वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 20
From जैनकोष
अणुखंधवियप्पेण दु पोग्गलदव्वं हवेइ दुवियप्पं।
खंधा हु छप्पयारा परमाणू चेव दुवियप्पो।।20।।
अजीवों में पुद्गल का प्रथम वर्णन—अजीव 5 प्रकार के होते हैं—पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इन पांचों द्रव्यों में से पुद्गलद्रव्य स्पष्ट है और व्यावहारिक प्रयोग में अधिकतया आता है। इस कारण उन अजीवों के भेद में सर्वप्रथम पुद्गलद्रव्य का वर्णन किया जाता है। पुद्गलद्रव्य दो प्रकार का है—एक अणु और दूसरा स्कंध। यद्यपि पुद्गल के ये दो भेद नहीं हैं—परमाणु और स्कंध। स्कंध तो अनेक पुद्गलों के पिण्ड का नाम है, फिर भी स्वभावपुद्गल और विभावपुद्गल इस प्रकार दो भेद के आधार से परमाणु और स्कंध—ये दो भेद पुद्गल के मान लिए जाते हैं।
स्वभावपुद्गल और विभावपुद्गल—स्वभावपुद्गलवह है जो केवल पुद्गल है, एक है। अद्वितीय अद्वैतपुद्गल को स्वभावपुद्गल कहते हैं और जो अद्वैत नहीं है, वरन् निमित्त या नैमित्तिक के संयोगरूप है, वह विभावपुद्गल है। विभावपुद्गल स्कंध का नाम है, स्कंधावस्था पुद्गल के बंधनरूप अवस्था है, एक विशिष्ट संयोग की अवस्था है। स्कंध मटके में भरे हुए चनों की तरह परमाणुवों का पुञ्ज नहीं है। मटके में चने बंधे हुए नहीं हैं, किन्तु स्कंध में पुद्गलपरमाणु बंधे हुए हैं और ऐसे बंधे हुए हैं कि शुद्ध पुद्गल का कार्य नजर नहीं आता। स्कंध का काम होता है, इसलिए इस विभावअवस्था में अर्थात् अनेक द्रव्यों के संयोगरूपावस्था में हुए स्कंधों को भी पुद्गल कहते हैं। स्वभावपुद्गल नाम है परमाणु का और विभावपुद्गल नाम है स्कंधों का।
स्वभावपुद्गल के प्रकार—स्वभावपुद्गल भी दो प्रकार के हैं—एक कार्यपरमाणु और दूसरा कारणपरमाणु। बात वही एक है, कोई भिन्न-भिन्न जगह में ये दोनों पाए नहीं जाते कि कारणपरमाणु कोई और होता होगा और कार्यपरमाणु कोई और होता होगा। उसी प्रकार परमाणु में कारणता की मुख्यता से कारणपरमाणु का व्यपदेश है तथा जो कुछ होगा उसमें परिणमन भी है। एक ही परमाणु रहकर उस परमाणु के स्वरूप का आश्रय करके जो होगा, वह कार्यपरमाणु है। जो परमाणु का सहजस्वरूप है, उसका नाम है कारणपरमाणु और उस परमाणु का जो व्यक्तरूप है, जिसमें पांचों रसों में से एक रस है, पाँच वर्णों में से एक वर्ण है, दो गंधों में से एक गंध है और चार स्पर्शों में से दो स्पर्श हैं—ऐसे कार्यरूप परिणत परमाणु कार्यपरमाणु कहलाते हैं। परमाणु से अपना कोई वास्ता नहीं चल रहा है, इसलिए पुद्गलद्रव्य का स्वरूप भी जीव की तरह सूक्ष्म है और जैसे जीव अनेक चमत्कारों वाला है, इसी तरह यह पुद्गलपरमाणु भी अनेक चमत्कारों वाला है।
जीव और पुद्गल का चमत्कार—जीव का चमत्कार चेतन जाति का है और पुद्गल का चमत्कार पुद्गल जाति का है। ये कार्यपरमाणु एक समय में 14 राजू तक गति कर लेते हैं और जीव भी एक समय में 14 राजू तक गति कर लेता है। लोक के नीचे से निगोद जीव मरा और सिद्धलोक में निगोद बना तो वह भी गमन कर लेगा। परमाणु जैसे-जैसे विविक्त होते हैं, जैसे-जैसे वे न्यारे होते हैं तैसे ही तैसे उनमें शक्ति और चमत्कार प्रबल होता जाता है। जिस प्रकार जीव कर्मों में, शरीर में, बड़े-बड़े शरीरों में, मच्छ जैसी देहों में बड़े विस्तार और पिण्डरूप से बन जाता है, वैसे ही उसका चमत्कार कम होता है और जैसे ही शुद्ध हो जाता है, कर्म और शरीर के पिंडों से विविक्त होता है, हल्का होता हैं, चमत्कार बढ़ता है और जब जीव बिल्कुल अकेला हो जाता है तो उसका चमत्कार सर्वोत्कृष्ट हो जाता है। इसी तरह ये परमाणु जैसे-जैसे न्यारे होते हैं, अकेले रहते हैं, तैसे ही तैसे चमत्कार भी बढ़ता है। लोक में प्रयोग के लिए भी अणु की शक्ति अधिक बतायी है और स्कंधों की शक्ति कम बतायी है। अणुशक्ति रेल चलना, कारखाने चलाना और बड़े-बड़े विघात कर सकना आदि सब बातें आज के अविष्कार में सिद्ध की जा रही हैं। यद्यपि वे अणु नहीं हैं, किंतु स्कंधों की अपेक्षा वह सब अणुशक्तियों का संचय है।
स्कंधों के प्रकारों का निर्देश—स्वभावपुद्गल दो तरह के हैं—कार्यपरमाणु और कारणपरमाणु। विभावपुद्गल 6 प्रकार के हैं, जिनको आगे की गाथाओं में बताया जाएगा, उन छहों के नाम ये हैं—स्थूल-स्थूल, स्थूल, स्थूलसूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्मसूक्ष्म। इनका विवरण और उदाहरण सब आगे की गाथाओं में प्रकट होगा। इनको संक्षेप में यों समझ लीजिए कि जैसे पृथ्वी है वह स्थूल-स्थूल है—हाथ में ले लो, फेंक दो, रख दो, अत: यह स्थूल-स्थूल है। जल को हम ईंट-पत्थर की भांति रख नहीं सकते, यह बिखर जाता है, ढेला नहीं बन सकता, किंतु पकड़ में आता है, इस कारण जल स्थूल है। जैसे स्थूलसूक्ष्म छाया है, यह पृथ्वी की तरह धरी भी नहीं जा सकती कि इस छाया को संदूक में भरकर रख लें और जल की तरह पकड़ी भी नहीं जा सकती। छाया को कोई पकड़ नहीं सकता है, किन्तु दिखती जरूर है, यह स्थूलसूक्ष्म है। रूप, रस, गंध, स्पर्श—ये विषय सूक्ष्मस्थूल हैं। देखो, ये खूब समझ में आ रहे हैं, पर इन्हें देख भी नहीं सकते, छाया की तरह इनका मोटारूप नहीं है और कर्मो की योग्य पुद्गलवर्गणाए हैं, ये सूक्ष्म हैं। कर्मवर्गणा के योग्य पुद्गल ये अतिसूक्ष्म हैं। यह सब वर्णन आगे की गाथाओं में आएगा, यहाँ तो परमाणु का स्वरूप विशेषरूप से समझो।
लोकयात्रा का साधन—अणु में गलन स्वभाव है। गलने से अणु पैदा होते हैं, बिखरने से, अलग होने से अणु बनते हैं और पूर जाने से, संचय हो जाने से स्कंध नाम पड़ता है। यो पुद्गल के इस क्रम से भेद कहे गए हैं कि मूल में वे दो प्रकार के हैं—स्वभावपुद्गल और विभावपुद्गल। स्वभावपुद्गल नाम है परमाणु का और विभावपुद्गल नाम है स्कंध का। स्वभावपुद्गल दो प्रकार के हैं—कार्यपरमाणु और कारणपरमाणु और विभावपुद्गल 6 प्रकार के कहे गए हैं। इन पुद्गलपदार्थों के बिना लोकयात्रा नहीं बन सकती। शायद आप लोकयात्रा समझ गए होंगे। शिखरजी, गिरनारजी आदि की यात्रा इन पैसे पुद्गलों बिना न होती होगी। यही ध्यान में होगा तो यह भी थोड़ा-थोड़ा लगा लो, पर यहाँ तो लोकयात्रा से मतलब है कि यह संसारीजीव संसार में डोलता रहता है। इतनी लम्बी लोकयात्राए पुद्गल के बिना नहीं हो सकती हैं।
परेशानी की प्रायोजिका लोकयात्रा—भैया ! पुद्गलद्रव्य का जानना भी अतिआवश्यक है, जिसके सम्बन्ध से यह जीव भटक रहा है। जिससे हमें छूटना है, उस पुद्गल की भी तो बात देखो—कितनी लम्बी-लम्बी यह जीव यात्रा करता है? मरने के बाद तो बड़ी तेज यात्रा होती है। एक-एक समय में 7-7, 10-10, 14-14 राजू तक चला जाए—ऐसी लम्बी लोकयात्राए इस जीव की पुद्गलद्रव्य के बिना नहीं होतीं। यद्यपि एक समय में मुक्त जीव भी 7 राजू तक यात्रा करता है, किंतु उसे यात्रा नहीं कहते हैं। यात्रा तो वह है जहा यह जीव भटकता है, जिसके बाद फिर वापिस डोलता है, उसी का नाम यात्रा है।संसार जीव कहीं से कहीं भी पहुंचे, उसे फिर भी भटकना है। देखो तो, कहा-कहाभटककर आज मनुष्यभव में पैदा हो गए? यहाँ जो कुछ मिला, उसी में मग्न हो गए। है कुछ नहीं और मग्नता इतनी विकट हैकि हैरानी हो रही है, छूट नहीं सकते। मन में दृढ़ता आए तो छूटने में भी विलम्ब नहीं है, पर दृढ़ता नहीं ला सकते और है कुछ नहीं। कहीं के पटके आज यहाँ हैं, यहाँ से गुजरकर कल कहीं पहुंच गए, कुछ भी तो सम्बन्ध नहीं है। लेकिन यह लोकयात्रा इस जीव को परेशान कर देती है।
परेशानी शब्द का भाव—परेशान शब्द का अर्थ क्या है? परेशान शब्द है तो उर्दू का, पर इसका संस्कृत में अर्थ होता है ‘पर है ईशान जिसका’। उसे कहते हैं परेशान। परेशान का जो परिणाम है उसका नाम परेशानी है। ईशान मायने मालिक, परपदार्थ है मालिक जिसका। उस जीव को कहते हैं परेशान।जिसने अपने को पर के लिए सौंप रखा है, मैं तो इसका हू—ऐसा जिसने भाव बनाया है, उसका नाम है परेशान अर्थात् परतन्त्र और परेशान का परिणाम है परेशानी अर्थात् परतन्त्रता। यहाँ इस जीव को परेशानी है पुद्गल के सम्बन्ध से। इसमें भी मूल अपराध अपनाहै। पुद्गल का क्या अपराध है? वह तो अचेतन है, उसमें तो कोई आशय ही नहीं है। उसने क्या अपराध किया? अपराध है यहाँ खुद का कि जो अपने सहजज्ञानस्वरूप से चिगकर अज्ञानभाव में रत हो रहे हैं। अज्ञानभाव है विषय और कषाय के परिणाम। उन विषयकषायों में रति होने के कारण यह जीव अपराधी है, जिससे यह दु:खी है, परेशान है।
[नोट:—यहाँ इस प्रसंग से आगे की कुछ हस्तलिपि गुम हो गई है। अत: इसका हमें अफसोस है।]
कर्म की भिन्नता व निमित्तनैमित्तिकता—इन कर्मों को टालने के लिए जीव समर्थ नहीं है ऐसा लोग कहते हैं। यह बात पूर्णरूप से ठीक है, कर्म तो परद्रव्य है। आत्मा कैसे टालेगा? अपने विभावों को उपयोग से हटाकर शुद्ध ज्ञानस्वरूप में पहुंचे—ऐसी बात तो की जा सकती है। कर्म अपने आप टल जायेंगे, मिट जायेंगे। उनको मिटाने का लक्ष्य बनाकर कोई यत्न करे तो मिटता नहीं है। निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध की प्रधानता रखकर विनती और स्तुतियों में अनेक बातें पायी जाती हैं, वे असत्य नहीं हैं, किंतु उनका मर्म जानना चाहिए। जैसे कहते हैं कि ‘कर्म महारिपु जोर, एक न काम करे जी’कितना भी कहो एक भी प्रार्थना नहीं सुनते—ऐसे महारिपु ये कर्म हैं। सो मनमाना देख लो, किसी से नहीं डरते हैं। अरे !वे बेचारे अचेतन खुद अपनी परिणति से विभावरूप परिणमने वाले ईमानदार हैं। कभी धोखा नहीं देते, जैसे हैं तैसे ही सामने हैं। उन कर्मो का निमित्त पाकर यह जीव दु:खी होता है। इस सम्बन्ध को लेकर उस ओरसे यह बात कही जाती है और फिर प्रभु से हम विनती करते हैं कि ‘दुष्टन देउ निकारि साधुन को रख लीजै’अर्थात् इन दुष्ट कर्मों को हे भगवान ! निकाल दो और जो हम साधु हैं, बड़े अच्छे हैं, हमें रख लीजिए अथवा हममें जो गुण भरे हैं, उनको तो ठीक कर दो और इन कर्मों को निकाल दो। यह कर्मों की प्रधानता का स्तवन है।
स्तवनपद्धतियां—कभी तो निमित्तों की प्रधानता का स्तवन होता है। जैसे मानों भगवान के ऊपर दया करके कहते हो कि हे भगवान् ! तुम अनगिनते जीवों को तारते-तारते थक गए हो, इसलिए तारना तो हमें भी, पर धीरे-धीरे तारना। भगवान पर दया कर रहे हैं। थके-थकाये भगवान को सता नहीं रहे हैं कि हमें जल्दी-जल्दी तारो, बल्कि कह रहे हैं कि हमें धीरे-धीरे तारो। बड़ी दया की दृष्टि जाहिर करके भगवान की स्तुति जाहिर की जा रही है और कहीं कुछ उनके उलहाने की दृष्टि से उनकी स्तुति कर दी जाती है। हमें क्यों नहीं तारते भगवन? हमें क्या है? न तारो, पर बुराई तुम्हारी ही होगी कि ये कैसे तारनतरन है कि यह भक्त तो ऐसी निष्कपट भक्ति कर रहा है और भगवान कुछ विवेक भी नहीं करते। अत: कितने ही प्रकार से स्तुतियां की जाती हैं।
कर्म पर अवशता—कर्मों का सम्बन्ध बताकर प्रभु से निवेदनरूप जो इस प्रकार की स्तुतियां की जाती हैं, वे निमित्त की प्रधानता रखकर की जाती हैं। ये हैं और जीव के साथ निमित्तनैमित्तिक बन्धन को लिए हुए हैं, पुद्गलस्कंध हैं, फिर भी ये परपदार्थ हैं, इन पर हमारा बस नहीं है। हमारा बस निजविभावों पर है, स्वभाव पर है। ये कर्म सूक्ष्मविभावपुद्गल हैं।
सूक्ष्मसूक्ष्मविभावपुद्गल—अब सूक्ष्मसूक्ष्मविभावपुद्गलकी बात सुनिए। हैं तो कार्माणवर्गणाए, जाति तो वही है, फिर भी उनमें अनन्तवर्गणाएऐसी रहती हैं कि वे कर्मरूप बन ही नहीं पातीं, वे सूक्ष्मसूक्ष्मपुद्गलस्कंध कहे गए हैं। कर्म बनने के अयोग्य कार्माणवर्गणायें सू्मसूक्ष्मविभावपुद्गल हैं।
अविवेक नाट्य—यह जीव नाना प्रकार के देहों में बंध-बंधकर उस काल में एक विभावपर्यायरूप बनकर इस लोक में बड़ा नृत्य कर रहा है। अत: जीव के स्वरूप को देखो कि वह तो एक शुद्ध ज्ञायकस्वरूप है। जितना यह नृत्य हो रहा है, यह अविवेक का नृत्य है। इस अविवेक के नृत्य मेंवर्णादिक पुद्गल नाचते हैं। ये पुद्गल ही अनेक प्रकार से दिखाई देते हैं। जीव तो अनेक प्रकार का है नहीं। मूल में जीव तो एक शुद्ध ज्ञायकस्वरूप है और ये पुद्गलस्कंध नानारूप हैं। अत: जो एक ही आत्मतत्त्व है, वह तो जैसा है वहीं अवस्थित है। जिस दृष्टि को लेकर अपरिणामवाद ने यह बात जाहिर की है कि आत्मा एक है, सर्वत्रव्यापक है, उसकी छाया पाकर ये मन और शरीर सब जीवरूप पर्यायों को रखते हैं।
स्याद्वाद व पक्षाग्रह से सत्यता व असत्यता—जैनसिद्धान्त की भाषा में आत्मस्वरूप को आत्मा मान लिया जाए तो वे सब बातें घटित हो जाती हैं। आत्मद्रव्य तो प्रतिव्यक्ति जुदा-जुदा है, उसका समस्त परिणमन जुदा-जुदा है, किन्तु उन सबका स्वरूप क्या जुदा-जुदा है? स्वलक्षण और स्वभाव जो एक जीव का स्वरूप है, वही दूसरे जीव का भी स्वरूप है। केवल स्वरूपदृष्टि को ही लखा जाए तो वह एक है, किन्तु स्वरूपदृष्टि से लखने की तो बात थी और लखने लगे प्रदेशवान की दृष्टि से तो वह कथन अब स्याद्वाद से मेल नहीं खाता है। जैसे अंधे को बताना तो है खीर का स्वाद, पर खीर जैसा सफेद बगुला होता है। अत: बगुला की जैसी चोंच हाथ को बनाकर अंधे के आगे रख दे तो जैसे वह विडम्बनाहै, वैसे ही आत्मस्वरूप की दृष्टि से जो विवरण है, वह व्यापक है, एक है, अपरिणामी है। सब सही बातें हैं, किन्तु उस विषय को स्वभाव की दृष्टि से न तककर, बल्कि स्वभाववान् यह आत्मा है और आत्मपदार्थ है, प्रदेशवान् है, ऐसे धीरे-धीरे फैलकर, ऐसे तत्त्व की ओरझुककरसर्वथा जब यह कहा जाने लगा कि आत्मा तो एक है, व्यापक है, भिन्न-भिन्न तो है ही नहीं। जीव के यह भ्रम हो गया है कि मैं अमुक हू, अमुक हू और इस भ्रम से संसार में भटकता है, ऐसा कथन बन गया है।
प्रकरण से प्राप्तव्य शिक्षा—स्वभावदृष्टि से देखो तो जीव एकस्वरूप है, वह नृत्य नहीं करता, किन्तु इस अविवेक के नाच में ये वर्णादिमान् पुद्गल ही नृत्य करते है। यह जीव तो रागादिकपुद्गलविकारों से रहित शुद्ध चैतन्यस्वरूप है—ऐसी भावना के लिए यह वर्णन चल रहा है।
निवर्त्यमान पदार्थों के परिज्ञान की आवश्यकता—6 प्रकार के विभावपुद्गलों का अभी वर्णन किया गया है। नाना प्रकार के पुद्गल यद्यपि दिख रहे हैं, किन्तु है भव्य पुरुषोत्तम ! तुम उन किन्हीं भी पुद्गलों में प्रेमभाव को मत करो। जिनमें प्रीति नहीं करनी, जिनमें मोह नहीं बसाना, उन पुद्गलों का अभी वर्णन चल रहा था। जिससे प्रीति नहीं करनी, उनको यह बताने की आवश्यकता हुई है कि अनादि से ये जीव उनमें मोह किए आ रहे हैं। जिनमें मोह किए आ रहे हैं, उनकी असलियत न मालूम पड़े तो वहाँ से मोह कैसे हटाया जाय? ये समस्त पुद्गल जड़ हैं, मूर्तिक हैं, मेरे चित्स्वभाव से अत्यन्त भिन्न हैं, उन पुद्गलों में हे भव्य पुरुषोत्तम !तू रति भाव को मत कर।
पररतिपरिहार व निजरतिपरिहार—भैया ! रति तो चैतन्यचमत्कार मात्र अपना जो आत्मस्वरूप है उसमें कर। इसके प्रताप से तू परम श्री जो अनन्तचतुष्टय लक्ष्मी है उसका अधिकारी होगा। ये पुद्गल के वर्णन राग करने के लिए नहीं किए गए हैं किन्तु राग हटाने के लिए किए गए हैं। इनमें तेरा कोई गुण नहीं है। इन पुद्गलों में दृष्टि लगाकर इनमें ही संग्रह विग्रह की कल्पनाएकरके अपना घात क्यों किया करते हो? इन सब पुद्गलों से अत्यन्ताभाव रखने वाले इस निज चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मतत्त्व को देखो।
पुद्गल के प्रकरण में सर्वप्रथम कारणपरमाणुओं, और कार्यपरमाणुओं का जिक्र किया था। अब उस ही स्वभावपुद्गल के इन दो भागों का वर्णन श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव करते हैं।