वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 47
From जैनकोष
जारिसिया सिद्धप्पा भवमल्लिय जीव तारिसा होंति।
जरमरणजम्ममुक्का अट्ठगुणालंकिया जेण।।47।।
शुद्ध द्रव्यार्थिक दृष्टि से संसृति और मुक्ति में जीवों की अविशेषता—शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से जीवों का स्वरूप दिखाया जा रहा है। केवल द्रव्यत्व की दृष्टि से संसारी जीवों में और मुक्त जीवों में कोई विशेषता नहीं है। जो कोई अत्यन्त आसन्न भव्य जीव हैं वे भी पहिले संसार अवस्था में संसार के कष्टों से छके हुए थे, पर सहज वैराग्य का उदय होने से अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग परिग्रहों का परित्याग करके मुक्त हुए। जितने भी सिद्ध हुए हैं वे सब भी पूर्व अवस्था में हम आपकी तरह नाना अवस्थावों को धारण किए जा रहे थे, उन्हें किसी समय यथार्थ बोध हुआ, आत्मा और अनात्मा का भेदविज्ञान हुआ, अनात्मतत्त्व का परिहार किया और आत्मतत्त्व का उपयोग जुड़ाया कि वे कर्मों का विनाश करके मुक्त हो गए। वे भी वही हैं जैसे यहाँ के जीव हैं। एक मात्र अवस्था में ही तो अन्तर आ गया।
दृष्टान्तपूर्वक स्वरूपसाम्य का समर्थन—जैसे स्वर्णत्व सब स्वर्णों में एक ही है। कोई कई बार तपाया और शुद्ध किया जाने से अत्यन्त शुद्ध हुआ है और किसी स्वर्ण में तपाने या शुद्ध होने की योग्यता न मिलने से अशुद्ध अवस्था में पड़ा है किन्तु स्वर्णत्व की दृष्टि से शुद्ध स्वर्ण और अशुद्ध स्वर्ण में जो स्वर्णत्व है वह भी एक समान है। सर्राफ लोग अशुद्ध स्वर्ण में भी यह झांक लेते हैं कि इस पिण्ड का वजन तो एक तोला है, किन्तु इसमें स्वर्ण पौन हिस्सा ही दिखता है, 12 आने ही है—ऐसा जब वे तकते हैं तो उस अशुद्ध पिण्ड में भी उन्होंने केवल स्वर्णत्व को देखा और इस दृष्टि से वे पूरे दाम नहीं देते हैं अर्थात् 12 आने भर के उस स्वर्णत्व के पूरे रेट से दाम देते हैं और कोई उस एक तोला के पिण्ड को देखकर यों कहते हैं कि यह इतना अशुद्ध है इस कारण इसका इतना ही रेट होगा, , कम रेट लगाते हैं। तो अशुद्ध पिण्ड में भी जैसे शुद्ध स्वर्णत्व निरखा जा सकता है ऐसे ही इस अशुद्ध बंधन अवस्था में भी, संसार अवस्था में भी शुद्ध जीवत्व निरखा जा सकता है।
शुद्ध होने में प्रथम प्रयोग—शुद्ध जीवास्तिकाय की दृष्टि से जैसे सिद्ध आत्मा है ऐसे ही भव को प्राप्त हुए ये संसारी जीव भी हैं। जो कोई भी जीव कार्यसमयसार रूप हैं उनमें भी उस काल भी कारणसमयसार मौजूद है। शक्ति और व्यक्ति, जो शुद्ध है उसमें भी शक्ति और व्यक्ति है और जो अशुद्ध है उसमें भी शक्ति और व्यक्ति है। अशुद्ध अवस्था में शक्ति की व्यक्ति अशुद्ध है, विकृत है और शुद्ध अवस्था में शक्ति की व्यक्ति शुद्ध है। जैसे अशुद्ध स्वर्ण को शुद्ध होने में कुछ प्रयोग होते हैं, इसी प्रकार इस अशुद्ध जीव के शुद्ध होने का भी प्रयोग है। वह प्रयोग है वस्तुस्वरूप का ज्ञानाभ्यास करना। यह है प्रथम प्रयोग। पदार्थ के स्वरूप का जब तक यथार्थ निर्णय नहीं है, तब तक धर्म में प्रवेश ही नहीं है। धर्म शरीर की चेष्टा का नाम नहीं है। धर्म किसी वचन बोल देने का नाम नहीं है, किन्तु मोह क्षोभरहित आत्मा के परिणाम का नाम धर्म है। जहां अज्ञान न हो, मोह न हो, रागद्वेषादिक झंझट न हों, उसे धर्म कहते हैं। सर्वप्रथम आवश्यकता है कि मोह न हो। मोह न रहे इस जीव में, इसका उपाय यही है कि मोह नाम है दो पदार्थों में स्वामित्व मानने का तो उन पदार्थों को स्वतन्त्र समझ लीजिए। एक दूसरे का स्वामित्व न जाना जाए, इसी का नाम निर्मोहिता है तो अब वस्तु के स्वरूप को पहिचानिए।
भक्ति और ज्ञान का प्रसाद—भैया ! भगवान् की भक्ति का प्रसाद और है तथा ज्ञानाभ्यास का प्रसाद और है। ज्ञानी और भक्ति ये दोनों सहयोगी हैं, किन्तु भक्ति का विकास और है, ज्ञान का विकास और है। प्रभु की भक्ति ज्ञान में भी हो सकती है और अज्ञान में भी हो सकती है। अज्ञान में होने वाली भक्ति से कोई लाभ नहीं है, यह संसार ही संसार है और व्यर्थ का श्रम है। ज्ञान में होने वाली भक्ति में यह ही अपने को निर्णय होता है कि जैसा शिवस्वरूप यह भगवत्तत्त्व है, वैसा ही शिवस्वरूप यह मैं आत्मतत्त्व हू और जैसे यहाँ अपने हित की बात किसी को मिलती हो तो कैसा अनुराग बढ़ता हैं? ऐसे ही ज्ञानी जीव को अपने हित की बात में होने वाले विकास की बात भगवान् के स्वरूप के आदर्श से मिलती हो तो उस ज्ञानी के प्रभु की भक्ति भी बहुत बढ़ जाती है, पर भक्ति करे अथवा ज्ञानयोग में हो तो जितना भी निर्मोह होने का कार्य है, वह सब ज्ञान का फल है।
गुरुप्रसाद का उपाय—जगत् में अनन्तानन्त तो जीव हैं, अनन्तानन्त पुद्गल हैं, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और असंख्यात कालद्रव्य हैं। ये सबके सब पदार्थ अपने स्वरूप को नहीं तजते है। यदि कोई पदार्थ अपने स्वरूप को तजकर किसी पररूप हो जाए तो आज तो यह लोक दिखने को न मिलता, सब शून्य हो जाता है। ये सब पदार्थ अब तक अवस्थित हैं, यह इसका एक प्रबल प्रमाण है। प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप में ही अपना अस्तित्त्व रखते है , परस्वरूप में नहीं। तो यह यथार्थज्ञान परमगुरूवों के प्रसाद से प्राप्त होता है। आत्महित के प्रसंग में गुरुओं का बहुत अनिवार्य आलम्बन है और इन दोनों में भी सर्वप्रथम आलम्बन तो गुरुवों का है। देवों की बात किसने सिखाई? वे हैं गुरु। तो गुरुवों का प्रसाद पाकर जो परमागम का अभ्यास बना है, इस अभ्यास के बल से वस्तु का स्वरूप पहिचाना और मोह दूर किया।
गुरुप्रसाद का उपाय—गुरुवों का प्रसाद कैसे मिल सकता है? इसका उपाय सीधा एक है विनय। विनयगुण की बड़ी महिमा है। इस विनय को तप में शामिल किया गया है। विनय से एक तो गुरु का चित्त शिक्षण देने में प्रमुदित होता है और वह चाहने लगता है कि मर्म की बात, हित की बात इनको विशदरूप से बता दिया जाए और तत्त्व की बात गुरु का अधिक सहवास करने पर विनयपूर्वक उनकी सेवा संग में रहकर, बिना जाने किस क्षण में कोई समय मिलता है। कोई चाहे कि मैं एक दिन संग शुश्रूषा में रहकर सर्व बातें सीख लूं अथवा गुरु भी चाहे कि मैं इन्हें एक दिन में अनुभव की बात बता दूं तो यह बात कठिन है। तैयार हो करके गुरु कुछ मार्मिकतत्त्व बता नहीं पाता, किसी समय सहजरूप से कोई तत्त्व की बात यों निकलती है कि शिष्य उसे ग्रहण करके अपनी दृष्टि निर्मल बना लेता है।
विनय में शिक्षा ग्राहित्वशक्ति—दूसरी बात यह है कि विनयगुण से सींचा हुआ हृदय इतना पवित्र, कोमल और शिक्षाग्राही बन जाता है कि जो कुछ बताया जाए, वह उसके ग्रहण में आता जाता है। जैसे अन्दाज कर लो कि कोई पुरुष घमण्ड में आकर किसी गुरु से कहे कि तुम हमें अमुक बात बताओ और कुछ मान आदिक कषायों में अनिष्ट होकर सीखना चाहे तो क्या वह सीख सकता है? अध्यात्मतत्त्व की बात तो विनय बिना आती ही नहीं है, किन्तु लौकिक कलाओं की बात, जैसे कोई यंत्र चलाना सीखना या कोइ्र आर्ट सीखना चाहे या लौकिक विद्या सीखना चाहे तो वह भी लाठी के जोर से नहीं सीखा जा सकता है। एक छोटा भी कोई सा उस्ताद हो और उससे बड़े श्रीमंत भी कोई कला सीखना चाहें तो वह भी भली प्रकार तभी सीख सकता है, जबकि विनयपूर्वक सीखना चाहे। मुक्ति के मार्ग में यह प्रथम उपाय कहा जा रहा है कि अभ्यास करना मुक्ति मार्ग का प्रथम उपाय है।
भगवान् और भक्त में स्वरूपसाम्य—ज्ञान के अभ्यास की विधि में प्रथम बात यह है कि परमगुरुवों का प्रसाद प्राप्त करना। उस प्रसाद के बल से जो परम आगम का अभ्यास बना, उस अभ्यास से और आगे बढ़कर उन्होंने उस स्वतन्त्र ज्ञान प्रकाशमात्र आत्मस्वरूप को अनुभव में उतारा। यह अनुभव इतना आनन्ददायक है कि अपने आपमें यह अनुभवी व्यक्त और तुष्ट रहता है। इस महान् आनन्द के प्रसाद से भव-भव के संचित कर्म क्षीण हो जाते हैं। तब यह पवित्र आत्मा सिद्ध हो जाता है। तो जो ऐसे सिद्ध हुए हैं वे जीव भी और सिद्ध होने के यत्न में लग रहे हैं वे जीव भी तथा जो अज्ञानी बहिरङ्ग संसारी जीव हैं वे भी सबके सब जीवत्व स्वरूप की दृष्टि से एक समान हैं। यदि समान न हों तो ये जीव कितना भी यत्न करें मुक्त नहीं हो सकते। हम धर्म करके जो कुछ भी बनना चाहते हैं वे और हमसे भी अधम और जन क्या वे स्वरूपदृष्टि से एक समान नहीं हैं? यदि न हों एक समान तो हम उत्कृष्ट बन ही नहीं सकते। जिसके लिए हम धर्म का उद्यम कर रहे हैं।
स्वरूपसाम्य में एक फलित हेतु—यदि मुक्त भगवान् और हम आप स्वरूपदृष्टि से एक समान न हों तो धर्म करने की कोई जरूरत नहीं है।क्योंकि इससे कुछ नतीजा नहीं निकलता—सीझे हुए चने और बोरी में रक्खे हुए चने स्वरूपदृष्टि से एक समान हैं अथवा नहीं? हाँ बोरी में कंकड़ भरे हों तो एक स्वरूप नहीं हैं क्योंकि सीझे हुए चनों की तरह कंकड़ों को सीझाया नहीं जा सकता है। पर ये चने सीझे हुए चनों के समान ही जाति के हैं, स्वरूप के हैं। इसलिए ये चने भी सिझाई के उपाय से सीझ सकते हैं। हम आप मुक्त हो सकते हैं क्योंकि मुक्त का स्वरूप और मेरा स्वरूप एक समान है। न हो एक समान तो बालू की तरह हम भी उस सिद्धि को करने में समर्थ न हो सकेंगे।
प्रगति का दृष्टिबल—प्रभु का स्वरूप बाधारहित निर्मल केवलज्ञान, केवल दर्शन, केवल सुख और केवल शक्ति करि सहित है। वहाँ कोई तरंग ही नहीं उठती। रागद्वेष की तरंग उठे तो वह सिद्ध नहीं है अथवा दु:ख होगा। यह गुण उनमें प्रकट नहीं हो सकता। प्रभु अनन्त विकासरूपसिद्ध कार्यसमयसार रूप भगवान है। जैसे वह है तैसे ही यहाँ के संसार के प्राणी है। जिस नय से प्रभु में और हममें समानता है उस नय की प्रमुख दृष्टि बनाए और उस शुद्धनय के प्रसाद से स्वरूप अवलोकन करके अपनी प्रसन्नता निर्मलता प्राप्त करिये। जिस कारण से संसारी जीव और सिद्ध आत्मा एक समान हैं उसी कारण से इस समय भी इस संसारी जीव में उन प्रभु की भांति जन्म जरा मरण आदिक दोषों से रहितपना और सम्यक्त्व आदिक गुण करके सहितपना है, यह भी हम निरख सकते हैं।
प्रज्ञा की पहुंच—लोग कहते हैं कि ‘‘जहां न जाय रवि, वहाँ जाय कवि’’गुफावों में सूर्य की किरणें नहीं पहुंच सकती पर कवि की प्रतिभा में, गुफा में पहुंच हो सकती है। और यह आत्मगुफा जहां कि वर्तमान काल में सभी प्रकार के विकारों का नृत्य हो रहा है, ऐसे इस आत्मा में, गुफा में भी हम उस शुद्ध तत्त्व तक पहुंच जायें, यह शुद्ध आत्मा का अतुल प्रताप है। यह प्रज्ञा का बल है। चाहे सम्यग्ज्ञानी जीव हो, चाहे मिथ्याज्ञानी जीव हो—सर्वजीवों में उनके सत्त्व के कारण उनके सहजस्वरूप से शुद्धता है अर्थात् अनाकुलता है। पदार्थ स्वयं अपने आपमें जिस स्वरूप से है उसही स्वरूप से वे हैं। जब स्वरूप साम्य है तो फिर में इसके भेद को क्यों देखू।
हमारा एकमात्र लक्ष्यभूत द्रष्टव्य—देखिये संसारी जीवों में स्वरूप साम्य भी है और भेद की कलमषता भी है, पर जब हम भेद की कलमषता के परिज्ञान में लगते हैं तो हमें धर्म हाथ नहीं लगता, हित का पंथ नहीं चल पाता। मेरा कुछ लाभ नहीं होता उल्टी हानि है और जब हम सब जीवों में स्वरूपसाम्य की दृष्टि बनाते हैं तो तुरन्त ही हम धर्ममय बन जाते हैं, अनाकुलता प्राप्त होती है। सारी सिद्धियां इसमें भरी हुई हैं। तब फिर अब सोच लीजिए कि केवल देखने भर का ही तो काम है। उस भेद की कलमषतावों को मैं क्यों देखू जिनमें कुछ लाभ भी नहीं है। मैं तो उस स्वरूपसाम्य को ही निरखा करू जिसमें कुछ लाभ मिलता है। संसार के संकट टलेंगे। सदा के लिए कर्मबंधन मिटेंगे, जिस दृष्टि द्वारा उस दृष्टि का ही हमें निरन्तर उपयोग करने का ध्यान रखना चाहिए बाह्य में कोई आ पड़े की बात हो कि यह करना ही पड़ेगा अमुक कार्य, तो आ पड़े की हालत में आ पड़े को, दृष्टि से कर डालिए, अन्य काम, किन्तु रुचिया होकर मेरा कर्तव्य वह नहीं ही करने का हैं और कुछ करने का काम ही नहीं है ऐसा समझ कर आ पड़े वाले काम से छुट्टी मिलते ही इस ही स्वभावदृष्टि के कार्य में लग जाना चाहिए।
कृतकृत्यता—आनन्द है तो कृतकृत्यता में है। भगवान् कृतकृत्या है, इस कारण आनन्दमय है। कृतकृत्य उसे कहते हैं जिसने करने योगय सब काम कर लिया। सब किसने कर लिया? जिसको कुछ करने लायक ही नहीं रहा। एक स्वभावदृष्टि करके ज्ञान सुधार का पान करके संतुष्ट बने रहने का ही काम जिसका है उसने सब कुछ कर लिया अर्थात् करने को कुछ भी नहीं रहा। यथार्थज्ञान के परिणाम में यही एक बात बनती है—अब मेरे करने के लिए बाहर में कोई कार्य नहीं रहा। ज्ञानी संत बाहर में कुछ कर भी रहा है तो भी वह कर नहीं रहा है, क्योंकि यथार्थज्ञान अन्तर में प्रकाश बनाए हुए है कि तू तो केवल अपना भावमात्र कर रहा है। बाह्यपदार्थों में तू कुछ परिणति नहीं करता। इस ज्ञानपरिणाम में उसे संतोष, तृप्ति रहती है, तब फिर मैं जीवों की भेद कलमषतावों को न जान कर उनके स्वरूपसाम्य को ही जानता रहू, यही यत्न करना, सो ही सिद्ध होने का अमोघ उपाय है।
अभेदप्रवाह—इस निज परमस्वभाव को देखो—यह कारणपरमात्मतत्त्व अनादि काल से ही शुद्ध है अर्थात् केवल अपने स्वरूप को लिए हुए है। इस उपाधि के सम्बन्ध के कारण चाहे इन आत्मावों में रागद्वेषादिक विकार हो रहे हों, कुबुद्धियां नाच रही हों और कितने ही संत ऐसे हैं जिनके स्वभावदृष्टि बनी है और वे सुबुद्धि का विलास कर रहे हैं, पर इन सभी आत्मावों में यह कारणपरमात्मतत्त्व अनादि से शुद्ध है। किसी नय का आलम्बन करके व्यवहारनय का आलम्बन करके अथवा भेदवादी निश्चयनय का आलम्बन करके मैं उन आत्मावों में क्या भेद करू? जिनकी रुचि संसार के किसी कार्य में नहीं है, जिनकी दृष्टि एक आत्मस्वरूप के अनुभवन में ही लगना चाहती है, ऐसे पुरुष को इतना भी भेद सहन नहीं है कि इस जीव को इतना तो तक लें कि यह मनुष्य है, यह पशु है, यह पक्षी है अथवा अमुक रागद्वेष के वश है या अमुक रागद्वेष से परे है। भगवान् का भी भेद और भवालीन का भेद जिसकी दृष्टि को सहन नहीं है, ऐसे ज्ञानी के अनुभव की यह बात कही जा रही है। मैं अब क्या भेद करू, इस ही सम्बन्ध में फिर कुन्दकुन्दाचार्य देव कह रहे हैं।