान अव्याबाध है, बाधारहित है। जिसके बाधाएँ लगी हैं वह संसारी है, प्रभु नहीं है, समस्त पाप-बैरियों की सेना का जहाँ प्रवेश ही नहीं है ऐसे सहज ज्ञानस्वरूप में उन प्रभु का आवास है। प्रभु के आवास का उत्तर जानने की पद्धति—प्रभु कहाँ रहते हैं? इसका उत्तर जानने से पहिले आप ही बतावो कि आप कहाँ-कहाँ रहते हैं? आपका उपयोग जिस ओर लगा हुआ हो आप वहाँ रहते हैं, यह इसका उत्तर है। जैसे प्रवचन सुनते हुए में आपका चित्त उचट जाय, मन न लगे तो कोई पूछ ही सकता है कि आप अभी कहाँ चले गये थे। अरे ! कहाँ चले गये थे? यहीं तो बैठे हैं 5 मिनट से। अरे ! शरीर का निवास है यहाँ, पर हम पूछ रहे हैं आपके जीव का निवास। आप कहाँ चले गये थे? जिस वस्तु में आपको ममता का परिणाम जगा वहाँ आप चले गए थे। जहाँ आपका चित्त लग रहा था वहाँ थे आप। आप इस समय कहाँ हैं? उसका उत्तर बाह्य द्रव्यों को लपेटकर न दिया जायेगा। मैं मंदिर में हूँ, यह इसका सही उत्तर नहीं है। मैं अमुक नगर में हूँ, यह मेरा सही उत्तर नहीं है। आप जिस प्रदेश में अपना उपयोग बसाये हुए हों आप वहाँ हैं, अन्यत्र नहीं हैं। प्रभु का आवासस्थान—ऐसे ही जब पूछा जाय कि प्रभु कहाँ रहते हैं? तो उसका उत्तर यह नहीं है कि वे सिद्ध लोक में रहते हैं या परमौदारिक शरीर में रहते हैं या ढाई द्वीप में विराजमान हैं, यह उसका उत्तर नहीं है। प्रभु अपने स्वरूप में रहते हैं, अपने ज्ञानबल से सारे लोक को जानकर भी समस्त विश्व उनके ज्ञान में स्पष्ट झलक रहा है, झलक रहा है तिस पर भी वे रह रहे हैं अपने सहजस्वरूप में। यह सहज आत्मस्वरूप ऐसा दृढ़ दुर्ग है कि इसमें पाप-बैरियों का प्रवेश नहीं हो सकता है। हम अपने स्वरूप की दृष्टि दृढ़ बनायें तो पाप नहीं सता सकते हैं। जब हम अपना ही घर नहीं मजबूत कर पाते हैं, हम अपने ही अंतस्तत्त्व की भावना सुदृढ़ नहीं कर सके हैं तो यह पाप-बैरी स्वच्छंद होकर सता ही रहे हैं और उसके फल में संसार में अब तक रुलते चले आये हैं। भगवान अव्याबाध हैं। उनके किसी भी प्रकार की बाधा नहीं है। यहाँ मैं अपने स्वरूप को निरखूँ तो यह मैं भी अव्याबाध हूँ। प्रभु की अतींद्रियता व विशिष्टता—भगवान अतींद्रिय हैं, समस्त आत्मप्रदेशों में चिदानंदस्वरूप ही भरा हुआ है, इंद्रियाँ नहीं भरी हैं, आत्मतत्त्व में इंद्रिय का स्वरूप नहीं है। यह स्वरूप अतींद्रिय है, मैं भी केवल एक ज्ञानानंदभाव स्वरूप हूँ। इसमें भी इंद्रिय नहीं हैं। यह आत्मा यद्यपि पर्यायदृष्टि से तीन स्थितियों में रह सकता है बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा। फिर भी इन तीन तत्त्वों से यह कारणपरमात्मा स्वरूपदृष्टि में विविक्त है अतएव विशिष्ट है और प्रभु परमात्मा इन तीन तत्त्वों में उत्कृष्ट तत्त्वोंरूप है, विशिष्ट है। बहिरात्मत्व—बहिरात्मा कहते हैं उसे जो जीव शरीर को और आत्मा को एक मानता हो। शरीर ही मैं हूँ। शरीर का रंग निरखकर यह विश्वास रखता है कि मैं गोरा हूँ, काला हूँ, लंबा हूँ, ठिगना हूँ। शरीर को जैसे यह मैं हूँ मानता है ऐसे ही दूसरे शरीरों को देखकर यह अमुक है ऐसा मानता है। ये सब दृश्यमान, मायारूप हैं, परमार्थ आत्मपदार्थ तो विलक्षण तत्त्व है, ऐसी श्रद्धा बहिरात्मा जीव के नहीं होती है। वह शरीर को और जीव को एक मानता है। इसी का ही नाम मूढ़, दुरात्मा, मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी, मोही आदि है। बाह्य पदार्थों में अपना स्वरूप देखना अथवा बाह्य पदार्थों से अपना ज्ञान और आनंद मानना इस ही का नाम बहिरात्मापन है। जगत के सब जीवों पर एक ओर से दृष्टि डालते तो जावो, प्राय: यही चर्या सबकी मिलेगी। बाह्य पदार्थों में अपना हित और आनंद समझना और बाह्य को ही अपना स्वरूप मानना, यह भूल पशुपक्षी में, मनुष्यों में, कीड़ों—मकौड़ों में, वनस्पतियों में, सबमें पड़ी हुई है। आत्मा की विशिष्टता व सामान्यरूपता—बिरले ही पंचेंद्रिय संज्ञी जीव इस बहिरत्व को त्यागकर निज अंत:प्रकाश को ग्रहण करते हैं। यह मैं आत्मा शाश्वत शुद्ध ज्ञानानंद स्वभाव मात्र हूँ। यह मैं न बहिरात्मा हूँ और ज्ञानी बनकर अंतरात्मा बना हूँ तो भी स्वरूपत: अंतरात्मा नहीं हूँ, और इस अंतस्तत्त्व के ध्यान के प्रसाद से परमात्मप्रभु होऊँगा तो भी मैं स्वयं स्वभावत: शाश्वत ज्ञानस्वरूप हूँ, शुद्ध आत्मा हूँ। परमात्मा होना शुद्ध आत्मा के आलंबन का प्रसाद है। शुद्ध स्वभाव की दृष्टि रखकर यह प्रकरण समझा जायेगा। मैं अव्याबाध हूँ। अतींद्रिय हूँ, और उपमारहित हूँ जगत के समस्त पदार्थों में एक आत्मा ही श्रेष्ठ पदार्थ माना गया है क्योंकि यह व्यवस्थापक है। अन्य समस्त पदार्थ अचेतन हैं, वे व्यवस्था नहीं बना सकते, वे कुछ जान नहीं सकते। हम आप जानते हैं, व्यवस्थाएँ बनाते हैं। सांसारिक सुखों से अतृप्ति—सिद्ध भगवान, शुद्धोपयोगी जीव संसार के सुखों से भी परे हैं, ये सांसारिक सुख केवल गोरखधंधे ही हैं। भोगते समय सुहावने लगते हैं, पर पीछे बड़ा खेद पहुंचाते हैं। आप देख लीजिए ना, गृहस्थी में सांसारिक सुख का विशेष प्रारंभ मान लीजिए वहाँ से जैसा कि आप विवाह को माना करते हैं। विवाह के समय कैसा उत्सव समारोह मनाया जाता है। कितने ही रुपये व्यय किए जायें, एक दुनिया भी समझ ले कि हाँ इन्होंने समारोह बहुत ऊँचा किया है और खुद को भी बड़ी खुशी है सो अनापसनाप बड़ा उत्सव मनाते हैं। ठीक है, विवाह हुआ कुछ दिन बड़े प्रेम वचनालाप से कटे, पर कुछ ही दिन के बाद कोई न कोई प्रकार की चिंता कलह मनमोटाव या जो उत्सुकता थी वह तो समाप्त हुई, सो स्वयं ही किसी बात से अतृप्ति आने लगी। लो अब संतान बढ़े, उनकी चिंता, आजीविका का साधन मजबूत बनाना पड़ा; न जाने कितने खटपट हुए? बुढ़ापे में पूछा जाय कि जीवन भर तुमने विविध श्रम किये, उनके फल में क्या तुम्हारे हाथ आज लगा? तो वह यही कहेगा कि हाथ तो कुछ भी नहीं लगा। नाना श्रम किये, जिंदगी भर अपने मन को खुशी में रक्खा, पर आज खाली हाथ जा रहे हैं। सांसारिक सुखों की असारता—ये सांसारिक समस्त सुख असार हैं, मायारूप हैं। पानी में जो फेन उठता है, नदियों के या समुद्र के किनारे जो फेन इकट्ठा हो जाता है उसमें जरासा थप्पड़ मारो तो सब फेन यहाँ वहाँ अलग हो जाता है, तो जैसे पानी के फेन में सार कुछ नहीं है ऐसे ही इस सांसारिक सुख में सार कुछ नहीं है। पानी को कितना ही मथो मटके में भरकर तो क्या उससे मक्खन निकल आयेगा? कभी नहीं निकल सकता। मक्खन तो दही में निकलता है। दही को एक दो घंटे मथानी से मथो तो मक्खन निकल आता है, पर पानी को चाहे वर्षों तक मथानी से मथो, पर मक्खन नहीं निकल सकता है। ऐसे ही बाह्यपदार्थों को मथने से, निग्रह-अनुग्रह करने से आनंद कहाँ से निकलेगा? तुम चाहे जिंदगीभर परपदार्थों में सिर मारो, पर आत्मा का गुण जो शांति है वह वहाँ से कैसे प्रकट होगी? प्रभु सांसारिक सुख से परे हैं और आत्मीय आनंद में ही सदा मग्न रहते हैं। सिद्ध की आवागमनविमुक्तता व समृद्धता—अब ये प्रभु पुन: संसार में न आयेंगे। ये जिस भव से मुक्त होते हैं वह भव इनका बड़ा सांसारिक दृष्टि से वैभवसंपन्न होता है। दीन, दु:खी, दरिद्री लोग मुनि बनकर मोक्ष जाने वाले अत्यंत ही कम होंगे, किंतु सेठ, राजा, ज्ञानी, विद्वान, अनेक कलासंपन्न पुरुष साधु बनकर मोक्ष गये वे ही प्राय: समस्त सिद्ध हैं। यहाँ उपासक जन भी जब जानते हैं कि यह परम योगीश्वर हैं, ये निर्वाण पधारेंगे तो वह अधिकाधिक भक्ति और अपना सब कुछ उन पर न्यौछावर करता है, बड़ी पूजा के साथ योगिराज मुक्ति पधारते हैं। आप भी अपने घर के किसी बालक को विदेश भेजते हैं किसी कारण से तो कितना शकुन मनाकर और कितना समारोह मनाकर आप बिदा करते हैं? वह तो वर्ष दो वर्ष में लौटकर घर ही आयेगा, किंतु जिन जीवों को आप इस संसार से सदा के लिए बिदा कर रहे हैं अर्थात् जो निर्वाण प्राप्त करते हैं, जो कभी भी इस संसार में लौटकर न आयेंगे वे क्या ऐसे रूखे-सुखे ही संसार से चले जायेंगे? बड़े कल्याण के साथ, बड़े समारोह के साथ उनका सभामंडप इंद्र रचता है, उनका समवशरण इंद्र कुबेर बनाता है, वे आखिर मुक्त होते हैं। अब ये प्रभु संसार में पुन: न आयेंगे क्योंकि संसार के आवागमन का कारण शुभ और अशुभ भाव है। मोह रागद्वेष के वशीभूत होकर यह जीव संसार में रुलता है। अब रागादिक भावों का सर्वथा परिहार हो गया, अब ये पुन: संसार में न आयेंगे। परमात्मतत्त्व की नित्यता—उस निर्मल आत्मा का यहाँ चिंतन किया जा रहा है, जो निर्दोष है, कर्मरहित है, अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत शक्ति से संपन्न है। इनका न अब नित्यमरण होता है, न तद्भव मरण होता है। यह मरण शरीर से संबंध रखता है। हम आप रोज-रोज मर रहे हैं, प्रति समय मर रहे हैं, वह कैसे? मानो किसी का आयु 60 साल की है, अब 20 वर्ष का हो गया, इसका अर्थ यह है कि 20 वर्ष मर चुका। 21 वर्ष का हुआ तो एक वर्ष का मरण और हो गया। आयु निकलती है, जितनी निकल गयी समझो उतना मरण हो गया। जितनी आयु है उतना अभी जिंदा है। आयु के प्रति समय झडने का नाम नित्यमरण है और जब इस भव से बिल्कुल ही चले गए तो उसका नाम तद्भव मरण है। लोग उस तद्भवमरण के समय समाधि ग्रहण करते हैं, करना चाहिए। अब इस देह को त्यागकर बिल्कुल ही जा रहे हैं तब भी यदि समता प्राप्त न करें, परिजन और वैभव में मोह ममता ही बढ़ाये तो उसका फल उत्तम न होगा। पर एक बात और ध्यान में रखने की है कि जब हम रोज-रोज प्रति मिनट में मर रहे हैं तो हमें प्रति मिनट समाधिभाव रखना चाहिए, समतापरिणाम करना चाहिए। नित्यमरण और तद्भव मरण का कारणभूत जो यह शरीर है इस शरीर का संबंध ही न रहा भगवान के, इस कारण भगवान नित्य है। यह भगवान जैसे नित्य हैं तैसे हम आप भी स्वभावत: नित्य हैं। हम आपका भी कभी मरण नहीं है। जो स्वरूप है उस ही स्वरूप सहित निरंतर रहा करते हैं। परमात्मतत्त्व की अचलता व अनालंबता—प्रभु अचल हैं, उनमें जो गुणविकास हुआ है वह अब गुणविकास न छूटेगा। उसके प्रच्चसन न होने से वह प्रभु अचल है। यह मैं आत्मा भी चैतन्यस्वरूप को लिए हुए हूँ। मेरा स्वरूप सहज ज्ञानस्वभाव, सहज आनंद स्वभाव है उसको भी में त्रिकाल त्याग नहीं सकता हूँ। मैं अपने स्वरूप में अचल हूँ, मेरे में मैं ही हूँ, मेरे को परद्रव्यों का आलंबन नहीं है। किसी परद्रव्य के सहारे हम अपनी सत्ता रखते हों ऐसा नहीं है। जो पदार्थ है वह स्वयं स्वतंत्ररूप से अपने आप है। किसी दूसरे की मदद से मेरी सत्ता नहीं है, परद्रव्यों का मुझमें आलंबन नहीं है, इस कारण अनालंब हूँ और यह प्रभु भी परद्रव्यों के आलंबन से रहित है। ऐसा यह निरुपाधिस्वरूप मेरा स्वभाव और प्रभु का व्यक्त तत्त्व है। स्वरूपदर्शन का अनुरोध—अहो ! कितने खेद की बात है कि ऐसा प्रभुतास्वरूप होकर भी यह जीव अनादिकाल से प्रत्येक स्थिति में मोहमत्त होकर सोया हुआ है और दु:खी हो रहा है। अरे ! जिस स्थिति में तुम मत्त हो रहे हो उसे तुम अपना पद मत जानो, उसमें अंध मत बनो, जो कुछ भी समागम मिला है उस समागम में सदा रहने का विश्वास न करो। सदा न रहेगा यह, इसमें राग मत करो। विषयांध मत बनो, अपने आत्मा की भी सुध लो। यह समस्त दृश्यमान मायाजाल है, यह तुम्हारा कुछ नहीं है, यहाँ से हटो और देखो अपने आपकी ओर आवो जहाँ तुम्हें यह चैतन्य-निधि प्राप्त होगी, जहाँ केवल ज्ञानप्रकाश का ही अनुभवन होगा, समस्त संकट और आकुलताएँ दूर होंगी, ऐसे इस आत्मतत्त्व में आवो और निज बाह्य स्थितियों में तुम भरम रहे थे उनसे विराम लो। परमात्मतत्त्व की सहजरूपता व उसके आलंबन का संदेश—जीव में भाव 5 होते हैं। कुछ कर्मों के उदय से होते हैं, उन्हें औदयिक कहते हैं, कुछ कर्मों के दबने से होते हैं, उन्हें औपशमिक कहते हैं, कुछ कर्मों के विनाश से होते उन्हें क्षायिक कहते हैं और कुछ कर्मों के मिटने से, कुछ दबने से, कुछ उदय से होते हैं उन्हें क्षायोपशमिक कहते हैं, किंतु यह मैं आत्मस्वरूप इन चार भावों से भी विविक्त केवल शुद्ध चैतन्यप्रकाशमात्र हूँ, परमपारिणामिक भावस्वरूप हूँ। यह मेरा शुद्धस्वरूप मुझे दिख जाय, इसी के मायने हैं सम्यग्दर्शन। बुद्धिमान पुरुष समस्त रागद्वेषों को त्यागकर इस शुद्ध चैतन्यस्वभाव का आलंबन करते हैं। जो पुरुष बाहरी पदार्थों का रागद्वेष, मोह तजकर अपना जो असहाय केवल अपने आपके कारण जो अपने में स्वभाव है उस स्वभाव का आलंबन करता है वह पुरुष संसार के समस्त संकटों से परे हो जाता हैं। हम आपका कर्तव्य है कि व्यवहार में तो प्रभु की उपासना करें जो वीतराग है, सर्वज्ञ है और अपने आपमें अपने अंत:प्रकाशमान इस शुद्ध ज्ञायकस्वरूप की उपासना करें। अपने आपको ऐसी प्रतीति में लें कि मैं सिर्फ ज्ञानमात्र हूँ, मेरा स्वभाव केवल ज्ञानस्वरूप है, ऐसी प्रतीति करें तो इस शुद्ध ध्यान के प्रताप से संसार की समस्त उलझनें दूर हो जायेंगी और प्रभुता प्राप्त कर ली जायेगी।