वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 95
From जैनकोष
मोत्तूण सयत्नजप्पमणागयसुहमसुहवारणं किच्चा।
अप्पाणं जो झायदि पच्चक्खाणं हवे तस्स।।95।।
प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान का पूर्वापर संबंध- परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार के पश्चात् निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार कहा जा रहा है। प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान का ऐसा निकट संबंध है कि प्रत्येक विवेकी पुरुष किसी दोष के प्रति जो चिंतन करता है, उसके रूपप्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान के रूप में क्रमश: आ जाया करते हैं। प्रतिक्रमण का अर्थ है लगे हुए दोषों को मिथ्या करना और प्रत्याख्यान का अर्थ है आगामीकाल में उन दोषों को न लगने देना। पूर्णत: संक्षिप्तरूप यह है कि जैसे किसी पुरुष से पहिले बहुत अपराध हो गया है और जिस अपराध का फल उसके सिर पर आ पड़ने वाला है तो वहां वह यह कहता है कि मैंने बहुत बुरा किया, अब ऐसा न करूँगा। किसी दोष के प्रति जो यह भावना होती है कि मैंने बहुत बुरा किया, अब न करूँगा; यह प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान की झलक है। प्रतिक्रमण में यह भावना भी भीतर में पड़ी हुई रहती है कि बुरा तो मैंने किया, पर यदि बुरा न करता तो मेरी कुछ अटकी न थी, मैंने व्यर्थ ही बुरा किया, अब ऐसा न करूँगा। मैं न करता दोष तो क्या ऐसा निर्दोष रह नहीं सकता था? रह सकता था। विशुद्ध शांत रहना तो मेरी निज की बात है; किंतु किन्हीं परिस्थितियों और कुबुद्धिवश ऐसा कर गया। ठीक नहीं किया, वह मेरा मिथ्या हो अर्थात् जो मेरे अंतरंग में न किये जाने की स्थिति का चिंतन है, वही हो; मेरे दोष मिथ्या हों, अब मैं ऐसे दोष कभी न करूँगा।
प्रत्याख्यान के आशय से प्रत्याख्यान की आवश्यकता- प्रतिक्रमण के बाद जो प्रत्याख्यानाधिकार चल रहा है, इसमें प्रत्याख्यान का वर्णन आयेगा। प्रत्याख्यान के मायने त्याग है। आगामीकाल में इस दोष को न करूँगा अथवा अमुक चीज का ग्रहण न करूँगा; ऐसा जो वर्तमान में संकल्प है, दृढ़ता है, उसे कहते हैं प्रत्याख्यान भाव। प्रत्याख्यान भाव के बिना व्रत, तप, संयम, सर्वदीक्षा का जमाव नहीं रह पाता है। जिस पुरुष के वर्तमान में तो त्याग है, पर भावीकाल में पाप करने का आशय पड़ा हुआ है;उसके वर्तमान में भी मूलत: निर्दोषता नहीं हैं। जिसे वैराग्य तो नहीं है। पर जैसे सभी लोग अनंतचतुर्दशी का उपवास करते हैं, हम भी जैन हैं, हमें भी करना चाहिए, इससे कुछ अपनी गोष्ठी में वातावरण भी बनता है और धर्म करने से कुटुंब भी अच्छा रहता है। अत: उपवास तो ठान लिया, पर तेरस की रात्रि से पूनम के सुबह का बराबर ध्यान है, आएगा पूर्णिमा का दिन तो यह भी बनेगा, वह भी बनेगा, यह भी कर लेंगे, दूध का प्रबंध करना है, अमुक जगह से लायेंगे, थोड़ा हलुवा बना लेंगे, काली मिर्च का काढ़ा बना लेंगे- सारे प्रोग्राम अभी से बसे हुए हैं। उसके उस वर्तमान उपवास में कौनसी दृढ़ता है और कौनसी प्रशंसा की चीज है? प्रत्याख्यान में अवधि सहित भी त्याग होता है; पर अवधि के बाद में इस-इस तरह की प्रवृत्ति करूँगा, इस प्रकार प्रत्याख्यान के विरूद्ध कोई विकल्पजाल न उठाये तो वहां वर्तमान प्रत्याख्यान ठीक चल रहा है।
विभावविजय में प्रत्याख्यान की प्राथमिकता- प्रत्याख्यान का भाव तो प्रथम होना ही चाहिए। वर्तमान त्याग की दृढ़ता प्रत्याख्यान भाव के बिना नहीं आ सकती। इसकी तो यों शोभा समझिए कि जैसे युद्ध करने वाली सेना में जो विजय-पताका होती है, उस विजय-पताका का आधार दंड है; इसी प्रकार व्रत, संयम आदि द्वारा जो आत्मविजय की पताका फहरायी जा रही है, उस विजय-पताका का मूल आधार यह प्रत्याख्यान भाव है। आगामीकाल में दोषों का न होने देना सो प्रत्याख्यान भाव है। प्रत्याख्यान का अर्थ है त्याग। जहां सकल संयम हो जाता है, 5 पापों का सर्वथा त्याग हो जाता है, उसे भी प्रत्याख्यान कहते हैं। उस प्रत्याख्यान का आवरण करने वाला जो कषाय है, उसे प्रत्याख्यानावरणकषाय कहते हैं। इस प्रकरण के प्रत्याख्यान में वह महाव्रतरूप प्रत्याख्यान भी गर्भित है और भविष्यकाल में कभी पाप न करेंगे, इस प्रकार की दृढ़ता भी गर्भित है। साथ ही अवधिसहित मन, वचन, काय की प्रवृत्तियों का त्याग करना, आहार-पान का तैयार करना; यह भी गर्भित है। वास्तविक प्रत्याख्यान तो समस्त रागद्वेषादि भावों का त्याग करना है; ऐसे ही वास्तविक प्रत्याख्यान को लक्ष्य में लेकर यह निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार कहा जा रहा है।
प्रत्याख्यान का अधिकारी- इस गाथा में यह बतला रहे हैं कि जो मुनि समस्तवचनालाप को छोड़कर भविष्यकाल में शुभ अथवा अशुभ सभी प्रकार के भावों का परित्याग करके, निवारण करके जो आत्मा का ध्यान करता है, उस मुनि के यह निश्चयप्रत्याख्यान होता है। यह प्रत्याख्यान समस्त कर्मों की निर्जरा का कारण है। प्रत्याख्यान बिना मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति नहीं हो सकती। यह तो मोक्ष-मंदिर में पहुंचने के लिए सीढ़ी की तरह है। मुक्ति में होने वाली परमनिराकुलता के वर्तने के लिए यह सर्वप्रथम उपाय है। निश्चयप्रत्याख्यान भी उस पुरूष के संभव है, जिसने जिनमार्ग के अनुसार विधिपूर्वक व्यवहारप्रत्याख्यान में भी दक्षता पायी है। प्रत्याख्याता महामुनि के व्यवहारप्रत्याख्यान की वृत्ति भी चलती है और उस सहज प्रत्याख्यान वृत्ति को करते हुए निश्चयप्रत्याख्यान की ओर उनका चित्त रहता है।
व्यवहारप्रत्याख्यान- व्यवहारप्रत्याख्यान का स्वरूप है मर्यादारहित अर्थात् जीवनपर्यंत पापों का परिहार करना और जो प्रवृत्तियां जीवन में करनी आवश्यक हो गयी हैं, उनका कुछ अवधि तक परित्याग करना। जैसे मुनिजन आहार ग्रहण करते हैं, वे आहार ग्रहण करके 8 प्रहर के लिए तो त्याग कर ही देते हैं चारों प्रकार के आहार का। यदि भावना हुई तो दो दिन, चार दिन, पक्ष, मास आदिक अवधि लेकर भी त्याग कर देते हैं। आहार चार प्रकार का होता है- अन्न, पान, खाद्य और लेह्य। अन्न नामक आहार रोटी, दाल, भात आदिक हैं और पान नामक आहार दूध, पानी, सिकन्जी, फलों का रस आदिक हैं। खाद्य नामक आहार लड्डू, पेड़ा, बर्फी आदिक हैं, जो स्वाद भी प्रधानता से रखते हैं और खाये जाते हैं। लेह्य नामक आहार चटनी, मलाई, रबड़ी आदिक हैं। इन चार प्रकार के आहारों का मुनियों के आठ प्रहर के लिए तो त्याग ही है, यह उनका मूल गुण है, पर आत्मसाधना की सुविधा के अनुसार वे अनेक दिनों तक को भी त्याग कर देते हैं। यह सब है व्यवहारप्रत्याख्यान।
मुद्रा और अंतर्वृत्ति का महत्त्व- व्यवहारप्रत्याख्यान होते हुए निश्चयप्रत्याख्यान की दृष्टि रहती है तो विधिपूर्वक व्यवहारप्रत्याख्यान बन जाता है। पर्यायबुद्धि रखकर कि मैं साधु हूं, मैंने साधुव्रत लिया है, मुझे भोजन करके फिर 8 प्रहर का त्याग करना चाहिए- ऐसी पर्यायबुद्धि की प्रमुखता से जो परिहार किया जाता है, उसे मार्गसहायक व्यवहारप्रत्याख्यान भी कैसे कहा जाए? वहां तो मिथ्यात्व की वर्तना हो रही है। जहां पर्यायबुद्धि की अज्ञानता चल रही है, वहां तो सम्यक्त्व भी नहीं है। वास्तव में साधुपद तो होगा ही क्या? किंतु दर्शक पुरुष किसी भी साधु की बाह्यवृत्ति को ही निरखता है, उससे फिर अंतवृत्ति को कुछ जानता है। हां, बाह्यवृत्ति भी इतनी अयोग्य दिखे कि जिससे अंतरंग भाव का स्पष्ट अनुमान हो जाए और उस अनुमान में यदि साधुपद नहीं रहता है तो न मानेगा उसको साधुरूप में। किसी भी साधु को निरखकर ऐसा अपने को दूध का धुला माने कि पहिले मैं साधु की परीक्षा कर लूँ कि यह वास्तव में साधु है या नहीं, पीछे इसकी सेवा करेंगे- ऐसा परिणाम श्रावक का नहीं होता है। जिस मुनि से परिचय नहीं है और वह मुनि आज सामने आया है तो उसकी निर्ग्रंथ मुद्रा को निरखकर उसकी सेवा, वंदना करना कर्तव्य है। हां, आपको सेवा-वंदना करते हुए में अथवा कुछ काल बाद आपको उसके मिथ्याभाव का, खोटे आशय का पता पड़ जाए तो फिर आप उसकी उपेक्षा कर लो।
अन्यथा वृत्ति में आत्मवन्चकता- कोई साधु जैसे बाह्य आरंभों में, परिग्रहों में आसक्त हो रहा हो, जिसने ज्ञान, ध्यान और तप की साधनों को उपेक्षित कर दिया हो, जो स्वयं अपने आपको शांति में न रख सकता हो, जिसे निरंतर विह्वलताएँ-चिंताएँ लग रही हों, जो थोड़ी-थोड़ीसी बातों पर दूसरों से झगड़ा करने लगता हो, जिसके भाषा समिति बिल्कुल न हो, गाली-गलौज अथवा अन्य प्रकार से असद्व्यवहार करता हो- ऐसी प्रवृत्तियों को देखकर यह स्पष्ट अंदाज हो जाता है कि यह साधु नहीं है; किंतु अपनी मान्यता के लिए अथवा अपने आराम के लिए साधुभेष ही रखा है। ऐसे साधुवों की सेवा में खुद की ठगाई कर रहा है यह सेवक। चित्त में तो नहीं बसा हुआ है कि यह मुनि है और लोकलाज के लिए अथवा लोग मुझे कहीं अधर्मी न कह दें, अनेक कारणोंवश सेवा में जुट रहा है। अत: यह सेवक अपने आपको ठग रहा है। जो ग्रंथों में यह वर्णन है कि अनेक मुनि नरक निगोद जायेंगे और उनके सेवक भी नरक निगोद जायेंगे- ऐसी स्थिति उस वंचक की हो जाती है, जो अपने आपको ठग रहा है और जो श्रावक अपने आपको ठग रहा है।
परमअहिंसा की मूर्ति- साधु अहिंसा की मूर्ति होते हैं। उन्हें संसार, शरीर और भोगों से परम वैराग्य होता है। साधुवों की धुन केवल एक आत्महित के लिए रहती है। उनकी यह आत्मा हर घड़ी सेकेंड के बाद दृष्ट होता रहता है, जो चलते हुए में भी परमध्यानस्थ हो जाते हैं, खाते हुए में भी यदाकदा परमध्यानस्थ हो जाते हैं। छठे गुणस्थान का काल कुछ सेकिंडों का है और सप्तम गुणस्थान का काल उससे भी आधा है। कोई मुनि आहार कर रहा है तो उसे 20-25 मिनट तो लगते ही है। 20-25 मिनट के आहार में की जाने वाली क्रियावों के अंदर-अंदर कितने ही बार इस शुद्ध ज्ञायकस्वरूप का ध्यान पहुंचता है। यह वृत्ति इतनी शीघ्र हो जाती है कि कोई ही मर्मदर्शी पुरुष यह अंदाज कर सकता है कि इस समय इनका ध्यान उत्कृष्ट बन गया है। कोई भी उनकी क्रियावों को निरखकर या उनकी मुद्रा को देखकर साधारणतया नहीं परख सकते हैं। जिनका ज्ञान और वैराग्य इतना उत्कृष्ट है- ऐसे साधु-संत जिस वातावरण में, जिस स्थान में विराजे हों, उस स्थान का वातावरण शांत निराकुलतापूर्ण हो जाता हैं। ऐसे साधुवों की उपासना में, उनकी संगति में जो श्रावक अथवा साधु रहा करते हैं, वे भी इस लौकिकतत्त्व का दर्शन करके सफल हो जाते हैं।
परम गुरु का शरण- वास्तविक साधु, परमार्थतत्त्व का ज्ञाता, आत्महित का अभिलाषी मुनिराज तो हम सब लोगों का परम गुरु है, पिता है, शरण है, उसका ही सहारा सच्चा सहारा है। इस अशरण संसार में भ्रमण करते हुए हम आपको सिद्धों का सहारा तो क्या मिल सकता है; वे तो लोक के अंतर में विराजे हैं, उनका तो स्मरणमात्र का ही एक बड़ा सहारा है। वे अपन लोगों से न कुछ बात करते हैं और न हम आपको कुछ प्रेरणा देते हैं, उनकी ओर से तो हम आप कुछ नहीं पा रहे हैं। अरहंत भगवान जब कभी हों तब उनका सहारा है, बाकी तो उनका सहारा दिव्यध्वनि की परंपरा से चलाआया हुआ जो यह आगम है, उसकी उपासना के रूप में यह तो महान् सहारा मिल रहा है; पर मैं विचलित होऊँ और अरहंत आकर यह कहें, प्रेरणा दें कि तुम धैर्य से विचलित न होवो। जैसे कहते हैं कि हाथ पकड़कर सहारा देना अथवा कुछ उनसे चर्चा कर लें, यह बात हमें अरहंत की ओर से भी साक्षात् कहां मिल रही है? ऐसा व्यवहार तो जब अरहंत भी विराजे हों, तब भी नहीं हो सकता। साक्षात् सहारा तो हमें गुरुजनों का मिल रहा है।
गुरु की निरपेक्ष उपकारशीलता- यदि कोई वास्तविक ज्ञान और वैराग्य गुणों का निधान गुरु है तो वह हमारा निरपेक्ष बंधु है। अन्य मित्रजन तो किसी स्वार्थवश, किसी अपेक्षा से हमारे हितभरी बातें बोला करते हैं, वे अपनी बुद्धि के अनुसार हितभरी बातें बोलते हैं, परंतु हितभरी बातें वे निकाल नहीं सकते। जो स्वयं स्वार्थी हैं, कुछ उपेक्षा रखते हैं- ऐसे पुरुष दूसरे के वास्तविक हित को करने वाली बातें कह नहीं सकते हैं। ये संसार, शरीरभोगों से विरक्त ज्ञान, ध्यान, तपस्या की धुन वाले गुरुजन हमारे निरपेक्ष बंधु हैं। हम उनकी क्या उपासना कर सकते हैं, हम उनकी क्या सेवा कर सकते हैं। जो उपकार गुरुजनों के द्वारा अपना होता है, उसका बदला, सेवा हम लोग निभा नहीं सकते हैं। संसार में सबसे महान् कार्य है संसार-संकटों से सदा के लिए छुटकारा पाने का उपाय कर लेना। इससे बढकर अन्य कुछ सारव्यवसाय नहीं है। यह बात परमगुरुवों के प्रसाद से प्राप्त होती है। वे परमगुरु हम लोगों के वास्तविक शरण हो रहे हैं। ऐसे ये मुनि शुभ-अशुभ भावों का निवारण करके शुद्ध अंतस्तत्त्व की आराधना में लगे रहते हैं। ऐसे साधुवों के निश्चयप्रत्याख्यान होता है।
निश्चयत: प्रत्याख्यान का आलोक- निश्चय से प्रत्याख्यान नाम है समस्त द्रव्यकर्मों का और भावकर्मों का रुक जाना। द्रव्यकर्म तो हुआ पुण्यपापरूप 148 प्रकार की प्रकृतियां और भावकर्म हुआ शुभ अशुभ भावरूप असंख्यात प्रकार के विभाव। इन कर्मों का रुक जाना सो प्रत्याख्यान है। द्रव्यकर्म और भावकर्म के रुकने का उपाय एक है, वह है शुद्ध ज्ञानभावना की सेवा करना। यह आत्मा अपने आप अपने सत्त्व के कारण जिस स्वरूपरूप है, उसकी ही भावना रखना, यह है समस्त द्रव्यकर्म और भावकर्म के अभाव का कारण। मोक्षमार्ग में केवल इसकी ही प्रमुखता है शुद्ध ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व के भावना की। मोक्षमार्ग के प्रारंभ से लेकर मोक्षमार्ग के अंत तक सर्वत्र इसका ही प्रसाद है, बीच में जितने भी व्यवहार, व्रत, तप, संयम, प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण आदि जो कुछ भी किए जाते हैं, वे सब इस शुद्ध ज्ञान की भावना रखने के लिए किए जाते हैं। निरपराध दशा इस शुद्ध ज्ञान की भावना में ही होती है, अन्य किसी में नहीं।
शुद्ध ज्ञानप्रभु का मिलन- शुद्ध ज्ञान की भावना के लिए शुभ-अशुभ सर्वप्रकार की वचनरचनावों के विस्तार के त्याग की आवश्यकता है। जब तक यह जीव वचनरचना का परिहार नहीं करता है, तब तक वचनरचना किसी पर को उपयोग में लेने के पश्चात् हीहो सकती है; अत: वचनरचना का उद्यमी जीव बहिर्मुखता के निकट रहता है। जहां उपयोग अपने स्वरूप को त्यागकर किसी भी परपदार्थ की ओर लगा, वहां शुद्ध ज्ञान की भावना नहीं रह सकती है। शुद्ध ज्ञान ही कारणसमयसार है और इस शुद्ध ज्ञान का शुद्ध विकास ही कार्यसमयसार है। लोग परमात्मा के नाम पर यत्र-तत्र दृष्टि लगाए रहते हैं और उसे किसी आकार में अमुक रंग के वस्त्र से सजे हुए अमुक हथियार या साधन रखे हुए अमुक स्त्री-पुत्र के साथ बैठे हुए इत्यादि नानारूप में परमात्मा को निरखना चाहते हैं; पर निरखने की यह पद्धति बिल्कुल विपरीत है। प्रभु तो ज्ञानविलास का नाम है। जो शुद्ध ज्ञानस्वभाव है, जिसकी दृष्टि के प्रसाद से यह मोक्षमार्ग चलता है; वह तो है कारणप्रभु और उस शुद्ध ज्ञानस्वरूप का जहां असीम शुद्ध विकास हो गया है, वह है कार्यप्रभु। परमात्मा का मिलन तब तक नहीं हो सकता है, जब तक हम अपने आपमें अपने आपको ज्ञानमात्र रूप निरखने का उपयोग न करें। परमात्मा का दर्शन कर लेना दर्शक की कला का प्रताप है। यह अन्यत्र स्थित परमात्मा की कला का प्रताप नहीं है।
प्रत्याख्यान की पात्रता- जो पुरुष सर्वप्रकार की शुभ-अशुभ वचनरचनावों को छोड़कर शुद्ध ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व की भावना में लगता है और इस भावना के प्रसाद से शुभ अशुभ द्रव्यकर्म और भावकर्म का संवर करता है, वह पुरुष निश्चयप्रत्याख्यानरूप है। उनके ही सदा प्रत्याख्यान रहता है, जो अंतर्मुख परिणति से परमज्ञानकला के आधारभूत इस अपूर्व आत्मतत्त्व को ध्याते हैं। प्रत्याख्यान निश्चय से ज्ञातृत्वभाव का ही नाम है। परपदार्थों का त्याग हो जाना तो उसका आनुषंगिक परिणाम है। इस जीव के साथ बाह्यवस्तु लगी ही कहां है, जिससे बाह्यवस्तु के त्याग का महत्त्व परमार्थ से दिया जाए? बाह्यवस्तु के संबंध में जो अहंकार ममकार का संकल्प-विकल्प बनाए हैं, वह है आत्मा में लगी हुई परिणति। अत: अहंकार ममकार की परिणति का त्याग करने का नाम प्रत्याख्यान है।
प्रत्याख्यान का विधि व निषेधमुखेन वर्णन- अहंकार-ममकारविभावों का परित्याग होना और ज्ञातादृष्टारूप परिणमन होना- ये दोनों एक साथ होते हैं। इसका कारण यह है कि विधि और निषेध ये केवल अपेक्षा से कही जाने वाली चीजें हैं। जैसे अंगुलि टेढ़ी हो और सीधी कर दी जाए तो उसको चाहे इन शब्दों में कह लो कि अंगुलि की टेढ़ मिट गयी और चाहे इन शब्दों में कह लो कि अंगुलि में सीधा परिणमन हो गया। बात वहां एक है, उस एक ही विलास को हम विधि और निषेध से कहते हैं। इस निश्चयप्रत्याख्यान में जो आत्मविलास है, उसको चाहे यों कह लीजिए कि समस्त विभावों का परिहार हो गया और चाहे यों कह लीजिए कि यह मात्र ज्ञातादृष्टारूप परिणमन कर रहा है।
ज्ञानरूप प्रत्याख्यान- अब जरा कुछ थोड़ासा विकल्प बनाकर आगे विकल्प कीजिए कि जो कोई पुरुष किसी भी परवस्तु का प्रत्याख्यान करता है, वह उन परवस्तुवों को जानकर अहित जानकर ही तो त्यागता है। अत: उनको पर जान लेना, अहित जान लेना, भिन्न समझ लेना, असार ज्ञात कर लेना- ऐसा जो ज्ञान का विलास है, वह ही वास्तव में प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान ज्ञानस्वरूप ही हुआ करता है। कोई कहे कि रागद्वेष छोड़ो, इसका अर्थ यह ही तो हुआ कि तुम केवल जाननहार रहो। जाननहार रहो, ऐसा कहने में व रागद्वेष से परे रहो, ऐसा कहने में जो एक विलास का परिचय कराया गया है; वह वस्तुत: अवक्तव्य हैं। निश्चय से प्रत्याख्यान ज्ञाताद्रष्टा रहने का नाम है।
प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान की संधि- ज्ञानी पुरुष चिंतन कर रहा है के जो दोष पहिले किये थे, वे दोष तो हो गए थे, मेरे स्वभाव में न थे। निमित्तनैमित्तिक भाव से हमारे अशुद्ध उपादान में दोष प्रकट हो गया था; पर भूल में मैं तब भी शुद्ध निरपराध ज्ञानस्वभावमात्र था। यों निरखने वाले के वे दोष आज उपयोग में प्रतिष्ठा नहीं पा रहे हैं। यों प्रतिक्रमण भाव को करके यह ज्ञानी यह दृढ़ संकल्प कर रहा है कि अब ये दोष, अब ये विभाव मुझमें न होंगे। मैं उन सब विभावों का द्रव्यरूप, भावरूप कर्मों का त्याग करके मोहरहित होता हुआ अपने चैतन्यस्वरूप निष्कर्म आत्मा में ही बर्तता हूं अर्थात् ज्ञातामात्र रहता हूं।
निष्कर्म की निष्कर्मता- यह आत्मा निष्कर्म है अर्थात् न तो इसमें शुभ-अशुभ भावों के रंग हैं और न मन, वचन, काय की क्रियावों की, आत्मप्रदेशपरिस्पंद की तरंग है। नीरंग और निष्तरंग यह आत्मतत्त्व है। रंगीली चीज में भी दर्शक का स्वरूप प्रतिभात नहीं होता और तरंग और तरंग वाली चीज ये भी दर्शक का स्वरूप प्रतिभात नहीं होता। किसी नदी का पानी यदि मैला है, समुद्र का पानी मैला है तो उस पानी में दर्शक का मुख दर्शक को नहीं दिख सकता है। यदि पानी गंदला न हो, किंतु हवा के वेग से उसमें बड़े वेग से लहरें उठ रही हों तो भी उस जल में दर्शक का मुख दर्शकों को नहीं दिख सकता है। ऐसे ही इस जीव में जब तक कषायों का रंग लगा है, कषायों के रंग से यह ज्ञानसमुद्र मलिन बन रहा है तो उस ज्ञानसमुद्र में इस ज्ञानमय आत्मा का स्वरूप नहीं प्रतिभात हो सकता है। कदाचित् यह रंग भी न रहे, ऐसा कषाय भी न रहे, किंतु तरंग रहे, अस्थिरता रहे तो उस अस्थिरता में भी इस आत्मा का पूर्ण विकासरूप शुद्ध झलक नहीं हो पाता। तब तो जो आत्मा रंगीला भी है और उसमें तरंगे भी बहुत-बहुत उठ रही हैं, ऐसी मिथ्यापरिणति में तो आत्मस्वरूप की झलक ही कहां से हो? यह मैं आत्मा निष्कर्म हूं, भावकर्म के रंग से रहित हूं और मन, वचन, काय की क्रियाएं अथवा आत्मप्रदेश परिस्पंद इनकी तरंगों से भी रहित हूं, ऐसा यह मैं नीरंग ज्ञानसमुद्र हूं।
विचित्र और विकट समस्या- अहो देखो तो भैया !विचित्रता को। यह दिखने वाला भी ज्ञान है और जो देखा जाने वाला है, वह भी ज्ञान है। एक ही पदार्थ है, पर कैसा मिथ्याजाल है कि उस एक ही पदार्थ के बीच में भ्रम की चादर पड़ी हुई है। कहां ऐसा अवकाश हो गया, कहां से ऐसी गुन्जाईश निकल आयी कि एक ही पदार्थ में भ्रम की चादर आड़े हो गई? कोई दो पदार्थ हों और उनके बीच में कोई अंतर वाली तीसरी चीज आ जाए वह तो लोगों में सुप्रसिद्ध हो जाता है, पर एक ही पदार्थ और उसके बीच में एक भ्रम आड़े आ गया, जिससे यह उपयोग बहिर्मुख हो गया और यह अंतस्तत्त्व तिरोहित हो गया, यह कितनी विचित्र बात है अथवा विचित्र भी कुछ नहीं है या इससे भी और विचित्र बात यह है कि वह भ्रम की चादर भी कहीं दूसरी-तीसरी चीज नहीं हो गयी, कहीं दूसरी-तीसरी जगह नहीं आयी, यह ही भ्रम की चादर बन गयी। यह ही विमुख होता हुआ बहिर्मुख दर्शक हो गया और यह अपने आपमें तिरोहित अंतस्तत्त्व तो बना हुआ है ही। ऐसी विकट समस्या में पड़ा हुआ यह जीव अपनी सुध-बुध को भूलकर चारों गतियों में विषयचक्र को अपनाकर भ्रमण कर रहा है, दु:खी हो रहा है।
आत्मग्रहण में परप्रत्याख्यान- जो सम्यग्दृष्टि पुरुष होते हैं, वे समस्त कार्य और नोकर्म के समूह को त्याग देते हैं। आत्मा के हाथ-पैर, अंगोपांग तो है नहीं कि किसी अंग से किसी को ग्रहण कर लेते हों, लेकिन परपदार्थों को यह मैं हूं, यह मेरा है- ऐसा मानने का ही तो नाम ग्रहण है। तब यह मेरा नहीं है- ऐसा मानने का नाम ही त्याग है। साधुजन बाह्यपरिग्रहों का त्याग कर देते हैं, यह लोगों को बहुत स्पष्ट हो रहा हैं; पर वह साधु शरीर का भी त्याग कर चुका है, यह लोगों की समझ में नहीं आ पाता है; किंतु वहां साधु अपने शरीर का भी त्याग कर चुका है। यह बात वहां पड़ी हुई है। त्याग करना कोई क्षेत्र से क्षेत्रांतर करने का नाम नहीं है, किंतु यह मेरा है- ऐसी भावना न रहना, यह मेरा नहीं है, इस प्रकार की दृढ़ता सहित अपने आकिन्चन्य ज्ञानस्वभावमात्र अपनी प्रतीति रखना, इसका नाम त्याग है। अब इस त्याग भाव के होते संते जो चीज क्षेत्रांतर हो सकती है, वह क्षेत्रांतर हो जाती है। जो अन्य क्षेत्र को नहीं पहुंच सकता है, वह क्षेत्रांतरित नहीं होता है। क्षेत्रांतरित हो अथवा न हो, जिस संत ने अपने आपमें अपने आपको ग्रहण किया है, उसने तो सबका त्याग कर दिया है।
निश्चयत: त्याग- यह सम्यग्दृष्टि पुरुष समस्त कर्म और नोकर्म समूह का प्रत्याख्यान कर देता है, इंद्रियविषयों के साधनभूत इन पुद्गल ढेरों का त्याग कर देता है, अपने आपसे चिपटे हुए एकक्षेत्रावगाही इस शरीर का भी त्याग कर देता है और नाना परिणमन जो इस पर गुजर रहे हैं उन विभावों का भी वह त्याग कर देता है। त्याग होना श्रद्धा के ऊपर निर्भर है, श्रद्धा परपदार्थ से हट गयी तो उसका नाम त्याग हो गया, यह भीतर की कहानी कही जा रही है। आपके पास भूल से किसी दूसरे का पेन रखा हुआ है, आपकी भी कलम जेब में रखी है, एकसा रंग था, एकसी सारी बात थी, किसी प्रकार भूल से बदले में आपकी जेब में आ गया, आपको पता नहीं है। अत: यह मेरा पेन है- ऐसा संस्कार बनाया है। उससे लिखना, उसके साथ जेब में रखे रहना आदि सारी बातें हो रही हैं। कदाचित् जिसका वह पेन है, पता लगाता हुआ आपके पास पहुंच जाए और बताए कि यह पेन तो मेरा है, तुम्हारा नहीं है। इसकी पहिचान कर लो, इसको खोल लो, इसके भीतर की रबड़ सफेद है और अनेक चिन्ह बताए। अब आपने सही जान लिया कि हां यह पेन इसका ही है। अब भले ही लोभवश आप ऊपर से लड़ाई करते हैं, बहस करते हैं कि कैसे है तुम्हारा पेन? यह हमारा है, पर अंतरंग में, उस ज्ञानप्रकाश में तो देखो कि आपके उस पेन का त्याग हो गया है। भीतर में यह निर्णय हो गया है कि इसे मैं अपने पास रख नहीं सकता देना पड़ेगा। यों यथार्थज्ञान के विलास में उसका त्याग हो चुका है।
ज्ञानी की बंद्यता व अज्ञान की निंद्यता- सम्यग्दृष्टि पुरुष उन समस्त ज्ञानातिरिक्त भावों का प्रत्याख्यान करता है, त्याग करता है, ऐसे ही सम्यग्दर्शन की मूर्तिस्वरूप सम्यग्दृष्टि के ही वास्तव में प्रत्याख्यान होता है और ऐसा निश्चयप्रत्याख्यान करने वाले ज्ञानी पुरुष के ही पापसमूह दूर होते हैं। अज्ञानी पुरुष तो बाह्य में धर्म की प्रवृत्ति कर रहा है, पूजा कर रहा है, जाप दे रहा है, विधान कर रहा है, यज्ञ कर रहा है, कुछ भी कर रहा है; किंतु अंतरंग में भेदविज्ञान नहीं है। विषयों से व विषयसाधनों से प्रीति बनी हुई है तो उसके पापसमूह नष्ट नहीं हो रहे हैं; किंतु वह तो पापों को बढ़ा रहा है। वह बाह्य में धर्म को करके अंतरंग में विषयों की प्रीति खूब हो, मुझे खूब मौज मिले, मुझे संसार के सुख खूब मिलें- ऐसी कुबुद्धि कर रहा है। जो ज्ञानी पुरुष है, विवेकी है, उसके ही पापसमूह दूर हो सकते हैं। ऐसी जो सम्यग्ज्ञान की मूर्ति हैं, प्रत्याख्यानस्वरूप है; निज को निज और पर को पर जानकर केवल निजस्वरूप ही अपना अनुभवन कर रहा है, रागद्वेष से परे है- ऐसा ज्ञानपुन्ज सम्यग्दृष्टि पुरुष हिताभिलाषी जनों द्वारा वंदनीय है। ऐसा ज्ञानी पुरुष ही अपना हित कर सकता है और दूसरों के परमार्थभूत हित का साधक होता है। रागद्वेष में बढ़ा हुआ पुरुष न अपना हित कर सकता है और न अन्य दूसरों का हित कर सकता है। इस प्रकार के प्रत्याख्यानस्वरूप साधु-संत सदा मुमुक्षु पुरुषों के द्वारा वंदनीय हैं।