वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 43
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णिद्दण्डो णिद्वन्द्वो णिम्ममो णिक्कलो णिरालंवो।
णीरागो णिद्दोसो णिम्मूढो णिब्भयो अप्पा।।43।।
इस गाथा में यह दर्शाया है कि इस शुद्ध आत्मा के अतिरिक्त याने स्वयं सहज अपने आप ही यह जिस प्रकार है, जिस स्वभाव में है, उस वाले स्वभाववान् आत्मा के अतिरिक्त जितने भाव हैं, उन समस्त विभावों का अभाव है इस शुद्ध जीवास्तिकाय में। उन विभावों के निषेधरूप कुछ वर्णन चलेंगे।
आत्मा की निर्दण्डस्वरूपता—यह आत्मा निर्दण्ड है। दण्ड तीन होते हैं—मनोदण्ड, वचनदण्ड, कायदण्ड। लोग समझते हैं कि मैं मन से खूब मनसूबे बांधता हू, सही व्यवस्था का कार्यक्रम बनाता हू, मैं प्रबन्ध और व्यवस्था में अधिक चतुराई रखता हू, मेरी प्रतिभास, मेरा विचार बिल्कुल व्यवस्थित चलता है। आचार्यदेव यहाँ बतला रहे हैं कि मन के जितने भी विकल्प हैं, वे सब दण्ड हैं, तेरे स्वभाव नहीं है, ऐश्वर्य नहीं हैं, हितरूप नहीं हैं, वे सबके सब दण्ड हैं। शुभ विकल्प हों अथवा अशुभ विकल्प हों, जितनी भी मन की क्रियाएं हैं, सब मनोदण्ड हैं। हाँ, इतना अन्तर अवश्य है कि अशुभ विकल्पों में पाप का बंध चलता है और शुभ विकल्पों में पुण्य का बन्ध चलता है, किन्तु विकल्प आत्मस्वभाव के अनुभव के विरुद्ध है। जब तक मन के संकल्प विकल्प रहते हैं, तब तक हमारा यह परम सर्वस्व जो निज सहजभाव है और यह जो कारणपरमात्मतत्त्व है, उसका दर्शन नहीं हो पाता है।
शुभ मन का उपकार—फिर भी जब भी इस समयसार के दर्शन होने को होंगे तो उससे पहिले मन के शुभ संकल्प विकल्प होंगे। अशुभ संकल्प विकल्प के बाद आत्मानुभाव किसी को नहीं होता। इस कारण यत्न तो यह भी किसी पदवी तक ठीक है कि अशुभ विचार दूर करें और शुभ विचार बनावें। इससे हम आत्मसिद्धि के सम्मुख होंगे और फिर लौकिक बात यह है कि अशुभ विकल्प बनाए रहेंगे तो हमारे वचन और काय की चेष्टा भी अशुभ बनेगी, जो दूसरे जीव के विरुद्ध पड़ेगी और लौकिक आपत्ति इसके ऊपर आएगी। इस कारण भी अशुद्ध विकल्प न करना। अशुभ विकल्प करने में तत्काल अशांति रहती है। हम आपका बुरा विचारेंगे तो खुद में भी बड़ी अशांति करनी पड़ेगी। शांत रहकर, सुखी रहकर हम किसी का बुरा विचार नहीं सकते। जब बुरा विचारेंगे तो खुद को बुरा देखना पड़ेगा, तब हम दूसरे का बुरा विचार सकते हैं। भला बुरा विचारने में, अशुभ संकल्प में कौनसी अपनी सिद्धि है? परेशानी और हैरानी सारी की सारी है। इस लिए अशुभ संकल्प विकल्प का परिहार करके शुभ संकल्प विकल्प में आए लेकिन धर्म के मार्ग में मोक्ष के पथ के लिए आत्मा के हित के अर्थ वहाँ भी यह जानते रहें कि जितनी भी मन की प्रतिक्रियाएं हैं, मन की चेष्टाएं हैं, वे सब मनोदण्ड कहलाती हैं।
निर्दण्डता में आत्मरसास्वादन—यह आत्मस्वभाव मनोदण्ड से परे है। जैसे यह शुद्ध परमात्मदेव आंखों से नहीं देख सकता, अन्य इन्द्रियों के द्वारा ज्ञान में नहीं आ सकता, इसी प्रकार यह शुभ परमात्मदेव मन के विकल्पों के द्वारा भी ग्रहण में नहीं आता। भले ही तुम परमात्मतत्त्व की चर्चा कर लो, पर चर्चा करना और बात है, अनुभवन करना और बात है। जैसे मिठाई की चर्चा में और मिठाई के खा लेने में जितना अन्तर है, उतना ही अन्तर इस आत्मतत्त्व की चर्चा में और आत्मतत्त्व के अनुभव में है। चर्चा में वह रस नहीं आता और कदाचित् मिठाई की चर्चा करते-करते भी एक बूंद थूक भी उतर आए और कुछ अच्छा सा लगे तो वह भी चर्चा का प्रसाद नहीं है। पहिले मिठाई खायी थी, उसका स्मरण हुआ तो चर्चा में थोड़ा रस आया। इसी तरह आत्मतत्त्व की चर्चा करते हुए में जो आपको आनन्द आता है उसे यों समझिये कि आत्मतत्त्व के सम्बन्ध में अपने चिंतन, मनन, अनुभवन द्वारा जो रसास्वाद लिया उसका प्रसाद है कि आत्मा की चर्चा सुनकर उसमें कुछ प्रसन्नता प्रकट हुई है।
प्रभुमिलनपद्धति—अब इस आत्मतत्त्व का अनुभव मन के विकल्प से परे है। इसके सिद्धान्त में यों समझिये कि जैसे राजा से मिलने का इच्छुक कोई पुरुष चलता है तो दरबार के दरबान से वह कहता है कि मुझे राजा से मिला दो। तो दरबान का काम इतना ही है कि जहा राजा विराजे हों वहाँ निकट स्थान तक पहुंचा देना। बाद में राजा से मिलना, स्नेह बढ़ा, काम निकालना यह सब राजा और दर्शक की परस्पर की बात है। उसमें दरबान क्या करेगा? इसी कारणपरमात्मतत्त्व के दर्शन का अभिलाषी भक्त पुरुष इसके दरबान मन कहता है कि मुझे उस कारणपरमात्मतत्त्व के दर्शन करा दो, तो यह दरबान मन इस दर्शनार्थी उपयोग को ले जाता है। कहां तक? जहां तक इस समयसार प्रभु के दर्शन हो सकते हों उस सीमा तक वहाँ यह मन छोड़ आता है, लो इस जगह बैठा है परमात्मप्रभु। इस मन का काम यहाँ तक तो चला। अब इसके बाद प्रभु से मिलना और प्रभु में एकरस होना, स्पर्श होना, अनुभव होना, विशुद्धि बढ़ाना, मोक्षमार्ग का काम निकालना, यह तो भक्त और प्रभु के परस्पर की बात है। इसमें दरबान मन क्या करेगा? फिर भी शुभ मन की चेष्टा और प्रभुमिलन के अर्थ शुभ मन की चेष्टा बहुत काम निकाल देता है।
शुद्धजीवास्तिकाय में मनोदंड का अभाव—भैया ! इतने उपकारी मन के उपकार होने पर भी ज्ञानी पुरुष कहता है कि यह भी मनोदण्ड है। वह दरबान दर्शनार्थी सेठ को चौक तक तो छोड़ आया किन्तु वह वहाँ ही साथ बना रहे तो राजा से भेंट नहीं हो सकती। छोड़कर चला आए अपनी ड्यूटी पर दरबार से बाहर तो काम निकलता है। यों ही यह मन शुभ तर्क वितर्कों द्वारा इस उपयोग भक्त को इस परमात्मप्रभु के दरबार तक छोड़ आये तो काम बनेगा, यदि वहाँ ही साथ रहा करे यह मन, संकल्प विकल्प का यह उपयोग परिहार न करे तो प्रभु के दर्शन नहीं हो सकते। इस कारण मन के व्यापार को मनोदण्ड कहा है। अब शुद्ध आत्मस्वभाव मनोदण्ड के विकार से रहित है।
जीव में वचनदण्ड का अभाव—दूसरा दण्ड है वचन दण्ड, वचन बोलना। मनुष्य सोचते हैं कि मैं बुरा बोलकर और नाना व्यंग मजाक रंग ढंग से बड़ी वचन कला दिखाकर मैं बहुत अच्छा कहलाता हू, मैं ठीक काम कर रहा हू। आचार्यदेव कहते हैं कि हंसी मजाक व्यंग अप्रिय अहित वचन की तो बात क्या, जो हितमय हो, प्रिय हो, शिवमार्ग में लगाने के ध्येय से बोली जा रही हो फिर भी वचन की चेष्टामात्र वचनदण्ड कहलाता है। जब तक वचनदण्ड का कार्य चल रहा है तब तक इस जीव का प्रभु से अहित नहीं होता। यह वचनावली भी प्रभुमिलन के लिए कुछ सहायक तो है पर यों समझिए कि यह वचन दरबार के बाहर दरबान का नहीं है, किन्तु कोट के बाहर का दरबान है। यह प्रभुमिलन का काम कराने के लिए मन के माफिक अधिक घुस पैठ वाला नहीं है। फिर भी वचनव्यवहार न हो तो मोक्षमार्ग की बात कैसे प्रसारित हो सकती है? ये शुभ वचन हितकारी हैं, सबसे उपकारी हैं, तिस पर भी ज्ञानी संत की दृष्टि यह है कि यह वचनकलाप भी वचनदण्ड है। यह शुद्ध आत्मतत्त्व इस वचनदण्ड से निष्क्रान्त है।
जीव में कायदंड का अभाव—तीसरा दण्ड है कायदण्ड। शरीर की चेष्टाएं करना कायदण्ड है। कायदण्ड भी दो प्रकार के हैं—एक अशुभ कायदण्ड और एक शुभ कायदण्ड। विषयों की परिणति और पापों के अर्थ होने वाले शरीर की वृत्ति—ये सब अशुभ कायदण्ड हैं। पूजा, दया, दान, गुरुसेवा, सत्संग आदि कायों के लिए होने वाले काय की परिणति शुभकाय परिणति है। फिर भी आचार्यदेव बतला रहे हैं कि अशुभ कायपरिणति तो कायदण्ड है ही, भयानक कायदण्ड है, किन्तु शुभ कायवृत्ति भी कायदण्ड है, आत्मस्वरूप नहीं है। इस शुभ अंतस्तत्त्व के कायदण्ड नहीं होता।
तीन दंडों के कहने का कारण—भैया ! यहाँ तीन दण्ड बनाए, इतना सुनकर कहीं खुश न हो जाना कि इसमें धनदंड बताया ही नहीं है। इसको तो छूट दे दी होगी, धनदण्ड में दोष नहीं लगता होगा, पर बात ऐसी है कि इस धन का तो आत्मा के साथ जरा भी सम्बन्ध नहीं है। उसकी तो चर्चा ही क्या करना है?वह तो अत्यन्त पृथक् है। इस आत्मा के साथ मन, वचन, काय का तो कुछ सम्बन्ध है। आप यहाँ मंदिर में आये हो तो तन भी साथ लाये हो, मन भी साथ लाये हो और वचन भी साथ लाये हो पर धन साथ नहीं लाए हो। कोई कहे कि अच्छा लो हम कल से धन भी साथ लायेंगे, तो हठ की बात जुदी है। आप जानकर कुछ करें, पर तन, मन, वचन तो ऐसे हैं कि इन्हें आप हटाकर आ ही नहीं सकते।
मन, वचन, काय की जीव से कुछ निकटता—अच्छा कल से आप काय को अपने साथ न लाना और आप ही अकेले आना, यह बात शायद न बन सकेगी। अच्छा खैर काय की छूट है, आप मन साथ न लाना। मन को अपने घर में धर आना। कोई यह सोचे कि यह बात तो हो जायेगी। बैठे यहाँ रहेंगे और मन घर भेज देंगे। तो यह बात नहीं कह रहे हैं। मन को कोई घर में नहीं धर सकता। इस मन में चाहे विकल्प बसा लो पर मन को उठाकर घर में धरना हो ही नहीं सकता। यह तो उपचार कथन है कि मेरा मन घर में है। मन भी आप घर में छोड़कर नहीं आ सकते। यदि कहें कि अच्छा आप वचन घर पर ही छोड़ आना और फिर यहाँ पर आना, तब शायद कोई यह सोचे कि यह बात तो बन जायगी, आकर हम मौन से बैठ जायेंगे, एक शब्द भी न बोलेंगे। अरे तो भले ही औंठ बन्द करके बैठ जाओ, पर भीतर में कोई शब्द न उठे, गुनगुनाहट न चले, ऐसा करके कोई दिखाए तो जानें कि आप वचन छोड़कर आए हैं। मन-वचन-काय हमारे निकट हैं। धन छोड़कर तो आ सकते हैं, इस कारण दण्ड में मन-वचन-काय बताए गए हैं। धन की तो चर्चा ही नहीं की है। वह तो प्रकट जुदा है, निराला है।
दण्डों के हेतुओं का भी जीव में अभाव—इन तीनों प्रकार के दण्डों में योग्य द्रव्य कर्म और भावकर्म का अभाव है अथवा जैसे यह दण्ड प्रवर्त सकता है। उनके कारण भावद्रव्यकर्म का भी स्वीकार आत्मस्वभाव में नहीं है और हो रहे भावकर्म का भी स्वीकार आत्मस्वभाव में नहीं है, फिर मनोदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड इनका स्वीकार कैसे हो? यह आत्मा तो निर्दण्ड है, दोनों प्रकार के दण्डों से परे है। यह चर्चा चल रही है उस शुद्ध शरण परमपिता की जिसकी कृपा बिना, जिसके प्रसाद बिना आत्मा में इस शांति का अभ्युदय नहीं हो सकता।
परमपदार्थ की दृष्टि बिना विडम्बनाएं—इस परमपदार्थ की दृष्टि बिना ये जगत् जीव निरन्तर व्याकुल हो रहे हैं। कोई घर को ही अपना सर्वस्व मानकर घर का पक्ष करता है और अन्य घरों के खिलाफ बनता है। कोई अपनी जाति को ही सर्वस्व मानकर जाति का पक्ष करता है और गैर जाति के खिलाफ विचार बनता है। कोई अपने समाज को ही सर्वस्व जानकर समाज का पक्ष करता है और कोई गैर समाज के खिलाफ बनता है। कोई अपने देश को अपना सर्वस्व मानकर उस देश का पक्ष करता है और बाकी देशों के खिलाफ विचार बनाता है। ज्ञानी संत की वृत्ति यह है कि जाति अपेक्षा देखें तो सारा जीवलोक मेरा है। उसमें यह छटनी नहीं है कि यह अमुक जीव मेरा हैं, बाकी जीव गैर हैं और व्यक्तित्व की दृष्टि से निहारें तो मेरा मात्र मैं हू, अन्य समस्त जीव मुझसे अत्यन्त एकसमान जुदे हैं।
जीव की निर्द्वन्द्वता—देखो भैया! चलो और आओ, यहाँ जिसकी चर्चा की जा रही है। शुद्ध आत्मतत्त्व की यहाँ चर्चा की जा रही है। इस शुद्ध आत्मतत्त्व में कोई द्वन्द्व नहीं है, यह निर्द्वन्द्व है। द्वन्द्व का अर्थ है दो होना। दो का नाम द्वंद्व है, किसी दूसरी चीज का न होना भी निर्द्वन्द्वताहै। कोई पुरुष जब शांत और संतुष्ट होकर कहता है कि लो मैं अब निर्द्वन्द्व हो गया हू। इसका अर्थ यह है कि अब मेरे विचार में किसी दूसरे का कोई कार्य करने को नहीं रहा। मेरे चित्त में अब किसी दूसरे का बोझ नहीं रहा। एक लड़का और रह गया था हिल्ले से लगाने के लिए, उसको भी अच्छी जगह मिल गयी है, वह भी बोझ मिट गया। एक लड़की शादी को रह गयी थी, सो उसकी भी शादी कर दी। अब हम बिल्कुल निर्द्वन्द्व हो गए। अरे इस निर्द्वन्द्व के मर्म में क्या भरा हुआ है? मैं अकेला रह गया, मैं स्वतन्त्र हो गया, यह हैं निर्द्वन्द्वता का अर्थ। निश्चय से इस परमपदार्थ आत्मतत्त्व से व्यतिरिक्त अन्य समस्त पदार्थों का अभाव है, एक में दूसरा नहीं है। एक में दूसरी चीज आ ही नहीं सकती।
एकक्षेत्र समागम में भी जीवों में पर का अत्यन्ताभाव—कदाचित् एक प्रदेश पर अनन्त परमाणु भी ठहर जायें और अनेक परमाणु एकपिण्डबद्ध होकर भी एक प्रदेश पर ठहर जायें, तिस पर भी किसी परमाणु में किसी अन्य परमाणु का प्रवेश नहीं है। क्षेत्र प्रवेश हो गया, मगर स्वक्षेत्र प्रवेश नहीं है। किसी के क्षेत्र में कोई दूसरी वस्तु नहीं समा सकती। यह मैं आत्मा ज्ञानघन आनन्दमय अपने स्वरूप को लिए हुए हू। इसमें न द्रव्यकर्म का प्रवेश है, न शरीर का प्रवेश है, न अन्य स्थानों का प्रवेश हैं। यह तो अपने ही स्वरूप में है। परद्रव्य की चर्चा तो बाहर की बात हैं। उपाधि का निमित्त पाकर होने वाले रागद्वेषादिक परिणाम विभाव सब भी मेरे कुछ नहीं हैं। ऐसे समस्त पदार्थों से पृथक् यह मैं आत्मा निर्द्वन्द्व हू। इस शुद्ध आत्मा में यह ही स्वयं बना हुआ है। इसमें किसी दूसरी वस्तु का प्रवेश नहीं है—इस बात की श्रद्धा आ जाए तो आज से ही यह आनन्दमय जीवन हो जाए।
अपने संभाल की करामात—भैया ! क्या है दुनिया में विपदा?यों घर रहा, यों न रहा, रहो, न रहो, परिणति है यह उसकी। इतने परिजन का संयोग है, अब नहीं रहा, उदय उनका है। इस निजस्वरूपमय आत्मतत्त्व में कौनसी हानि पड़ गयी? जब यह जीव अपने ज्ञानभाव में नहीं संभलता है तो पर की ओर दृष्टि बनाकर आकुल व्याकुल होता रहता है। यहदेखो इस निज शुद्ध जीवास्तिकाय को अपने आप अपने सत्त्व के कारण जो शाश्वत सहजस्वभाव होता है, उसमें अपना उपयोग देकर जरा दर्शन तो करो इस निज कारणसमयसार के, इस निज परमात्मतत्त्व के। इसमें किसी चीज का प्रवेश नहीं है, यह स्वयं अपने में परिपूर्ण है।
आत्मा की स्वयं परिपूर्णता—इस परमात्मपदार्थ में जितने भी परिणमन चलते हैं, वे सब भी परिणमन की कला में परिपूर्ण परिणमन हैं और वर्तमान में हो रहा परिपूर्ण परिणमन परिपूर्णरूप से प्रलय को प्राप्त हो जाता है तो यह प्रलयरूप परिणमन भी एक नवीन परिपूर्ण परिणमन का अभ्युदय करके प्रलीन होता है—ऐसा यह परिपूर्ण परमात्मदेव समस्त अन्य पदार्थों की दखल से तो दूर है ही और यह तो अपने आपमें शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप को लिए हुए है।
निर्दण्डतापूर्वक निर्द्वन्द्वता में अपूर्व प्रभुमिलन—ज्ञानीसंत पुरुष तो तीनों प्रकार के दण्डों से पृथक् निज आत्मस्वरूप की समझ करके और उन सभी दण्डों की कृपा से कुछ प्रभु के आवास के निकट पहुंचकर उन दण्डों से विदा मांगकर खुले स्वरूप से, खुले उपयोग से प्रभु से मिलता है, जिसे कहते है कि अमुक पुरुष ने अमुक नेता से खुब खुली बातचीत की। कोई दूसरा साथ हो तो खुली बात करते नहीं बनता। ये तीनों दण्ड साथ हों तो प्रभु से खुलकर मिलन नहीं हो सकता। ऐसे प्रभु के प्रसाद को प्राप्त करके उस आनन्दरस से आनन्दमग्न होकर जब छक लेते हैं, संतुष्ट होने लगते हैं, कुछ अब फिर व्यवहार में आते हैं तब उसे खबर आती है कि ओह ! वह अद्वैत मिलन बहुत अपूर्व था। इस शुद्ध अन्तस्तत्त्व में किसी भी अन्य पदार्थ का प्रवेश नहीं है। यह तो मैं ही स्वयं ज्ञानानन्दमय हू। ऐसे निर्दण्डता पूर्वक निर्द्वन्द्वता अनुभवन में ज्ञानानन्दरस निर्भर कारणसमयसाररूप सनातन चैतन्यमहाप्रभु से अपूर्वमिलन हो जाता है।
शाश्वत परमात्मतत्त्व—जिस तत्त्व के प्रति लोकजन की यह धारणा हो गयी है कि वह सृष्टिकर्ता है, जिस तत्त्व के प्रति विवेकशील जनों की यह धारणा बनी है कि वह एकस्वरूप है और घट-घट में विराजमान् है, उस ही तत्त्व के सम्बन्ध में यह विवरण चल रहा है कि वह तत्त्व कहीं बाहर नहीं है, किन्तु उस तत्त्वमय ही हम आप प्रत्येक जीव हैं। जैसे घी, दूध से तो अलग नहीं है, केवल दूध को घी देखने की विधि और पद्धति है। दूध को ही देखकर अनेक लोग यह बतला देते हैं कि इसमें इतना घी बनेगा। घी कहां है? न बाहर व्यक्त है, न उसे ले सकते हैं, फिर भी बता देते हैं। इसी तरह जो वर्तमान में जीव परिणति कर रहा है, ऐसी परिणति करते हुए जीव में भी ज्ञानी संत पुरुष यह देख लेता है कि इसमें यह कारणपरमात्मतत्त्व शाश्वत प्रकाशमान् है।
आत्मतत्त्व की निर्ममता—यह तत्त्व निर्मम है, ममतारहित है, धन वैभव देहादिक कुछ भी परपदार्थ मेरे हैं—इस प्रकार का जो ममकाररूप विभाव परिणाम है, उस विभाव परिणाम से रहित यह आत्मस्वरूप है, यह शुद्ध ज्ञायकस्वभावी है। इसमें केवल ज्ञानभाव और आनन्दभाव विदित होता है। यह काठ पत्थर की तरह किसी पिण्डरूप नहीं है। इसे किसी भी इन्द्रिय से देखा नहीं जा सकता है। इन्द्रिय की बात तो दूर रही, इस मन के द्वारा भी इस परमप्रभु से भेंट नहीं हो पाती है—ऐसा यह कारणसमयसार ममतापरिणाम से रहित है। इसमें किसी भी प्रकार का मोह रागद्वेष परिणाम नहीं है।
स्वरूप में विकार की अप्रतिष्ठा—जल अग्नि का सन्निधान पाकर गरम हो गया, किन्तु गरम हो जाने पर भी पुरुषों को और महिलाओं को यह विश्वास है कि यह गरमी जल में नहीं है, जल के स्वरूप में नहीं है, यदि यह विश्वास न हो तो उसे पंखे से हवा करके ठण्डा करने की क्यों तरकीब करें? क्या किसी ने आग को ठण्डा करने के लिए पंखा हिलाया है? नहीं। जल को ठण्डा करने के लिए पंखा हिलाते हैं। इस कारण उन्हें विश्वास है कि गरमी जल में प्रतिष्ठित नहीं है, आयी है यह गरमी निमित्त का सन्निधान पाकर, किन्तु जल के स्वरूप में नहीं है। इसी तरह ज्ञानी संतों को यह विश्वास रहता है कि आए हैं रागद्वेष, मोहभाव, अब ये भाव आत्मा के स्वरूप में नहीं हैं। शुभ और अशुभ सर्वप्रकार के रागद्वेष भाव इस जीवस्वरूप में प्रतिष्ठित ही नहीं हैं। इस ही कारण से तो यह आत्मतत्त्व निर्मम है।
स्वरूप में परभाव व पर का प्रतिषेध—भला यह मेरा है, इस प्रकार का परिणाम भी जब मेरा नहीं है तो जिस वस्तु में हम मेरेपन का विकल्प करते हैं, यह वस्तु मेरी कहां से हो सकेगी? न वस्तु मेरे में है, न ममता मेरे में हैं और ममता का कारणभूत जो मोहनीयकर्म का उदय है, यह मोहनीय कर्म का उदय भी मेरे में नहीं है। जिस अध्यवसान के उपादान से यह कर्मोदयकारी बन जाता है, वे अध्यवसान के लगाव भी इस शुद्ध जीवस्वरूप में नहीं हैं। यह चर्चा कहीं दूसरे की नहीं की जा रही है, यह चर्चा तो अपनी है, आपकी है, सबकी है। चर्म के नेत्रों से खोलकर बाहर देखने से इस मर्म से बहुत दूर जा गिरते हैं।
प्रभु की अनन्यमन से उपासना पर प्रभुप्रसाद की निर्भरता—इस मन में किसी भी भिन्न असार वस्तु का आदर करने से यह प्रभु मेरे से विविक्त हो जाता है। लोक में एक शरण दोस्त को भी अपना जब बनाया जा सकता है, तब सबसे अधिक प्रेम उस दोस्त पर उसे मालूम पड़ा। यदि वह समझ जाए कि यह अन्य मित्रों को मुझसे भी अधिक चाहता है तो उसकी मित्रता ठीक नहीं रह सकती है। इस उत्कृष्ट पावन तरणतारण प्रभु के हम कृपापात्र बनें तो हम तब ही कृपापात्र बन सकते हैं, जब एक मन से, सर्वप्रयत्नों से इस चैतन्यस्वरूप का ही आदर करें। यह पूर्ण निर्णय रहे कि चैतन्यस्वरूप का अर्थात् मेरा न कोई शरण है, न कोई रक्षक है, सब अहित हैं, भिन्न हैं, असार हैं। किसी का आदर मन में न रखें तो इस आत्मप्रभु का प्रसाद पाया जा सकता है।
जीव की सर्वत्र एकाकिता—इस जीव ने बाह्य पदार्थों में यह मेरा है, यह मेरा है, मैं इनका हू, इस दुर्बुद्धि से इसने संसार में जन्ममरण की परिपाटी बनायी है, हो जाय कोई मेरा तो उसको मेरा मानने में कोई बुराई नहीं है, पर निर्णय करके देखो कोई मेरा होता भी है क्या? वस्तुस्वरूप में ही गुञ्जाइश नहीं है कि कोई पदार्थ मेरा बन जाय। मनुष्य अपने भावों के अनुकूल जो चाहे अपनी कल्पनाएं बनाता है और जो चाहे मानता है पर रहता है अकेला का ही अकेला।
जीव की आद्यन्त एकाकिता पर एक दृष्टान्त—एक कोई संन्यासी था, वह नदी के उस पार पहुंचा। कुए पर एक स्त्री पानी भर रही थी, प्यास लगी, उससे पानी पिया, और कुछ कर्मोदय विपरीत था तो स्नेह हो गया दोनों में। दोनों साथ रहने लगे। अब कुछ समय बाद अपनी आवश्यकतावों की पूर्ति के लिए कुछ खेती बाड़ी की, गाय भैंस रक्खी। अब उस स्त्री के भी बच्चे हुए, गाय भैंस के भी बच्चे हुए, मन बहलाने को बिल्ली वगैरह पाल ली उसके भी बच्चे हुए। अब तो बड़ा परिवार संन्यासी जी का बन गया। अब किसी कारणवश वे सबके सब नदी के उस पार जाना चाहते थे तो नदी में से चला सारी गृहस्थी को साथ में लेकर। इतने में नदी का पूर आया और उसमें सब बह गये, बच्चे भी स्त्री भी, रह गया केवल वह अकेला, सो भुजावों से तैरकर उसी कुए पर पहुंचा। सोचता है कि यह वही कुवां है जब कि हम अकेले यहाँ आए थे और इतनी विडम्बनावों के बाद फिर यह वही कुवां है कि जहां हम फिर अकेले आए हैं।
आत्मा की एकाकिता—आत्मा का वही एकत्व स्वरूप है, वही अकेलापन है जिस अकेलेपन से तुम यहाँ आए थे। और बड़े हो गए तो विडम्बनाएं बढ़ती जा रही हैं। घर बन गए, दुकान हो गयी, पैसा बढ़ाने लगे, संतान हुई, रिश्तेदारियां बढ़ी, सारी विडम्बनाएं बढ़ी और अंत में वह समय आयेगा कि जैसा अकेला आया था वैसा ही अकेला जायेगा। जैसे उस संन्यासी ने वे विडम्बनाएं व्यर्थ मोल ली, पापबंध किया, रहा अंत में अकेला का ही अकेला। ऐसे ही यहाँ से प्राणी बीच में इतनी विडम्बनाएं कर लेते हैं, बखेड़ापन आरम्भ, परिग्रह, लड़ाई, विवाद, रागद्वेष, मैं-मैं, तू-तू, मेरा-तेरा द्वारा विवाद बनता चला जाता है और अंत में फिर रहता है यह अकेला का ही अकेला।
आत्मा का सर्वत्र एकत्व—ज्ञानी संत पुरुष यहाँ चिंतन कर रहे हैं कि यह मैं आत्मा सर्व परपदार्थों से विविक्त, परभावों से रहित निर्मम हू। मैं एक हू, अकेला हू, सबसे न्यारा शुद्ध हू। मैं न किसी परवस्तु को करता हू, न किसी परवस्तु को भोगता हू। मैं जो कुछ करता हू अकेला अपने आपमें, अपने आपको, अपने लिए अपने से करता रहता हू। जैसे कोई उद्यमी छोटा बालक अकेला भी हो कहीं तो भी वह खेल लेता है, आसमान से बातें करता है और किसी प्रकार अपना मन बहला लेता है। ऐसे ही ये सब जीव अकेले ही हैं और अकेले ही ये अपने आपमें अपने विकल्पों से खेलते रहते हैं। दूसरा तो कोई इनके साथ है ही नहीं।
आत्मा की सर्वविकारों से विविक्ता—यह मैं निर्मम हू, केवल हू, ममतारहित हू, इतना ही अर्थ नहीं यह तो उपलक्षण है। अर्थ लेना कि मैं सब विकारों से रहित हू। प्रयोजन निर्विकारस्वरूप देखने का है। जैसे कोई यह कह जाय अपने मुन्ना से कि हम मंदिर जाते हैं, देखो यह दही पड़ा है मटका में, इसे कोई बिलाव न खा जाय।, बिलाव से बचाना, तो क्यों जी अगर कोई कौवा आ जाय तो क्या मुन्ना यह सोचेगा कि पिताजी तो बिलाव को हटाना बता गए हैं, कुत्ता और कौवों को खाने दो। अरे प्रयोजन बिलाव नाम लेने पर भी यही है कि जितने इस दही के भक्षक हैं उन सबसे दही का बचाव हो। ऐसे ही निषेध तो किया है शरीर की ममता का कि यह आत्मा ममता से रहित हैं पर अर्थ यह लेना कि जितने भी परभाव, विकारभाव इस आत्मस्वरूप के बाधक है उन सब विकारों से रहित हू।
स्वरूप द्वारा स्व की अविनाशकता—भैया !अपना स्वरूप अपने विनाश के लिए नहीं हुआ करता है। किसी भी वस्तु का स्वरूप हो, अपने आपके विनाश के लिए कोई स्वरूप नहीं होता है। मेरा स्वरूप चैतन्यभाव अमूर्त है, जानने में नहीं आता। जानने में आ जा यतो फिर छूटता नहीं है। जब दृष्टि दे तब इसे निरख ले। ऐसा यह मैं निर्विकल्प ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मतत्त्व हू। यह बहुत संकट है जो चित्त में यह बैठा है कि मैं अमुकचंद हू, अमुक जाति का हू, अमुक पोजीशन का हू, इस देश का हू, इस गोष्ठी का हू, कुटुम्ब वाला हू इत्यादि जो अपने मन में आश्चर्य बने हैं यह इस जीव पर घोर संकट हैं। इस घोर संकट के दूर करने का उपाय जरासा ही तो है। किया जाय तो निरापद हो जाय, न किया जाय तो आपत्ति में तो पड़ा ही है।
आपत्ति से मुक्त होने का सुगम उपाय—जैसे जल के बीच कोई कछुवा अपना मुह ऊपर उठाए पानी में बहा चला जा रहा हे तो बीसों ही पक्षी उस कछुवे की चोंच पकड़ने के लिए मण्डराते हैं, निकट आते हैं, बड़े संकट छा जाते हैं, पर क्या संकट है, कछुवा में एक कला ऐसी है कि चार अंगुल पानी में अपनी चोंच नीचे कर ले तो उन पक्षियों के सारे आक्रमण विफल हो जाते हैं। जरासा काम है। इसमें श्रम भी नहीं है। बस चार अंगुल पानी में अपनी चोंच डुबा ले, लो सारे संकट दूर हो गए। ऐसे ही यह उपयोग जब अपने ज्ञानसमुद्र से, आनन्दसिन्धु से बाहर अपना मुख निकाले रहता है अर्थात् बाहरी पदार्थों में राग और आसक्ति बनाए रहता है तो सैकड़ों संकट इस जीव पर छा जाते हैं। बना-बनाकर सैकड़ों आपत्तियां यह जीव भोगता है किन्तु इस उपयोग में ऐसी भी एक कला है कि जरा मुड़कर अपने आपके स्वरूप को निरखे कि मैं एक अकेला हू और इस अकेले में ही रम जावे। परिवार के जनों के प्रति भी यह स्पष्ट बोध रहे कि वह पूर्णतया मेरे स्वरूप से अत्यन्त पृथक् है। ऐसे ज्ञानी संत जरा उपयोग को अपने अन्तर्मुख करके थोड़ा अन्दर धसते हैं कि ये सारे संकट एक साथ समाप्त हो जाते हैं।
आत्मा की निष्कलता—मैं निर्मम हू, रागद्वेष मोह आदि समस्त विकारों से स्वत: पृथक् हू। जिसकी शरण में पहुंच गए और वास्तविक शरण मिले, कभी धोखा न हो ऐसे इस ब्रह्मस्वरूप की यह याद की गई है। अब आत्मा की निष्कलता देखी जा रही है यह मैं आत्मा निष्कल हू। कल से रहित हू। लोग कहते हैं ना कलकल मत करो, अच्छा नहीं लगता। वह कलकल क्या है? कल मायने शरीर। शरीर शरीरों का झमेला शरीर शरीरों की लड़ाई, शरीर शरीरों का हल्लागुल्ला अच्छा नहीं लगता। कलकल अच्छी चीज नहीं है। तब फिर क्या करना? कलकल से दूर रहना, कल मायने है शरीर। इस शरीर से रहित शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मतत्त्व को अपने उपयोग में लेना यह कलकल से बचने का उपाय है। यदि निर्देह ज्ञान शरीरमात्र निज आत्मतत्त्व को न निरखें तो जन्मजन्मान्तरों में ये कलकल-कलकल लगाये रहेंगे अर्थात् शरीरों की परम्परा बराबर बनती चली जायेगी।
शरीर के भेद और औदारिक शरीर—कल होते है 5। औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तेजस और कार्माण—ये पाँच शरीर हैं। औदारिक शरीर मनुष्य और तिर्यंच के होता है। हमारे और आपके इस स्थूल कल का नाम औदारिक शरीर है और सब तिर्यञ्च भी जितने एकेन्द्रिय से लेकर और निगोद से लेकर पचेन्द्रिय तक है, उन समस्त तिर्यञ्चों के भी औदारिक शरीर होते हैं।
देवों का वैक्रियक शरीर—वैक्रियक शरीरदेव और नारकियों के ही होते हैं। देव के वैक्रियक शरीर होते हैं, वे ऐसी विक्रिया करते हैं कि छोटे बन जायें, बड़े बन जायें और कहो हजारों रूप रख लें। उनका मूल वैक्रियक शरीर तो जन्मस्थान के निकट ही रहता है, पर जगह-जगह कोई देव शरीर डोलता है तो वह उत्तरविक्रिया शरीर है अर्थात् वैक्रियक-वैक्रियक शरीर है, मूल शरीर नहीं है।
देवों के देह की पृथक्त्वविक्रिया—किसी समय मानों कि एक साथ 50 तीर्थंकर जन्म जायें एक ही दिन तो ऐसा हो सकता है कि नहीं? हो सकता है। भरतक्षेत्र में 1 तीर्थंकर जन्में और उसी समय ऐरावत में 1 तीर्थंकर उत्पन्न हों और उसी समय विदेह की 160 नगरी हैं, उनमें से अनेक नगरियों में एक-एक तीर्थंकर जन्म जायें, किन्तु अब अभिषेक करने वाला और व्यवस्था करने वाला एक इन्द्र है। तो क्या वहाँ वह ऐसी छटनी करेंगे कि फलाने तीर्थंकर का, पहिले सम्मान कर लें, उनका पहिले अभिषेक करेंगे, बाद में फिर यहाँ करेंगे? क्या इस तरह से अपने क्रम में कुछ क्रम बनायेंगे? नहीं। जन्में तो 50 तीर्थंकर एक साथ। यह सौधर्म इन्द्र वैक्रियक-वैक्रियक शरीर इतने बनाकर एक साथ सभी तीर्थंकरों का समारोह अभिषेक मना लेगा।
वैक्रियक-वैक्रियक शरीरों में मनोगति—अब प्रश्न यह रहा कि जब मन एक जगह होगा तो दूसरा शरीर रुक जाएगा। एक साथ सब शरीर कैसे चलेंगे? तो वैक्रियक शरीर बनाने में ऐसी हालत होती है कि जहां उस इन्द्र का मूल शरीर है अर्थात् सौधर्म नामक स्वर्ग में, तो वहाँ से लेकर जहा तक उसका वैक्रियक शरीर बना हुआ है, रास्ते में सर्वत्र आत्मप्रदेश रहते हैं और वह मन भी है और यह मन इतनी तीव्र गति से उन 50 शरीरों में चक्कर लगाता रहता है कि सब काम एक साथ होते रहते है। देवों के ऐसा अद्भुत वैक्रियक शरीर होता है।
अदृश्य वैक्रियक शरीर—नारकियों के भी ऐसा अद्भुत वैक्रियक शरीर होता है कि उनको जब जरूरत पड़ती है कि हम अमुक नारकी को तलवार से मारें तो उनके हाथ ही तलवार बन जाते हैं। वे अपने शरीर को कुरूप आदि जैसा चाहे बना डालें, किन्तु नाना शरीर नहीं बना सकते। उनमें अपृथक्त्व क्रिया होती है।
औदारिक वैक्रियक शरीर—कभी औदारिक शरीर वाले ऋषि व संतों के भी वैक्रियक शरीर बन जाता है, किन्तु वह मूलत: वैक्रियक शरीर नहीं है किन्तु ऋद्धि से ऐसा जो शरीर बना है, उसका नाम है औदारिक-वैक्रियक शरीर।
आहारक शरीर—तीसरा शरीर है आहारक शरीर। यह आहारक शरीर ज्ञानी ध्यानी विविक्त ऋद्धिधारी तपस्वी संतों के प्रकट होता है। कोई तत्त्व में शंका हो तो उसका समाधान करने के लिए मस्तक से आहारक शरीर की रचना होकर आहारक शरीर बनता है और जहां प्रभु हों वहाँ पहुंचकर उनके दर्शन करके वापिस अपने मस्तक में आ जाता है। वह धवल पवित्र व्याघात रहित शरीर होता है।
तैजस और कार्माण शरीर—तैजस और कार्माण शरीर इस जीव का तब तक साथ नहीं छोड़ता, जब तक कि मोक्ष न हो जाए। औदारिक शरीर साथ छोड़ देगा, किन्तु मनुष्य है तो इस सम्बन्ध में उसके औदारिक शरीर लगा है। मरण करके वह देव बन जाए तो उसका वैक्रियक शरीर रहा। इसका विच्छेद हो गया, किन्तु एक नियम है कि वैक्रियक शरीर के बाद वैक्रियक शरीर कभी नहीं मिलता। वैक्रियक शरीर वाले देव और ये नारकी औदारिक शरीर को ही धारण कर सकेंगे, उन्हें वैक्रियक शरीर तो नहीं मिलता। औदारिक शरीर वाले मरकर फिर भी औदारिक शरीर पा ले या वैक्रियक शरीर पा लें, उनका नियम नहीं है। अब देखो औदारिक शरीर का भी विछोह हो जाता है और वैक्रियक शरीर का भी विछोह हो जाता है। आहारक शरीर तो किसी बिरले संत के प्रकट होता है। उसका विछोह तो सभी संसारी जीवों के बना ही है, पर जिन संतों के आहारक शरीर प्रकट होता है, उनके भी विछोह हो जाता है, यह वाला आहारक शरीर तो अन्तर्मुहूर्त तक ही रहता है, परन्तु तैजस और कार्माण शरीर इस जीव के साथ तब तक ही लगे रहते हैं, जब तक जीव को मोक्ष न हो जाए।
सूक्ष्मशरीर—जो द्रव्यकर्म हैं, ज्ञानावरणादिक 8 कर्म हैं, उनके ही संग्रह का नाम है कार्माणशरीर। इस कार्माणशरीर के साथ ऐसा जो एक शरीर लगा है, जिससे औदारिक आदिक शरीरों में तेज पहुंचता है, उसे कहते हैं तैजस शरीर। तैजस और कार्माण शरीर एक साथ रहते हैं और इनके युगल का नाम है सूक्ष्मशरीर। जैसे अन्य लोग इस शरीर को दो भागों में विभक्त करते हैं—स्थूलशरीर और सूक्ष्मशरीर। जीव मरण करके इस सूक्ष्मशरीर सहित जाता है और स्थूलशरीर पाता है। वह सूक्ष्मशरीर तो यही तैजसशरीर और कार्माणशरीर हैं। यह सूक्ष्मशरीर जीव का एक समय भी साथ नहीं छोड़ता है। यह सूक्ष्मशरीर तो निरन्तर ही लगा हुआ है। इस शरीर का प्रपंच भी शुद्ध जीवस्वरूप में नहीं है, इसलिए यह आत्मा निष्कल है।
आनन्द का आश्रय—किसका आश्रय करने से यह उपयोग आनन्द रूप बर्त सकता है? जो स्वयं किसी दूसरे के आश्रय में न हो। जो स्वयं ही सावलम्ब है, उसके आश्रय से अपने को कैसे शरण हो सकती है? ऐसा कौन सा तत्त्व है, जो निरालम्ब हो और मेरे में ही मेरे निकट सदा रहता हो? यों तो निरालम्ब संसार के समस्त पदार्थ हैं, स्वतन्त्र हैं। अपने ही आधार में अपने ही आश्रय से परिणमन करने वाले प्रत्येक सत् हैं, किन्तु अपने को तो ऐसा निरालम्ब तत्त्व चाहिए, जो शाश्वत मेरे ही निकट हो, कभी मुझसे अलग न हो। वह तत्त्व है कारणसमयसार।
अज्ञानान्धकार में निजशरण का अपरिचय—लोक में संसार के प्राणी बाह्य में नाना प्रकार के पदार्थों का आलम्बन करके सुख की कल्पना साकार बनाना चाहते हैं। उनको यही तो एक क्लेश है कि जो चीज अपनी नहीं है, वह अपने निकट कभी नहीं हो सकती है—ऐसे भिन्न, असार और मायामय बाह्यपदार्थों का शरण तकता है। बाह्यपदार्थों में शरण बुद्धि रखना घोर अन्धकार हैं, इस अंधेरे में अपने वैभव का परिचय नहीं हो सकता है। जब तीव्र अँधेरा होता हैं तो अपने ही शरीर के अंग अपने को नहीं दिखते हैं तो उससे भी विकट अँधेरा यह है कि यह खुद ज्ञानमय है और ज्ञानमय निजस्वरूप को नहीं जान पाता है। बाह्यपदार्थों में कहीं भी अपनी शरण तो नहींहै। यह तो स्वयं ही शरणभूत और चैतन्यस्वभाव मेरे उपयोग की शरण है।
आत्मा का अनात्माओं से पार्थक्य—यह स्वभाव, यह आत्मतत्त्व समस्त परद्रव्यों से भिन्न है। लोक में अनन्त तो जीव हैं, अनन्त पुद्गल हैं, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और असंख्यात कालद्रव्य हैं। इस मुझ आत्मद्रव्य में न तो अन्य समस्त जीवों का प्रवेश है और न ही समस्त पुद्गल अणुओं का प्रवेश है। न धर्मद्रव्य, न अधर्मद्रव्य, न आकाशद्रव्य व न कालद्रव्य आदि कोई भी इस आत्मा में प्रवेश नहीं पा सकता। जैसे एक घर में रहने वाले 10 प्राणी होते हैं और उनका एक-दूसरे से मन नहीं मिलता है, बल्कि विमुख और विरुद्ध विचार चलता है तो एक घर में रहते हुए भी वे जुदा-जुदा है। यह एक मोटी बात कह रहे हैं। प्रकृत में यह देखो कि एक ही क्षेत्र में छहों के छहों द्रव्य रह रहे हैं, फिर भी किसी एक द्रव्य में अन्य समस्त द्रव्यों का प्रवेश नहीं है।
द्रव्यों का आनन्त्य व क्षेत्रसांकर्य—लोकाकाश कौनसा प्रवेश ऐसा हैं, जहां छहों द्रव्य न हों, एक भी कम हो तो बताओ? धर्मद्रव्य सारे लोक में तिल-तिल की तरह व्याप कर फैला हुआ है। अधर्मद्रव्य भी इसी प्रकार विस्तृत है, आकाश तो वह हे ही। लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित है। अब रहे जीव और पुद्गल। तो जीवराशि अनन्त है, अक्षयानन्त है। लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर आपको अनन्त जीव ज्ञान द्वारा मिलेंगे। यद्यपि कोई भी जीव आकाश के एक प्रदेश बराबर शरीर को लिए हुए नहीं होता, वे असंख्यात प्रदेश में फैले हुए हैं, फिर भी आकाश में लोकाकाश का कोई प्रदेश ऐसा नहीं है, जहां पर अनन्त जीव न विराजे हों। यों अनन्त जीव ऐसे ठसाठस भरे हुए हैं, एक जीव के साथ अनन्त ही पुद्गल पड़े हुए हैं।
पुद्गलों का आनन्त्य—एक सूक्ष्म निगोदिया जीव जिसका शरीर सूई की नोक जितने पतले भाग से भी असंख्यातवां भाग छोटा शरीर होता है—ऐसे-ऐसे शरीर के आश्रित अनन्त निगोद जीव हैं। वे जीव एक साथ मरते हैं, एक साथ जन्मते हैं, एक श्वांस में 18 बार उनका जन्ममरण होता है। ऐसे एक-एक निगोद जीव के साथ अनन्त तो कर्मपरमाणु लगे हैं और उनके साथ शरीर के भी परमाणु अनन्त लगे हैं और उनके साथ-साथ शरीर के अन्य परमाणु जो शरीररूप तो नहीं होते, किन्तु शरीररूप होने की उम्मीद करते हैं विश्रसोपचय, वे भी अनन्त लगे हैं। इसी प्रकार ऐसी भी कार्माणवर्गणाएं अनन्त साथ लगी हैं, जो अभी कर्मरूप तो नहीं हुई, किन्तु कर्मरूप हो सकती हैं विश्रसोपचय। तब देखिए एक जीव के साथ में अनन्तपुद्गल लगे हैं। यह तो जीव के साथ लगे हुए पुद्गल की बात है। और भी पुद्गल जो जीव से व्यक्त हैं, वे भी अनन्त लोकाकाश में भरे पड़े हैं। एक प्रदेश ऐसा नहीं है, जहां 6 में से 5 ही द्रव्य हों। छहों के छहों द्रव्य प्रत्येक प्रदेश पर मिलेंगे।
पदार्थ की पर से निरालम्बता—ऐसे एक क्षेत्र में सर्व द्रव्य मिलते हैं, तिस पर भी प्रत्येक जीव, प्रत्येक अणु, प्रत्येक द्रव्य अन्य सबसे विमुख है, अपने ही स्वरूप में अपना अस्तित्व रखता हैं। किसी अन्य में उसका प्रवेश नहीं है। तो यों निरालम्ब तो प्रत्येक सत् है, पर भिन्न सत् का मैं आलम्बन नहीं कर सकता हू और मान भी लें व्यवहार दृष्टि का आलम्बन, सो भी सदा वह मेरे निकट नहीं रह सकता है। तब ढूंढ़ों अपनी शरण, अपना रक्षक, अपना प्रभु, अपना सर्वस्व शरणभूत अपने आपमें देखो। खोटी हठ करने का फल उत्तम नहीं होता।
असत्याग्रह का दुष्परिणाम—बच्चे की हठ सीमा तक तो पिता को सहन हो जाती है, जहां तक इस पिता के आशय का अत्यन्त विरोध न हो जाय। जब कोई बालक सीमा से अधिक हठ करता है तो बालक लाभ में नहीं रहता हानि ही पाता है। यह जीव बालक थोड़ी बहुत हठ किया करे जो हठ इस हित के फार्म पर सही है किन्तु इसके इस स्वरूप का विरोध न होता हो। यद्यपि इतना भी हठ वास्तव में बाधक है, किन्तु सीमा से जो अधिक हठ है जैसे विषयों के सुख भोगने का ख्याल आना, मुसाफिर की भांति नश्वर समागम वाले जगत् के जीवों से स्नेह करने की आदत होना, यह हठ सीमा तोड़ हठ है। इस हठ से यह जीव उपयोग लाभ न पायेगा, हानि में ही रहेगा। इस हठ का त्याग करो, अपने आपमें शाश्वत विराजमान् शरणभूत इस चैतन्यस्वभाव को निरखो और ऐसा दृढ़ निर्णय करो कि मेरा तो मात्र यह चैतन्यस्वभाव है। मैं तो केवल चैतन्यस्वभावमात्र हू। ऐसे विशुद्ध अनुभव में जितने क्षण व्यतीत होंगे उतने तो क्षण सफल हैं और इससे च्युत होकर बाह्यपदार्थों में जितने लगाव चलेंगे उतना ही समय निष्फल हैं।
शुद्ध ध्येय के ध्यान में हित—इस आत्मतत्त्व में किसी भी परद्रव्य का सम्बन्ध नहीं है। यह स्वयं समर्थ है, स्वयं सुरक्षित है, सद्भूत है, ज्ञानानन्दमय है, अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए बाहर क्या यत्न करते हो? सारे यत्नों को छोड़कर यदि एक इस परमशरणभूत निरालम्ब ज्ञानस्वभाव का ही ज्ञान बनेगा तो एकदम ज्ञानविकसित हो जायेगा। बना-बनाकर, श्रम कर-कर ज्ञान बढ़ाने और कमाने में श्रम किया जा रहा है, ठीक है। शुद्ध ध्येय हो तो वहाँ श्रम ज्ञानवृद्धि का कारण ही होता है और वह लाभदायक है, किन्तु वह ज्ञान यह उपदेश देता है कि किसी क्षण यदि तुम समस्त विकल्पों को त्यागकर निर्विकल्प समतारस से परिपूर्ण रागद्वेष रहित सहज आनन्दकरि भरे हुए इस चैतन्यस्वभाव को भी तो देखो तो बाहर डोलना इस जीव को हितरूप नहीं है।
लोकसुख की भी आनन्द गुण से प्रादुर्भूति—बाह्यपदार्थों का रोग लगाने पर जो कुछ थोड़ा बहुत सुख मानते हो, वह सुख तो बड़े बर्तन में बची हुई खरोंच कर निकाली गई खिचड़ी जैसा है। जैसे किसी बड़े मटके में खिचड़ी बनाई और वह लोगों को परोस दी, सारा मटका खाली हो गया, फिर भी एक दो भिखारी आ जायें तो थनीते से निकालकर उन एक दो भिखारियों को खिचड़ी दी जा सकती है, इसी प्रकार विषयों की प्रीति में अपना सहज आनन्द गवां दिया, लेकिन चूकि तुम प्रभु हो समर्थ हो, कितना भी तुम्हारा आनन्द खत्म हो गया, फिर भी विषयसुखों के रूप से जली बची खुर्चन तुम्हारे हाथ लग जाती है। बाह्यपदार्थों से आनन्द की आशा की करने में सब आनन्द नष्ट हो जाता है और जो कुछ भी भ्रम वाला सुख प्रतीत होता है वह भी बाह्यपदार्थों से आया हुआ नहीं है, किन्तु अपने ही आनन्दस्वभाव का विकार है।
निश्चल आश्रेय तत्त्व—भैया ! बाहर में किसका आलम्बन तकते हो? कौन तुम्हारे लिए लोक में शरणभूत है? बाहर में तो सब धोखा ही धोखा देने वाले हैं। अरे तुम्हें कोई दूसरा धोखा नहीं दे रहा है, तुम ही उल्टी चाल चल रहे हो, बाह्यपदार्थों से सुख की आशा लगाई है तो उनसे धोखा तो प्रकट ही है। धोखा तो अपनी ही कुबुद्धि से है। परपदार्थों में देखते जावो कि जिस प्रकार अवस्थित है वहाँ वह धोखा नहीं खा सकता। किसी से राग किया गया तो वह राग ही स्वयं धोखा है। फिर किसी अन्य वस्तु पर धोखे का इल्जाम लगाना बुद्धिमानी नहीं है। खूब परख लो कौनसा वह तत्त्व है जिसका आलम्बन करूं तो जिसमें न कभी धोखा हो, न कभी वियोग हो। ऐसा आलम्बने योग्य तत्त्व है तो अपने आपका सहजस्वरूप है।
राग की स्वरूपबाधकता—यह सहजस्वरूप निरालम्ब है, इस निरालम्ब आत्मस्वरूप में किसी ने बाधा डाली है तो वह है परपदार्थ के प्रति होने वाला राग। यह राग परिग्रह है। बाह्यवस्तु का परिग्रह नाम उपचार से है। वह क्यों परिग्रह है? कोई बाह्य पदार्थ मुझमें लगा है नहीं, चिपका है नहीं, स्वरूप में है नहीं, तब फिर कोई बाह्यपदार्थ मेरा परिग्रह क्यों है? वह तो जहां है वहाँ ही पड़ा हुआ है। घर जहां खड़ा है वहाँ ही खड़ा है, तिजोरी जहां है वहाँ ही है। वह मेरा परिग्रह नहीं है, किन्तु उन बाह्यपदार्थों में तो राग लगा है, लपेट आत्मीयता का परिणाम हो रहा है यह परिणाम मुझमें लगा हुआ है। यही परिग्रह है।
राग से बरबादी—जैसे छेवले के पेड़ में लाख लग जाय तो वह लाख कोई बाहर से आई हुई चीज नहीं है, वह छेवले के अंग से ही उद्भूत चीज है, लेकिन वह लाख उस छेवले के पेड़ को बरबाद करके रहती है, फिर वह पेड़ पनप नहीं पाता, धीरे-धीरे सूखने के उन्मुख हो जाता है। अंत में सुख कर ठूठ रह जाता है । ऐसे ही इस आत्मा में जो राग की लाख लगी है वह कहीं बाहर से आकर नहीं लगी हैं, यह मेरी ही अयोग्यता से मेरे ही एक परिणमनरूप परिणमकर मेरे साथ लगी है राग लाख। यह राग इस मुझको बरबाद करके ही रहता है, इसके संसर्ग से यह जीव कोरा ठूठ, ज्ञान की ओर से मूढ़, आनन्द की ओर से दु:खी ऐसा कोरा का कोरा रह जाता हैं, यह आत्मा पनप नहीं सकता। राग हो तो आत्मा उन्नत नहीं बन सकता।
परिग्रहों का प्रतिनिधि राग—ऐसे ये परिग्रह विस्तार से बताये जायें तो 14 प्रकार के हैं। मैं उन समस्त परिग्रहों से दूर हू। यद्यपि वे कहने में 14 प्रकार के हैं, फिर भी सबका अन्तर्भाव एक राग में हो जाता है। चाहे यह कह लो प्रभु वीतराग है, चाहे यह कह लो प्रभु समस्त परिग्रहों से रहित है। राग एक उपलक्षण है। समस्त परिग्रहों का प्रतिनिधित्व करने वाला यह राग है। वे 14 परिग्रह कौन हैं? पहिला मिथ्यात्व, यह मिथ्यात्व परिग्रह जीव में ऐसा विकट लगा हुआ है किइससे जीव परेशान है। जीव की सब परेशानियों की जड़ है मिथ्यात्व। विपरीत आशय का बनाना मिथ्यात्व है। इस विपरीत आशय पर ही सारे संकट खेल कूद रहे हैं।
मिथ्यात्व की तह—भैया ! ऐसा भी कोई तपस्वी हो जाय जो अपने आप ईमानदारी से व्रत तपस्या में लग रहा है, निर्ग्रन्थ हो गया है, नग्न है, तपस्या में लगा है, शत्रु मित्र को एक समान मानता है। कोल्हू में पिल जाय तो उस पेलने वाले शत्रु पर द्वेष भाव नहीं करता है, वह अपने अन्तर में भाव बनाता है कि मैं साधु हू, मुझे रागद्वेष न करना चाहिए, हमें मोक्षमार्ग में लगना है, हमारा कर्तव्य समता से रहना है, इतने उच्च विचार करके भी किसी प्रकार का मिथ्यात्व अन्तर में रहा हुआ रह सकता है। अब सोचिए कि इतनी बड़ी साधना, शत्रु मित्र को समान मानने की भावना, कितनी भी बहुत मंद चारों कषाएँ क्रोध, मान, माया, लोभ हों तिस पर भी मिथ्यात्व लगा है तो वह क्या लगा है? इसको बताने को कोई शब्द नहीं हैं। मोटेरूप में बाकायदा कहो यदि कोई शब्द है तो यही शब्द है कि उस साधु ने भी जो अपने आपमें भाव बनाया है—समता करना चाहिए, मैं साधु हू, रागद्वेष करना मेरा कर्तव्य नहीं है, ऐसे जो उसने उच्च विचार बनाये उन विचारों मात्र अपने आत्मा को जगाता है। बस यही मिथ्यात्व है। सर्व प्रकार के परिणमनों से विविक्त चैतन्यस्वभावमात्र अपने आपका आत्मा ज्ञान में ग्रहीत नहीं हो पाता। शब्दों में यही कह सकते हैं।
मिथ्यात्व का जगत् में एकछत्र साम्राज्य—अब जानिए कि इस मिथ्यात्व का इस जीव लोक पर कितना एकछत्र साम्राज्य चल रहा है? अनेक प्रयत्न करके एक मिथ्यात्वभाव को हटा लिया तो मनुष्यजन्म में बहुत अपूर्व काम किया समझो। धन, वैभव, इज्जत, पोजीशन सब मायारूप ही चीजें हैं इनकी दृष्टि में और इनकी बुद्धि में तत्त्व कुछ भी हासिल न होगा। इसमें किस प्रकार का और कैसा फल मिलता है? यह वक्त गुजर जाने पर ही विदित होता है।
काम परिग्रह—मिथ्यात्व परिणाम पर जीवित रहने वाले शेष 13 परिग्रहों में से प्रथम अब वह परिग्रह कहते हैं, जो इन 13 परिग्रहों में से भी बड़ा अपना अव्वल नम्बर रखता है। वह परिग्रह है वेद याने कामवासना, कामसंस्कार। कामसंस्कार एक बहुत गन्दा परिणाम है। एक भजन है, उसकी टेक है—
काम नाम में देव लगाया किसने?
यह तो प्रधान उनमें हिंसक हैं जितने।
लोग कहते हैं ना कि कामदेव, अरहंतदेव, सिद्धदेव। तो कामदेव कहते हुए लाज नहीं आयी? काम जैसा गंदा विचार जो इस जीव को भव-भव में रुलाता और भटकाता है, स्वरूप से चिगाता है और अत्यन्त दु:सह क्लेश का पात्र बनाता है और उस काम नाम में देव लगा दिया। अरे ! यह काम तो अत्यन्त हिंसक है—
यह जीवरूप मछली पर संकट डाले।
जिनधर्म उदधिते बाहर फैंक निकाले।
नारीतन पल के कांटे पर लटकावे।
संभोग भाड़ में बारहि बार भुंजावे।
काम विभाव की हिंसकता—उक्त भजन का अंश मनोहर पद्यावली में इसमें बताया है कि कहार, ढीमर और कसाई आदि से भी अधिक हिंसक है काम। वे भी यद्यपि जीवों को मारने वाले होते हैं, बड़े हिंसक हैं, फिर भी काम को उनसे कम हिंसक न समझो। यह है काम की विशेषता। इस जीवरूपी मछली पर इस काम हिंसक ने संकट डाला है। क्या किया पाप कि जैनधर्म रूपी समुद्र से निकालकर इसे बाहर फैंक दिया? जो कामवासना से पीड़ित पुरुष है, वह जैनधर्म की उपासना क्या करेगा? नाम के लिए हम उसे जैन-जैन कई तो नाम के लिए तो कुछ भी कह लो, किन्तु इस काम के विकार ने जैनतत्त्व के विलासरूप इस जल से भरे हुए जिनधर्म समुद्र में से निकालकर बाहर फैंक दिया। फैंककर फिर क्या किया है कि परशरीर, स्त्रीशरीर और पुरुषशरीर ही हुई उसको एक जगह रोक देने की कीलें। उन कीलों में पिरो-पिरोकर इस जीव मछली को एक ठिकाने पर कील दिया और उस कांटे पर लटका दिया और फिर क्या किया इस काम ने कि यह संभोगरूप भाड़ में इसे बार-बार भूना, जैसे रौद्राशयी आग में मछली को डालकर भूनते हैं। ये विषयभोग पहिले तो बड़े सुहावने लगते हैं, पर अन्त में इनका फल कटुक होता है। ऐसे ये वेदविभावरूप परिग्रह इस आत्मतत्त्व में कहां हैं? फिर क्यों ये जगत् के जीव अपने स्वरूप से भ्रष्ट होकर इन बाह्य कुतत्त्वों की ओर लगे चले जा रहे हैं, यह वेदभाव परिग्रह है, इसके न होने से यह आत्मतत्त्व नीराग है, अब इसके बाद आत्मा के अन्य विशेषणों का वर्णन किया जाएगा।
तीन वेदविभावों का आत्मतत्त्व में अभाव—वेदविभाव नाम का परिग्रह तीन प्रकार का है—पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद। वेदभाव से जो कामवासना की जाति की अपेक्षा तो तीनों में समानता है, किन्तु विषयभेद से ये तीन प्रकार के हैं। स्त्री के साथ विषयाभिलाषा का नाम पुरुषवेद है। पुरुष के साथ विषयाभिलाषा का नाम स्त्रीवेद है और दोनों विषयाभिलाषाओं का नाम नपुंसकवेद है। यह आभ्यन्तर परिग्रह की बात चल रही है। इस जीव के प्रदेश के भीतर कौन-कौनसी पकड़े ऐसी हैं कि जिन पकड़ो के कारण से प्रभु से मिलन नहीं हो पाता। परिग्रह कहो अथवा पकड़ कहो, दोनों का एक मतलब है। परिग्रह शब्द संस्कृत का है और पकड़ शब्द हिन्दी का है, यह वेद नौ कषाय परिग्रह आत्मतत्त्व के नहीं हैं।
आत्मतत्त्व में क्रोधपरिग्रह का अभाव—इसके बाद परिग्रह कहा जा रहा है क्रोध, मान, माया, लोभ। क्रोधकषाय जीव का परिग्रह है। यह जीव अपने क्रोध को ग्रहण करता है। जो क्रोध करता हो, सो मैं हू। क्रोध करने में अपनी चतुरायी मानना, क्रोध को भजाने में अपना कर्तव्य जानना, ये सब विडम्बनाएं क्रोधकषाय का परिग्रह करने से है। ज्ञानी जीव के तो क्रोध कषाय होते हुए भी यह क्रोध में नहीं हू, परभाव है, इससे मेरा हित नहीं है, मैं क्रोधरहित शांतस्वभावी हू—ऐसी प्रतीति रहती है, जबकि अज्ञानी जीव को क्रोध में हित जंचता है, चाहे उसके फल में भावी काल में बड़े संकट भोगने पड़े और भोगना ही पड़ता है। कल की ही एक घटना है कि मेहतर लोगों में दंगा हो गया। एक मेहतर भाई एक आदमी के पेट में चक्कू मारकर भग गया। क्रोध उससे नहीं सहा गया। अब उसकी कितनी दुर्गति होगी। जो-जो भी बात हो तो भी उसे भावी कष्ट देते ही नहीं है। क्रोध के समय तो केवल यही उसे जंचता है कि मैं अमुक का विनाश करूं। अमुक का नाश हो जाए तो उसकी भलाई है।
आत्मतत्त्व में मानपरिग्रह का अभाव—मानकषाय अहंकार परिणाम का कर्ता जो कुछ हू, सो मैं हू, अन्य लोग तुच्छ है, मैं इनका सिरताज हू, इस प्रकार की भावना से मान परिणाम बनता है। मान परिणाम के फल में सब जीवों के द्वारा अपमान होता है। भले ही कोई किसी पोजीशन के कारण से मुख पर न कह सके, पर सब लोग आपस में बतलाते है कि अमुक बड़ा मानी है। मानी पुरुष का मान सांसारिक मायने में भी तो निभता नहीं है और आत्मस्वरूप के दर्शन करने में कषायें तो सभी बाधक है, किन्तु यह मानकषाय मालूम होता है कि अधिक बाधक है। जिसको परभावों में, परपदार्थों में अहंकार लगा हुआ है, वह पुरुष आत्मस्वरूप के दर्शन का कैसे पात्र हो सकता है?
आत्मतत्त्व में मायापरिग्रहों का अभाव—मायाकषाय छल कपट करने को कहते है। माया की मां है तृष्णा। किसी वस्तुविषयक तृष्णा होगी या किसी पोजीशन सम्बन्धी तृष्णा होगी तो मायाचार करना पड़ता है। जिसके तृष्णा नहीं है, वह मायाचार क्यों करेगा? छल कपट करने वाले का हृदय इतना टेढ़ा होता है कि उसमें धर्म जैसी सीधी बात का प्रवेश नहीं हो सकता है। जैसे माला की गुरिया में यदि टेढ़ा छेद हो जाए तो माला का सूत उसमें पिरोया नहीं जा सकता। ऐसे ही जिसका हृदय ऐसा वक्र है कि मन में कुछ है, वचन से कुछ बोलता है, शरीर की चेष्टा कुछ है—ऐसा पुरुष बड़ा भयंकर होता है। मायावियों में बहुत बड़ा धोखा खाना पड़ता है। ऐसे छल-कपट वाले मायावियों के हृदय में धर्म की बात प्रवेश नहीं कर सकती है और फिर ये मायावी पुरुष भी अपनी माया की पकड़ रखता है।
माया में आत्मदर्शी का अभाव—क्रोधकषाय तो उत्पन्न हुई, चली गयी। ऐसी ही मान की बात है, पर ये मायाकषाय तो 24 घण्टे भयभीत बनाए रहते है और कुछ न कुछ अपने चित्त में कल्पना उठाती रहती है। माया की पकड़ संसार की जकड़ है। माया परिग्रह में यह आत्मदर्शन नहीं हो सकता। यह आत्मतत्त्व सब कषायों से परे है।
आत्मतत्त्व में लोभपरिग्रह का अभाव—लोभकषाय भी विचित्र परिग्रह है। है कुछ नहीं अपना, बाह्यपदार्थ पुण्य के उदय के फल है। जब आना है तो आते है, जब नहीं आना है तो नहीं आते है। जब तक रहते है तो है, जब नहीं है तब नहीं है। जिनसे रच सम्बन्ध नहीं है, ऐसे ये धन, वैभव, मकान, परिजन इन सबमें लोभ परिणाम होना, उनको अपनाने की बुद्धि करना, संचय का ख्याल बनाना—ये सब हैं लोभ परिग्रह। कहते भी हैं कि लोभ पाप का बाप बखाना है। लोभी पुरुष कुछ भी कर्तव्य अकर्तव्य न गिनकर जैसी चाहे वृत्ति करने को उतारू हो जाता है।
आत्मतत्त्व में हास्य परिग्रह का अभाव—एक हास्य भी परिग्रह है, किसी की चेष्टा पर अपने आपमें हंसी लाना अथवा किसी का मजाक करना दिल्लगी उड़ाना यह हास्य परिग्रह है। हास्य परिग्रह की पकड़ में भी प्रभुदर्शन की पात्रता नहीं रहती। जिस जीव को अपने आपमें उठे अपने गौरव का भाव होता और दूसरे जीवों में ये मूढ़ हैं ऐसा परिणाम हो तब वह हंसी मजाक कर सकता है। तो यह हास्य नामक परिग्रह भी इस शुद्ध आत्मतत्त्व के नहीं है।
आत्मतत्त्व में रतिपरिग्रह का अभाव—एक रति परिग्रह होता है। किसी भी बाह्य पदार्थ को इष्ट मानकर उसमें प्रेम रखना रति परिग्रह है। इस जगत में इस आत्मा का इष्ट कौन पदार्थ है, खूब ध्यान लगाकर देख लो। मोहवश जो पदार्थ इष्ट जंचते हैं, कोई मनमुटाव होने पर अथवा मोह न रहने पर वह पदार्थ फिर इष्ट नहीं रहता। जो इष्ट है उन ही के कारण इस जीव पर संकट आया करते हैं। जो इष्ट नहीं है उन पदार्थों के कारण संकट नहीं आते। जितने बंधन हैं वे इष्ट पदार्थ के कारण हैं। इष्ट का व्यामोह एक परिग्रह है। यह रति नाम का परिग्रह इस शुद्ध अंतस्तत्त्व में नहीं होता। यहाँ चर्चा चल रही है कि मैं जीव हू क्या और बन क्या गया हू? अपने जीव का सहजस्वरूप जो अपने सत्त्व के कारण है, ईमानदारी का रूप है वह तो है शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप, ज्ञानभाव और आनन्दभाव, इस ही का नाम आत्मा है। ऐसा यह एक विलक्षण पदार्थ है कि जिसमें ज्ञान और आनन्दस्वभाव पड़ा हुआ है। ऐसे ज्ञानानन्दस्वभाव की आत्मतत्त्व में रति नामक परिग्रह नहीं है।
आत्मतत्त्व में अरतिपरिग्रह का अभाव—अरतिपरिग्रह अनिष्ट पदार्थ में अप्रीति होना, द्वेष का भाव जगना सो अरतिपरिग्रह है। ये सभी कषाय राग और द्वेष इन दो में शामिल हो जाते हैं। राग अलग से परिणाम नहीं है, द्वेष अलग से परिणाम नहीं है, किन्तु क्रोध, मान, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये तो हैं द्वेषरूप परिणाम। माया, लोभ, हास्य, रति, पुरुष वेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद ये है रागरूप परिणाम। अरति भाव तब होता है जब इष्ट विषय में कोई विघ्न समझा जाता है। तो उस विघ्न के निमित्तभूत पदार्थों से द्वेष हो जाता है। द्वेष की तीव्रता में यह पर के विनाश करने का यत्न करता है। वैसे वहाँ कुछ विवेक नहीं रहता। यहाँ तक कि चेतन का विनाश करना सोचते हैं सो तो उसकी प्रकृति है ही, किन्तु अचेतन का भी विनाश सोचते हैं। बरसात के दिनों में चूल्हे में यदि आग न सुलगे और आध घंटे से हैरान हो रहे हों तो कहो चूल्हे को भी फोड़ दें, ऐसा भी द्वेष हो जाता है। हालांकि चूल्हा कोई जानदार पदार्थ नहीं है पर द्वेष परिणाम जगने पर यह इच्छा होती है कि जो मेरे इष्ट पदार्थों में विघ्नरूप होता है उसका मैं विनाश करूं। जीव का स्वभाव स्वयं ही शांतरूप है। इसे आनन्द शांति पाने के लिए कुछ नई तरकीब करना ही नहीं है। चीज न हो तो उसका यत्न करें, पर आनन्द ही का नाम तो आत्मा है। आनन्द के लिए क्या कोशिश करना? पर अज्ञानवश, भ्रमवश अनादि से विपरीत जो चेष्टाएं कर डाली हैं उन चेष्टावों को दूर करना है। आनन्द अपना अपने आप है।
आत्मतत्त्व में शोकपरिग्रह का अभाव—एक शोक परिग्रह होता है, रंज करना, इष्ट वियोग हो गया अब शोक में पड़े हुए हैं। यह शोक परिग्रह है। कितने ही लोग तो शान समझते हैं शोक करके। घर में कोई गुजर जाय, जैसे मान लो, पति गुजर जाता है तो अनेक स्त्रियां तीन चार माह तक मंदिर नहीं आती। वे इसमें अपनी शान समझती हैं कि ऐसा ही करना हमारा काम है। चाहे उनके चित्त में इतनी स्पीड का शोक न हो लेकिन लोक में अपनी पोजीशन रखना है सो मंदिर नहीं आती हैं। इसमें अपनी शान मानती है। मगर जो जितना अधिक शोक में पड़ता है वह उतना अधिक मिथ्यात्व को पुष्ट करता है। जब संसार के समस्त पदार्थ अत्यन्त भिन्न हैं तो उनके ज्ञाताद्रष्टा रहने में बुद्धिमानी है या उनका शोक करने और मोह मिथ्यात्व बढ़ाने में बुद्धिमानी है।
आत्मतत्त्व में भयपरिग्रह का अभाव—एक भय नाम का परिग्रह है। कोई लोग कहते हैं कि इस जीव के आगे पीछे दो शैतान लगे हुए हैं। वे दो शैतान कौन हैं? स्नेह और भय। एक शैतान तो आगे चलता है और एक शैतान पीछे चलता है। अच्छा बता सकते हो कि दो शैतानों में से आगे चलने वाले शैतान का नाम क्या हो सकता है? भय ! नहीं स्नेह। स्नेह की गति आंखों के आगे होती है और भय की गति पीठ के ऊपर होती है। उदाहरण के लिए किसी मित्र से स्नेह करें तो सब आंखों के आगे सुझाव रहता कि तब राग बढ़ेगा। आंखों के आगे यदि कोई चीज गिर जाय और जान रहे हैं तो उसको भय न सतायेगा किन्तु पीछे कोई चीज गिर जाय तो उसका भय लगेगा। चोर लोग चोरी करके कहीं जा रहे हों तो आंखों के आगे सब दिखता है, भय आंखों के आगे नहीं छाता, किन्तु पीछे कहीं एक पत्ता भी खुरक जाय तो उनके भय आ जाता है। तो यह भय का शैतान पीछे लगा हुआ है और स्नेह का शैतान आगे खचोर रहा है। भय भी एक परिग्रह है। यह जीव भय को जकड़े हुए है। भय को न जकड़े होता तो भयरहित शुद्ध ज्ञानस्वभाव अपने आपको इसे विदित रहता। यह भय परिग्रह भी इस शुद्ध अंतस्तत्त्व में नहीं है।
आत्मतत्त्व में जुगुप्सा परिग्रह का अभाव—एक परिग्रह है घृणा का, यह भीतरी परिग्रह की बात चल रही है। ऐसे कौनसे भारों की पकड़ यह जीव रखता है जिस पकड़ में प्रभु का दर्शन नहीं हो पाता है? दूसरे जीवों को देखकर घृणा करना सो जुगुप्सा नामक परिग्रह है। जुगुप्सा करते समय इस जीव को मान नहीं रहता कि इसका स्वरूप मेरी ही तरह शुद्ध ज्ञानानन्द का है अथवा जैसी प्रभुता ऐश्वर्य मेरे अंतस्तत्त्व में फैली है ऐसी ही प्रभुता इस जीव में भी पड़ी है, यह भान नहीं रहता तब दूसरे जीवों से ग्लानि का परिणाम रहता है। यह घृणा का परिग्रह हुआ है। ऐसे ये 14 प्रकार के परिग्रह शुद्ध अंतस्तत्त्व में नहीं हैं। इस कारण यह आत्मा नीराग है।
अपना नीराग स्वभाव—भैया ! बाह्य परिग्रहों के निषेध की चर्चा यहाँ नहीं चल रही है, वे तो प्रकट जुदे हैं, और बाह्यपदार्थों की पकड़ भी कोई नहीं कर सकता। जो भी मोही जीव हैं, परिग्रही जन हैं वे अपने आपके अन्तर की पकड़ रखते हैं विभावों की। यहाँ तक नीराग विशेषण के वर्णन में यह बताया है कि इस आत्मतत्त्व में आभ्यंतर परिग्रह नहीं है। यह चर्चा किसी दूसरे की नहीं की जा रही है,, यह हमारी और आपकी चर्चा है। इसको सुनते हुए अपने आपमें घटित करना है कि ओह ऐसा मैं हू। अपना यथार्थ स्वरूप पहिचाना है जिसने, उसके मोह की यह विपदा दूर हुई। बाह्य परिग्रहों की कल्पना करके जो अन्तर में भार बढ़ाया है उस भार से रहित शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप का अनुभव जगे—इस प्रयोजन के लिए यह आत्मतत्त्व की चर्चा की जा रही हैं।
आत्मतत्त्व की निर्दोषता—यह आत्मतत्त्व निर्दोष है। इसका तो एक ज्ञान ही पवित्र शरीर है। ज्ञान के सिवाय इस आत्मा को और क्या कहा जायेगा? किसे आत्मा बतायेंगे। ज्ञान ही एक असाधारण लक्ष्य आत्मतत्त्व का है। सहज ज्ञानमय यह आत्मा है। केवल ज्ञातृत्व में दोष की बात ही कहां है? दोष तो अवगुणों को कहा जाता है। जितने विकार हैं वे सब दोष हैं। अरहंतदेव में जिन 18 प्रकार के दोषों का अभाव बताया है वे सब 18 दोष आत्मस्वरूप में नहीं पड़े है। संसार अवस्था में यदि दोषरूप स्वभाव बन जाता या होता तो जीव कभी भी दोषों से मुक्त न हो सकता, ये दोष परभाव हैं, औपाधिक हैं, आत्मस्वरूप नहीं हैं।
सहजज्ञानस्वभाव की निर्दोषता—मेरा यह सहजज्ञान शरीर कैसा है कि समस्त पापमल के कलंकों को, कीचड़ों को धोने में समर्थ है। जितना भी बोझ लदा है इस जीव पर विभावों का, विकारों का वह सब बोझ विकार एक शुद्ध सहजज्ञानस्वरूप का अनुभव करने पर सब गल जाता है। सारे विकार सहजज्ञानस्वरूप से च्युत बने रहने में इकट्ठे होते हैं। सर्वकलंकों को धो ही डालने में समर्थ यह सहजज्ञान शरीर है। जिसका दर्शन बाह्यविकल्पों के परित्याग के उपाय द्वारा अपने आपमें सहज विराजमान् वीतरागतारूप आनन्दरस में मग्न होने पर प्रकट होता हैं। मैं तोअपने सहज अवस्थारूप हू, सहजस्वभावरूप हू, इस प्रकार के सहजस्वभावी आत्मतत्त्व के दोष का तो कोई काम नहीं है।
स्वरूप की दोषविविक्तता—कोई भी पदार्थ अपने स्वरूप से अपने आपमें दोषी नहीं है। दोष जो भी आते हैं, वे किसी पर-उपाधि को पाकर आते हैं। वस्तु तो अपने स्वरूपमात्र है। ऐसे अपने अन्तर के ज्ञानस्वभाव को पकड़ सके कोई कि मैं ज्ञानस्वभावमात्र हू, केवल ज्ञाता रहना मेरा कार्य है। इसके अतिरिक्त जो कुछ होता है, वह मेरे स्वभाव से उठकर नहीं होता है, पर-उपाधि का निमित्त पाकर यह हुआ करता है। इस जीव का जन्म तो आत्मा के नहीं होता है, बुढ़ापा, मरण, क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, विषाद, चिंता, रोग, शोक, आश्चर्य आदिक जितनी भी गड़बड़ियां हैं—ये इस आत्मस्वभाव में नहीं हैं।
अपूर्व प्रज्ञाबल—देखिए, कितना बड़ा विवेक बल लगाना पड़ेगा अपने आपके सत्यस्वरूप के परिचय के लिए कि छा रहा है इस पर यह सब दोष समूह, फिर भी उन दोषों को चीरफाड़कर उनमें न रुककर अन्तर में पहुंचकर ज्ञानानन्दस्वभावी सहजशुद्ध आत्मतत्त्व को जानना है। जैसे कि एक्सरा लेने वाला यन्त्र मनुष्य के चर्म, खून आदि की फोटो न लेकर बहुत भीतर बसने वाली हड्डी का भी चित्र लिया करता है, यह उसमें विशेषता है। ऐसी ही इस ज्ञान की इतनी तीक्ष्ण गति है कि जो ज्ञान जिस तत्त्व को जानने के लिए उद्यत हुआ है, वह रास्ते में आए हुए सभी पदार्थों में न अटक कर उन्हें पार करके अपने लक्ष्यभूत को जान लेता है।
ज्ञान द्वारा ज्ञान के ज्ञान में अव्यवसान—यह ज्ञान बाहर से नहीं आता है, जिसे जानना है, वह अन्तर में है और जो जानेगा, वह भी इस अन्तर में है। इसलिए अन्तर का ज्ञानगुण अन्तर के ज्ञानस्वरूप को जाने तो
इसमें पार करने की बात ही क्या रही? किसे पार करना है? बीच में कोई व्यवधान है ही नहीं, बल्कि रुकावट होनी चाहिए बाहरी पदार्थों के जानने में, क्योंकि ज्ञान का स्थान तो आत्मा के अन्तर में है। यह अपने अन्तर के स्थान को छोड़कर बाहर भाग रहा है तो बाह्यवस्तुओं की जानकारी कठिन होनी चाहिए, क्योंकि उसमें बाह्य यत्न करना होगा। अपने आपके स्वरूप की बात जानने में इस ज्ञान को क्या कठिनाई हुई? अनादिकालीन मोहवश इस जीव को अपनी बात जानना कठिन हो रहा है, पर की बात जानना इसको सुगम हो रहा है। इस स्थिति में भी वास्तव में वह पर को नहीं जानता, पर पर को विषयमात्र करके अपने आपके प्रदेश में ज्ञानगुण का परिणमन करता है। यदि इस मर्म क पता हो तो यह ज्ञानी हो जाए। इस मर्म से अनभिज्ञ यह जीव यही जानता है कि मैं बाह्यपदार्थों को जानता हू और इनसे ही सुख भोगता हू। ये समस्त प्रकार के दोष और मिथ्या, धारणायें व विकार इस जीव के नहीं हैं। यह तो सहज ज्ञानशरीर मात्र है। इस प्रकार यह शुद्ध आत्मतत्त्व निर्दोष है।
आत्मा के निर्दोषत्व का उपसंहार—आत्मा निर्दोष है। इस प्रकरण में आत्मतत्त्व के सहजतत्त्व का विवरण किया जा रहा है कि यह सहजज्ञान शरीरी है। उस सहजज्ञान के स्वरूप में सहजअवस्था है। यहाँ सहजअवस्था से प्रयोजन शुद्ध परिणमन का नहीं है, किन्तु ज्ञानस्वभाव के सत्त्व बने रहने के लिए जो वर्तना चाहिए, वह सहजअवस्था है। वह सहजअवस्था वीतराग आनन्द समुद्र के बीच स्फुटित होती है। ऐसी सहजअवस्थात्मक सहजज्ञानमय होने के कारण अन्य किसी परतत्त्व में इसकी गुंजाइश नहीं है, इसी कारण यह आत्मा निर्दोष है।
परिच्छेदकत्व तथा निर्मूढ़त्व—अब यह आत्मा निर्मूढ़ है, इस ही विषय का वर्णन किया जा रहा है। सहजनिश्चयनय की दृष्टि करके देखा जाय तो यह आत्मा सहजचतुष्टयात्मक है। जैसे शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से भगवान् अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य करि के सहित हैं तो सहजनिश्चयनय से अर्थात् परमशुद्ध निश्चयनय से देखा जाए तो यह आत्मतत्त्व सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजवीर्य और सहजसुख में तन्मय है। यह आत्मतत्त्व में पाये जाने वाले धर्म में से एक प्रधान धर्म है। ऐसे-ऐसे सहजधर्म इस आत्मतत्त्व में अनन्त हैं। उन धर्मों का आधारभूत जो निज निर्मूढ़ है। यहाँ पर द्रव्यों की जानकारी करता है, इस कारण निर्मूढ़ नहीं कहा गया है, किन्तु अपने ही सहजस्वभाव के परिच्छेदन में समर्थ है, इस कारण इसे निर्मूढ़ कहा है।
मोह का सीधा अर्थ—मूढ़ का अर्थ है मोही। अपने आपकी दृष्टि न हो पाये, इसे मोह कहते हैं। लोग जिन परवस्तुओं में मोह बताया करते हैं, उसका भी अर्थ यही है, बाह्यवस्तुओं का तो बहाना है, उसमें भी मोह का होना साक्षात् यही हुआ कि वह अपने स्वरूप को शुद्ध जैसा स्वयं है, नहीं जान पाया। किसी भी परवस्तु में आत्मीयता की बुद्धि करने से इस आत्मा में मोह पैदा होता है। इस मोह का साक्षात् कार्य पर को अपनाना नहीं है, पर अपने स्वरूप का परिचय नहीं हो पाना है। लोक में जिसे बेहोशी कहते हैं, उसका सीधा अर्थ कुछ बड़बड़ाना नहीं है, या अटपट क्रियायें करना नहीं हैं, किन्तु अपनी सुधी खो देना हैं। अपनी सुधी खो देने के परिणाम में अटपट बड़बड़ क्रियाएं होती हैं।
दृष्टांतपूर्वक मोह के अर्थ का प्रकाश—कोई यदि मदिरा पीकर सड़क पर चल रहा है और अटपट बकबक कर रहा है तो लोग कहते हैं कि इसे नशा है। उस नशे का कार्य क्या है? लोगों की जानकारी में सीधी बात तो यह बैठती है कि नशे में अटपट बका जाता है। यदि कोई नशे में अटपट न बके, किन्तु वह बेसुर्त पड़ा रहे तो उसे नशे में कहेंगे या नहीं? वह भी नशा है। नशे का वह कार्य बताओ, जो हर जगह कहा जा सके। वह कार्य है अपनी सुधी खो देना। अकबक बक रहा है तो वहाँ भी सुधी खोए हुए है और कहीं मरा सा पड़ा है तो वहाँ भी सुधी खोए हुए है। जैसे नशे का कार्य है अपनी सुध खो देना, इसी प्रकार मोह का कार्य है अपनी सुधी खो देना। अपनी सुधी खो देने के परिणाम में कोई जीव परिजनों से रागद्वेष मोह करता है, कोई परिजनों से रागद्वेष मोह नहीं कर पाता, फिर भी अपने ही आपके पर्याय में सुधी खोए हुए कुछ से कुछ अनुभवन करता है, जैसे एकेन्द्रिय जीव। उनके कहां कुटुम्ब है और कुटुम्ब में वे प्रेम कहां करते हैं? फिर भी उनमें मोह का कोई अर्थ नहीं है। मोह का यही एक अर्थ है कि अपनी सुधी खो दी, लेकिन यह आत्मतत्त्व अपने आपका जो सहजस्वरूप है, उस सहजस्वरूप के परिच्छेदन में सहजरूप से सहज समर्थ है, इसलिएयह आत्मतत्त्व निर्मूढ़ है।
पदार्थों की गुणपर्यायात्मकता—पदार्थ गुणपर्यायात्मक होते हैं। द्रव्य का लक्षण भी सूत्रजी में यह बताया है कि ‘‘गुणपर्ययवत् द्रव्यम्’’याने आत्मा भी एक द्रव्य है, यह आत्मा भी गुणपर्यायवान् है, उन गुणपर्यायों में से पर्याय का परिचय तो इस जीव को लगा है, शीघ्र हो जाता है, किन्तु पर्यायों की स्रोतभूत जो शक्ति है। जैसे पूछा जाए कि आखिर यह परिणमन किस शक्ति का है? तो समाधान में जिसका लक्ष्य बना, वह गुण कहलाता है। जैसे पुद्गल में हरा, पीला, नीला आदि अनेक रंग होते हैं और एक ही पुद्गल कोई ले लो, जो रंग बदलता है। जैसे आम है, जब वह फूल में से निकलने को होता है, तब वह काला होता है और जब कुछ बढ़ता है तो वह नीला रूप रखता है तथा और बढ़ने पर हरा रूप हो जाता है, यह हरा रूप उन दोनों रूपों में कुछ देर तक टिका रहता है;फिर पकने पर पीला लगता है और कोई-कोई तो विशेष पकाव पर लाल रूप रख लेता है और जब सड़ जाता है तो धीरे-धीरे वे रंग सब दूर होकर एक सफेद सा रूप रख लेता है। एक आम जो जीवन में इतने रंग बदलता है तो जो भी व्यक्त मालूम पड़ा है हरा, पीला वगैरह, वह तो है रूप पर्यायरूप परिणमन, क्योंकि परिणमन सदा नहीं रहता है। अब इतनी बदल होने पर भी जब यह पूछा जाए कि बदलता रहता कौन है? रूपपरिणमन नहीं बदलता रहता, किन्तु रूपशक्ति अन्य-अन्य पर्यायों में होने रूप बदलती रहती है। यह परिवर्तन रूपशक्ति का हुआ है। यह रूपशक्ति काली अवस्था में, नीली अवस्था में, सर्वअवस्थाओं में एकरूप से अन्त:प्रकाशमान् है, वह रूपशक्ति कुछ हरेरूप हो गई, अब वह रूपशक्ति पीलेरूप हो गयी। ये हरे पीले आदिक रंग तो परिणमन हैं, उन परिणमनों की आधारभूत रूपशक्ति गुण है। इसी प्रकार पुद्गल में अनन्तपरिणमन हैं और उन परिणमनों के आधारभूत अनन्तशक्तियां हैं।
शाश्वत् ज्ञानगुण—ऐसा ही जीवपदार्थ में विश्वास होना, जानकारी होना आदिक अनेक परिणमन चलते हैं। जैसे एक जानकारी का परिणमन देखो कि अभी पुस्तक की बात जान रहे हैं तो थोड़ी देर बाद घर की बात जान रहे होंगे तो ये जानकारियां बदलती रहती हैं। अभी कुछ जानकारी है, बाद में और कुछ जानकारी हो तो ये जानकारियां, ये सब परिणमन हैं, विनाशीक हैं, मिटती हैं, नई होती हैं, पर ये सब जानकारियां जो क्रम से अनन्त हो जाती हैं, ये सब एक ज्ञानशक्ति में पिरोए हुए माला के दाने की तरह हैं। ज्ञानशक्ति शाश्वत् है, उसही ज्ञानशक्ति का परिणमन इस पुस्तक की जानकारीरूप है तो उस ही ज्ञानशक्ति का परिणमन थोड़ी देर बाद गृहस्थ कार्य की जानकारी रूप हुआ, इस ही ज्ञानशक्ति के परिणमन चल रहे हैं। वहाँ जो ज्ञानशक्ति है, उसको कहते हैं सहजज्ञान। जो परिणमता नहीं है, जो बदलता नहीं है, एकरूप रहता है, जब से आत्मा है तब से यह स्वभाव है। कब से हैं यह आत्मा? अनादिकाल से। तो यह ज्ञानस्वभाव भी अनादिकाल से है। जब तक आत्मा रहेगा तब तक यह रहेगा। कब तक आत्मा रहेगा? अनन्तकाल तक अर्थात् सदाकाल तक और तब तक यह सहजज्ञान बराबर रहेगा।
आत्मतत्त्व की सहजभावात्मकता—ऐसे सहज ज्ञानरूप इस ही प्रकार दर्शन के समस्त परिणमनों का आधारभूत सहज दर्शनरूप और सुख का आधारभूत सहजसुखरूप और शक्ति का आधारभूत सहजवीर्यरूप यह आत्मतत्त्व है, यही हमारा मर्म है, इससे आगे आत्मा में विकल्प मचाया जाता है, बस वहीं से विपदा शुरू हो जाती है। मैं अमुक नाम वाला हू, ऐसे सम्बन्ध वाला हू, कहां है ये सर्वविकल्प सम्बन्ध इस आत्मतत्त्व में? यह तो सहजशक्तिस्वरूप है। इस मर्म का जिन्हें परिचय नहीं है, वे पुरुष ही संसार में जन्ममरण बढ़ाते रहते हैं।
आत्मा का परिच्छेदन धर्म—भैया ! धर्मपालन के लिए क्या करना है? अपने ही भीतर में प्रवेश करके उस सहजतत्त्व में रमना है, आत्मा में लगना है, बस यही धर्म करना है, सब श्रमों को दूर करना है, यही धर्म तो करना है। यह आत्मतत्त्व परमधर्म का आधारभूत जो निज परमात्मतत्त्व है, उस सहजस्वरूप का परिच्छेदन करने में समर्थ है। जानना और परिच्छेदन दोनों का यद्यपि एक ही अर्थ है, पर विधि में अन्तर है। जैसे इंगलिश भाषा में इसका ज्यादा ख्याल किया जाता है, एक ही अर्थ के कई मायने दिए हैं। जैसे देखने के सी, परसीव और लुक आदि जितने वर्ब हैं, उन सबका अर्थ सूक्ष्मदृष्टि से जुदा-जुदा है। किसी का अर्थ किसी से मिलता नहीं है। इसी तरह हिन्दी और संस्कृत के शब्दों में भी जितने शब्द हैं, उन समस्त शब्दों का अर्थ तो सूक्ष्मदृष्टि से बिल्कुल जुदा-जुदा है। स्थूल दृष्टि से एक ही बात कह सकते हैं।
शब्दभेद में अर्थभेद—जैसे जिसको स्त्री कह दिया, किसी को भार्या कह दिया, कलत्र कह दिया, दार कह दिया, महिला कह दिया, अबला कह दिया—ये सब स्त्री के नाम हैं, पर सबके अर्थ में अन्तर है। स्त्री उसे कहते है जो गर्भ धारण करे अथवा गर्भधारण के योग्य हो, यह स्त्री शब्द का अर्थ हुआ। भार्या—जो अपनी गृहस्थी का भरण-पोषण ऐ जिम्मेदारी के साथ कर सकने में समर्थ हो, उसका नाम भार्या है। कलत्र—कल मायने शरीर, पति का शरीर, पुत्र का शरीर, उन सब शरीरों की रक्षा करने में समर्थ हो। बच्चों को नहलाना, धुलाना, संभाल करना स्त्री करती है। बच्चों की संभाल करते हुए में उसका नाम स्त्री नहीं है, उसका नाम कलत्र है। जो भाइयों का दारण करा दे, अलग करा दे, उसका ही नाम दार है। तो यह शब्दभेद से भी भेद हुआ।
जैसे पुरुष, मानव, मनुष्य इत्यादि अनेक शब्द हैं, पर अर्थ जुदा ही जुदा है। पुरुष उसे कहते हैं जो आत्मा का स्वरूप है, स्वभाव है, उसकी साधना में अपनी हिम्मत लगाकर यत्नशील जो हो रहा हो, उसका नाम ही पुरुष है। मानव जो मनु की संतान हो अर्थात् जिसके पुरखे पहिले मनु आदिक कुलकार थे। जिसकी परम्परा से जो इस जड़ में रहता है, उसका ही नाम मानव है। मनुष्य—जो मन के द्वारा हित अहित का विवेक करने में समर्थ हो। कहने को तो एक ही आदमी को सब कुछ बातें कह डालते हैं, पर शब्दों के अर्थ न्यारे-न्यारें हैं।
जानन और परिच्छेदन में सूक्ष्मभेददृष्टि—ऐसा ही जानना और परिच्छेदन दोनों का मूलरूप से अर्थ एक है, फिर भी जानना तो मात्र एक विधिरूप काम है और परिच्छेदन अनेक को छोड़कर किसी एक को चुन लेना, उसका नाम है परिच्छेदन। जैसे थाली में चावल रखे हैं, यह अब भी जान रक्खा है कि ये चावल हैं और जिस समय बीन रहे हैं, उस समय भी जान रहे हैं कि यह चावल हैं, पर बीनते हुए की स्थिति में चावल के जानने का नाम परिच्छेदन है और सीधे थाली में पड़े हैं, उन्हें जानने का नाम ही जानना है। आत्मतत्त्व के परिहारसहित आत्मतत्त्व में उपयोग पहुंचने का नाम परिच्छेदन हैं। यह आत्मतत्त्व निज परमधर्म के आधारभूत निजतत्त्व के परिच्छेदन में समर्थ है, इस कारण यह निर्मूढ़ है।
शुद्ध सद्भूतव्यवहारनय में आत्मा की निर्मूढ़ता—यह आत्मतत्त्व दूसरी प्रकार से निर्मूढ़ है, इस बात को भी समझाना है। अब तक जो भी निर्मूढ़ता बताया है, वह सहजस्वरूप में बताया है, किन्तु केवल शक्ति मात्र के रूप में ही निर्मूढ़ता नहीं है, किन्तु जगत् के समस्त द्रव्यगुणपर्यायों को एक ही समय में जानने में समर्थ जो निर्मल केवलज्ञान है, उस केवलज्ञान की अवस्था का भी इसमें स्वभाव पड़ा है, इस कारण यह निर्मूढ़ है। जैसे दीपक को प्रकाशक कहने में दो पद्धतियों से प्रकाश समझ में आता है, एक तो खुद ही खुद को प्रकाशमय बनाए हुए है, स्वयं प्रकाशस्वरूप है। इस पद्धति से वह दीपक प्रकाशक है और कमरे भर की सारी वस्तुएँ प्रकाश में आ गई, इस तरह भी प्रकाशक है। पहिली पद्धति का प्रकाश निश्चयनय की दृष्टि से ही बताया गया है और दूसरी पद्धति का प्रकाश व्यवहारनय की दृष्टि से बताया गया है।
व्यवहार का उपकार—भैया ! व्यवहारनय असत्य नहीं होता, किन्तु पदार्थ में होने वाली उस एक ही बात को परपदार्थ का आश्रय करके वर्णन किया जाए तो वह व्यवहार हो जाता है। जैसे आप क्या करते हैं, इस समय क्या करते है? क्या दो काम कर रहे हैं, एक ही काम कर रहे हैं, उस एक काम को निश्चय की दृष्टि से देखेंगे तो यों कहेंगे कि आपके जो सहजज्ञानादिक स्वभाव है उन स्वभावों की वर्तना आप कर रहे हैं। आप अपने ही ज्ञानगुण का ज्ञानवृत्ति से परिणमन कर रहे हैं। ऐसी बात कहने पर कुछ समझ में नहीं आया होगा। नहीं समझ में आया तो लो हम बताते हैं, आप चौकी को जान रहे हैं, मंदिर को जान रहे हैं, इतने पुरुषों को जान रहे हैं, यह बात जल्दी समझ में आ गयी होगी, लेकिन यह कथन पर की अपेक्षा लेकर कहा गया है, इस कारण व्यवहार है। ज्ञानगुण का जो परिणमन हो रहा है उस परिणमन को ज्ञानगुण की ओर से कहेंगे तो वह कठिन लगेगा। वह निश्चयदृष्टि का वक्तव्य था पर वह झलका क्या, जानना क्या हुआ? वह झलक का रूप क्या था, इसको समझाने के लिए जब बाह्यपदार्थों का नाम लिया गया तो झट समझ में आ गया।
विकसित निर्मूढ़ता—इसी प्रकार आत्मतत्त्व की निर्मूढ़ता पहिली दृष्टि से तो सहज अवस्थात्मक सहजस्वरूप का परिच्छेदन करने में समर्थ है, ऐसा कहा गया था। अब आखिर वह सहज परिच्छेदन व्यवहारी जनों को तो समझ में आया। हुआ क्या वहाँ, सारे विश्व के समस्त पदार्थों की झलक बन गयी, जिसके नहीं बनी है उसमें भी उसकी सामर्थ्य है—ऐसा बताकर आत्मा की निर्मूढ़ता कही गयी है। इसमें उस सहजस्वभाव के शुद्धपरिणमन को दृष्टि में लेकर वर्णन है। वह केवल ज्ञानपरिणमन जो स्वभाव के अनुरूप विकसित हुआ है, आदि सहित है, किन्तु अंतरहित है। ऐसा केवल ज्ञान सदाकाल तक रहेगा। केवल ज्ञान का अभाव नहीं होता। पर आदि तो होता है। जिस क्षण ज्ञानावरण का क्षय होता है उस क्षण में केवल ज्ञान आया। अब उसके बाद अनन्त काल तक रहेगा। जितना प्रयोजन है उस प्रयोजन माफिक दृष्टि रखना है। सूक्ष्मदृष्टि से तो केवलज्ञान भी प्रतिसमय का एक-एक परिणमन है—तो एक क्षण को होता है, दूसरे क्षण में विलीन हो जाता है। पर दूसरे क्षण में केवलज्ञान ही नवीन होकर विलीन होता है और उन केवलज्ञानों में जो जानकारियां चलती हैं वे भी अत्यन्त पूर्ण समान चलती हैं। इस कारण स्थूलरूप से यह कहना युक्त है कि केवल ज्ञान अनिधन है, ऐसा अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाव का जब वर्णन करने की दृष्टि रखते हैं तो यों वर्णन किया जायेगा कि लो यह केवलज्ञान, तीन लोक, तीन काल के समस्त चर अचर पदार्थ, समस्त द्रव्यगुणपर्याय इन सबको एक ही समय में जानने में समर्थ है, सहज निर्मल केवल ज्ञान से युक्तता होने से यह आत्मतत्त्व निर्मूढ़ है।
आत्मा की निर्भयता—यह आत्मतत्त्व निर्भय है, भयरहित है। निर्भयता तब प्रकट होती है जब किसी जगह भय न रहने की जगह में आवास मिल जाय। एक बालक जो घर के द्वार से बाहर निकट खेल रहा है और पास से ही कोई भस्म लगाए हुए, विचित्र कपड़े पहिने हुए, सिर दाढ़ी के बाल रखाये हुए जा रहा हो तो वह बालक उसको देखकर डर जाता है और डर कर एकदम घर की ओर दौड़ता है और ज्यों ही दरवाजे के भीतर आया कि वह निर्भयता अनुभव करने लगता है। उस निर्भयता का आधार है भयरहित निज स्थान में पहुंच जाना। इस लोक में सर्वत्र भय ही भय हैं। इन सब भयों से बचने का उपाय एक यही है कि भयरहित जो निज शुद्ध अंतस्तत्त्व है उस शुद्ध अंतस्तत्त्व में जो कि अनुपम महान दुर्ग है उस दुर्ग में आवास हो जाय, वही जिसका घर बन जाय ऐसा आत्मा निर्भय होता है। अब इस ही विषय में और वर्णन चलेगा कि आखिर वह शुद्ध अंतस्तत्त्व कैसा निर्भय का स्थान है और केवल इतना ही नहीं कि निर्भयता का स्थान हो किन्तु निर्भयरूप से इस निर्भय स्थान में रहते हुए यह आत्मा जिनसे भय पा सकता है, उन सबका क्षय भी कर देता है, इस तरह से निर्भयता का वर्णन चलेगा।
आत्मा का निर्भय आवास स्थान—इस आत्मा का आवास ऐसे महान् दुर्ग में है जिस दुर्ग में समस्त पापरूप वीर और वैरी प्रवेश नहीं कर सकते, मैं उस शुद्ध ज्ञायकस्वरूप हू जिस स्वरूप में विभाव कषायों का प्रवेश नहीं है। यद्यपि इस आत्मप्रदेश में ही इन विभाव बैरियों का जमाव है लेकिन स्वरूप में जमाव नहीं है। जैसे पानी गरम हो जाने पर यद्यपि गरमी पानी में है, किन्तु पानी के स्वरूप में गर्मी नहीं है। उस गरम पानी में भी गरमी की दृष्टि को छोड़कर स्वरूपदृष्टि की जाय तो वहाँ गरमी नहीं दिखती। यह शुद्ध अंतस्तत्त्व अपने सत्त्व के कारण अपने आपके सहज स्वभावमय यह आप समस्त कर्मबैरियों के प्रवेश से रहित है अथवा उसमें प्रवेश कठिन है। ऐसे शुद्ध अंतस्तत्त्वरूप महान् दुर्ग में निवास होने के कारण यह मैं आत्मा निर्भय हू।
भावरूप द्रव्य के भाव का कर्तृत्व—अब तक जो इस गाथा में वर्णन आया है वह आत्मा की विशेषता बताने वाला है। उस वर्णन से शिक्षा मात्र एक यह लेना है कि ऐसा शुद्ध आत्मा उपादेय है। जो पुरुष इस कारण समयसार की भावना में परिणत होते हैं वे संसार के संकटों से परे जो शुद्ध आत्मा है उसको प्राप्त करते हैं। यह आत्मा सर्वत्र केवल भाव बनाता है। इसके अतिरिक्त करता कुछ नहीं है। चाहे गृहस्थ हो, साधु हो, मिथ्यादृष्टि हो, कोई भी जीव हो प्रत्येक जीव अपना भाव भर करते हैं, इसके आगे और जो कुछ होता है वह निमित्तनैमित्तिक भाव का परिणाम है, पर जीव केवल भाव ही करता है।
उत्तमभावरूप वर्तने की प्रेरणा—जैसे नन्हे बालक जब कोई खेल करते हैं, गुड्डा-गुड्डी का विवाह खेलते हैं तो उसमें पंगत करते हैं। पंगत में उनके पास दाम पैसा तो हैं नहीं, भोजन सामग्री भी कुछ नहीं है। तो वे कहीं से पत्ते तोड़ लायेंगे सो पत्तों को रोटी कहकर परोसेंगे। अरे वहाँ केवल भाव ही तो किया जा रहा है और कुछ नहीं किया जा सकता। भावों की वह पंगत है। तो जब भावों की ही पंगत है तो उन पत्तों को रोटी कह कर क्यों परोसे, उसे खाजा कहकर परोसे। भावों की ही बात हैं तो परस्पर के टुकड़ों को चना कहकर क्यों परोसे, उन्हें बूंदी कहकर परोसे और जो ऊंचे घराने के बालक हैं वे यदि ऐसी भावभीनी पंगति करें तो वे चना न सोच सकेंगे। वे बूंदी ही सोचेंगे। भावभरी बात में भावों को हल्का करना, भावों को बड़ा बनाना यह मात्र हो रहा है उन नन्हे बालकों में, इस ही प्रकार साक्षात् वैभव भी हो, घर भी है वहाँ पर भी ये सब जीव केवल भावों का ही परिणाम करते हैं, भावों के अतिरिक्त और कुछ नहीं करते।
अन्तस्तत्त्व की विविक्तता—यह आत्मा अमूर्त है। यह छूने से छुवा नहीं जा सकता। यह करेगा क्या दूसरी जगह? एक पुद्गल भी जो छुवा जा सकता है, रोका जा सकता है वह भी दूसरे पुद्गल में कुछ नहीं करता। जब बाहर में ये पुद्गल स्कंध भी अन्य पदार्थों में कुछ नहीं कर पाते तो यह अमूर्त ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व बाहर से क्या करे? ये जगत के जीव करने-करने के भाव में बीमार पड़े हुए हैं, कर कुछ नहीं सकते, किन्तु करने का परिणाम किया जा रहा है। मैंने ऐसा किया, मैं यों कर रहा हू, मैं यह कर दूंगा। केवल करने के अभिप्राय को लिए हुए दु:खी होता चला जाता है। प्रथम तो इस आत्मद्रव्य को ही देखो तो यह पर में कुछ नहीं करता। फिर इसका सारभूत जो शुद्ध अंतस्तत्त्व है उसको निरखो तो यह कुछ परिवर्तन भी नहीं करता, केवल अपने स्वरूपरूप बर्तता रहता है।
ज्ञायकस्वभाव की निष्पापता—यह कारणसमयसार जिसके सम्बन्ध में ये सब विशेषताएं बतायी गयी हैं, वह आदि अंत से रहित हैं, पापरहित हैं। देखो यह परमात्मतत्त्व निष्पाप है। यह तो शुद्ध ज्ञायकस्वरूप है। इसमें द्वितीय किसी पदार्थ का सम्बन्ध ही नहीं है, अविनाशी है, महान् ज्ञान का पुञ्ज है। ऐसा ज्ञानस्वरूपमात्र मैं हू—इस भावना में परिणमते हुए जो कोई भी सर्व संकटों से परे आत्मसिद्धि को प्राप्त होता है, उसे अपने इस आत्मा का उत्कृष्ट आनन्द प्राप्त हो जाता है। मोह से इस जीव पर बड़ा संकट छाया है। है तो अकेला, समस्त परद्रव्यों से न्यारा, पर अटपट ही चाहे जिस जीव को मान लेता है कि यह मेरा है, मेरे हितरूप है। यह एक बड़ा संकट छाया है। कुछ हो तुम्हारा या कुछ लोभ होता हो तो ये संकट न कहलाएँ, मगर लाभ रंच भी नहीं है, फिर भी अपना मानकर अपने ऊपर ही बोझ लादे जा रहे हैं। यहाँ किसी का कुछ नहीं है।
रुचि और पूजा—देखो कि जिसको चित्त में आदरपूर्वक धारण करते हो, पूजा तो उसकी ही कहलाती है। मुख से चाहे बोलने का ढंग यह बनाओ अथवा न बनाओ, पर चित्त में जिसका आदर है, उसकी ही पूजा है। चित्त में यदि इस वैभव का आदर है तो धर्म के प्रसंग में कितना ही व्यवहार किया जाए, पर आदर किसका है वहाँ?जिसका चित्त में भाव बना हो तो पूजा उसी की है। अपने आपको खोजिए कि मैं किसकी पूजा में बना रहता हू। यदि चित्त में धनवैभव ही का चित्र बना रहता है, उसका ही शल्य रहता है, उसका ही ख्याल होता है तो यह समझिए कि धनवैभव की पूजा कर रहे हैं। किसी परिजन इष्ट का ख्याल निरन्तर रहता है तो यह मानो कि हम उस इष्ट की पूजा कर रहे हैं। जैसे धनवैभव के सञ्चय की धुनि रखने वाले लोग अपनी आय के कारण कहीं कुछ नियम ले लेते हैं कि हम रोज दर्शन पूजन करेंगे और यदि नियम नहीं निभाया तो मेरे पाप का उदय आ सकता है, धनवैभव में हानि हो जायेगी। इस भाव से वे दर्शन करने जाते हैं, इस तरह कि अब टाइम हो गया, लो करना पड़ेगा। ऐसी कुछ जबरदस्ती की सी बात मन में मानकर धर्म के लिए, दर्शन के लिए 10 मिनट समय निकालने में कष्ट होता, जबकि ज्ञानतत्त्व के रुचिया श्रावक को चूंकि उसे आदर है इस ज्ञानस्वरूपमात्र में मग्न रहने के लिए अन्तस्तत्त्व का, सो उसको जब परिजनों को पालना पड़ता है, किसी और अन्य-अन्य ग्राहकों से बात करनी पड़ती है तो भी उसमें आपत्ति ही मानता है।
ज्ञानी और अज्ञानी की रुचि—कोई दूकान पर अथवा व्यापार में जुटे रहने पर खुशी मानते हैं और धर्मकार्य में आपत्ति मानते हैं। जबकि ज्ञानीजीव धर्मकार्य में खुशी मानता है। उसके लिए सारा समय है और व्यापार आजीविका या परिजन पोषण इनके लिए जबरदस्ती समय निकालता है, करना पड़ता है। जिसके चित्त में आदर हो, पूजा उसी की कहलाती है। अपने आपके सहजस्वरूप का ही आदर रक्खू, उसकी ही भावना करू, बाह्य सब जीव परिपूर्ण हैं, अपने-अपने भाग्य को लिए हुए हैं, उन से मुझमें रंच भी कुछ नहीं आता है—ऐसा पक्का निर्णय पहिले किया जाए। ये सब हो रहे हैं अपने आप काम। सबके उदय हैं, सबके भविष्य हैं, उनमें मेरी कोई ऐसी करतूत नहीं है कि मेरे ही द्वारा होते हैं। इन बाहरी परिजन सम्बन्धी विकल्पों को त्यागकर जरा अपने ही आपका जो वास्तविक शरण है, रक्षक है, जिसकी दृष्टि बिना संसार के सब क्लेशों से छुटकारा नहीं पा सकते वर्तमान काल में भी जिसकी दृष्टि के बिना शुद्ध आनन्द नहीं पा सकते हैं—ऐसे अपने आपमें बसे हुए इस चैतन्य महाप्रभु का आदर करो, भावना करो कि मैं इसको ही पूजता हू। इस शुद्ध अंतस्तत्त्व के पूजने का साधन चावल और फूल नहीं है, इसकी पूजा का तो साधन स्तवन या चिल्लाना नहीं है, किन्तु रागद्वेष को दूर करके समतापरिणाम को अपना लेना, यह ही मात्र इस अन्तस्तत्त्व के पूजने का साधन है।
अन्तस्तत्त्व की अनाकुलरूपता—यह समयसार अनाकुल है, अपने स्वरूप से कभी च्युत नहीं होता। जन्ममरण, रोग आदि कुछ भी विकार इस आत्मतत्त्व में नहीं हैं, यह सहज निर्मल है, सहज सुखस्वरूप है। इस निज अन्तस्तत्त्व को समतारस से सदा पूजता हू। यह किसकी कथनी चल रही है? ऐसे भाव बिना यह सब वर्णन कुछ भी समझ में नहीं आ सकता। यह चर्चा चल रही है अपने आपमें विराजमान् परमात्मस्वरूप की, जिसके दर्शन से कल्याण होता है, सारी बाधाएं मिट जाती हैं। बाधाएं और कुछ हैं ही नहीं, यह मेरा है—ऐसी कल्पना ही बाधा है। है कुछ नहीं और मानते है कि मेरा है, यही तो संकट है। इस आत्मा का निज आत्मस्वरूप के अतिरिक्त क्या है भी कुछ? नहीं है। फिर भी यह मानते जाते हैं कि यह मेरा है, यही तो सब अपराध है। अपराध करने वाला तो स्वयं दु:खी होता है।
निरालम्ब का आलम्बन—इस आत्मतत्त्व में कोई वर्ण नहीं है और आकार भी नहीं है, यह सर्व अहितों से, विकारों से परे है, शाश्वत् है। एक दो या अनेक किसी भी संख्या में आता नहीं है, रूप-रस-गन्ध-स्पर्श से रहित है, पृथ्वी जल आदिक सर्वपिण्डों से परे है—ऐसा निरालम्ब सबसे विविक्त शुद्ध ज्ञानस्वरूप में जो रति करता है, उसकी ही रुचि रखता है तो वह संसार के संकटों से दूर हो जाता हैं।
मोह का नाच—भैया, मगर मोह का ऐसा प्रबल नाच है कि जैसे 5-7 दिन की बासी रोटी झोले में रखने वाला भिखारी किसी के घर पर रोटी मांगने आया और उसे मालिक यह कहे कि तुझे मैं ताजी पूड़ियां दूंगा, तू इन बासी रोटियों को फेंक दे, तो उसे नहीं विश्वास होता है और न ही ऐसी हिम्मत बनती है कि वह उन बासी रोटियों का परित्याग कर दे। यों ही भव-भव के भोगे हुए जूठे, बासे इन पञ्चेन्द्रिय विषयों को अपनी कल्पना की झोली में रक्खे हुए यह संसारी भिखारी सुख मांगने जाता है, धर्मसाधन में, मंदिरों में, सत्संग अथवा अन्यत्र कहीं। उसे गुरुजन समझाते हैं कि तू इन जूठे बासे इन्द्रिय विषयों को अपनी कल्पना की झोली में से निकाल दे तो तुझको सत्य स्वाधीन निराकुल आनन्द देंगे, परन्तु इस मोही को न तो यह विश्वास ही होता है और न ही ऐसी हिम्मत जगती है कि मैं इन बाह्यपदार्थों के मोह को तोड़ दूं और इस शाश्वत् स्वाधीन आनन्द का लाभ लूं।
ऐश्वर्यस्मरण—यह परमात्मतत्त्व घट-घट में विराजमान् है। निधि न हो घर में तो गरीब कहलावे, पर घर में इतनी तो निधि पड़ी हुई है, लाखों की, करोड़ों की सम्पदा हीरा जवाहरात के रूप में। पर जिसे पता नहीं है कि मेरे घर में ये सब सम्पदा पड़ी हुई है तो वह तो दीन ही अपने को मानेगा। ऐसे ही यह जीव स्वयं तो है आनन्दनिधान परमात्मस्वरूप, पर इसकी खबर नहीं है और बाह्यविषयों में अपने हित की कल्पनाएं करता है तो यह तो दीन होता है, पर की आशा करता हुआ रुलेगा ही संसार में। इस परमात्मतत्त्व की मोहियों को खबर नहीं है।
अन्तस्तत्त्व की पवित्रता—यह अन्तस्तत्त्व पापरूपी वनों को छेद देने में कुल्हाड़े की तरह है। जहां जिस उपयोग में यह शुद्ध कारणसमयसार विराज रहा हो, वहाँ पाप का प्रवेश नहीं है, पवित्र वही है और जो ऐसे निज ज्ञायकस्वरूप की भावना में रहा करता है, उसका शरीर भी लोक में पवित्र माना गया है। शरीर कहीं पवित्र नहीं है, पर बड़े आफीसर के साथ रहने वाला चपरासी भी लोगों के द्वारा आदर पाता है। जब तक उस बड़े मन्त्री से उसका सम्बन्ध है। ऐसे ही ज्ञानभावनावान् आत्मदर्शी इस प्रभु के साथ जब तक शरीर का सम्बन्ध है, तब तक इस पवित्र अंतस्तत्त्व की संगति के कारण यह शरीर भी पवित्र माना जाता है और जब यह सम्बन्ध बिल्कुल ही छूट जाता है, तब शरीर में आदर सेवा पूजा का भाव नहीं रहता है।
अन्तस्तत्त्व की दृष्टि में स्वाधीनता—यह शुद्ध अंतस्तत्त्व निष्पाप है, परपदार्थों की परिणति से अत्यन्त दूर है अथवा परपदार्थों का निमित्त पाकर होने वाली आत्मा में जो विभावपरिणति है, उससे अत्यन्त दूर है। इसमें रागद्वेष सब शांत हैं, नष्ट हो गए हैं, सत्य सुख जल से भरपूर है—ऐसा यह समयसार जो काम-क्रोध-मान-माया-लोभ आदिक समस्त विकारों से परे है वह अंत:प्रकाशमान् हे समयसार ! मेरी रक्षा करो। भीतर की बात तो भीतर बनाई जा सकती है। जैसे आम चुनाव के समय में वोट लेने वाले बड़ा जोर देते हैं कि हमको वोट देनी पड़ेगी, पर वोट देते समय वह कितना स्वाधीन है कि चाहे कितना ही उसे कोई दबाये हो, पर जिसके लिए मन है, उसको वोट देने से कौन रोकता है? चाहे यहाँ कितनी भी परिस्थितियां ऐसी हों कि जिनका दबाव हो, फिर भी अपने आपमें ही शाश्वत् विराजमान् इस समयसार की दृष्टि करने चलो तो लड़ने वाले भाई बन्धु स्त्री आदिक इसमें क्या बाधा डाल सकते हैं? यह स्वाधीन कार्य है। हे समयसार ! मेरी रक्षा करो।
ब्रह्मस्वभाव—हे निजनाथ ! यह मैं उपयोग लायक नहीं हू कि मैं तुम्हें इतना उठा सकूँ और आदर कर सकूँ, किन्तु तुम्हारा तो स्वभाव ही ऐसा है कि तुम वर्द्धनशील हो, ब्रह्म कहलाते हो। इस अपने ब्रह्मस्वरूप का भी तो ध्यान करो। मुझमें बल आएगा कहां से? पहिले आप दर्शन तो दें, फिर इस उपयोग में वह बल प्रगट होगा कि आपको इस ज्ञानदृष्टि से ओझल न कर सकूंगा। हे समयसार ! तुम इस जगत् में जयवंत प्रवर्तो। जिस समयसार में किसी भी प्रकार का विकल्प नहीं है, जो परभाव से ही भिन्न है, परिपूर्ण है, आदि अंत से रहित है, जिसके अन्तर में कोई संकल्प विकल्पजाल नहीं है—ऐसा यह शुद्ध अंतस्तत्त्व प्रत्येक आत्मा में विराजमान् है। यह मैं परभाव से भिन्न हू, रागद्वेषादिक से परे हू। रागादिक से परे तो ये मति श्रुतज्ञान भी हैं, सो परभाव भिन्न हू, इतना ही विवेक नहीं है, किन्तु यह मैं परिपूर्ण भी हू, मतिश्रुतज्ञान तो अपूर्ण हैं, मैं मतिश्रुतज्ञान के खण्डविकल्प से भी परे हू। यदि इतने में केवलज्ञान कहे कि लो यह मैं हूआत्मस्वभाव तो ज्ञानी पुरुष उस शाश्वत् स्वभाव की रुचि के केवलज्ञान को भी कहने लगता है कि तुम हो तो हितरूप, पर मेरे स्वरूप नहीं हो, स्वरूप के अनुरूप विकास हो। यदि मेरे स्वरूप होते तो मेरी अनन्तकाल तक ही खबर क्यों नहीं ली? तुम आदिकरि सहित हो, यह मैं ज्ञायकस्वभाव तो आदिअन्तकरिरहित हू।
निर्विकल्प अन्तस्तत्त्व की शरणता—लो यह एक चैतन्यस्वभाव मैं हू। अरे, इसमें एक भी हम कैसे बोलें?तब एक बोला जाता है, जब अन्य संख्याओं को मना किया जाए। एक बोलना भी विकल्प बिना नहीं होता।
ज्ञानानुभव में रत अध्यात्मयोगी अपने आपको एक ब्रह्मरूप अनुभव नहीं करता, किन्तु ब्रह्मरूप अनुभव करता है। इस एक का भी जहां संकल्प विकल्प नहीं है ऐसे इस शुद्ध आत्मतत्त्व का ही वास्तविक शरण है। हे ज्ञानीसंतों ! संसार और भोग से पराङ्मुख होकर इस संसार के संकटों का विनाश करने वाले इस ध्रुव आत्मतत्त्व में दृष्टि क्यों नहीं देते? क्यों अध्रुव, विनाशीक, असार भिन्न जिनका आश्रय करके केवल क्लेश ही उठाया जाता ऐसे वैभव धन घर परिजन मित्रजन शिष्य इन परतत्त्वों में क्यों दृष्टि लगाये हो? आवो अपने विवेक मार्ग से और अपने आपमें समाये जाने का यत्न करो। यही है धर्मपालन और इसके लिए ही ये समस्त उपदेश हैं। ऐसा यह अंतस्तत्त्व अपने आपमें है। उसको दृष्टि करना हमारा धर्म के लिए प्रथम कर्तव्य है।
चित् तत्त्व का सत्य आधार—जैसे बड़ी तेज धूप गरमी से संतप्त मनुष्य धूप में गरमी का दु:ख सहता हुआ किसी शीतवाहक मकान के अन्दर का जो शीतलता का अनुभव है उसे नहीं पा सकता है, इसी प्रकार विषय कषायों के संताप से तपा हुआ यह प्राणी अपने आपके अन्तर में बसे हुए सहज ज्ञायकस्वभाव के अनुभवरूप परमआनन्द का परिचय नहीं पा सकता। यह अंतस्तत्त्व सहज गुणों का आकार है। जो जीव इस अनुपम स्वाधीन अंतस्तत्त्व को निरन्तर भेजता है, अपनी स्वाभाविक परिणतिरूप आनन्द समुद्र में अपने आपको मग्न करता है वह पुरुष संसार से समस्त संकटों से दूर हो जाता है। इस कारण हे आत्मकल्याणार्थी पुरुषों ! जितना करते बने करो, परन्तु अन्तरङ्ग में तो यह अटूट श्रद्धा रक्खो कि मेरी शरण, मेरा रक्षक, मेरा सर्वस्व, हित रूप यह मेरा शुद्ध अंतस्तत्त्व है, सहज ज्ञायक स्वरूप है, इसकी दृष्टि बिना संसार के हमारा उद्धार नहीं हो सकता। अब इस ही आत्मतत्त्व का कुछ और विशेषणों द्वारा विवरण कर रहे हैं।