वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 72
From जैनकोष
णट्ठट्ठकम्मबंधा अट्ठमहागुणसमण्णिसा परमा।
लोयग्गठिदा णिंचा सिद्धा ते एरिसा होंति।।72।।
सिद्धपरमेष्ठी का प्रकरण―इस गाथा में सिद्ध परमेष्ठियों का स्वरूप कहा गया है। यह सिद्ध भगवान सिद्ध की परंपरा से निमित्तभूत भी है, यों कि जो निकट भव्य पुरुष सिद्ध परमेष्ठी के गुणविकास का ध्यान करते हैं और उस गुणविकास के स्मरण के माध्यम से कारणपरमात्मतत्त्व की उपासना करते हैं वे पुरुष निकट काल में सिद्ध हो जाते हैं। यों सिद्ध की परंपरया हेतुभूत भगवान सिद्ध परमेष्ठियों का इसमें स्वरूप कहा गया है।
सकलकर्म विप्रमोक्ष―प्रभु सिद्ध भगवान अष्टकर्मों के बंधन से रहित हैं। चारघातिया कर्मों के विनाश से अरहंत अवस्था होती है और फिर आयुकर्म के अंतिम समय में अघातिया कर्म एक समय विनष्ट होते हैं। यों 8 कर्मों के बंधन से रहित सिद्धपरमेष्ठी होते हैं। कर्मों के विनाश का कारण है शुक्ल ध्यान। यह शुक्लध्यान 8 वें गुणस्थान से लेकर 13 वें गुणस्थान तक है। 8 वें गुणस्थान के पृथक्त्व वितर्कविचार शुक्लध्यान से कर्मों के क्षपण की तैयारी होती है और नवम गुणस्थानवर्ती साधुवों के उस शुक्लध्यान के बल से प्रकृतियों का क्षय प्रारंभ हो जाता है। हाँ सम्यक्त्व घातिया 7 प्रकार का क्षय अवश्य पहिले धर्मध्यान के प्रताप से और आत्मावलंबन के प्रसाद से हुआ था। 10 वें गुणस्थान में भी पृथक्त्ववितर्कविचार शुक्लध्यान के कारण संज्वलन का विनाश होता है और 12 वें गुणस्थान के एकत्व वितर्कविचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान में शेष रहे तीन घातिया कर्मों का अंतिम समय में एक साथ विनाश होता है और सयोग केवली अवस्था में कषायरहित शुक्लध्यान के प्रताप से स्वयं ही कर्मों की निर्जरा चलती है और केवली समुद्घात में विशेषतया 3 अघातिया कर्मों की निर्जरा होती है। फिर अंत में एक साथ चार अघातिया कर्मों का अभाव हो जाता है।
निश्चयपरमशुक्लध्यान―जब साधक के निश्चय शुक्लध्यान की स्थिति होती है, जहां सर्व प्रकार से यह उपयोग अंतर्मुखाकार होता है ध्यान ध्येय के विकल्प से रहित निश्चय परमशुद्ध ध्यान प्रगट होता है, तब उस विशुद्ध अभेद ध्यान के प्रताप से यथापद निर्जीर्ण होकर 8 कर्मों के बंधन समाप्त होते हैं। जब यह ज्ञान इस सहजज्ञानस्वरूप को एकाकार होकर जान लेता है अर्थात् जहां ज्ञान ज्ञाता और ज्ञेय का एकीकरण हो जाता है वहाँ यह निश्चयपरमशुक्लध्यान उत्पन्न होता है। यह सिद्ध प्रभु 8 महा गुणों कर सहित हैं। वे 8 गुण हैं समकित, दर्शन, ज्ञान, अगुरुलघुत्व, अवगाहन, सूक्ष्म, अनंतवीर्यत्व, निराबाध।
सिद्ध प्रभु में क्षायिक सम्यक्त्व व क्षायिक दर्शन―प्रथम है क्षायिक सम्यक्त्व। सम्यक्त्व का घात करने वाली 7 प्रकृतियों का जहां क्षय हो चुका है और समीचीनता प्रकट हुई है ऐसे भावों को कहते हैं क्षायिक सम्यक्त्व। मौलिक समीचीनता का नाम है सम्यक्त्व। जहां ज्ञान में विपरीतता नहीं रहती है जिसके होने पर ज्ञान सही काम करता है और चारित्रगुण अपनी ओर उन्मुख हो जाता है ऐसी मौलिक समीचीनता को सम्यक्त्व कहते हैं। प्रभु सिद्ध में केवल दर्शनगुण प्रकट हुआ है। चार घातिया कर्मों के भाव से जो सिद्ध में गुण प्रकट हुए हैं वे सिद्ध से भी पहिली अवस्था में प्रकट हो चुके हैं।
दर्शन का दर्शन―दर्शन कहते हैं आत्मतत्त्व के स्पर्श को, शुद्ध परमविश्राम को। जैसे हम किसी पदार्थ के जानने में व्यग्र हैं, जान रहे हैं, अब हम उस पदार्थ के ज्ञान को छोड़कर अन्य पदार्थों को जानने लगें तो पहिले पदार्थ का जानना छूटा और नये पदार्थ का ज्ञान नहीं कर पाया, इसके बीच यह उपयोग आत्मा का स्पर्श करता है। इसका समय बहुत कम है और जैसे कोई किसी कामकाज में बड़ी तेजी से लगा हो और जल्दी-जल्दी निकलते हुए में थोड़ासा चौखट सर में लग जाय तो भी उसका पता ही नहीं पड़ता है, क्योंकि उस काम में विशेष धुन थी, उसे जब स्पर्श किया तभी जान सके। ऐसे ही इन विषयकषायों से भरे हुए प्राणियों का परपदार्थों की ओर इतना आकर्षण है, इतनी तेज धुनि है कि एक पदार्थ के ज्ञान को छोड़कर दूसरे पदार्थ को जानने चलते हैं तो बीच में आत्मा का स्पर्श हो जाता है, पर इस मोही जीव को अपने जौहर का पता नहीं हो पाता है कि मैं कुछ आत्मा के निकट भी आया था। उस समय जैसे यह आत्मा के निकट आता है वैसा पता जिसे पड़ जाय, ओह यह मैं हूं तो उसको सम्यग्दर्शन हो जाता है।
छद्मस्थों के दर्शन ज्ञान का क्रमश: उपयोग―यह दर्शन हम आप छद्मस्थ जीवों के क्रम से होता हैं। दर्शन हुआ, फिर ज्ञान हुआ, फिर दर्शन हुआ, फिर ज्ञान हुआ। दर्शनमार्गणा 4 बताये गए हैं उससे मतलब है ज्ञान का। दर्शन और ज्ञान एक साथ हम आपके उपयोग में नहीं होते हैं। ये दोनों गुण हैं और दोनों गुणों का परिणमन निरंतर चलता है। पर छद्मस्थ अवस्था के कारण केवलज्ञान होने से पहिले अज्ञान अवस्था के कारण यह दर्शन और ज्ञान का उपयोग एक साथ नहीं होता है। यह ही दर्शन जब दर्शनावरण कर्म का क्षय हो जाता है तो निरंतर विकसित बना रहता है अर्थात् सिद्ध भगवान को तीनलोक तीनकाल के पदार्थों का भी ज्ञान निरंतर चल रहा है और अपने आत्मा का दर्शन भी निरंतर चल रहा है, यों सिद्ध प्रभु में केवल दर्शन नामक महागुण है।
प्रभु का केवलज्ञान―केवलज्ञान नामक महागुण भी सिद्ध प्रभु में है। गुण पहिले अरहंत अवस्था में भी प्रकट हो चुका है। केवलज्ञान के बल से सिद्ध भगवान तीनलोक तीनकाल के समस्त पदार्थों को एक साथ स्पष्ट जानते हैं। कैसा उनके अलौकिक विलक्षण ज्ञान है, किस प्रकार से प्रभु जाना करते हैं? इसका मर्म अज्ञानी को तो विदित हो ही नहीं पाता, पर ज्ञानी जीव के भी वचन के अगोचर है। जैसे खट्टा मीठा स्वाद जानते हैं अथवा काला पीला रूप जानते हैं;कोई ऐसा ही स्पर्श जानते हैं या ऐसे रूप, रस, गंध, स्पर्श को जानना केवल प्रभु के नहीं बना रहता है। यह जानना तो विकृत ज्ञान है। खट्टा मीठा परखना यह सब जैसे हम जानते हैं यह सब विकृत ज्ञान है और ऐसा ज्ञान इंद्रियों के माध्यम से हो पाता है। जहां इंद्रियां नहीं हैं, केवल आत्मा ही आत्मा है, ज्ञानस्वरूप प्रकट हुआ है वहाँ वह केवलज्ञान किस प्रकार जान रहा होगा? यह वचन के अगोचर है और देखिये हम कभी रूप जानते हैं, कभी रस जानते हैं, कभी कुछ जानते हैं और वे प्रभु सर्वपदार्थों को एक साथ जानते हैं तो उनका जानना किस रूप का होता होगा? इसको वचन नहीं पकड़ सकते।
प्रभु का ज्ञान इतना विशाल है कि उनके ज्ञान में ये तीन लोक, तीन काल के समस्त पदार्थ ऐसे प्रतिबिंबित हो जाते हैं जैसे इतने महान् आकाश में एक जगह तारा टिमटिमाता है। उस तारे को छोड़कर सारा ही आसमान खाली पड़ा है और ऐसे-ऐसे तारे अनंत भी आ जायें तो भी इस आकाश में समा जायें। यों ही यह समस्त लोक और कालवर्ती पदार्थ समूह भगवान् के ज्ञान में तारे की तरह एक कोने में पड़ा रहता है―ऐसे-ऐसे लोक अत्यंत भी हों तो भी भगवान् के ज्ञान में समा जायें अर्थात् सबको जान जायें―ऐसे विशाल ज्ञान के अधिपति प्रभु सिद्धभगवान् हैं। यह महागुण है, तभी तो तीन लोक के जीव, इंद्रदेव, चक्रवर्ती, मनुष्य तिर्यंच सब खिंचे जा रहे हैं। थोड़ा यहीं से अंदाज कर लो। भगवान् का कोई उत्सव-विधान हो, धारा-समारोह हो, रात्रिजागरण हो तो उसमें ही लोग कैसे खिंचे चले आते हैं, वे प्रभु की भक्ति में ही समय बिताकर आनंद पाते हैं। इससे ही अंदाज करो। जहां साक्षात् अरहंत भगवान् विराजे हों वहाँ तो तीनों लोक का कितना आकर्षण होता है? इसे भी वचनों से नहीं आंक सकते हैं। उन अरहंत परमेष्ठियों से भी जिनका और विशिष्ट रूपक है अर्थात् बाह्यमल भी जहां नहीं रहा है ऐसे सिद्ध परमेष्ठी का हम वचनों से क्या कथन कर सकते हैं? यह केवलज्ञान महागुण से संपन्न है।
सिद्धों का अगुरुलघुत्व गुण―प्रभु में अगुरुलघुगुण प्रकट हुआ है। सिद्ध से पहिले सब संसारी अवस्थावों में अगुरुलघु गुणों का विकृतरूप चलता आया था अर्थात् कोई कुल में बड़ा है, कोई कुल में छोटा है, लोकव्यवहार में कोई ऊंचा माना जाता था, कोई नीचा माना जाता था, ऐसी परंपरा, ऊंचे नीचे का बढ़ाव, चढ़ाव, घटाव रहा करता था। जब तक अरहंत भगवान भी थे तब तक उच्च कुल वाले कहलाते थे। अब सिद्ध प्रभु होने पर वहाँ का जो समागम है वहाँ न ऊंचा है कोई, न नीचा है कोई ऊंच कुल और नीच कुल का वहाँ भेद समाप्त हो चुका है। वे तो यों विराज रहे हैं जैसे यहाँ कोई शुद्ध परमाणु हो जाता है। द्रव्य ही तो है, शुद्ध हो गया। धर्म आदिक द्रव्यों की तरह अत्यंत पवित्र वह शुद्ध आत्मा है।
सिद्धों का अवगाहनत्व गुण―प्रभु सिद्ध भगवान में अवगाहनत्व गुण प्रकट हो जाता है। जहां एक सिद्ध विराजे हैं वहाँ अनंत सिद्ध समाये हुए हैं। यहाँ हम आप शरीर वाले हैं तो एक की जगह दूसरा नहीं समा पाता है, पर वहाँ तो एक सिद्ध के स्थान में अनंत सिद्ध समाये हुए हैं। स्तुति में बोला करते हैं―जो एक मांही एक राजे माहि अनेकनों। एक अनेकन की नहीं संख्या नमो सिद्ध निरंजनो।। कितना ऊंचा भाव है? वे सिद्ध भगवान् कैसे हैं जो एक मांहि एक राजे―एक सिद्ध में एक सिद्ध है और एक सिद्ध में अनेक सिद्ध हैं। अरे वहाँ एक अनेक की कुछ संख्या ही नहीं है। तीन बातें कही गई हैं सिद्ध के स्वरूप के स्मरण में। उन तीनों का अर्थ सुनिये।
सिद्ध भगवंतों के संबंध में एक में एक व एक में अनेक राजने का रहस्य―एक में एक राजे अर्थात् जो एक सिद्ध आत्मा है उस सिद्ध आत्मा में वह ही आत्मा है और अपने ही गुणपर्याय से तन्मय है। भले ही उस स्थान पर अनेक सिद्ध विराज रहे हैं परंतु प्रत्येक सिद्ध प्रभु का ज्ञान उनके जुदा-जुदा हैं। उनका आनंद उनका अपने आपमें है, एक प्रभु का परिणमन किसी अन्य प्रभु के परिणमन रूप नहीं बन जाता है। जैसे यहाँ ही हवा भी है, शब्द भी हैं और भी अनेक पदार्थ हैं, फिर भी वे सब केवल अपने आपमें अपना स्वरूप रखते हैं। ऐसे ही सिद्ध भगवान अपने आपमें अपना ही स्वरूप रखते हैं। इस कारण सिद्ध एक में एक है, एक में अनेक नहीं है। द्रव्य का स्वरूप ही ऐसा है कि प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र हैं। अपने ही अस्तित्त्व को लिए हुए है। एक में एक ही है अनेक नहीं है। यह अर्थ हुआ एक में एक राजे का।
वह प्रभु एक में अनेक है। जो सिद्ध इस स्थान से मुक्त हुआ है वह इस स्थान से फिर ठीक सीध में लोक के अंत में विराजमान है और इसी स्थान से क्रम से हजारों मनुष्य मुक्त हुए हों तो भी इस ही सीध में वे ही विराजमान हो जाते हैं। ऐसे अनंत सिद्ध होते हैं एक-एक स्थान पर से। वे कहां विराज रहे हैं? वे उसी एक स्थल में विराज रहे हैं, यों यह बात सिद्ध होती है कि एक में अनेक हैं। सिद्ध प्रभु एक में एक हैं, एक में अनेक हैं।
एक अनेक के विकल्पों से विविक्तता―तीसरी बात है ‘एक अनेकन की नहि संख्या’, उस स्वरूप में एक और अनेक की संख्या ही नहीं है। यथार्थ ज्ञानी भक्त जब उस ज्ञानपुंज का स्मरण कर रहा है उस शुद्ध ज्ञानस्वरूप का जब ध्यान कर रहा है तो उस ध्यान के समय में उसके उपयोग की सीमा नहीं बंध सकती कि लो यह है रामचंद्र का सिद्ध आत्मा, लो यह हे आदिनाथ का सिद्ध आत्मा। एक और अनेक वहाँ ही पुकारे जाते हैं जहां वस्तु के आकार प्रकार का ध्यान रहता है। उस गुण पुंजरूप सिद्ध स्वरूप के स्मरण के समय आकार प्रकार का ख्याल नहीं किया जाता। होता ही नहीं है वैसा, तो एक शुद्ध ज्ञानपुंज ही दृष्ट होता है। ऐसी स्थिति में हम सिद्ध को क्या कहें कि वे एक हैं अथवा अनेक हैं। वहाँ एक अनेक का विकल्प नहीं है। इस प्रकरण में यह जानियेगा कि सिद्ध भगवान में अवगाहना गुण प्रकट हुआ है, जिसके प्रसाद से सिद्ध के एक उस ही स्थान पर अनेक सिद्ध समा जाते हैं।
सूक्ष्मत्व, अनंतवीर्य व अव्यावाध गुण―ऐसे ही उनमें सूक्ष्मत्व गुण है। अब अंतराय का क्षय होने से अनंतवीर्य प्रकट होता है। सुख भी एक बाधा है, दु:ख भी एक बाधा है। वेदनीय का अभाव होने से सुख और दु:ख दोनों का अभाव हो जाता है। यों अष्टमहागुणों करि समन्वित परमोत्कृष्ट आत्मा सिद्धपरमेष्ठी कहलाता है। ऐसे सिद्ध प्रभु योगी पुरुष के सदा वंदनीय रहता है और उनके उपासक जन उनको ही एक परमशरण समझ कर व्यवहार में उनकी भक्ति में तत्पर रहते हैं।
परम आत्मा―ये सिद्धपरमेष्ठी परम कहलाते हैं। परम का अर्थ है उत्कृष्ट। जहां उत्कृष्ट लक्ष्मी पायी जाये, उसे परम कहते हैं। परमात्मा के उत्कृष्ट लक्ष्मी है, इसलिए वे परम आत्मा कहलाते हैं। अब यह उत्कृष्ट लक्ष्मी क्या है? लक्ष्मी शब्द का अर्थ है ज्ञान। लक्षण, लक्ष्म, लक्ष्मी―इन तीनों का एक ही मतलब है। आत्मा का जो लक्षण है, वही आत्मा की लक्ष्मी कहलाती है। आत्मा का लक्षण है चैतन्यस्वरूप, ज्ञानदर्शन―यही हुई लक्ष्मी। जिनके ज्ञानदर्शन का उत्कृष्ट विकास है, उन्हें परम कहते हैं। दूसरी बात यह है कि जो तीन प्रकार के तत्त्व कहे गए हैं―बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा―इन तीनों स्वरूपों में विशिष्ट गुणों का आधारभूत यह परमात्मा है। इसलिए सिद्धपरमेष्ठी को परम कहा गया है। सिद्धभगवंत कैसे हैं? इस स्वरूप की याद में और इस व्यवहारचारित्र के प्रकरण में जो तेरह अंग वाला चारित्र कहा गया है, उस चारित्र की साधना में अंतिम परिणाम क्या होता है? उसके फलोपदेश में यह सिद्धपरमेष्ठी का स्वरूप कहा जा रहा है।
सर्वथा निर्बंध नाथ―इनके अष्टकर्मों का बंधन नष्ट हो गया है। इनमें 8 कर्मों के भाव से उत्पन्न हुए, 8 महा गुणों की संपन्नता प्रकट हुई है, यह उपेयतत्त्व है, तीनों तत्त्वों में विशिष्ट गुणों का आधार है। उन गुणों का उत्कृष्ट विकास यहाँ प्रकट हुआ है―ऐसे ये सिद्धपरमेष्ठी हैं। यहाँ तक इन विशेषणों से उपादेयतत्त्व की झलक हो रही है कि यह कर्मबंधन याने भावकर्मबंधन, द्रव्यकर्मबंधन और नोकर्मबंधन इन जीवों को दु:खों का निमित्तभूत है अथवा दु:खस्वरूप है, इससे रहित होना चाहिए। जैसे कि सिद्ध परमेष्ठी सर्वथा निर्बध हो गए हैं।
शक्ति व्यक्ति का समन्वय―ये अष्टमहागुणों कर संबंधित है। जो गुण वहाँ प्रकट हुए हैं, उन गुणों का स्वभाव हम आपमें अभी से है। हम भी यदि कुछ हिकमत से चलें, व्यवहारचारित्र का आश्रय और अंतरंग में निश्चयचारित्र का आलंबन रखते हुए उपयोग की यात्रा शिवरूप बनायें तो यह शिवस्वरूप प्राप्त किया जा सकता हे। उत्कृष्ट ज्ञानविकास का स्मरण किया है। यह ज्ञानविकास कुछ नया कहीं से लाना नहीं है, यह तो ज्ञानस्वभावी ही है, किंतु भ्रमवश, पर की ओर के आकर्षण वश जो आकुलताएं बनी हैं, उनका अभाव हो तो वह परमात्मतत्त्व प्रकट हो जाता है।
सिद्धप्रभु का अवस्थान―सिद्धभगवान कहां विराज रहे हैं, कब तक रहते हैं? ऐसी बाह्यस्थिति भी अब बतलाई जा रही है। यह प्रभु लोक के अग्रभाग पर स्थित है। जहां तक यह लोक है, वहाँ तक यह प्रभु पहुंचता है। आगे धर्मास्तिकाय अभाव होने से और इन सिद्धप्रभु के कोई वांछा तो है नहीं कि आगे पहुंचूं। केवल सहजनिमित्तनैमित्तिक योग से लोक के अग्रभाग पर स्थित हो जाते हैं। लौकिक जन जब कभी परमात्मा का स्मरण करते हैं, चाहे किसी भी नाम से करें, पर उनकी दृष्टि ऊपर की ओर हो जाती है। जब वे भगवान को पुकारते हैं―हे प्रभु ! हे भगवान् ! हे परमेश्वर ! हे अल्ला ! या जिस किसी भी नाम से पुकारते हैं, उनकी दृष्टि ऊपर की ओर जाती है, ऊपर मुख करके बोला करते हैं। जो लोग ऐसा मानते हैं कि भगवान सर्वत्र व्यापक हैं, वे भी कभी नीची निगाह करके भगवान को नहीं पुकारते। यह प्राकृतिकता सब मानवों के चित्त में बसी हुई है कि वे ऊपर ही देखकर प्रभु को पुकारते हैं। यह प्रभु लोक के अग्रभाग पर स्थित है। तीन भुवन का जो शिखर अर्थात् लोक का अंतिम स्थान है, उससे आगे गति के हेतु का अभाव होने से वे लोक के अग्रभाग पर स्थित हैं।
नित्य प्रकाश―यह प्रभु नित्य है। जो पर्याय प्रभु ने पायी है, जो शुद्ध निर्दोष स्थिति इनकी हुई है, उस पर्याय से यह कभी न गिरेगा अर्थात् उनमें ऐसा ही शुद्ध परिणमन प्रतिसमय निरंतर सदृश चलता ही रहेगा। इस कारण यह सिद्धभगवान नित्य कहा गया है―ऐसा यह सिद्धपरमेष्ठी पुरुष है। हम आपको प्रकाश यहाँ मिलेगा, सत्य-संतोष यहाँ प्राप्त होगा।
बहिर्मुखता में असंतोष का विस्तार―भैया ! अपने आपसे बाहर इन इंद्रियों का मुख करके जो कुछ ज्ञान किया करते हैं, उस बोध में संतोष नहीं मिल सकता है। मान लो, कमा लिया कुछ तो क्या पावोगे उसके फल में? जोड़कर रखा जाएगा दूसरों के लिए ही तो। वे दूसरे सब उतने ही भिन्न हैं, जितने कि लौकिक कल्पना में गैर भिन्न हैं। इन व्यामोही जीवों ने ‘‘सब जीवों के कर्म अपने-अपने बने हुए हैं और अपने-अपने उदय के अनुसार वे सुख दु:ख, जीवन-मरण पाते है’’―इस श्रद्धा को भी खत्म कर दिया है, इस तृष्णा के वश होकर अपने आपके स्वरूप की याद भी खत्म कर डाली। कितना अज्ञान अंधकार है? अपने आपको संसारगर्त से बचाने की करुणा कीजिए। यहाँ कौन शरण है? क्या सार है? किसी भी परद्रव्य से इस आत्मा में कभी संतोष आने को नहीं है। यदि परद्रव्यों के कारण संतोष हो सकता होता तो तीर्थंकर चक्रवर्ती 6 खंड की विभूति क्यों त्यागते? भव-भव में अनेक वैभव पाये, अनेक बार राज्यपद पाए, लेकिन आज थोड़े से पैसे पर इतनी आसक्ति होती है, यह तृष्णा नहीं त्यागी जा सकती है। अरे ! इस थोड़े से वैभव को, तृष्णा को त्याग देने में कौनसा अहित होता है? यदि इस धनवैभव की तृष्णा को त्याग दो तो सत्य सुख प्राप्त हो सकता है। यथार्थज्ञान तो रखिये।
आदर्श एवं प्रतिच्छंद―ये प्रभु जो परिणमन प्राप्त किए हुए हैं, उससे कभी न चिगेंगे। यों ये प्रभु नित्य हैं। ऐसे भगवान सिद्धपरमेष्ठी वे सबके वंदन के योग्य हैं, परमादर्श ये ही हैं, हमें क्या बनना है? ऐसा प्रश्न होने पर अंगुली एक सिद्धपरमेष्ठी की ओर उठनी चाहिए कि मुझे तो सिद्धपरमेष्ठी बनना है। यह सिद्धपरमेष्ठी मेरे हितोपदेश के लिए प्रतिध्वनि की तरह गूंज की तरह हैं। सिद्धपरमेष्ठी को तुम बोलोगे तो वह बोल तुम्हारे पास ही वापिस आये। जैसे किसी पुराने मिट्टी के मठ के अंदर कुछ शब्द बोलोगे तो उस मठ को आपके उन शब्दों को क्या करना है? आपके वे ही शब्द झाई के रूप में आपके ही कान में वापिस आ जायेंगे―ऐसे ही सिद्ध भगवंत हैं। जो कुछ आप उन्हें कहेंगे, उन शब्दों का सिद्ध भगवंत को क्या करना है? सो वे तो लौटकर आपके ही आत्मा में गूंज जायेंगे, आपके ही ज्ञान में आयेंगे अथवा आप जो विचार कर बोलोगे, सो आपमें ही रहस्य उतरेगा, आपको ही लाभ होगा। कितना महादानी है यह सिद्धप्रभु? इसके लिए जो कुछ हम कहते हैं, जितना स्तवन करते हैं, जितना गुणों का गान करते हैं, वह सारा का सारा गुणगान वे प्रभु हमें ही सौंप देते हैं। वे प्रभु इतने परम उपेक्षक हैं।
सिद्धस्मरण का बल―भैया ! इन प्रभु की शरण लिए बिना हम शिवपथ में आगे नहीं पहुंच सकते। यदि तुमको मुक्तिकामिनी की चाह है, मुक्तिकन्या से करग्रहण का भाव है तो यह काम बहुत कठिन है। भैया ! इस कारण कठिन काम में सफलता पाने के लिए मजबूत बाराती संग में चाहिए। जैसे कोई लड़की वाला बड़ा तेज हो, कठिन हो, किसी का उसमें वश न चलता हो, जरा देर में मुकर जाए, विमुख हो जाए तो ऐसी बारात में सफलता पाने के लिए छांट-छांटकर मजबूत पहलवान बाराती ले जाते हैं, नहीं तो बिना विवाह के ही बारात लौट आएगी। कठिन काम है। ऐसे ही मुक्तिकन्या के करग्रहण की इच्छा है तो ऐसी बारात सजाकर ले जावो, जिसमें ठोस, मजबूत बाराती संग में हों। ढूंढों ऐसे बाराती, पर एक-दो बारातियों से काम न बनेगा। बड़ा कठिन काम है मुक्तिकन्या से करग्रहण करना। उसके लिए अनेक बाराती चाहिए। ढूंढों खोजो, अहो मिल गए, वे बाराती, ये हैं अनंत सिद्ध। इन अनंत सिद्धों को अपने उपयोग में विराजमान करें, इनको बाराती बनावें, फिर उस मुक्ति की चाह करना स्वीकार करें तो उसमें सफलता मिलेगी। ऐसे ये भगवंत सिद्ध परमेष्ठी हम सबके वंदनीय हैं।
त्रिलोकचूड़ामणि―ये सिद्ध परमेष्ठी ज्ञानघन हैं, ठोस ज्ञान से विचलित नहीं हो सकते, इनके निरंतर सर्वकालों में निरंतर सर्व अर्थविषयक परिज्ञान रहता है। यह त्रिलोकचूड़ामणि हैं। जैसे एक चूड़ामणि नाम का आभूषण सिर के ऊपर रखा जाता है उत्तम अंग के ऊपर जो आभूषण रखा जाता है वह है चूड़ामणि। ये तीन लोग पुरुष के आकार के है। इसका नीचे का सारा अंग दु:खरूप क्षेत्र से व्याप्त है, नरकादिक रचनाएं और इसका मध्य अंग नाभि का अंग कुछ थोड़ा-थोड़ा दु:ख से कम भरा क्षेत्र है, इससे ऊपर का क्षेत्र दु:ख से कुछ परे है, किंतु इसका जो उत्तम अंग है अर्थात् ग्रीवा के ऊपर का जो अंग है उस अंग के ऊपर जो विराज रहा हो वह ही चूड़ामणि हो गया।
सिद्धों के प्रतिसमय अनंत आनंद का अनुभवन―वे सिद्ध प्रभु क्या करते हैं इनका समय कैसे गुजरता है, इनके शरीर नहीं है, कुटुंब परिवार नहीं है, कोई बात करने के लिए भी नहीं है। बिल्कुल शरीररहित हैं, कौन बात करे, किससे बात करे, ऐसी स्थिति में सिद्ध परमेष्ठी के दिन कैसे गुजरते होंगे, ऐसी कदाचित् किन्हीं मनचलों को शंका भी हो सकती है। वे सिद्ध प्रभु समस्त ज्ञेय के ज्ञायक हैं और इसी कारण निज रस से लीन हैं। जिनको सर्वांग ज्ञान नहीं होता है वे चलित हो जाया करते हैं। जिन्हें तीन लोक तीन काल की सर्व यथार्थ बातें एक साथ विज्ञप्त हो रही हैं उन जीवों में बाधा किसी कारण से आये तो बतावो? कुछ जानने की इच्छा है और इसे जाना, उसे जाना, इससे आनंद में बाधा आती है। यह तो क्या करता है? कोई चीज खाने को सामने रखी है, जब तक हम उसके रसज्ञान का अनुभवन नहीं कर पाते हैं तब तक तड़फते हैं। हाँ जितने भी हमारे तड़फन हैं वे ज्ञान की कमी के कारण तड़फन हैं। जब मौलिक त्रुटि होती है तो रागद्वेष मोह ये सबके सब असार हो जाते हैं। यद्यपि मोह, राग, द्वेष ये दु:खों की खान हैं तो भी इन विभावों की दाल तब गल पाती है जब इस प्रभु में ज्ञान की न्यूनता की कमी की त्रुटि देख पाते हैं। वे समस्त ज्ञेय के ज्ञायक हैं, अतएव अपने आनंद रस में लीन हैं। वे अपने स्वरूप में ही वास करते हैं। यों यह प्रभु परे हैं। उनको किसी भी शब्द में बांधा जाय तो वह भी एक पक्ष बन जाता है अच्छा जरा विचार कर लो और कुछ शब्दों द्वारा सिद्धप्रभु का गुणगान कर लो। ये प्रभु जिन कहलाते हैं। जिन्होंने रागद्वेषादिक शत्रुवों को जीत लिया है वे जिन हैं। लो कह तो रहे हैं निष्पक्ष प्रभु का स्वरूप, पर ज्यों ही शब्द द्वारा बाँध दिया त्यों ही एक जिनधर्म नामक पक्ष हो गया। यह प्रभु शिव है कल्याणमय है। सर्व प्रदेशों में, सर्वगुणों में एक आनंद ही आनंद का प्रकाश है। उन्हें शिव कहेंगे, शब्द से बांधेंगे तो वह भी एक पक्ष प्रसिद्ध कर दिया गया। यह प्रभु निरंतर अपनी सृष्टियों को रचता चला जाता है, उसकी यह रचना ज्ञान द्वारा भी निरंतर होती रहती है। हम आपका उपयोग प्रतिसमय नई-नई जानकारी नहीं कर सकता और नया-नया अनुभवन नहीं कर सकता। अंतर्मुहूर्त तक हमारे उपयोग की धारा बहती है तब कोई वस्तु हमें ज्ञान में गृहीत होती है। किंतु सिद्ध परमेष्ठी का यह ज्ञान परिणमन इतना निर्मल है कि वे प्रतिसमय अपना पूर्णज्ञान करते चले जाते हैं। यह ब्रह्मा है, ऐसी शुद्ध सृष्टि पर इसका पूर्ण अधिकार है। अरे शब्दों में बांधा तो वह भी एक पक्ष बन जाता है।
शब्दों का अबंधन―सिद्ध प्रभु का ज्ञान समस्त लोक में व्यापक है और इतना ही नहीं समस्त अलोक में भी व्यापक है। अरहंत प्रभु की स्थिति में जब इसके केवलीसमुद्घात हुआ था और लोकपूरण अवस्था हुई थी, उस समय ये प्रदेशों से भी व्यापक थे, किंतु लोक के बाहर एक प्रदेश भी नहीं जा सके थे। लोकपूरण समुद्घात में परमात्मा के प्रदेश व्यापक बनते हैं और वे लोक में ही व्यापक रह सकते हैं, लोक के बाहर नहीं, किंतु परमात्मा का ज्ञानलोक की सीमा को भी तोड़कर अनंत अलोक में पहुंच गया। इतना व्यापक यह ज्ञानपुंज है। यह विष्णु है। अहो इस ज्ञानपुंज की महिमा को जब शब्द से बाँध दिया तो वह भी एक पक्ष बन गया। यह सिद्ध भगवंत स्वयं पापों से सर्वथा दूर हैं और इनका जो स्मरण करते हैं, अभेद भाव से वंदन करते हैं वे भी समस्त पापों से दूर हो जाते हैं। अहो यह ऐसा अनुभव हरि है, इसकी इस विशेषता को जहां शब्द से बांधा वहाँ ही लोक में पक्ष बन गया।
सिद्धशुद्धस्वरूपसंदर्शनसंदेश―भैया ! तुम तो शब्दों के जाल से परे होकर केवल उस सिद्ध प्रसिद्ध विशुद्ध स्वरूप को ही निहारते रहो, शब्द जाल का फंसाव मत बनावो। अब अधिक वचन बोलना बेकार है। उस सिद्ध का प्रसाद सिद्धि का सर्व उपाय है। ऐसा निर्णय करके इस परम आदर्शरूप सिद्ध भगवान के गुणों में दृष्टि बनावो जिससे स्वभाव तक पहुंच हो और अपने स्वभाव में स्थिति हो।
सकलकर्मविनाश―भगवान सिद्ध परमेष्ठी के अष्टकर्मों का विनाश हुआ है। यद्यपि विनाश शब्द सुनकर कुछ चौंक यों हो सकती है कि जो सत् पदार्थ है उसका तो कभी विनाश होता ही नहीं है, फिर इन कर्मों का विनाश कैसे हो गया? तो कर्म पर्याय जिसमें प्रकट हुई है ऐसे परमाणुवों के स्कंधों के स्पर्श की बात नहीं कह रहे हैं किंतु कार्माणवर्गणा में जो कर्मत्व है उसका अभाव हो गया है। इसका ही मतलब है कि कर्मों का विनाश हो गया है यों ही उनके शरीर का भी विनाश है तो उसका भी यही अर्थ है कि जो शरीर के परमाणु स्कंध हैं वे अब शरीररूप नहीं रहे, बिखर करके कपूर की तरह उड़ करके फैल गए। फिर उनका आगे कुछ भी हाल हो। आत्मा का संबंध भी शरीर से नहीं रहा, भावकर्म के नाश की यह बात है कि भावकर्म कोई द्रव्य नहीं है। जैसे कार्माणवर्गणा द्रव्य हैं, शरीर वर्गणा द्रव्य हैं ऐसे भावकर्म कोई द्रव्य नहीं है। वे तो जीव के औपाधिक अवस्था के विभाव हैं। जब जीव में स्वभावपरिणाम प्रकट होता है तो विभावपरिणमन विलीन हो जाता हैं।
सकल कर्मविनाश का साधन―इन सब तीनों प्रकार के कर्मो के विनाश का कारण केवल एक ही अनुभव है―सर्व विशुद्ध ज्ञानमात्र निज तत्त्व का अनुभव होना। यही कर्म नोकर्म और विभाव के विनाश का कारण है। जैसे किसी भी बड़े ढेर के विनाश के कारण जो अग्नि होती है उस अग्नि का मूल कण मात्र है। जैसे इतनी बड़ी रसोई में कितना ही कोयला जल जाता है आग से बहुत काम लेने पर। उस आग की उत्पत्ति में मूल विकास में थोड़े कण ने काम दिया, माचिस की सींक समझो या चकमक के अग्नि कण समझो या किसी दूसरी जगह से आग के कण मांगकर लाये तो उसका थोड़ा पुंज समझो। मूल में थोड़ा ही अग्नि कण होता है, बाद में उसका विस्तार होकर बहुत बड़ा प्रसार हो जाता है ऐसे ही इस मोक्षमार्ग में मूल अनुभव एक विशुद्ध सहज ज्ञायकस्वभाव का अनुभव हे, उस आलंबन के बाद वह ऐसा दृढ़ हो जाता है, ऐसा विकसित होता जाता है कि अंत में वह केवलज्ञान का रूप रख लेता है।
भगवंतों का आत्मक्षेत्र―भगवंत सिद्ध इस समय उतने आकार में विराजमान् हैं जितने आकार वाले शरीर को छोड़कर वे मुक्त हुए हैं। यद्यपि आत्मा में आकार नहीं होता फिर भी जो कुछ भी द्रव्य है उस द्रव्य के निजी प्रदेश अवश्य होते हैं, आत्मा के उन प्रदेशों का विस्तार कितना है। जिन प्रदेशों में समस्त शक्ति समूह मौजूद है अथवा शक्ति का पुंज ही प्रदेशात्मकता को धारण किए हुए है, वह कितना है? ऐसा जानने के लिए जब इच्छा हो तब उसे यों ही कहना होगा कि जिस शरीर से वे छूटे हैं उस शरीर के परिणाम उनका आकार होता है। प्रश्न―वे शरीर से कम या अधिक क्यों नहीं हो जाते हैं? उत्तर―प्रदेश के विस्तार का और संकोच का कारण आत्मा का सत्त्व नहीं है, आत्मा का स्वभाव नहीं है किंतु विशिष्ट जाति की कर्मप्रकृतियों का उदय है। अब चूंकि नामकर्म प्रकृतियां रही नहीं, अन्य प्रकृतियां रही नहीं जो जिस देह को छोड़कर वे मुक्त हो रहे हैं उस देह के आकार में वे आत्मा हैं। अब वे आत्मा बढ़े या घटे?न कोई बढ़ने का कारण है और न कोई घटने का कारण है, क्योंकि बढ़ने और घटने का कारण प्रकृतियों का उदय था। तो वृद्धि और हानि का हेतु नहीं होने से वे सिद्ध भगवंत जिस देह से मुक्त हुए हैं उसके आकार प्रमाण वहाँ रहते हैं।
आत्मक्षेत्र का शरीरपरिणाम से न्यून परिणाम―सिद्ध प्रमाण चरम देह कुछ न्यून बताया गया है, उस न्यून का अर्थ वह है कि अब भी हमारे आपके शरीर में जो केश बढ़ते हैं या नख निकलते हैं या मक्खी के पर की तरह पतली त्वचा ऊपर है उतने स्थान में जीव के प्रदेश अब भी नहीं हैं। तभी तो नाई मशीन से बाल निकाल देता है, जरा भी दु:ख नहीं होता है और बाल के उखाड़ने में दु:ख होता है क्योंकि बाल के उखाड़ने में तो भीतर का संबंध है और बालों को बताया है कि खून का मल है, नखों को बताया है कि हड्डी का मल है। कैसे फोड़कर निकला है यह हड्डी का मल? जो बाहर निकले है उनमें जीव के प्रदेश नहीं हैं, तभी तो नख काट लेते हैं तो दु:ख नहीं होता है। यों ही कभी चलते हुए में किवाड़ की कहीं हल्की सी खरोंच लग जाय जिससे केवल मक्खी के पर बराबर पतली त्वचा ही घिसे तो उसमें भी वेदना नहीं होती है। तो जितनी जगह में कुछ भी प्रदेश नहीं है, अब भी उतना न्यून है। हमारे आत्मप्रदेश उस दिख जाने वाले शरीर से अब भी कुछ कम हैं। जितने हैं उतने ही परिणाम भगवान सिद्ध के प्रदेश का आकार रहता है।
सिद्ध परमेष्ठी का आदर्श स्वरूप―भैया ! सब तरह से सिद्ध परमेष्ठी को पहिचान कर प्रयोजनभूत तत्त्व पहिचानो तो उनका गुणविकास है स्वभाव है। वे कितने ही फैले हुए है, इतना ज्ञान करने का असर हमारे अध्यात्म में नहीं पड़ता है, वे लोक के अग्रभाग पर स्थित हैं, इतना जानने में हमारे अध्यात्म का आंतरिक प्रभाव नहीं पड़ता है। जितने चाहे वे सब परिज्ञान सहायक हैं, किंतु सिद्ध भगवान कैसे विकास वाले हैं ऐसा उनके गुण और स्वभाव के उपयोग से ही परिज्ञात होता है। प्रभु के स्वभाव का परिज्ञान होने से अपने आपके स्वरूप का भान होता है। सर्वोत्कृष्ट सर्वथा चरम विकास वाले परमेष्ठियों का सिद्ध नाम क्यों है? इसका उत्तर सिद्ध शब्द से ही मिल जाता है।
सिद्ध शब्द का प्रथम व द्वितीय अर्थ―सिद्ध का अर्थ है―‘‘सितं दग्धं कर्मइंधनं येन स: सिद्ध:।’’जिसने कर्म ईंधन को जला डाला है उसे सिद्ध कहते हैं। जहां आठों कर्म का अभाव हो गया उसे सिद्ध कहते हैं। अथवा सिद्ध शब्द षिधु धातु से बना है।‘‘सेधतिष्म इति सिद्ध:।’’जो पुन: लौटकर नहीं आ सकते इस तरह जो चले गये उन्हें सिद्ध कहते हैं। जैसे अपने व्यवहार में जाने चलने के अनेक शब्द है, वह गया, वह भागा, वह चला, वह बमका, कितने ही शब्द हैं। तो उन सब शब्दों में जुदा-जुदा भाव ध्वनित होता है। इसी तरह इस ‘षिधु’धातु से यह भाव ध्वनित होता है कि जो ऐसा चला गया कि फिर लौटकर न आये उसे सिद्ध कहते हैं। भगवान चले गए, अब वे लौटकर न आयेंगे।
सिद्ध का तृतीय अर्थ―अथवा सिध धातु सिद्धि अर्थ में है। ‘सेवति सिद्धयतिष्म’अर्थात् ‘निष्ठिताथे: अभवत् इति सिद्ध:।’जिसका प्रयोजन पूर्ण हो चुका है अर्थात् कृतकृत्य होकर जिसने करने योग्य काम सब कर लिया है उसे सिद्ध कहते हैं। अब बतलावो सिद्ध प्रभु को करने के लिए क्या है? पूर्ण ज्ञान का विकास है, पूर्ण आनंद का प्रसार है, करने को कुछ रहा है क्या अब? वास्तव में यहाँ भी बाह्य में हम आपके भी करने लायक कुछ नहीं है। क्या करें? मकान बनाया, प्रथम तो बना ही नहीं सकते। मान लो वह बन गया तो उस मकान के बन जाने से आत्मा को कौनसी सिद्धि हो गयी? यह मकान बना और मरकर चले गये पचास, सौ राजू दूर कहीं पैदा हो गये, किसी अन्य भव में पैदा हो गए तो अब क्या रहा? यहाँ का कुछ भी किस काम आया परभव में, तो काम क्या आये इस भव में भी यह पुद्गल प्रसंग काम नहीं आता है।
सिद्ध का चतुर्थ, पंचम, षष्ठ व सप्तम अर्थ―सिद्ध का एक अर्थ यह भी है ‘सेधतिष्म शास्ता अभवत्’जो हितोपदेशी हुए थे उसे सिद्ध कहते हैं। जितने भी सिद्ध परमेष्ठी हैं वे सिद्ध से पहिले अरहंत अवस्था में थे। कोई भी साधु सीधा सिद्ध नहीं हो सकता। अरहंत अवस्था में वीतराग सर्वज्ञ हितोपदेश करते थे। तो सिद्ध शब्द से वर्तमान और पूर्व की विशेषताएं विदित होती चली जा रही हैं। अथवा एक सिद्ध धातु है वह मंगल अर्थ में आती है। जिसका अर्थ यह निकलता है―जिसने मंगलरूप का अनुभव किया था उसे सिद्ध कहते हैं। वह मंगलस्वरूप क्या है। शुद्ध आनंदस्वरूप। जीवों का कल्याण हो, जीवों का मंगल हो, इसका भाव क्या है कि जीव शांति, संतोष, आनंदपूर्वक रहें। तो मंगल कहो, कल्याण कहो, आनंद कहो जो आनंद स्वरूपता का अनुभव कर रहे हैं उन्हें सिद्ध कहते हैं अथवा सिद्ध शब्द का पूर्ण अर्थ है जो सदा के लिए शुद्ध हो चुके हैं अर्थात् अनंत काल तक के लिए जो पूर्ण हो चुके हैं उन्हें सिद्ध कहते हैं अथवा सिद्ध का अर्थ प्रसिद्ध है―भव्य जीवों के द्वारा जो प्रसिद्ध हुए हैं, भव्य पुरुषों के हृदय में जिनके गुण उपलब्ध हैं ऐसे निर्मल आत्मा को सिद्ध कहते हैं। जीवों की उत्कृष्ट, शुद्ध और हितरूप अवस्था यह ही सिद्ध अवस्था है।
सिद्ध वंदना―सिद्ध प्रभु ज्ञानपुंज हैं, उनके शरीर नहीं है, अन्य कोई समागम नहीं है, मात्र ज्ञानानंद का शुद्ध विकास है। बाहरी किसी भी पदार्थ का वहाँ संबंध नहीं है। ये प्रभु तीन लोक के शिखर पर विराजमान् हैं। अंतिम पाये हुए शरीर के आकार उनके प्रदेश हैं, नित्य शुद्ध हैं, अनंत हैं, सर्व प्रकार की बाधावों से रहित हैं। ऐसे सिद्ध भगवंतों को मैं सिद्धि के अर्थ नमस्कार करता हूं। इस प्रकार सिद्ध परमेष्ठी के स्वरूप का वर्णन करके अब आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप कहते हैं।