वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 14
From जैनकोष
चक्खु अचक्खू अइओही तिण्णि वि भणिदं विहावदिट्ठ त्ति।
पज्जाओ दुवियप्पो सपरावेक्खोय णिरवेक्खो।14।।
विभावदर्शनोपयोग के भेद―इस गाथा में विभावदर्शनों को बताया जा रहा है। जैसे ज्ञानोपयोग स्वभाव और विभावज्ञान के भेद से दो प्रकार का है, इस प्रकार दर्शन भी स्वभावदर्शन और विभावदर्शन के भेद से दो प्रकार का है। जिसमें स्वभावदर्शन का तो वर्णन कल हो गया है। आज विभावदर्शन का वर्णन चलेगा। विभावदर्शन तीन होते हैं–चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन। इनमें सम्यक् और केवल का भेद नहीं है। चक्षुदर्शन चक्षुरिन्द्रिय से उत्पन्न होने वाले ज्ञान से पहिले होने वाले दर्शन को कहते हैं। आँखों से जो देखते हैं उसका नाम दर्शन नहीं है, यह ज्ञान है। इस आँख के निमित्त से होने वाले ज्ञान से पहिले जो आत्मस्पर्श होता है उसे चक्षुदर्शन कहते हैं। दर्शन ज्ञानबल को उत्पन्न करने की तैयारी का नाम है। एक पदार्थ जान रहे थे, अब एक छोड़कर दूसरा पदार्थ जानने के लिए चले तो उस अन्य पदार्थ के जानने का बल आ जाय इसके लिए दर्शन हुआ करते हैं।
चक्षुदर्शन व अन्यक्षुर्दर्शन का स्वरूप―जैसे मतिज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से ज्ञान मूर्तिक वस्तु को जानता है इस ही प्रकार चक्षुर्दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से यह दर्शन मूर्तिक वस्तु को देखता है। वास्तव में दर्शन मूर्त वस्तु को नहीं देखता पर मूर्तिक वस्तु को जानने वाले आत्मा का जो दर्शन कर सकता है तो उसे भी मूर्त वस्तु का देखना कहा करते हैं। दूसरा दर्शन है अन्यदर्शन। लोग जल्दी-जल्दी में चक्षुर्दर्शन अन्यर्दर्शन बोला करते हैं, पर चक्षु शब्द में ष शब्द अन्त में पड़ा है सो शब्द चक्षुष् है। जिसके रूप चक्षु:, चक्ष्, चक्षुषि चलते हैं। इसके रकार हो जाता है वह र् ऊपर लिख दिया जाता है। चक्षुरिन्द्रियजन्य ज्ञान से पहिले जो दर्शन होता है उसे चक्षुर्दर्शन कहते हैं। चक्षुरिन्द्रिय के अतिरिक्त बाकी इन्द्रिय और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है उस ज्ञान से पहिले होने वाले दर्शन को अचक्षुर्दर्शन कहते हैं। जैसे श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने के कारण श्रुत के द्वारा द्रव्यश्रुत में बताए गए मूर्तिक और अमूर्तिक समस्त वस्तुओं को यह ज्ञान परोक्षरूप से जानता है। इस ही प्रकार अचक्षुर्दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम के कारण इन 4 इन्द्रियों व मन के द्वार से उस योग्य विषय को अचक्षुरिन्द्रियदर्शन कहते हैं।
दर्शन की आत्माभिमुखता―दर्शन आत्माभिमुख चित्प्रकाश को कहा करते हैं। ज्ञानदर्शन मूर्त अमूर्त वस्तुओं को जाने और यों जानने वाले आत्मा को देखा दर्शन ने तो दर्शन से भी सब दिख गया, ऐसा कहा जा सकता है। यह ज्ञान की अधिक सूक्ष्म चर्चा हे। ज्ञान की बात जरा शीघ्र समझ में आ जाती है, इसका कारण यह है कि ज्ञान साकार होता है और दर्शन निराकार होता है। किसी मनुष्य पर जिसके बारे में कुछ भी विकल्प बना तो वह ज्ञान बन जाता है, दर्शन नहीं रह पाता, ऐसी सूक्ष्म विषय की बात है। होती सबमें है, पर अपनी बात अपने को कठिन लग रही है। चक्षुर्दर्शन और अचक्षुर्दर्शन–ये दो दर्शन तो हम आप सब मनुष्यों के हैं पर इनका भान नहीं हो पाता।
अवधिदर्शन―तीसरा विभावदर्शन है अवधिदर्शन। अवधिज्ञान से पहिले होने वाले दर्शन को अवधिदर्शन कहते हैं। जैसे अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के निमित्त से शुद्ध पुद्गल पर्यन्त मूर्तद्रव्य को अवधिज्ञान जानता है इसी प्रकार अवधिदर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से समस्त मूर्त पदार्थों को यह अवधिदर्शन देखता है। इस प्रकार ये तीन दर्शन विभाव दर्शन हैं।
विभावदर्शनों का विभावता के व्यपदेश का कारण―कर्मों के क्षयोपशम के निमित्त से ये उत्पन्न होते हैं। इस कारण ये विभावदर्शन औपाधिक है और विभाव हैं, फिर भी दर्शन में खोटेपन का व्यवहार नहीं होता। जैसे कुमतिज्ञान था इसी तरह कुचक्षु ज्ञान हो जाय, ऐसा नहीं होता क्योंकि जिस प्रतिभास में विकल्प नहीं है, निराकार सत् सामान्य का प्रतिभास है उसमें क्या बुरा कहा जाय ? कोई आकार हो, विशेष ग्रहण हो तो वहाँ सम्यक् और कुत्सितपना माना जा सकता है। ये दर्शन छद्मस्थ जीवों के होते हैं। अचक्षुर्दर्शन स्पर्शनइन्द्रिय ज्ञानसम्बन्धी होता है और रसना, घ्राण, कर्ण और मन सम्बन्धी भी होते हैं। हाथ से किसी वस्तु के स्पर्श से ज्ञान होता है तो उस ज्ञान से पहिले जो आत्मस्पर्श होता है उसे कहते हैं स्पर्शनइन्द्रिय सम्बन्धी अचक्षुर्दर्शन इसी प्रकार रसना इन्द्रिय के द्वारा जो ज्ञान उत्पन्न होता है उससे पहिले जो दर्शन होता है उसे रसनाइन्द्रिय सम्बन्धी अचक्षुर्दर्शन कहते हैं।
मतिज्ञान की निर्विकल्पता―भोजन किया तो तत्काल जो ज्ञान हुआ वह हुआ मतिज्ञान और जहाँ ऐसा ख्याल आया कि मैं अमुक चीज खा रहा हूँ, बड़ी मीठी है, ठीक बनी है, थोड़ी खराब आ गयी है, नमक कम हो गया है, ऐसा कुछ भी ज्ञान जगे तो वह श्रुतज्ञान है, मतिज्ञान नहीं है। मतिज्ञान निर्विकल्प होता है और श्रुतज्ञान सविकल्प होता है। 5 ज्ञानों में एक श्रुतज्ञान तो सविकल्प है और शेष चार ज्ञान निर्विकल्प है। आँखों से देखा नहीं कि जानने में आ गया तो हुआ मतिज्ञान और जहाँ यह जाना कि यह सफेद है, यह काला है, यह इतना बड़ा है, यह अमुक साधन से बना है, कुछ भी ज्ञान जगे वह हो जाता है श्रुतज्ञान। सफेद पीला जानने में आये, मगर सफेद पीले रूप में विकल्प न हो तब तक तो है मतिज्ञान और जहाँ सफेद पीला आदि विकल्प बना तो हो जाता है श्रुतज्ञान।
आत्माभिमुख मतिज्ञान की स्वानुभूति से निकटता―भैया ! अब आप समझ लीजिए कि मतिज्ञान कितना स्वच्छ ज्ञान है ? श्रुतज्ञान परमोपकारी है, पर स्वानुभव के लिए सीधा काम आने वाला मतिज्ञान है। स्वानुभव की निर्विकल्पता अवस्था से पहिले मतिज्ञान होता है क्योंकि निर्विकल्पज्ञान निर्विकल्प ज्ञानस्वरूप के स्वानुभव को करने में समर्थ हो सकता है। अब आप जान लीजिये कि मतिज्ञान का कितना बड़ा महत्व है ? जो सुनने बताने में ऐसा साधारण जंचता है।
मतिश्रुत की संसारी जीवों में व्यापकता―मतिज्ञान सब जीवों में है। श्रुतज्ञान यह भी सब संसारी जीवों के होता है। एकेन्द्रिय के भी श्रुतज्ञान है, पर उसके श्रुतज्ञान का हम क्या वर्णन करें ? हम मतिज्ञान की भी बात नहीं बता सकते हैं। हम आप सब मनुष्य हैं सो हमारे अनुभव की जो बात है वैसा ही आप सबके अनुभव में आता है इसलिए पता चलता है, पर इन पेड़ों को किस तरह से मतिज्ञान हो ? श्रुतज्ञान होता है यह उनमें ही घटित हो रहा है। चारों संज्ञायें तो पेड़ों में भी पायी जाती है और चारों मन्तव्यों का कैसा कर्त्ता काम हो रहा है। तो इनके भी श्रुतज्ञान है। बे इन्द्रिय तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय के भी मतिज्ञान और श्रुतज्ञान है। है कुमति और कुश्रुत, किन्तु दर्शन उनका वैसा ही विशुद्ध है, जैसा सबके हुआ करता है।
अध्यात्मक्षेत्र में दर्शन का महत्त्व―लोक में दर्शन का महत्त्व कम है, ज्ञान का महत्त्व ज्यादा है और यहाँ आत्महित के प्रसंग में ज्ञान से भी अधिक महत्त्व दर्शन का है कि दर्शन के विषय का तो ग्रहण कर ले अर्थात् यह मैं हूँ, इस प्रकार का अनुभव करले तो उसके मोक्षमार्ग प्रकट हो जाता है। अब आप देखिये कि दर्शन के समय सम्यग्दर्शन उत्पन्न करने की योग्यता नहीं बतायी है। जो साकारोपयोगी जीव हो उसके सम्यक्त्व जगता है, किन्तु दर्शन के विषयभूत आत्मदर्शन के सम्बन्ध में वह साकारोपयोगी बनकर सम्यग्दृष्टि होता है। इस प्रकार उपयोग का व्याख्यान यहाँ समाप्त होता है। जीव के सम्बन्ध में जो उपयोग गुण की मुख्यता को लेकर स्वरूप चल रहा था, उसमें ज्ञान और दर्शन के सर्वभेद बतलाये गये हैं और उन सब भेदों की आधारभूत जो भी मूलदृष्टि है, वह ज्ञप्ति है और उस शक्ति को पहिले बता दिया गया है।
पर्याय का निरूपण―अब उपयोग की व्याख्या के अन्दर पर्याय का स्वरूप कहा जा रहा है। पर्याय का अर्थ है कि परि आय है। परि का अर्थ है सर्व ओर से और आय का अर्थ है भेद को प्राप्त करो। ‘‘परि समंतात् भेदं एति गच्छति इति पर्याय:।’’ जो भेद करने चले उसे पर्याय कहते हैं। अध्यात्मशात्र की सूक्ष्मदृष्टि में ज्ञानदर्शनादिक भेद बताना भी पर्याय कथन है, क्योंकि भेद किया, पर चूँकि वह सब शाश्वत है। अत: मध्यम अध्यात्मवर्णन में उसे पर्याय में सम्मिलित नहीं किया, किन्तु गुण में सम्मिलित किया। तिर्यक्रूप से भेद करने से तो गुण बता दिया गया और ऊर्ध्वरूप से भेद करने से पर्याय बताया। एक आत्मा है और उसमें तिर्यक्रूप में अर्थात् एक साथ फैसला हुआ कि यह ज्ञान है, यह दर्शन है, यह चारित्र है। यह तो हुआ गुणों का बताना, किन्तु समय भेद की दृष्टि में लेकर यह अमुक समय का परिणमन है, यह अमुक परिणमन है, इस प्रकार से समय भेद करके बताना पर्यायस्वरूप है। यद्यपि एक द्रव्य में एक साथ अनन्तपर्यायों का भी कथन है, क्योंकि जितने गुण होते हैं, उतने उसमें परिणमन भी है, लेकिन उस एक साथ अनन्तपरिणमनों को बताने के गर्भ में यह आशय पड़ा हुआ है कि यह सब समय-समय के परिणमन में परिणमने वाले हैं। तब तो इस तिर्यक्भद का नाम गुण हो गया और ऊर्ध्वभेद का नाम पर्याय हुआ।
तिर्यग्विशेष और ऊर्ध्वविशेष―जैसे एक साथ इतने मनुष्य बैठे हैं, इनमें बालक, बूढ़े और जवान सभी हैं, किन्तु एक साथ सबको देखा जा रहा है तो यह हुआ इसका तिर्यक्रूप से जानना। एक ही व्यक्ति के बारे में ऐसा ज्ञान करे कि यह बालक था, अब जवान है, अब बूढ़ा होगा, यदि इस तरह समयभेद लेकर उस एक व्यक्ति के बारे में ज्ञान किया तो वह पर्याय अथवा ऊर्ध्वपर्याय के रूप में ज्ञान कहलायेगा। ऊर्ध्व मायेन हैं ऊपर ही ऊपर और तिर्यक् मायने हैं एक समय में तिरछे ही तिरछे। जब कोई भी मनुष्य किसी की दशाओं का वर्णन करता है तो उसकी अंगुली ऊँचे-ऊँचे उठती है। खूब विचार करके देख लो कि यह आदमी पहिले बालक था, फिर जवान हुआ, अब धनपति बना, अब लखपति बना, अब करोड़पति होगा, बूढ़ा होगा, मर जायेगा–ऐसा वर्णन करते हुए अंगुली ऊपर उठ जायेगी। देख लो कि इस भारतवर्ष में ब्राह्मण भी रहते हैं, क्षत्रि भी रहते हैं, अमुक भी हैं, अमुक भी हैं–ऐसा वर्णन करने में अंगुली ऊपर-ऊपर न उठेगी, किन्तु बार-बार तिरछी-तिरछी गिरेगी। आत्मा में एक साथ पायी जाने वाली शक्ति को बताना तो तिर्यक्रूप से वर्णन है और आत्मा के संबंध की पर्याय को बताना है पर्यायरूप से वर्णन।
द्रव्य की गुणपर्यायात्मकता―द्रव्यगुण पर्यायात्मक होता है। केवल गुण मानकर रहे तो द्रव्य की सिद्धि नहीं है, केवल पर्याय मानकर चले तो द्रव्य की सिद्धि नहीं है। जैसे हाथ में 5 अंगुली हैं तो यदि पाँचों ही रह जायें तो कार्यसिद्धि अच्छी होती है और अगर उनमें से एक या दो अंगुलियाँ भी टूट जायें, मान लो कि यह बेकार अंगूठा ही टूट जाये तो देख लो फिर काम करना कैसे होता है ? जितने संगठन में ये अंगुलियाँ काम करती हैं, बिखरी हुई दशा में नहीं करतीं।
समवायात्मकता में व्यवस्था पर एक दृष्टान्त―एक बार इन पाँचों अंगुलियों में लड़ाई हो गई। लड़ाई किस बात पर हुआ करती है ? हम बड़े, हम बड़े, हम बड़े मानने से। घर में देख लो, समाज में देख लो, किसी भी वर्ग में देख लो, इसी बात से लड़ाई झगड़े होते हैं। अब एक जज साहब के पास पाँचों अंगुलियाँ पहुँची। जज साहब ने कहा कि अच्छा अपने-अपने बयान लिखाओ। सबसे पहिले अंगूठा बयान देने के लिये खड़ा हुआ और बोला कि हम सबसे बड़े हैं, हमारी धाक विश्वभर में चलती है। जब किसी बूढ़े की पेंशन हो जाती है तो सरकार का केवल दस्तखत ले लेने से ही तो काम नहीं चलता है। सरकार उससे अंगूठा लगवा लेती है, चाहे वह कितना ही पढ़ा लिखा हो। ज्यादा साख बनानी हो तो अंगूठे की निशानी लेते हैं। अब अंगूठे ने कहा कि सारे विश्व में हमारी धाक जमती है, इसलिये हम बड़े हैं।
अब इस पहिली अंगुली से कहा कि तुम अपने बयान लिखाओ। तो उसने कहा कि महाराज सारे विश्व पर हमारी हुकूमत चलती है। अभी कोई किसी को आर्डर दे तो हमीं पहिले उठती है। तो महाराज हमीं तो बड़ी हैं। अब तीसरा अनामिका अंगुली से कहा कि तुम बयान लिखाओ। अभी बीच की अंगुली को छोड़ दिया। उस अंगुली ने कहा कि महाराज हम तो बड़े धार्मिक जीव हैं। यज्ञ में, हवन में, माला फेरने में तिलक लगाने में आगे-आगे चलती हैं। तो महाराज हम बड़ी हुई। अब इस छोटी बहिन छिंगुली से कहा कि तुम अपना बयान लिखाओ तो उस छिंगुली ने कहा महाराज हम तो सारे विश्व की रक्षा करती है, हमारी होड़ कौन लगा सकता है ? कोई लाठी मारता है तो सबसे पहिले मैं ही उसका प्रहार सहती हूँ। कोई लाठी मारेगा तो सबसे पहिले उसका प्रहार छिंगुली पर होगा। तो हम दूसरे की मुसीबत अपने ऊपर लेती हूँ और दूसरों की रक्षा करती हूँ। हमसे बड़ा कौन हो सकता है ? अब बीच वाली, अंगुली से कहा कि तुम भी अपना बयान दा। तो उसने कहा कि अरे हम क्या बयान दें, हमारा बड़प्पन तो इन पाँचों अंगुलियों में ही देख लो।
बहुत विचारकर जज ने कहा कि देखो गर्व मत करो, तुम पाँचों ही रहती हो इसलिए पाँचों ही बड़ी हो, अगर इनमें से एक भी न रहे तो समझो कि सारा हाथ बेकार है। कोई उत्सुकता से तुम्हारी ओर झांकेगा भी नहीं। तो जैसे पाँचों अंगुलियों के संगठन में कार्यकारिता सिद्ध है। वैसे ही समझलो कि समस्त शक्तियाँ और समस्त पर्यायों का समूह में हमारा वस्तुज्ञान व्यवस्थित होता है।
पर्यायविवरण―अब पर्याय का स्वरूप कहा जायेगा। पर्यायें यों ही असत् पदार्थों की निराधार नहीं हो जाया करती हैं किन्तु किसी शक्ति का परिणमन है। भले ही इससे शक्ति को न विशद जान सकें किन्तु मुक्ति बतलाती है कि शक्ति न हो तो परिणति किसकी कहलाए ? जैसे आमफल में पहिले कौन-सा रंग आता है ? सबसे पहिले जब हल्का आम फूल के साथ लगा होता है उस समय उसका रंग काला होता है, फिर होता है नीला, फिर होता है हरा, फिर होता है पीला, फिर लाल हो जाता है और जब सड़ जाता है तो उस पर सफेदी आ जाती है। आम इतने रूप बदलता है, उन प्रसंगों में काला नीला हुआ तो रूप में व्यक्ति तो बदल गयी किन्तु रूपशक्ति नहीं बदली। जिस रूप शक्ति का प्रकटरूप कालापन था अब उस ही रूप शक्ति का प्रकट रूप नीलापन हो गया। तो रूपशक्ति और रूपव्यक्ति–ये दो होती हैं, लेकिन रूपव्यक्ति से तो लोग परिचित होते हैं पर रूपशक्ति का भान नहीं होता है, शक्ति के परिज्ञान में विशेष प्रतिभा की आवश्यकता होती है, और यों तो पर्यायों को भी लोग जानते तो हैं पर पर्यायरूप से जान जायें इसमें भी प्रतिभा की आवश्यकता होती है। मोही अज्ञानी जीव पर्याय को ही तो जान रहे हैं किन्तु उन्हें पर्यायरूप से नहीं जान रहे हैं, यही वस्तुसर्वस्व है ऐसा जान रहे हैं।
सूक्ष्मदृष्टि और स्थूलदृष्टि से पर्यायों का सूक्ष्म और स्थूल दर्शन―पर्याय में भी सूक्ष्मदृष्टि से परिणमन देखना और स्थूल दृष्टि से परिणमन देखना–ये दो पहिचान ज्ञात होती है। जैसे यह बल्ब जल रहा है तो इसमें सूक्ष्म परिणमन एक-एक सेकेण्ड में सैकड़ों बार हो जाता है पर उसका पता नहीं चलता है। जब एकदम मद्दा हो जाय, एकदम तेज हो जाय या बुझ जाय फिर जल जाय तो ज्ञात होता है कि इसमें तो नाना अवस्थाएँ बन रही है। इसी तरह इस द्रव्य में और प्रसंग प्राप्त इस आत्मा में सूक्ष्मदृष्टि से परिणमन हो रहा है और स्थूलदृष्टि से लक्ष्य में आने वाला भी परिणमन हो रहा है। इसमें सूक्ष्मदृष्टि से कहे जा सकने वाले परिणमन का नाम स्वभावपर्याय है और स्थूल परिचय में आने वाले परिणमन का नाम विभावपर्याय है। इनमें से स्वभावपर्याय की बात अब कही जायेगी जो कि समस्तपदार्थों में निरंतर पाया जाता है। यहाँ शुद्ध पर्याय का मतलब निर्दोष द्रव्य की पर्याय से नहीं है किन्तु उसका द्रव्यत्व गुण के कारण प्रतिसमय निरन्तर होने वाली पर्याय से प्रयोजन है। उस स्वभावपर्याय का वर्णन अब आगे बताया जायेगा।
अर्थपर्यायरूप स्वभावपर्याय―जीव के गुणों का वर्णन करके अब पर्यायों का वर्णन किया जा रहा है। पर्यायें स्वभावपर्याय और अशुद्धपर्याय यों दो प्रकार की कही गयी हैं। स्वभावपर्याय में द्रव्यत्व गुण के कारण जो अपने आपमें षड्गुणभाग वृद्धि हानि को लिए हुए परिणमन होता है उसे सम्मिलित किया है। यह स्वभावपर्याय छहों द्रव्यों में साधारणरूप है इसका नाम है अर्थपर्याय। यह अर्थपर्याय न तो मानसिक विकल्पों से जाना जा सकता है और न वचनों से जाना जा सकता है। अत्यन्त सूक्ष्म है, आगम की प्रमाणता से वह जानने में आता है। 6 प्रकार की हानि वृद्धि के विकल्प है। जैसे पूरे पावर से जलते हुए लट्टू में भी सूक्ष्मता से हानि वृद्धियाँ चल रही है। देखने में ऐसा लगता है कि यह प्रकाश तो वैसा का ही वैसा है पर यदि उसमें हानि वृद्धियाँ न चलती होती तो परिणमन नहीं हो सकता। प्रति समय उस प्रकाश का रहना एक अनन्त वृद्धि हानि परिवर्तन को लिए हुए है।
स्वभावपरिणमन―जैसे केवल ज्ञानादिक में अनन्तगुण वृद्धि आदिक परिणमन हो रहे हैं और फिर भी कहीं उन हानियों के फल में यह नहीं हो जाता कि केवलज्ञान पहिले जितना जानना था उससे कभी कम जानने लगे। उतना का ही उतना जानता है फिर भी केवलज्ञानपरिणमन में भी अनन्तगुण वृद्धि और अनन्तगुण हानि रूप परिस्थितियाँ होती है। ये वस्तु के सत्त्व के कारण ऐसी अपने आप होती है। आपका यह जो शरीर दिख रहा है, जैसा कल दिखता था वैसा ही आज दिख रहा है, कोई फर्क नहीं नजर आ रहा है, लेकिन इस शरीर में भी अनन्तगुण हानियाँ हो गयी हैं, अनन्तगुण वृद्धियाँ हो गयी हैं और उनका कुछ मालूम नहीं पड़ता।
प्रतिक्षण परिणमन―जैसे कल बालक जितना ऊँचा था कल की अपेक्षा आज उस बालक में कुछ लम्बाई बढ़ी या नहीं ? दिखता तो ज्यों का त्यों है। पर यदि आज लम्बापन नहीं बढ़ा तो ऐसे-ऐसे बहुत से आज निकल जायें तो लम्बाई ही न बढ़े। फिर वह कभी बड़ा ही नहीं हो सकता है। परन्तु जिसने एक साल पहिले देखा हो उसकी दृष्टि में तो साफ नजर आता है कि बड़ा हो गया है। तो जैसे 1 वर्ष बाद बच्चे को देखने पर मालूम होता है कि यह 8 अंगुल लम्बा हो गया है तो क्या वह 11 महीने 29 दिन 23 घण्टा और 59 मिनट में कुछ भी नहीं बड़ा हुआ ? क्या वह एक मिनट में ही 8 अंगुल बढ़ गया ? ऐसा नहीं है। तो क्या हर महीने पौन-पौन अंगुल बढ़ा ? ऐसा भी नहीं है कि वह 29 दिन 23 घंटा और 59 मिनट न बढ़ा हो और आखिरी 1 मिनट में ही पौन अंगुल बढ़ गयी हो, ऐसा भी नहीं है, किन्तु रोज रोज प्रति मिनट प्रति सेकण्ड वह बालक बढ़ रहा है। मालूम पड़ता है साल भर बाद। तो ऐसा भी वस्तु का सूक्ष्म परिणमन होता है जो हमारे मन की पकड़ में नहीं आ सकता है। और फिर भी होना वहाँ आवश्यक है।
आधार के आधार पर आधारित विभाव द्वारा आधार का तिरोभाव―यह अर्थ पर्यायरूप परिणमन जो कि प्रत्येक पदार्थ में अपने ही चक्र के कारण हो रहा है वह स्वभावपर्याय कहलाता है। इस स्वभावपर्याय के साथ-साथ विभाव बन रहा है तो विभावपर्याय भी लिपट गयी। इस स्थिति में स्वभावपर्याय गौण हो गयी और विभावपर्याय दृष्टा हो गयी। यहाँ स्वभावपर्याय जो कह रहे हैं उसका अर्थ निर्दोष शुद्ध पर्याय से नहीं है किन्तु वस्तु में वस्तुत्व के कारण जो षड्गुणहानिवृद्धि रूप परिणमन चलता है उस परिणमने से प्रयोजन है। जैसे कालद्रव्य अपने षड्गुणहानिवृद्धि से निरन्तर परिणम रहा है, धर्म, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य षड्गुणहानिवृद्धि से निरन्तर परिणम रहे हैं, आकाश अमूर्त होने पर भी कुछ कुछ ख्याल आता है, वह आकाश निरन्तर परिणम रहा है, और यों नहीं परिणम रहा है, प्रति समय अनन्तगुणवृद्धि अनन्तगुणहानि इतने बड़े-बड़े फर्क के साथ परिणम रहा है, लेकिन वहाँ जरा भी फर्क नहीं मालूम होता है। तो ऐसे ही सत्त्व के नाते हम आप जीवों में निरन्तर यह विस्तार परिणमन चल रहा है। यही है स्वभावपर्याय।
प्रगतिशील परिणमन और स्थिरता का समन्वय―इसके अनन्त भाग वृद्धि, असंख्यात भाग वृद्धि, संख्यात भाग वृद्धि, असंख्यातगुण वृद्धि और अनन्तगुण वृद्धि इतने तो बढ़ जाते हैं और अनन्तभाग हानि, असंख्यातभाग हानि, संख्यातभाग हानि, संख्यातगुण हानि, असंख्यातगुण हानि और अनन्तगुण हानि इतने अधिक घट जाते हैं और फिर भी परिवर्तन मालूम नहीं होता है। यह वस्तुत्व के नाते से परिणमन की बात चल रही है। आपको दिखता होगा कि यह बल्ब कितनी स्थिरता से एकरूप जल रहा है, कुछ मालूम पड़ता है कि इसमें कभी प्रकाश घट गया और कभी प्रकाश बढ़ गया ऐसा यहाँ कुछ मालम पड़ रहा है क्या ? नहीं मालूम पड़ रहा है। कोई पावर में ही कमी आ जाय, बिगड़ जाय तो मालूम पड़ने लगेगा। इस समय तो ऐसा एकरूप से जल रहा है, जरा भी प्रकाश में कमी होती नजर नहीं आ रही है और न कुछ अधिक होता नजर आ रहा है ऐसा लग रहा नहीं, फिर भी यह इतना ज्यादा बढ़ जाता है प्रकाश कि जिसको अनन्तगुण वृद्धि तक कहा जाय, अनन्तगुणा बढ़ गया है प्रकाश और अनन्तगुणा घट गया है प्रकाश, इतना बढ़ाव और घटाव हो गया है, और हमें ऐसा लगता है कि ज्यों का त्यों बना हुआ है। मालूम पड़ने की बात यह है कि बहुत ही घटे तब मालूम पड़ता है। तो जितने घटने पर आपको मालूम पड़ा कि प्रकाश घटा उससे आधा भी तो घटा होगा उससे हजारवां हिस्सा भी घटा होगा, उससे लाखवां हिस्सा भी तो घटा होगा। पर सबको अपने का परिचय नहीं होता। कभी एकदम प्रकाश बढ़ गया यह आपकी समझ में आया तो कभी उससे आधा भी तो बढ़ता होगा, हजारवां, लाखवां, करोड़वां हिस्सा भी तो बढ़ता होगा, पर उनका परिचय नहीं होता।
अस्तित्व और परिणमन का अनिवार्य सम्बन्ध―यह वस्तु के स्वभाव परिणमन की बात चल रही है। वस्तु है तो स्वभावत: परिणमनशील है और इतने लम्बे हानि वृद्धि से निरन्तर परिणमता रहता है। तो यह परिणमन तो मूल में प्रत्येक द्रव्य में चल रहा है जिसका आधार पाकर अशुद्ध उपादान हुआ तो विभावपरिणमन भी उसमें फिट बैठ जाता है। जैसे एक चक्र शुद्ध जिसमें और कुछ चीज नहीं लिपटी, बिजली का करण्ट सा एकदम चल रहा है तेज, वह उस चक्र का शुद्ध भ्रमण हो रहा है और रुई के छोटे-छोटे हिस्से कण उड़कर उस चक्र में लग जाये तो उस मूल में घूमते हुए चक्र के आधार में वे रुई के सारे कण भी उसी तरह भ्रमण करेंगे, इसी तरह प्रत्येक पदार्थ अपने सत्त्व के नाते से अपने आपमें षड्गुणवृद्धि हानिरूप से निरन्तर परिणमते हैं। वहाँ विभावपरिणमन होता है तो भी उस परिणमन में आ जाता है। विभावपरिणमन का आधार तो वह मूल परिणमन है। यद्यपि दृष्टान्त में दिए गए चक्र और रुई के पिण्डों के भ्रमण जैसी वहाँ दो बातें अलग नहीं हो पातीं, फिर भी स्वरूपदृष्टि से वे दो बातें अलग मालूम होती है। ज्ञानदृष्टि इतनी तीक्ष्ण होती है कि एक ही आत्मा के स्वभाव को ज्ञान दर्शन आदि गुणों में विभक्त करके और परस्पर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध बता दे, ऐसी-ऐसी ज्ञानदृष्टियों का जौहर होता है।
षड्गुणहानिवृद्धिरूप शुद्ध परिणमन―यह षड्गुणहानिवृद्धिरूप शुद्ध परिणमन प्रत्येक पदार्थ में निरन्तर पाया जाता है, किन्तु जो विभाव परिणत है वहाँ उस आधार में अपने आपको ऐसा जमाये हुए होता है कि कहीं वहाँ भिन्न-भिन्न रूप से दो परिणमन नहीं हो गये किन्तु आधारआधेयपन ज्ञानदृष्टि से समझ में आता है। जैसे समुद्र होता है तो 20 हाथ नीचे समुद्र में और तरह का परिणमन है समुद्र के ऊपर और तरह का परिणमन है, ऐसा यहाँ नहीं लगाना है कि इस जीव में भीतर में तो यह स्वभाव परिणमन चल रहा है और ऊपर से विभावपरिणमन चल रहा है। स्वरूपदृष्टि से षड्गुणहानिवृद्धि शुद्ध परिणमन द्रव्य के अन्दर पड़ा रहता है, पर वही परिणमन विभावपरिणमन रूप से विभावपरिणमन वाले में उदित होता है। हो उदित, फिर हम विभावपरिणमन को न तकें और मूलपरिणमन षड्गुणहानिवृद्धि परिणमन से देखें तो क्या जान नहीं सकते ? जानते हैं, ऐसा वस्तु का यह स्वभावपरिणमन है।
व्यञ्जनपर्यायें―अब अशुद्ध पर्याय पर दृष्टि दें। जीव के नर, नारक, तिर्यंच और देव पर्याय–ये विभाव व्यंजनपर्याय हैं और ये अशुद्ध पर्यायें हैं। अशुद्ध पर्याय के मायने कई द्रव्यों के सम्बन्ध में हुई पर्याय, शुद्ध पर्याय के मायने एक ही द्रव्य का परिणमन। शुद्ध और अशुद्ध का अध्यात्म ग्रन्थों में प्राय: यह ही अर्थ चलता है–केवल एक द्रव्य के परिणमन का नाम शुद्ध परिणमन है और अनेक द्रव्यों के सम्बन्ध से होने वाले परिणमनों का नाम अशुद्ध परिणमन है। द्रव्यकर्म और विभावपरिणत जीव तथा शरीररूप बने हुए नोकर्म इनका संबन्ध है और जो परिणमन बना, वह है अशुद्ध परिणमन। इस ही का नाम है शुद्ध व्यञ्जनपर्याय। इस तरह जीव पदार्थ के संबन्ध में गुण का भी वर्णन किया गया है और गुणपरिणमनों का भी वर्णन किया गया है तथा यहाँ द्रव्यपर्यायों का भी संकेत दिया गया है।
शुद्धआत्मतत्त्व के भजन का परिणाम―इन समस्त परभावों के होने पर भी जो भव्यआत्मा एक शुद्ध आत्मा को ही भजता है, सेता है, वह पुरुष उत्कृष्ट लक्ष्मी का स्वामी होता है। उत्कृष्ट लक्ष्मी क्या है ? मोक्षलक्ष्मी, जिस से उत्कृष्ट और कुछ न हो, जिसमें कभी आकुलता ही नहीं है, शुद्ध और स्वच्छ विकास है, उसे कहते हैं उत्कृष्ट लक्ष्मी। यहाँ की मानी गयी लक्ष्मी तो रुपया, पैसा, सोना, चाँदी आदि ये सब वैभव हैं। कोई लक्ष्मी नाम की चार हाथ वाली और हाथियों की सूंड से उसके सिर पर माला गिरायी जा रही हो–ऐसी कोई लक्ष्मी नहीं है। अगर ऐसी कोई लक्ष्मी होवे तो दुकान धन्धा सब कुछ छोड़कर उसी लक्ष्मी को ढूँढने में लग जाओ, सब काम छोड़ दो। वह कहीं मिल जाये और आपको अपना ले, फिर तो आप बहुत ही मालोमाल हो जायेंगे, पर लक्ष्मी तो है ही नहीं। इसी वैभव का नाम लोक में लक्ष्मी रखा है।
लक्ष्मीपति और लक्ष्मीपुत्र―भैया ! कोई कहलाता है लक्ष्मीपति और कोई कहलाता है लक्ष्मीपुत्र। इन्हीं दो शब्दों से बोलते हैं–लक्ष्मीपति और लक्ष्मीपुत्र। लक्ष्मीपति वह कहलाता है जो लक्ष्मी को खर्च करे, दान करे, भोग करे, उसका नाम है लक्ष्मीपति और लक्ष्मीपुत्र उसका नाम है कि जैसे पुत्र माता के चरण छूवे, हाथ जोड़े, पूजा करे, माँ को भोग न सके, स्पर्श न कर सके। इसी तरह लक्ष्मीपुत्र, जिसका यह पुत्र है, उस लक्ष्मी माँ को, धन-पैसे को पूजे, उसके चरण छूवे, उसकी सेवा करे, उसकी आराधना करे, उसको हृदय में स्थान दे, पर एक भी पैसा न खर्च कर सके, उसका नाम है लक्ष्मीपुत्र। वह तो लक्ष्मी का पुत्र है, उस लक्ष्मी का कैसे भोग करे, पुत्र होकर माँ के साथ अन्याय करे, यह कैसे हो सकता है ? यही सब व्यवहार में लक्ष्मी कहे जाते हैं।
परमश्री―वस्तुत: लक्ष्मी तो आत्मा की ज्ञानलक्ष्मी है। उस ज्ञानलक्ष्मी का वही पति होता है, जो परभावों के होते रहने पर भी शुद्ध षड्गुणहानिवृद्धि पर्यायपरिणत एकस्वभावमात्र आत्मतत्त्व को निरखता है, जो आत्मतत्त्व सहजगुण का पिण्ड रूप है, पूर्ण ज्ञानस्वभावमय है उसको जो पुरुष शुद्ध दृष्टि बनाकर भजता है, सेवता है, वह पुरुष संसार के समस्त संकटों से मुक्त हो जाता है। यहाँ बहुत कुछ वर्णन किया गया है। आत्मा के गुण, आत्मा की पर्यायें, अशुद्ध पर्यायें ये सब बतायी गयी है। पर जिस पुरुष के चित्त में केवल कारणसमयसार ही विराजमान रहता है वह शीघ्र समयसार को प्राप्त होता है। जिसकी जहाँ तीव्र रुचि होती है उसका मन वहाँ ही लगा रहता है, चाहे बीच में नाना और प्रसंग आ जायें और उनमें भी कुछ पड़ना पड़े तो भी अपनी मूलरुचि उसकी ही ओर आकर्षित रहती है तो ज्ञानी जीव के भी विभावपरिणमन चल रहे हैं। तिस पर भी चूँकि उसकी रुचि कारणासमयसार की है अत: उसकी प्रतीति में एक कारणपरमात्मतत्त्व विराजमान् रहता है। यह कार्यसमयसार वह जो अपने आपमें उठता है, अपने आपमें सुगमतया सहजदृष्टि से उत्पन्न होता है उसको जो भजते हैं और इस कारणपरमात्मतत्त्व को भजते हैं वे संसार के संकटों से मुक्त हो जाते हैं।
आत्मतत्त्व―यह आत्मतत्त्व कैसा है कि इसमें कभी तो शुद्धगुण दृष्ट होते हैं और कभी अशुद्ध गुण दृष्ट होते हैं, कहीं सहज पर्यायों से विलयमान होता है कहीं अशुद्धपर्यायों से वह मुक्त होता है। यह जीव एक दृष्टि से तो सनाथ दिख रहा है और एक दृष्टि से अनाथ दिख रहा है। जिसको अपने आपके सहजस्वरूप का परिचय नहीं है वह तो अनाथ है और जिसे परिचय है वह सनाथ है। ऐसे विचित्र जौहर वाले इस कारणपरमात्मतत्त्व को, चैतन्यस्वभावात्मक आत्मतत्त्व को मैं नमस्कार करता हूँ, भावना करता हूँ और उस रूप में मैं उतारता हूँ, ऐसी दृढ़ भावना के साथ ज्ञानी पुरुष का ध्यान इस कारणपरमात्मतत्त्व की ओर आकर्षित रहता है, जिसके फल में उसे समस्त अभीष्टों की सिद्धि हो जाती है। इस प्रकरण से केवल यह शिक्षा ग्रहण करनी है कि हमको सहजस्वरूप की दृष्टि प्राप्त हो और उसमें ही हमारा निरन्तर रमण हो, अन्य कुछ हमको आवश्यक नहीं है।