वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 76
From जैनकोष
एरिसयभावणाए ववहारणयस्स होदि चारित्तं।
णिच्छयणयस्स चरणं एत्तो उड्ढं पवक्खामि।।76।।
दो अधिकारों का संधि रूप विवरण―जैसा कि उक्त प्रकरणों में कहा गया है इस प्रकार की भावना में व्यवहारनय का चारित्र होता है। निश्चय नय के अभिप्राय से चारित्र क्या है? इस बात को अब आगे कहेंगे। आपने समझा ही होगा कि यहाँ व्यवहारचारित्र के वर्णन में भी निश्चयचारित्र की झलक प्रदर्शित की गई है, कारण यह है कि निश्चयचारित्र के संबंध बिना वास्तव में बाह्यचारित्र को व्यवहारचारित्र भी नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि उस बाह्य चारित्र का नाम भी चाहे निश्चयचारित्र न हो, व्यवहार चारित्र कहा गया है, किंतु जो कार्यकारी व्यवहारचारित्र है और मोक्षमार्ग में सहायक व्यवहारचारित्र है वह व्यवहारचारित्र नहीं बन पाता। यह गाथा व्यवहारचारित्र के व्याख्यान का उपसंहार करने वाली है और निश्चय चारित्र के व्याख्यान की सूचना देने वाली है।
निश्चयचारित्र का विषय परमपारिणामिक भाव―निश्चयचारित्र में आदि से अंत तक संपूर्ण जीवों के परम पारिणामिक भाव का आश्रय रहता है और इसी कारण निश्चय चारित्र एक स्वरूप है। व्यवहारचारित्र में क्रियाएं अनेक हैं―महाव्रत, समिति तथा गुप्ति का धारण व 6 आवश्यक आदि अनेक क्रियाएं व्यवहारचारित्र में होती हैं, पर निश्चयचारित्र केवल एक स्वरूप होता है। उसमें दृष्टि की दृढ़ता के साधन तो होते हैं किंतु विषयभेद नहीं होता। वह निश्चयचारित्र चाहे प्रमत्तविरतों में हो, चाहे अप्रमत्तविरतों में हो, सबका लक्ष्य केवल एक निज सहज शुद्ध ज्ञायकस्वरूप रहता है। ज्ञाता द्रष्टा रहने की स्थिति रखना यही परमार्थ से निश्चयचारित्र है। व्यवहारचारित्र के पालन करते हुए भी बीच-बीच में यथा अवसर यह निश्चयचारित्र आता जाता है तो वह व्यवहारचारित्र अपने उद्देश्य में सफल होता है।
व्यवहारचारित्र में प्रशस्तराग की प्रमुखता―व्यवहारचारित्र में अतिप्रशस्त शुभ भाव की प्रमुखता है जबकि निश्चयचारित्र में समस्त राग रहित, समस्त विभावतरंगरहित निज आत्मतत्त्व में उन्मुख होने की प्रमुखता है। ऐसी जो पहिली बतायी गयीं अनेक शुभ भावनाएं हैं उन सभी भावनावों में रहना सो व्यवहारचारित्र है। हाथ पैर की क्रियाएं होना मात्र पौद्गलिक क्रियावों के नाते से देखा जाय तो यह चारित्र न व्यवहार है और न परमार्थ है। जैसी जीव व्यक्त पुद्गल की क्रियाएं होती है ऐसी ये भी क्रियायें हैं ! फर्क यह है कि ये क्रियाएं चेतन के संबंध बिना नहीं हो रही हैं, पर इस गोष्ठी में से चेतन का संबंध तो निरखा न जाय और केवल देह की क्रियाएं ही देखी जायें तो वह चारित्र ही नहीं है। इस प्रसंग में जो शुभ भावनाएं होती हैं महाव्रत व समिति का पालना, गुप्ति का धारण करना इन प्रसंगों में जो मन, वचन, काय की शुभ चेष्टाएं होती हैं, स्वभाव का अनुराग है, प्रशस्त शुभ भावना है वह सब व्यवहारचारित्र है।
चारित्र की आत्मपरिणतिरूपता―आत्मा के गुणों की परिणति ही चारित्र हो सकता है। पौद्गलिक देहादिक की परिणति का नाम चारित्र नहीं है। श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र ये तीनों गुण आत्मा के हैं, देह के नहीं हैं। इसलिए देह की क्रियावों में न श्रद्धान् है, न ज्ञान है, न चारित्र है। आत्मा की क्रियावों में ही, परिणति में ही दर्शन, ज्ञान, चारित्र है। तो जो शुभ रागमय भावना है वह तो है व्यवहारचारित्र और जो शुभ अशुभ राग रहित केवल स्वच्छ ज्ञान स्वरूप का अवलोकन है, आश्रय है वह है निश्चयचारित्र और व्यवहारचारित्र ये दोनों ही परिणतियां हैं। अब मोक्षमार्ग के प्रकरण में निश्चयचारित्र के स्पर्श सहित जो व्यवहारचारित्र होता है वह तो कार्यकारी माना गया है और निश्चयचारित्र के स्पर्शन से रहित जो आत्मपरिणतिरूप शुभ भावना भी चले तो भी वह मोक्षमार्ग के लिए कार्यकारी नहीं है, क्योंकि अज्ञानभाव रहते हुए शुभ राग की भावना भी कर्मनिर्जरा करने में सफल नहीं हो सकती है।
व्यवहारचारित्र में प्रशस्त अनुराग―व्यवहारचारित्र में 13 प्रकार के चारित्र और परमेष्ठी का ध्यान―इन दोनों में अनुराग रहता है। बिना शारीरिक क्रियावों में आये हुए महाव्रत, समिति, गुप्ति जो वस्तुत: महाव्रत, समिति, गुप्ति हो ही नहीं पाते है, उनमें अनुराग करना, यह प्रशस्त राग नहीं है, अज्ञान सहित जितने भी राग हैं वे सब राग अतिप्रशस्त राग नहीं कहलाते हैं। यद्यपि लड़ाई झगड़े की अपेक्षा ये सब राग प्रशस्त राग है, लेकिन मोक्षमार्ग में जिनको शामिल किया जा सके, ऐसे ये प्रशस्त राग नहीं है। निश्चय अहिंसा महाव्रत और व्यवहार अहिंसा महाव्रत में जो शुभ अनुराग है, प्रशस्त अहिंसामहाव्रत का अनुराग है, ऐसे ही निश्चयरूप सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रहत्याग महाव्रत और व्यवहाररूप सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रहत्याग महाव्रत इनके अनुराग का होना भी प्रशस्त अनुराग हैं। प्रयोजनभूत बात तो इतनी है कि उन सब क्रियावों में बीच-बीच झलक निश्चय की होती रहनी चाहिए।
निश्चय की संगति से व्यवहार का सामर्थ्य―जिसकी दृष्टि शुद्ध आत्मस्वरूप की ओर नहीं है जो कि ज्ञानसाध्य बात है तब ऐसे अज्ञानमय भाव में रहते सहते जो भी भावना चलेगी, जो भी देह की परिणति चलेगी वह सब एक दिल बहलाने वाली परिणति है। वहाँ मार्ग में संक्रमण, निर्जरण, संवरण आदि कोई प्रयोजक बातें हो सकें सो नहीं हो सकता है। इस मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत शुभोपयोग में शुद्धतत्त्व के उपयोग का साथ अवश्य है। और इसी कारण जब हम भगवद्भक्ति करते हैं तो भले ही एक शुभ अनुराग से हम भगवान् की भक्ति करते हैं पर उस भक्ति से बीच-बीच जो उनके शुद्ध गुणविकास का अवलोकन होता है और उनके शुद्धस्वभाव का दर्शन होता है उस निश्चय अंश की संगति के कारण यह भगवद्भक्ति कर्मनिर्जरा का कारण बन जाती है और इसी कारण सिद्धांतशास्त्र में भगवद्भक्ति को, कर्मनिर्जरा का कारण बताया है। वादिराज मुनि ने एकीभाव स्तोत्र में यह भी कहा है कि शुद्ध ज्ञान हो जाय, शुद्ध चारित्र हो जाय फिर भी हे प्रभो ! यदि आपकी उत्कृष्ट भक्ति नहीं जगती है तो मोक्ष महल के आवरक मोह कपाट जो लगे हुए हैं, उसमें जो पर्यायबुद्धि का ताला लगा हुआ है उसकी कुंजी ही उसे नहीं मिली, मोक्ष महल के किवाड़ों का ताला खोलने की कुंजी तो भगवद्भक्ति है।
प्रभुभक्ति का उपकार―यह प्रभुभक्ति सर्वप्रथम हम आपको शरण होती है और जैसे-जैसे हमारा ज्ञान बढ़ता जाता है, शुद्ध स्वभाव के निकट पहुंचते जाते हैं वैसे ही वैसे यह प्रभुभक्ति स्वभावभक्ति का रूप रख लेती है और अंत में यह भक्ति स्वभाव में अभेदरूप बन जाती है, वहाँ फिर भक्त और प्रभु का भेद नहीं रहता। अपने आपमें स्वभाव का और उपयोग के ग्रहण का भेद भी नहीं रहता है। वहाँ भी एक निर्विकल्प परिणाम होता है। यह भक्ति अंत में अभेद भक्तिरूप से अवस्थित हो जाती है। प्रभुभक्ति के प्रताप से पापकर्मों की तो निर्जरा होती है साथ ही पुण्यरस की वृद्धि होती है, स्वभावदृष्टि का अवसर होता है। यों कितना आसान तरीका है धर्ममार्ग में बढ़ने का? इसके लिए जो भी बातें उपयुक्त हैं, आवश्यक हैं उन सब बातों में इसका प्रवेश हो जाता है।
प्रभुभक्ति से सिद्धि―भैया ! क्या चाहिए इस जीव को? कठिन विपत्ति न सताये, असुविधा न बनें, सुविधाएं प्राप्त हों और शुद्ध भावना बनें, इन सबकी एक साथ साधना करने वाला कोई उद्योग है तो वह है प्रभुभक्ति। शुद्ध भावना से जो इस पंचनमस्कार मंत्र की भावना करता है उसके अश्वमेव अभीष्ट कार्य की सिद्धि होती है। होनी चाहिए शुद्ध भावना। अब भी बहुत से श्रद्धालुजन इस नमस्कार मंत्र की आराधना से अपनी सर्व विपत्तियां समाप्त कर लेते हैं।
शरण―जैसे किसी बच्चे को कोई दूसरा सताये तो वह बच्चा अपने मां की शरण लेता हे, मां की गोद में जाकर छिपता है और किसी बड़े बच्चे को कोई सताये तो वह अपने पिता की गोद की शरण लेता है, किंतु हम आप इन संसारी प्राणियों को ये कर्म सतायें, ये जन्म–मरण सतायें, ये नाना प्रकार की विडंबनायें सतायें तो यह तो बतावो कि हम आप किसकी गोद ढूंढ़ें ताकि उन सब विपत्तियों से दूर हो सकें?ये माता, पिता, कुटुंब, रिश्तेदार, परिजन इनकी गोद हम आपके शरण होगी क्या? अरे ये खुद दु:खी हैं, दु:ख में पड़े हुए हैं। ऐसी स्थिति में हम आपको शरण मिल सकती है तो यह निज शुद्ध आत्मा की शरण ही अपने को मिल सकती है। इसी का स्मरण हो तो शरण मिल सकती है। इसी को कहते हैं परमेष्ठिभक्ति। यों चारित्र के पालन में और परमेष्ठिभक्ति में व्यवहारचारित्र की समृद्धि होती है। अब आगे निश्चयचारित्र का वर्णन चलेगा।
व्यवहारचारित्र में निश्चयचारित्र की छाया―इस अधिकार में व्यवहारचारित्र का वर्णन किया है। 5 महाव्रत, 5 समिति, 3 गुप्ति, इस प्रकार 13 प्रकार के चारित्रों का वर्णन किया है। इन ही 13 प्रकार के चारित्रों के मानने के कारण तेरापंथ नाम पड़ा है। जैसे कुछ लोग कहते हैं कि हम तेरापंथी हैं उसका अर्थ है कि 13 प्रकार का चारित्र मोक्ष का साधक मार्ग है, इस प्रकार की मान्यता वाले और यत्न के उत्सुक हम हैं। यह व्यवहारचारित्र, निश्चयचारित्र के बल पर प्रतिष्ठित रहता है। निश्चयचारित्र शून्य व्यवहार क्रिया को चारित्र संज्ञा केवल उपचार से दी जाती है। यह निश्चयचारित्र ही उत्कृष्ट चारित्र है। आत्मा अपने आपसे हटकर बाह्य पदार्थों में लगकर विह्वल हो रहा है, आकुलित हो रहा है। इसकी आकुलता के मिटने का उपाय ही केवल यह है कि बाह्य पदार्थों से हटकर अपने आपके स्वरूप में स्थिर हो जाय, इस ही का नाम निश्चयचारित्र है।
व्यवहारचारित्र का प्रयोजन निश्चयचारित्र की साधना―व्यवहारचारित्र का प्रयोजन निश्चयचारित्र की साधना है। जैसे व्यवहारचारित्र में जो कुछ किया जाता है, कोई मुनि चले देख भालकर तो चलने के लिए वह नहीं चला, वह निश्चयचारित्र की सिद्धि के ध्येय से चला। उसने जो कुछ किया वह निश्चयचारित्र की सिद्धि के लिए किया। जैसे यहाँ कोई भी पुरुष गृहस्थ धन के लिए धन नहीं कमाया करते हैं किंतु इज्जत के लिए धन कमाते हैं। बड़े आडंबर ठाठ बढ़ाते हैं, वे ठाठ के लिए ठाठ नहीं बढ़ाते हैं, अपनी इज्जत के लिए ठाठ बढ़ाते हैं। जैसे यहाँ गृहस्थों का जितना भी करने धरने का प्रयोजन है वह सब इज्जत के पोषक के लिए है। उनका सर्वोत्कृष्ट एक ही ध्येय रहता है। जो साधारणतया गृहस्थ है उनकी बात कही जा रही है। यह ज्ञानी सम्यग्दृष्टि गृहस्थों की बात नहीं कह रहे हैं, किंतु सामान्यतया जो गृहस्थ परिपाटी है वह इस बुनियाद पर बढ़ी चली जा रही है कि वे धन कमायें तो इज्जत के लिए, जो कुछ भी कार्य करना चाहते हैं अपनी इज्जत के लिए। एक इज्जत का उद्देश्य न रहे फिर इसके बाद केवल दो रोटियों का ही तो प्रयोजन रह गया। दो रोटी खाने को मिल जायें;क्षुधा तृष्णा की शांति हो जाय। क्या क्षुधा तृष्णा की शांति हो इतने मात्र के लिए इतने कर्तव्य यह पुरुष करता है? आप सब इस बात को परख सकते हैं कि जो कुछ भी यह गृहस्थ करना चाहता है वह इज्जत की वृद्धि के लिए करना चाहता है। यों ही समझो साधुवों की बात। वे जो भी करना चाहते हैं सब निश्चयचारित्र की सिद्धि के लिए करना चाहते हैं।
साधु के विहार का प्रयोजन―साधु खेल देखने के लिए विहार नहीं करते हैं, उनके विहार का प्रयोजन निश्चयचारित्र की सिद्धि है। उनके विहार का प्रयोजन है विहार न करना पड़े। अविहारस्वभाव की दृष्टि के लिए, अविहारस्वभाव में स्थिरता पाने के लिए वे विहार करते हैं। जैसे सम्यग्दृष्टि पुरुष भोगों से निवृत्ति पाने के लिए भोग भोगता है। इसे अज्ञानी पुरुष मान नहीं सकते हैं तो अच्छा एक दृष्टांत और लो, जैसे रोगी पुरुष औषधि खाने के लिए कड़वी औषधि नहीं खा रहा है, इसे छोड़ने के लिए खा रहा है, ऐसे ही सम्यग्दृष्टि पुरुष मैं इन भोगों से निवृत्त हो जाऊं, ऐसी भावना सहित प्रवृत्त होता है। क्या करे वह उदयवश आ पड़ा है, उस प्रसंग में लिपट गया है किंतु उनसे निवृत्ति का उसके अंतर में भाव रहता है। ऐसे साधु संत पुरुष जो भी व्यवहार किया करते हैं वे व्यवहार क्रिया के अनुराग से नहीं करते हैं किंतु ये क्रियाएं करना भी मेरे आत्मा का स्वभाव नहीं है, मेरा स्वभाव तो शुद्ध ज्ञानानंद का अनुभवमात्र है, मैं उस ज्ञानानंद सहजस्वभाव को ही देखूं, यह निरंतर भावना रहती है और इसकी सिद्धि के लिए वह समस्त व्यवहार कार्य करता है।
विहार का प्रयोजन रागद्वेष का परिहार―सीधा समितिसहित चलना, उठना, खाना, बोलना व्यवहार करना भी होता रहे, किंतु तप करने का लक्ष्य नहीं मालूम है तो कैसे कहा जा सकता है कि वह कर्मों की निर्जरा कर सकता है? हम साधु हैं, साधु को देख भालकर चलना चाहिए इस कारण मैं देखकर चलूंगा, ऐसे राग से जो चलता है उसने अपना लक्ष्य ही नहीं साधा है। क्या चलते रहने के लिए चलता है? अरे यह चलना मेरे आत्मा का स्वरूप नहीं है, मैं विहार स्वभावी हूं, किंतु क्या करूं, ऐसी विकट परिस्थिति है कि मैं यहाँ बना रहूं तो रागद्वेष की उत्पत्ति की संभावना है। अत: अपने ज्ञानस्वरूप में स्थिर यह सकें, ऐसे ज्ञानस्वरूप की स्थिरता की पात्रता बनी रहे, इसलिए विहार कर रहा हूं। इस उद्देश्य से वे चल रहे हैं। चलने के लिए नहीं चल रहे हैं।
साधु के आहार का प्रयोजन―साधुसंत भोजन के लिए भी चर्या करते हैं, पर भोजन के लिए वे भोजन नहीं करते हैं। जैसे अज्ञानीजन एक स्वाद की मौज लेने के लिए भोजन करते हैं अथवा पेट भरे, सुख से रहें, मौज से रहें, इसके लिए आहार ग्रहण करते हैं। साधुजन इसके लिए आहार ग्रहण नहीं करते हैं। वे ऐसा चिंतन करते हैं, इस आत्मा का तो केवल ज्ञानभाव और आनंदभाव स्वरूप है, न शरीर का संबंध है और न यहाँ कोई भूख की गुंजाइश है, किंतु अनादि से भ्रम बुद्धि के कारण जो खेल बन रहे हैं शरीर ग्रहण करना, भूख लगना आदिक जो कुछ रचना चल रही है उस लपेट में आया हुआ यह मैं क्या करूं? यदि, क्षुधा की वेदना को शांत न करूंं तो असमय में ही इन प्राणों का वियोग हो सकता है और असमय में प्राणवियोग हो जाने पर आगे फिर शरीर मिलेंगे और फिर वही विडंबना चलेगी। यह शरीर भी मेरे न रहो, इसका अनाहार स्वभाव है, सबसे विविक्त केवल ज्ञानरूप रहना इसका सहजभाव है, ऐसी मेरी परिणति बने इस उद्देश्य से उन्हें आहार ग्रहण करना पड़ रहा है।
ज्ञानी के वचनव्यवहार का प्रयोजन―ज्ञानी बोलता है दूसरों से, तो बोलने के लिए नहीं बोलता है, किंतु जिस बोलने से आत्मकल्याण का संबंध है वही बोल बोलते हैं। धर्मोपदेश भी देते हैं साधुजन, लेकिन अपना व्यक्तित्व जाहिर करना है इस दृष्टि से नहीं, वे तो जो कुछ कह रहे हैं अपने आपको कह रहे हैं ऐसी उन्मुखता उनके धर्मोपदेश में होती है। अथवा जैसे कि स्वयं को पहिचाना है कि आनंद का मार्ग है तो कुछ परम करुणा उत्पन्न होती है तो अपने आपसे संबंध न तोड़कर, अपनी आत्मदृष्टि को न तोड़कर उपदेश देते हैं। उनका देशना से भी प्रयोजन नहीं, उनका प्रयोजन तो निश्चयचारित्र की सिद्धि है। वे जो कुछ करते हैं, करना पड़ता है, प्रयोजन उनका प्रत्येक क्रिया में निश्चयचारित्र की सिद्धि का है। यों उनके व्यवहारचारित्र निश्चयचारित्र की साधना के लिए है।
निर्वाण के कारणभूत निश्चयचारित्र के वर्णन का संकल्प―सो अब आचार्य देव यहाँ कह रहे हैं कि व्यवहारचारित्र का तो वर्णन किया है, अब आगे निश्चयचारित्र का वर्णन करेंगे, जिसके संबंध के बिना व्यवहारचारित्र से कर्मनिर्जरा की सिद्धि नहीं होती है। यह निश्चयचारित्र गतिरहित अवस्था का कारण है। इस गतिरहित अवस्था की पंचम गति के नाम से भी प्रसिद्धि है। कोई 5 वीं गति नहीं है। गति तो 4 ही हैं। गति के मायने अवस्था। एक 5 वीं अवस्था है। साहित्य में तो मरण का नाम भी 5 वीं गति बताया है लोक व्यवहार में। जैसे लोग कहते हैं कि यह पंचत्व को प्राप्त हुआ, पंचगति को प्राप्त हुआ मायने मर गया। मोक्षमार्ग के प्रसंग में जन्ममरणरहित होने का नाम पंचम गति है। तो उद्देश्य वश उसका अर्थ लगाया जाता है। संसार में 4 गतियां हैं। उन चारों गतियों से विलक्षण गतिरहित है जहां कभी रंच भी आकुलता न होगी, ऐसी उस निर्वाण दशा को पंचमगति कहते हैं।
निर्वाण के कारणभूत भाव व निर्वाण के कारणभूत भावों का विषय―आत्मा के ज्ञानानंदस्वभाव को निरखकर, अपने को ज्ञानमात्र जानकर उस ज्ञानानंदमात्र स्वरूप में ही रमण करे―यही है निश्चयचारित्र। यह निश्चयचारित्र शुद्ध जीवत्व पारिणामिक भाव की दृष्टि बिना नहीं उत्पन्न होता है। इस कारण जो जीव के स्वतत्त्वों में पंचम तत्त्व है उस पंचमभाव की दृष्टि रहे, उस दृष्टि में यथापद औपशमिक, क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक भाव प्रकट होता है और उस पंचमभाव से संबंध रखते हुए ये तीन भाव निर्वाण के कारण पड़ते हैं। यों ज्ञानी संत निश्चय चारित्र का ग्रहण करते हैं, अत: निश्चय चारित्र के परंपरया कारणभूत व्यवहारचारित्र के बाद अब 5 वें अधिकार में निश्चयचारित्र का वर्णन आयेगा। यह निश्चयचारित्र मोक्ष का परम कारण है, जिस चारित्र के बिना सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान भी बना रहे तो क्षेत्रसंसर्गादि वातावरण के बिना जैसे कोठे में बीज पड़े हुए हैं, वे अंकुरित नहीं हो सकते। यों ही सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तब तक सफलीभूत नहीं हो पाते जब तक निश्चयचारित्र में प्रगति नहीं हो पाती।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की युगपत् उत्पत्ति―ये दर्शन, ज्ञान, चारित्र―तीनों एक साथ उत्पन्न होते हैं। जिस काल में सम्यग्दर्शन हुआ उस काल में यह ज्ञान सम्यग्ज्ञान बन जाता है और सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान के होते ही किसी न किसी अंश में अपने स्वरूप का आचरण हुआ करता है। यों सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और स्वरूपाचरण ये तीनों एक साथ होते हैं। सम्यग्दर्शन से पहिले वही ज्ञान जो बिल्कुल सही रूप में ही जान रहा था सम्यग्ज्ञान नहीं रहता।
सम्यग्दर्शन के साथ ही ज्ञान का सम्यक्पना पर दृष्टांत―जैसे आपने किसी ने चर्चाएं खूब सुनी हैं। श्रवणबेल गोल में बाहुबली स्वामी की मूर्ति है, इतनी बड़ी है, ऐसा आकार है, ऐसी मुद्रा है, चित्रों में भी देखा है, कुछ मंदिरों में उस प्रकार की प्रतिमा के दर्शन भी किये हैं, कहीं नाप तौल भी लिखी होगी, मूर्ति इतनी बड़ी है, हाथ इतने बड़े हैं, अंगुली इतनी बड़ी हैं। पैर इतने बड़े हैं, ऐसा सही-सही जान रहे हैं, विपरीत नहीं जान रहे हैं। जो लोग बाहुबली की उस मूर्ति को देख आए हैं जैसी मूर्ति है वैसा ही जान रहे हैं, किंतु जब इसे सुयोग मिले, वहाँ पहुंचे और उस मूर्ति के साक्षात् दर्शन करे तो उस दर्शन करने के समय जो दृढ़ता आती है अपने ज्ञान से जितना जो कुछ समझा था उस बाहुबली की मूर्ति के संबंध में, उस समय क्या भाव होते होंगे? ओह यह है ठीक है। उसका दर्शन करके बाहुबली की प्रतिमा विषयक जो ज्ञान हुआ है, उस ज्ञान में और दर्शन से पहिले जो बाहुबली की प्रतिमा विषयक ज्ञान हो रहा था उसमें कुछ अंतर है कि नहीं? यों ही आत्मा की बात है।
सम्यग्दर्शन के साथ ही ज्ञान का सम्यक्पना―यह आत्मा स्वकीय द्रव्य गुण पर्यायात्मक है, ज्ञानादिक अनंत गुणों का भंडार है, यह अपने स्वरूप से परिणमता है दूसरे के रूप से नहीं परिणमता।, यह केवल ज्ञान प्रकाशमात्र है, बहुत-बहुत बातें जानी। जाना यथार्थ जैसा कि स्वरूप है। एक तो यह जानन हुआ। अब वही पुरुष कुछ भेदविज्ञान के साधन से, कुछ बाह्यपदार्थ विषयक संकल्प विकल्प हटा लेने से अपने आपकी ओर इसकी कुछ जानने की इच्छा होने से अब इसका जो अपने आपमें प्रवेश हो रहा है और वहाँ संकल्प विकल्प जाल छूटकर जो अपने आत्मस्वरूप का दर्शन हो रहा है उस दर्शन के बाद, उस अनुभवन के बाद, ज्ञानमात्र अपने आपका अनुभव हो चुकने के बाद आत्मा में वे सब ही बातें, वही सब ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है, वह यही ज्ञानानंदमात्र है। यों विशद बोध हो जाता है। आत्मदर्शन से पहिले का जो ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता है। हालांकि वह ज्ञान वही जान रहा है जैसा कि आत्मदर्शन के बाद जाना है किंतु आत्मदर्शन हुए बिना आत्मा का ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं है। आत्मदर्शन के साथ का आत्मस्वभाव का परिज्ञान सर्व सम्यग्ज्ञान कहलाता है। सम्यक्चारित्र भी शुद्ध ज्ञायकस्वरूप के अनुसार अपने उपयोग का बनाना, यही है सम्यक्चारित्र।
निश्चयचारित्र के संबंध से सफलता―ये तीनों यद्यपि एक साथ प्रादुर्भूत होते हैं किंतु सम्यग्दर्शन की पूर्णता पहिले होती है और सम्यग्ज्ञान की पूर्णता पश्चात् होती है और सम्यक्चारित्र की पूर्णता अंत में होती है। यहाँ प्रयोजन के प्रसंग में जितना धारण करने योग्य परमचारित्र है उस पर परमचारित्र की बात कही जा रही है। यह सम्यग्ज्ञान की पूर्णता से पहिले ग्रहण करना चाहिए। इसके ही फल में यह ज्ञान केवलज्ञानरूप विकसित हुआ करता है। तो जैसे कोठे में अनाज पड़ा हुआ है, वह अंकुरित नहीं होता है, वही अनाज खेत में पड़े, वैसे ही जलवायु का ग्रहण करे तो वह अंकुरित होता है और फल देने वाला हो जाता है, इसी प्रकार यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान जब इसे अपने आपके स्वरूप की स्थिरता होती है तब अपने आपके स्वरूप की स्थिरता के प्रताप से सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र इन―तीनों की एकता होकर यह मोक्ष के फल को फलाने लगता है, ऐसा यह निश्चयचारित्र है।
निश्चयचारित्र का अभिनंदन―यह निश्चयचारित्र बड़े-बड़े महापुरुषों के द्वारा, परम योगियों के द्वारा वंदनीय है। योगीश्वर एक इस ज्ञायक स्वरूप की स्थिरता की उपासना किया करते हैं, ऐसे इस चारित्र को हम बार-बार वंदन करते हैं। कोई भी पुरुष व्यक्ति को नहीं पूजता है, वह उसके गुणों को पूजता है और उसके भी गुणों को नहीं पूजता है, किंतु अपने आपके गुणों को पूजता है। जिसको दूसरे के ज्ञान गुण पर अभिनंदन होता है, हर्ष होता है उसे दूसरे के ज्ञान पर हर्ष नहीं होता है, किंतु अपने आपके गुणों पर हर्ष होता है तो अभेदरूप से, अभेद वंदनरूप से इस परमचारित्र को में वंदता हूं। ऐसा संकल्प रखते हुए आचार्य देव कह रहे हैं कि अब मैं निश्चयचारित्र को कहूंगा।
कल्याण प्रगति के लिये निश्चयचारित्र व व्यवहारचारित्र का परस्पर सहयोग―यह निश्चयचारित्र ही वास्तव में शील है, और अंग्रेजी में सील कहते हैं वस्तु को यथास्थान अवस्थित कर देना दृढ़ता से। अपने आपका उपयोग अपने आपमें जमा रहे, फिर गड़बड़ी न हो, ऐसा सील कर देना वही तो निश्चयचारित्र है, यही आत्मस्वभाव है। निश्चयचारित्र परम निर्वाण का साक्षात् कारण है और व्यवहारचारित्र परमनिर्वाण का परंपरा कारण है। व्यवहारचारित्र का काम निश्चयचारित्र की पात्रता बनाए रखना है और निश्चयचारित्र का काम साक्षात् कर्मनिर्जरण करके मुक्त अवस्था को प्राप्त कराना है। जैसे कोई दो बालक लड़ रहे हों, वहाँ कोई तीसरा बालक आकर एक बालक का हाथ पकड़ ले, रोक ले तो मारने वाले बालक को अवकाश मिला कि पीट सकता है। कहने को तो यह है कि उस तृतीय बालक ने तो नहीं पीटा, परंतु पिटाने में परंपरया दृढ़ कारण हुआ। यों ही व्यवहारचारित्र ने कर्मों की निर्जरा नहीं की, लेकिन ऐसी स्थिति उत्पन्न की कि इस निश्चयचारित्र को मौका मिल गया। अब यह निश्चयचारित्र अपने मूल व्यवहार के साथ कर्मों की निर्जरा कर रहा है, ऐसे परमकल्याण के कारणभूत निश्चयचारित्र को हमारा अभिनंदन हो। अब आगे उसही निश्चयचारित्र के विषय में प्रसंग बदल-बदलकर वर्णन किया जायेगा और प्रथम ही परमार्थ प्रतिक्रमण अधिकार नाम से उस निश्चयचारित्र की दृष्टि का पोषण किया जायेगा।
।। नियमसार प्रवचन पंचम भाग समाप्त ।।