वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 52
From जैनकोष
चलमलिनमग ढत्तविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं।
अधिगमभावो णाणं हेयोपादेयच्चाणं।।52।।
सम्यक्त्व की सर्वथा निर्दोषता―चल, मलिन और अगाढ़ दोषों से रहित श्रद्धान् को ही सम्यक्त्व कहते हैं। पूर्व श्लोक में जो सम्यक्त्व का लक्षण किया गया था, वह साधारण व्यापकरूप से था। अब उसमें और विशेषता से बताने के लिए विज्ञान पद्धति से सम्यक्त्व का लक्षण कहा जा रहा है। चल, मलिन और अगाढ़ दोष सूक्ष्मदोष हैं। पहिले प्रकरण में जो विपरीत अभिनिवेशरूप दोष गया है, वह मोटी बात थी। सम्यग्दर्शन हो जाने पर भी चल, मलिन और अगाढ़ दोष रहा करते हैं। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में ये दोष रह जाते हैं। यहाँ इन दोषों से भी रहित श्रद्धान् को निरखा जा रहा है। अहो, सम्यक्त्व है तो यही है।
सम्यक्त्व की त्रिविधता―सम्यक्त्व में तीन प्रकार होते हैं―औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व। औपशमिक सम्यक्त्व में भी निर्मलता है, किंतु सम्यक्त्व का बाधक कर्मप्रकृति दबा हुआ है, वह उखड़ेगा तो यह सम्यक्त्व न रहेगा और देखो कि आत्मपुरुषार्थ के बल से क्षयोपशमिक बन जाए तो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व हो सकता है पर जितने काल भी यह उपशमसम्यक्त्व रहता है, उतने काल वह निर्मल है। क्षायिक सम्यक्त्व तो पूर्ण निर्मल है, उसके भविष्य में भी मलिनता की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व के घातक दर्शन मोहनीय कर्म की तीन प्रकृति व अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ―ये चार चारित्रमोह इन 7 का पूर्ण क्षय हो चुका है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में चल, मलिन, अगाढ़ दोष हुआ करते हैं, क्योंकि वहाँ उदयाभावी क्षय, उपशम और देशघाती सम्यक्त्वप्रकृति का उदय है।
चल दोष के संकेत―इस चल दोष में यों समझिए कि श्रद्धान् तो चलित नहीं होता है, पर श्रद्धान् के भीतर ही भीतर कुछ थोड़े भाव यों कभी झलक गये―जैसे कि माना कि शांतिनाथ के कर्ता हैं, पार्श्वनाथ विघ्न के हर्ता हैं तो क्या शांतिनाथ ही शांति के देने वाले हैं या पार्श्वनाथ ही विघ्न के कर्ता हैं और किसी में यह कला नहीं है? परमार्थत: तो भगवान् पार्श्वनाथ और शांतिनाथ ये हैं ही नहीं। ये तो महामंडलेश्वर महाराज के पुत्र थे, सो आप समझ लो कि इक्ष्वाकुवंश में ये पैदा हुए थे। इतने बड़े शरीर वाले थे। उन शांतिनाथ व पार्श्वनाथ इत्यादि व्यक्तियों के अंदर में जो शुद्ध चैतन्यस्वभाव है, जो उस शुद्ध चैतन्य का विकास हुआ है, उस ज्ञानविकास का नाम भगवान् है। वह तो सबमें एक समान है। भगवान का नाम वचनों से लेने से सारे विघ्न टल जाते हैं और शांति मिलती है। वह कौनसा भगवान् है। यही―निराकुल, निर्दोष, शुद्ध ज्ञायकस्वरूप और इसका शुद्ध विकास। बस ! इस एक को दृष्टि में रखिए तो सारे काम फतह होंगे।
मलिन व अगाढ़ दोष के संकेत―यह मंदिर मैंने बनवाया, मेरे पुरखों ने बनवाया―एक मोटी मिसाल दी जा रही है। मलिन दोष में सूक्ष्म बात क्या पड़ी है? यह बुद्धि में नहीं जग सकती, पर यों समझिए कि जिन दोषों से सम्यक्त्व तो बिगड़े नहीं, किंतु सम्यक्त्व में कुछ दोष बना रहे। यों ये दोष हुआ करते हैं। जैसे वृद्ध पुरुष लाठी लेकर चलता हे तो उसके हाथ भी हिलते जाते हैं। अब तुम यह बतलाओ कि वह पुरुष लाठी से चल रहा है या अपने बल पर चल रहा है? वह पुरुष तो अपने बल पर चल रहा है। नहीं तो किसी मुर्दे के हाथ में पकड़ा कर देखो कि वह चलता है या नहीं। फिर लाठी तो उसके चलने में सहायक निमित्त है। जैसे वहाँ लाठी स्थानभ्रष्ट नहीं होती, पर लाठी जरा चिगती हुई सी रहती है। यों समझिए कि इस अगाढ़ सम्यक्त्व में क्षायोपशमिकता होती है, सो सम्यक्त्व अपना स्थान न छोड़ देने पर भी उसमें कुछ थोड़ा कंपन रहता है। ऐसा कोई दोष है, उस दोष से रहित श्रद्धान् को सम्यक्त्व कहते हैं।
सम्यग्ज्ञान में हेयोपादेयपरिज्ञानता―सम्यग्ज्ञान कहते हैं उपादेयभूततत्त्व का परिज्ञान होने को। पहिले गाथा में ज्ञान का लक्षण व्यवहार में भी घटे, मोक्षमार्ग में भी घटे, सर्वत्र समझ में आए, व्यापकरूप से कहा गया था। यहाँ हुआ मोक्षमार्ग, उसमें यह हेय और यह उपादेय है, इस प्रकार का परिज्ञान होना सो सम्यग्ज्ञान है। मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूततत्त्व 7 हैं―जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष। जिसमें चेतनता पाई जाए, उसे जीव कहते हैं और जिसमें चेतना न पायी जाए, उसे अजीव कहते हैं; किंतु इस प्रकरण में 7 तत्त्वों के बीच कहे गए अजीव का अर्थ है द्रव्यकर्म। अब यों मूल में दो बातें आयीं―जीव और कर्म। अब तीसरी चीज है आश्रव। जीव में कर्मों के आने को आश्रव कहते हैं। बंध कहते हैं जीव में कर्मों के बंध जाने को। ये कर्म जीव में इतने सागर पर्यंत रहेंगे, इतने वर्ष तक रहेंगे; इसका नाम है बंध। जीव में कर्मों का आना रुक जाए तो उसे कहते हैं संवर। जीव में जो कर्म पहिले से ही बंधे हुए हैं, उन कर्मों के झड़ जाने को निर्जरा कहते हैं और जब समस्त कर्म जीव से छूट जाएं, तब उसे मोक्ष कहते हैं।
कर्तव्य की प्रमुखता का विवेक―लोग अपने आराम के लिए बड़ी-बड़ी अवस्थाएं बनाते हैं, ऐसा मकान बनवा लें, ऐसा कमरा बनवा लें, ऐसी दूकान बनवा लें, ऐसा कारोबार रक्खें, इन व्यवस्थाओं में अपने जीवन के अमूल्य क्षण रात दिन के सब व्यतीत हो जाते हैं, किंतु यह नहीं जाना कि ये सब व्यवस्था वाली बातें इस मेरे आत्मा का कब तक साथ देंगी। इस जीवन का ही जब भरोसा नहीं है तो अगले भव में तो साथ देने का अभाव ही है। इस आत्मा का सबसे बड़ा काम यह पड़ा है कि इसमें से कर्मों का अभाव हो जाए। मैं अनात्मतत्त्व के बोझ से रहित होकर शुद्ध चिन्मात्र आत्मस्वरूप का अनुभव करूं और व्यर्थ के पक्षों से हटकर बना रहूं; काम यह पड़ा है। दूसरी बात यह है कि लोग सोचते हैं कि ये लोक के काम―मेरे अच्छा घर हो, दूकान हो, अच्छा रोजिगार चले। अरे ! ये तुम्हारे किए बिना भी कदाचित् हो सकते हैं। न भी करें, बैठे रहें, तब भी संभावना है कि हो जायेंगे। जरा भी श्रम किए बिना तो आप मानेंगे नहीं। न किया विशेष उद्यम तो भी हो जाएगा; किंतु यह आत्मकल्याण का काम, मोक्षमार्ग का काम, सदा के लिए संकटों से छूट जाने का काम हमारे निरंतर सतत उद्धार के द्वारा ही होगा। यह बिना किए नहीं हो सकता है।
सप्त तत्त्वों का अनेकानेक सूक्ष्मपद्धतियों से परिज्ञान―इन सात तत्त्वों का परिज्ञान ऐसा सम्यग्ज्ञान है कि इन्हीं सातों तत्त्वों का और-और सूक्ष्मदृष्टि से परिज्ञान करते जाइये। मान लो उपाधि द्रव्यकर्म के सन्निधान होने पर जीव में आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्षरूप परिणमन होता है। अब थोड़ी देर को उपाधि की चर्चा छोड़कर केवल अपने ही आश्रव, बंध, संवर और निर्जरा को निरखो। पहिली कोटि में जो बताया था, वह दोनों के संबंध से आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष की बात कही थी। जीव में कर्मों का आश्रव है अर्थात् दोनों की बात होना। जीव में कर्मों का बंधना, यह भी दोनों की बात हुई जीव की और कर्म की। जीव में कर्म न आ सकें, इसका नाम संवर है। यह भी दोनों की बात है। जीव में बंधे हुए जो कर्म हैं, वे जीव से अलग होने लगें तो इसका नाम निर्जरा है; यह भी दोनों की बात है। जीव से कर्म बिल्कुल अलग हो जायें, इसका नाम मोक्ष है; यह भी दोनों की बात है। अब जरा जीव में ही इन पांचों तत्त्वों को देखिए। ये पांचों बातें उपाधि के सन्निधान में ही होती हैं―यह तो पहिले जान लो और जानकर फिर कुछ आगे बढ़ो, उपाधि को अब उपयोग में न लो और निरखो।
केवल जीव में पंचतत्त्वों का परिज्ञान का प्रयत्न―जैसे कोई दर्पण में उठे हुए प्रतिबिंब को इस तरह से देखता हे कि यह सामने अमुक लड़के के खड़े होने से प्रतिबिंब आया तो दर्पण में लड़के के प्रतिबिंब को देख रहे हैं और क्या इस तरह नहीं देख सकते कि केवल दर्पण में जिस प्रतिबिंब को देखा, इसके निमित्त से प्रतिबिंब आया है, इस तरह का उपयोग न दें तो क्या यों देखने में न आएगा? आएगा। यों ही आत्मा में आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष―ये 5 बातें हुई हैं। किस निमित्त से हुई हैं, किसके निमित्त से हुई हैं, यह दूसरी कोटि की बात है। प्रथम कोटि की तो जीव और कर्म का आना जाना, दूसरी कोटि में यों समझिए कि कर्मों की अमुक परिणति के निमित्त से जीव में ऐसा शुभ, अशुभ, सद्भाव बनना है। अब उपाधि को उपयोग में ही न रखो और केवल इस परिणमन को देखो। जैसे सिनेमा देखने वाले लोग क्या बीच-बीच में ऐसा ख्याल रखते हैं कि पीछे फिल्म चल रहा है, इसलिए यह चित्र आया? वे तो केवल चित्रों को देखने में लगे रहते हैं और जिन्हें फिल्म का कुछ राज नहीं मालूम होता है ऐसे देहाती लोग सिनेमा देखने जायें तो उन्हें रंच भी विकल्प नहीं होता फिल्म संबंधी। वे तो सारा खेल देखते रहते हैं। तो इस समय उपाधि का उपयोग न करके केवल आत्मा में होने वाले खेल को देखो विलास को देखो।
जीव में आश्रव और बंध―जीव की प्रदेश भूमि में, स्वभाव में विभाव के आने का नाम आश्रव है। देखो यह जीव चित्स्वभावरूप है, किंतु यहाँ विकार आ गया है इसका नाम आश्रव है। और इस आत्मतत्त्व में, चित्स्वभावमय जीव में ये विकार बंध गए हैं, वासना संस्कार हो गये हैं वे नहीं हटते यही बंध है। जैसे मान लो आप जिस घर में पैदा हुए हैं उस घर में पैदा न हुए हों मानो लालपुरा के आप हैं और कदाचित् नये शहर में किसी घर में पैदा होते तो आपको यहाँ के घर का कुछ ममत्व न रहता। अब थोड़ी देर को लालपुरा में पैदा हो गए हो तो भी मान लो कि हम यहाँ हैं ही नहीं, हम और कहीं के है। और न करें ममता। तो बात सुनने में जरा सीधी लग रही है, पर करना जब चाहते तो कठिन लग रहा है। यही बंधन है।
रागी का बंधन―मकान बन रहा है। इस प्रसंग में मालिक भी काम कर रहा है―प्रबंध करना, काम कराना, रजिस्टर में हाजिरी भरना, तनख्वाह बाटना, मजदूरों से कम काम मालिक नहीं कर रहा है। मजदूर भी काम कर रहे हैं, पर मजदूरों का मकान में बंधन नहीं है, मालिक का मकान में बंधन है, थोड़ी घट बढ़ बात सामने आए मजदूर से खटपट हो जाय तो मजदूर तो कहेगा कि हम तो जाते हैं, हम आपका काम नहीं करेंगे। पर क्या मालिक यह कह सकता है कि मजदूरों ! तुमसे हमारी खटपट हो गई सो अब हम मकान छोड़कर जाते हैं, इटावा से चले जावेंगे।
बंधन खतरा―ये रागादिक भाव इस जीव में आए, सो ये तो आश्रव हुए, पर रागादिक भाव के छोड़ने का यत्न करने पर भी, उस राग भाव में अनेक संकट आने के कारण बड़ी झुंझलाहट होने पर भी, छोड़े नहीं जाते। कभी गुस्सा भी आ जाय, घर के दरवाजे से निकल भी जायें 20, 25 कदम चल भी दें तो भी ख्याल आ जायेगा कि आखिरकार ये हमारे ही तो नाती पोते हैं। ऐसे ही ये रागादिक भाव जीव में आए हैं। आने दो, आने का तो खतरा नहीं है आते हैं, पर खतरा तो बंधन का है। बंध गए। अब हटते नहीं हैं।
जीव में पंचतत्त्वों का विवरण तथा ज्ञेय हेय उपादेय का विभाग―जीव में रागादिक के आने को आश्रव कहते हैं और रागादिक के बंध जाने को वासित हो जाने को बंध कहते हैं। इस स्वभाव में रागादिक के न आने को संवर कहते हैं, और जो कुछ भी पूर्व संस्कार के कारण रागादिक विकार हैं भी उनको ज्ञानबल से, भेदविज्ञान की वासना के द्वारा, शिथिल करना, क्षीण करना इसका नाम निर्जरा है और जब इस चित्स्वभाव में विभाव का निशान भी नहीं रहता―ऐसा शुद्ध ज्ञानमात्र एकाकी रह जाना इसको, उन समस्त विभाव दोषों से छुटकारा पाने को मोक्ष कहते हैं। इन 7 तत्त्वों में जीव अजीव तो ज्ञेय तत्त्व हैं, हैं जान लो―आश्रव और बंध ये हेयतत्त्व हैं, छोड़ने योग्य हैं क्योंकि आश्रव और बंध इन जीवों के संकट के कारण हैं, इनमें आत्मा का कोई हित नहीं है। संवर, निर्जरा और मोक्ष ये उपादेय तत्त्व हैं, इनसे संकट छूटते हैं और आत्मा को शांति प्राप्त होती है। यों इस मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत 7 तत्त्वों का सही परिज्ञान करना सो मोक्षमार्ग के प्रकार का सम्यग्ज्ञान कहते हैं।
इस प्रकारण में रत्नत्रय का स्वरूप कहा जा रहा है। रत्नत्रय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का नाम है। ये तीनों व्यवहाररूप भी हैं और निश्चयरूप भी हैं। जीवादिक 7 तत्त्वों का श्रद्धान् करना, विपरीत अभिप्राय रहित वस्तुस्वरूप का श्रद्धान् करना अथवा सिद्धि के परंपरा कारणभूत पंचपरमेष्ठियों का चल, मलिन, अगाढ़ दोषों से रहित निश्छल भक्ति और रुचि होना यह सब व्यवहार सम्यग्दर्शन है। और परद्रव्यों से भिन्न चित्स्वभाव मात्र निजतत्त्व में श्रद्धान् रखना, सो निश्चय सम्यग्दर्शन है।
इस ही प्रकार सम्यग्ज्ञान भी व्यवहार सम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यग्ज्ञान इस तरह दो प्रकार के होते हैं। संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय से रहित पदार्थों का ज्ञान करना, देव, शस्त्र, गुरु का परिज्ञान करना सो व्यवहार सम्यग्ज्ञान है। सम्यक्चारित्र में व्यवहार सम्यक्चारित्र के संबंध में इस ही ग्रंथ में अब अगले अधिकार में वर्णन आयेगा। 28 मूल गुणों का पालन करना सो साधु का व्यवहार सम्यक्चारित्र है। निश्चय सम्यग्ज्ञान चित्स्वभावमात्र आत्मतत्त्व का परिज्ञान करना सो निश्चय सम्यग्ज्ञान है, इस ही आत्मस्वभाव में स्थिर हो जाना सो निश्चय सम्यक्चारित्र है। व्यवहार सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र को व्यवहार रत्नत्रय कहते हैं अथवा भेदोपचार रत्नत्रय भी कहते हैं।
इस अधिकार में सम्यग्दर्शन के लक्ष्यभूत परमार्थ तत्त्व का ही वर्णन चला है, अंत में व्यवहारिकता भी कैसे आए और लोक में तीर्थप्रवृत्ति भी कैसे चले? इस प्रयोजन से व्यवहार वर्णन चल रहा है। अब सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान का वर्णन करके सम्यक्त्व के साधनों के संबंध में वर्णन किया जा रहा है।