वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 94
From जैनकोष
पडिकमणणामधेये सुत्ते जह वण्णिदं पडिक्कमणं।
तह णच्चा जो भावइ तस्स तदा हो दि पडिकमणं।।94।।
व्यवहारप्रतिक्रमण की सफलता- प्रतिक्रमण नामक अधिकार में यह अंतिम गाथा है। इस गाथा में व्यवहारप्रतिक्रमण की सफलता बतायी गयी है, अर्थात् द्रव्य श्रुतप्रतिक्रमण सूत्र में जैसा प्रतिक्रमण बताया गया है उस प्रतिक्रमण को सुनकर फिर सकलसंयम की भावना करना, समस्त असंयमभावों का त्याग करना, शुद्ध ज्ञायकस्वरूप अंत:स्वरूप में संयत होना यह काम बन सका तो इसको कहते हैं सफलता। जैसे मंदिर में खड़े होकर द्रव्य पूजा करने की सफलता क्या है कि उस विधिपूर्वक द्रव्य पूजा करते हुए में अथवा द्रव्य पूजा करके शुद्ध ज्ञानविकासात्मक जो प्रभु है उस प्रभु के इस अनंत विकास में मग्न होना, शाश्वत सत्य जो गुण है उस गुण का अनुराग करना यह है द्रव्यपूजा की सफलता। ऐसे ही व्यवहारप्रतिक्रमण की सफलता क्या है कि अप्रतिक्रमण और प्रतिक्रमण दोनों भावों से उठकर उत्कृष्ट जो अप्रतिक्रमण है उसमें अर्थात् निश्चय उत्तमार्थप्रतिक्रमण में मग्न होना, यह है व्यवहारप्रतिक्रमण की सफलता।
दृष्टांतपूर्वक कर्तव्य की सफलता का समर्थन- जैसे सीढ़ियों पर चढ़ने की सफलता क्या है? ऊपर आ जाना। कोई मनुष्य सीढ़ियों पर ही चढ़े उतरे तो ऐसे मनुष्य को तो लोग विवेकी न कहेंगे। इसके क्या धुन समायी है, कहीं दिमाग खराब तो नहीं हो गया है, यों लोग सोचेंगे। तो सीढ़ियों पर चढ़ने की सफलता है ऊपर आ जाना। ऐसे ही व्यवहार प्रतिक्रमण की सफलता है अप्रतिक्रमण और प्रतिक्रमण भाव से परे जो शुद्ध अंत:प्रतिक्रमण, उत्तमार्थप्रतिक्रमण है उसमें लीन हो जाना, इसका संकेत इस अंतिम गाथा में किया गया है।
प्रधान कर्तव्य की प्राप्ति के लिये कर्तव्य– इससे यह भी स्पष्ट होता है कि व्यवहारप्रतिक्रमण भी उपादेय है और उससे भी अधिक उपादेय निश्चयप्रतिक्रमण है। जैसे नीचे खड़े हुए पुरुष का सीढ़ी पर चढ़ना भी कर्तव्य है और उससे अधिक कर्तव्य ऊपर आना है। यों समझ लीजिए कि प्रधान कर्तव्य के लिए कर्तव्य है। जैसे उस पुरुष का प्रधान कर्तव्य है ऊपर आना, इस प्रधान कर्तव्य की पूर्ति के लिए उसका कर्तव्य है सीढ़ियों पर चढ़ना, ऐसे ही निश्चय स्वरूप में पहुंचना प्रधान कर्तव्य है। निर्दोष गुणपुन्ज अभेदस्वभाव में मग्न होना, उत्तमार्थप्रतिक्रमणरूप होना यह प्रधान कर्तव्य है। इस प्रधान कर्तव्य की पूर्ति के लिए व्यवहारप्रतिक्रमण सूत्र में जो बताया गया है तथा निर्यापक आचार्य जो आदेश देता है उसके अनुसार व्यवहारप्रतिक्रमण करना भी कर्तव्य है।
प्रतिक्रमणसूत्र का ज्ञाता- प्रतिक्रमणनामक सूत्र को पढ़ने का सबको अधिकार नहीं दिया गया है। जिन शास्त्रों में प्रायश्चित्त देने का विधान हैं उन शास्त्रों को पढ़ने का सबको अधिकार नहीं है। उसको प्रमुख आचार्य, समर्थ निर्यापक ही पढ़ सकता है। कारण यह है कि साधारणजनों को यदि यह विदित हो जाय कि अमुक दोष का यह प्रतिक्रमण है, इस दोष का यह प्रायश्चित्त है तो वह स्वच्छंद हो सकता है। अजी इस दोष का तो इतना ही प्रायश्चित्त है, हो जाने दो, कर लिया जायेगा प्रायश्चित्त । साथ ही एक बात और है कि शास्त्र के प्रतिक्रमण सूत्रों में दोषों का जो प्रायश्चित्त बताया गया है हूबहू वही का वही देने के लिये नहीं भी होता। देने वाले आचार्य निर्यापक उस दोषी के बल को देखकर, परिस्थिति को परखकर, उसके परिणामों को निरखकर कितनी औषधि देने से लाभ होगा, सब बातें आचार्य परखकर प्रायश्चित्त देते हैं, किंतु प्रायश्चित्त देने का वही माध्यम है जो शास्त्रों में बताया गया प्रतिक्रमण है। अमुक दोष का इतना प्रतिक्रमण है यह माध्यम तो अवश्य है, इसको न छोड़कर इसके ही करीब-करीब हीनाधिकरूप से प्रायश्चित्त देने का निर्यापक आचार्य को अधिकार है।
व्यवहारप्रतिक्रमणप्रदाता का बुद्धिबल- कोई-कोई तो ऐसे मुनीश्वर होते हैं कि उस ही अपराध को वे निवेदन कर दें और आचार्य यह कह दे कि यह बुरा हुआ अब न करना, बस यह प्रतिक्रमण हो गया और कोई मुनि ऐसे होते हैं कि वही दोष करें और उनको यह आदेश मिलता है कि तुम इतने दिन अनशन करो, इतने दिन गरमी में तपस्या करो, या नीरस खावो कड़ा प्रायश्चित्त देते हैं। प्रायश्चित्त भी मंशा है दोष दूर हो जाना और आगे यह दोष न करे, ये सब बातें आचार्यदेव के विवेक पर निर्भर है। फिर भी प्रतिक्रमणसूत्र में जो आधार बताया गया है और जो वर्णन किया है उस माध्यम से निर्यापक आचार्य समस्त आगम के सार और असार तत्त्व का विचार करने में अत्यंत निपुण होता है। आपस में जो हेयरूप से कहने के लिए असार बात लिखी है उसका भी भली प्रकार निर्यापक को परिज्ञान होता है और उपादेयरूप से जो सार बात लिखी होती है उसका भी गुण जानने में चतुर होता है, ऐसे निर्यापक आचार्यों ने प्रतिक्रमण नामक सूत्र में आगम में द्रव्य श्रुत में बहुत विस्तार से प्रतिक्रमण का वर्णन किया है। उसको साधारणतया जानकर और अपने निर्यापक आचार्यदेव यथा समय जो प्रतिक्रमण बताते हैं उसको प्राप्त कर जो मुनि सकलसंयम की भावना करते हैं उन मुनियों के निश्चयप्रतिक्रमण की पात्रता होती है। निर्यापक आचार्य उस प्रतिक्रमण के वर्णन को जानकर सावधान रहते हैं और सकलसंयम की धारणा करते हैं और अन्य साधुजन निर्यापक आचार्यदेव के बताये गये प्रतिक्रमण को जानकर वे भी सकल संयम की धारणा करते हैं।
सकलसंयम का अंत:करण- सकलसंयम का अर्थ है सर्व परभावों का, परपदार्थों का, परतत्त्वों का परित्याग करना और शुद्ध जो निजस्वरूप है, ज्ञायक भाव है उसमें संयत हो जाना। ये मुनिजन जिननीति का उल्लंघन नहीं करते हैं, जैसा कुछ आगम में बताया गया है उस विधि से अपनी व्यवहार प्रवृत्ति करते हैं। 5 महाव्रत, 5 समिति, 3 गुप्तिरूप व्यवहार चारित्र का निर्दोष पालन करते हैं। निश्चय संयम का यह अर्थ नहीं है कि व्यवहार संयम की उपेक्षा करके अर्थात् व्यवहार संयम से दूर रहकर उसका ग्रहण भी न करके अंतरंग में आत्मस्वरूप में संयत हो जाना, यह अर्थ नहीं है किंतु व्यवहार व्रतों को करके व्यवहार व्रतों की परिपूर्णता बनाकर दृष्टि निश्चयस्वरूप में संयत रहने की बनाना चाहिए।
प्राक् पदवी से संभाल बिना उत्तर सिद्धि न होने का एक उदाहरण- जैसे श्रावक अवस्था में रहकर जिस श्रावक ने साधुवों को अनेक बार आहार दान कराया है वह श्रावक जब कभी मुनि बनेगा तो शुद्ध विधि से ठीक चर्या सहित निर्दोष आहार ग्रहण की वृत्ति बना सकता है। जैसे नीति में कहते हैं कि ‘जिनसे घरमाहि कछू न बनी उनसे वन माहि कहां बनी है?’ गृहस्थावस्था में रहकर जिसके उदारता न जगी, दया उपकार की वृत्ति न हुई, धर्म की भावना न हुई, धर्मपालन भी न किया ऐसे उद्दंडजन गृह को त्याग कर मुनि बनकर भी क्या करेंगे। कोई दु:खी पुरुष हो रसोइया हो, गाड़ीवान हो, नौकर हो, बड़ा दु:खी रहता है और सोच ले कि मुनि बन जायें तो लोगों के हाथ भी जुड़ेंगे और अच्छी तरह जिंदगी भी कटेगी। बन जाय मुनि। तो भला जिसने गृहस्थावस्था में साधुवों की वैयावृत्ति नहीं की, अपनी शक्ति माफिक दान नहीं किया ऐसा पुरुष लौकिक कष्ट से अधीर होने के कारण मुनि बन जाने के बाद किस हालत में रहता है, कैसी उसकी चंचल दृष्टि रहती है, कैसी अकड़़ रहती है ये सब बातें प्राय: विदित ही हैं।
व्यवहारधर्म की उपादेयता- जो पुरुष गृहस्थावस्था में बड़े विवेक से रहा, धर्मपालन करके रहा, साधुवों में बड़ा अनुराग रखता रहा, वैयावृत्ति भी तन मन से भली प्रकार की, ऐसा पुरुष ज्ञान और वैराग्य का विकास पाकर साधु होता है तो उसकी चर्या कैसी निर्दोष होती है, यों ही समझिये कि जो पुरुष व्यवहारसंयम में नहीं आते हैं, व्यवहारप्रतिक्रमण व्यवहार व्रत व्यवहार के धर्मसंयम की बुद्धि का उल्लंघन करते हैं और निश्चयधर्म का दावा रखते हैं, प्रसिद्धि करते हैं, ऐसे पुरुष निश्चय धर्म के समीप नहीं पहुंच पाते हैं। सीढ़ी से चढ़कर जाना ऊपर की मंजिल में पहुंचने का कारण है। कोई सीढ़ी को पहिले से ही छोड़े रहे कि लोग कहते हैं कि सीढ़ी को छोड़ोगे तो ऊपर पहुंचोगे, तो हम तो पहिले से ही सीढ़ी के त्यागी बने हैं, ऐसा कोई सोचे तो वह ऊपर नहीं पहुंच सकता है।
जयमार्गानुसारिता का जयवाद- जिन नीति का उल्लंघन न करके निर्दोष चारित्र को धारण करता हुआ जो मुनि निश्चय धर्म की भावना करता है वह मुनि बाह्य प्रपंचों से विमुख रहता है। उस महामुनि के केवल एक शरीरमात्र परिग्रह रह गया है। वह पंचेंद्रिय के विषयों से दूर है। इंद्रिय के विषयों का रंच भी वहां उदय नहीं है। वह तो परम गुरु शुद्ध सिद्ध सर्वज्ञ वीतराग कार्यसमयसार और कारणसमयसार के गुणों के स्मरण में आसक्त रहता है, जिसका चित्त सिद्ध परमात्मा में अरहंत परमात्मा में और आत्मस्वभाव में लीन रहा करता है, ऐसे साधु के प्रतिक्रमण हुआ करता है। धन्य हैं वे आचार्य जिन्होंने यह मार्ग प्रतिपादन किया है, धन्य हैं वे साधुजन जो निर्यापक आचार्य के व्याख्यान सहित, विवरण सहित वचनों को सुनकर समस्त चारित्र के धारण करने वाले बन जाते हैं, शुद्ध निर्दोष संयमधारी हो जाते हैं ऐसे संयमधारी साधुजन भी नमस्कार के योग्य हैं।
सकलसंयमनिकेतनों का अभिवादन- निर्दोष उपदेश को बोलने वाला वक्ता भी महान् है तो निर्दोष उपदेश को सुनकर अपने ज्ञान में उसे उतार लेने वाला श्रोता भी महान् है। और उस समय जहां वक्ता और श्रोता दोनों का अंत:स्वरूप के लक्ष्य से परिणमन चल रहा है उस समय ये दोनों निर्दोष और अंतर्मुखी धुन वाले हैं। ऐसे ही वे निर्यापक आचार्य भी संयमी हैं जो निर्दोष संयम का प्रतिपादन करते हैं और वे मुनि भी संयमधारी है जो निर्दोष संयम का प्रतिपादन सुनकर उस समस्त संयम के घर बन जाते हैं। धन्य हैं वे साधुजन जो मोक्ष की इच्छा रखते हैं, कोई लौकिक कामना नहीं करते हैं, जिनके अणुमात्र भी अप्रतिक्रमण नहीं है, विषयकषायों की वृत्ति नहीं है, जिनके सदा प्रतिक्रमणरूप निर्दोष वृत्ति रहती है, जिनका सकल संयम ही भूषण है, अंतर्मुखाकार उपयोग होते रहना ही जिनका श्रृंगार है, ऐसे संयमधारी पुरूषों को मन, वचन, काय से नमस्कार हो। इस तरह यह प्रतिक्रमण नामक अधिकार समाप्त होता है।
नियमसार प्रवचन षष्ठम भाग समाप्त