वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 55
From जैनकोष
ववहारणयचरित्ते ववहारणयस्स होदि तवचरणं।
णिच्छयणयचारित्ते तवचरणं होदि णिच्छयदो।।55।।
व्यवहार और निश्चयतपश्चरण का आधार—व्यवहारनय के चारित्र में व्यवहारनय का तपश्चरण होता है और निश्चयनय के चारित्र में निश्चयनय का तपश्चरण होता है। यहाँ तक जो 5 गाथाए चली हैं, उन गाथावों में चार प्रकार की आराधनावों का निर्देशन है—सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप। इन 4 आराधनावों का संक्षेपीकरण दो आराधनावों से होता है—सम्यक्त्व आराधना और चारित्र आराधना। जैसे सम्यग्दर्शन के साथ सम्यग्ज्ञान लगा हुआ है इसी प्रकार सम्यक्चारित्र के साथ सम्यक्तप लगा हुआ है। व्यवहारनय के चारित्र के प्रकरण में तपश्चरण भी व्यवहारनय का कहा गया है और निश्चयनय के चारित्र के प्रकरण में निश्चय से तपश्चरण बताया है।
व्यवहारतप और निश्चयतप—उपवास, ऊनोदर, व्रतपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, काय क्लेश—ये 6 तो बाह्यतप हैं, ये व्यवहारनय के तपश्चरण हैं, किन्तु अन्तरङ्ग में जो 6 तप हैं प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग और ध्यान ये भी व्यवहारनय का तप है। निश्चयनय का तप तो चित्स्वभावमात्र अंतस्तत्त्व में उपयोग का प्रतपना सो निश्चयतप है। निश्चयनय की पद्धति में आखिर सब कुछ एक हो जाता है। यहाँ तक कि दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप—ये चार आराधनाएं एक ज्ञान—आराधनारूप रह जाते हैं। सम्यग्दर्शन क्या है? जीवादिक के श्रद्धान् के स्वभाव से ज्ञान का होना यह तो हुआ सम्यग्दर्शन और जीवादिक तत्त्वों के परिज्ञान के स्वभाव से ज्ञान का होना यह हुआ सम्यग्ज्ञान और रागादिक के त्याग के स्वभाव से ज्ञान का होना यह हुआ सम्यक्चारित्र। और चित्स्वभावमात्र, ज्ञानस्वभावमात्र, अंतस्तत्त्व में ज्ञान का प्रतपना सो हुआ सम्यक्तप। ये चारों की चारों ही बातें ज्ञानपरिणमनरूप बनती हैं।
स्वस्थिति में आत्मबल का प्रयोग—अंतस्तत्त्व में निश्चय होना सो तो दर्शन है, अंतस्तत्त्व में परिज्ञान होना सो सम्यग्ज्ञान है और अंतस्तत्त्व में स्थित हो जाना सो सम्यक्चारित्र है और अंतस्तत्त्व में ही उपयोग का प्रताप बनना सो सम्यक्तप है। अपने आपके स्वरूप में स्थिर होने में भी बल चाहिए। शरीर में जो भी चीजें हैं—खून है, नाक है, थूक है, राल है इन सबको थामे रहने के लिए शरीर में बल चाहिए। कोई वृद्ध हो अथवा रोग से क्षीण हो गया हो, ऐसा पुरुष अपनी नाक, कफ, थूक आदि अपने में थाम नहीं सकता। वृद्ध पुरुष के मुह से राल गिरती है और भी मल झरते हैं, वे थाम नहीं सकते, क्योंकि शरीर में रहने वाली चीजों को थामने के लिए बल चाहिए। ऐसे ही आत्मा में रहने वाले ज्ञानादिक गुणों को आत्मा में ही थामने के लिए आत्मा का बल चाहिए।
आत्मबल की आवश्यकता का अनुमान—भला, कुछ अनुमान बनावो—जो चित्त में विकल्पजाल मचा करता है वह विकल्पजाल न हो और निर्विकल्प समाधिमय यह अंतस्तत्त्व रहे, ऐसा करने के लिए कितने बल की आवश्यकता है? शरीर बल की नहीं, अन्तरबल की आत्मबल की और किसी बाह्यपदार्थ में मन को दौड़ाने में किसी से राग करने में प्रेमभरी बात बोलने में, मोह बढ़ाने में कुछ बल न चाहिए विशेष। मन में आया, स्वच्छन्दता करने लगा तो यह जीव कर लेता है। अपने आपके गुणों को अपने आपमें स्थिर करने के लिए बड़े पुरुषार्थ की आवश्यकता है। करोड़ आदमियों में से भी कोई एक ही पुरुष ऐसा हो जो अपने आपके गुणों को, परिणमनों को अपने आपमें ही थाम सकता है, अपने उपयोग को अपने में स्थिर कर सकता है।
ज्ञानयोगी का उपकार—भैया ! मूढ़ लोग भले ही उन ज्ञानयोगी संतों के प्रति ऐसा कहें कि देश के लिए ये लोग बेकार हैं कुछ लोकोपकार करते ही नहीं हैं, किन्तु यह क्या कम उपकार है कि ऐसे पुरुषार्थी ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्व में उपयोग को स्थिर करने वाले अतएव शांत और समदर्शी जो हुए हैं, उनकी मुद्रा का दर्शन, उनकी चेष्टा का निरखन, उनकी वाणी का श्रवण अथवा उनके सत्संग में उपस्थित होना हैं—यह सब एक भावमय बिजली की करेण्ट की तरह चित्त में शांति उत्पन्न करने के कारण बन जाते हैं? यह कोई कम उपकार नहीं है। दूसरी बात शरीरबल की अपेक्षा बुद्धिबल विशेष होता है और बुद्धिबल की अपेक्षा आत्मबल अत्यधिक होता है।
शरीरबल से बुद्धिबल की विशेषता—ऐसे ही एक कथानक है—एक पुरुष की लड़की की शादी थी। उसने बारात वालों को यह सूचना दे दी कि बारात में कोई बूढ़ा न आए, सब जवान आए। बारातियों ने सोचा कि इस लड़की वालों ने बूढ़ों को मना किया है तो इसमें कोई राज होगा। सो एक बड़े संदूक में सांस आने के लिए छेद बना लिया और उसमें एक बूढ़े को बैठाकर सन्दूक लेकर वे बाराती पहुंचे। लड़की वाले ने क्या किया कि उसमें 50 बाराती थे तो 50 गुड़ की भेली डेढ़-डेढ़ सेर की उन बारातियों को दे दी और कहा कि आप सबको एक-एक भेली दी जाती है, सब लोग खा लो। अब डेढ़ सेर भेली को कौन खा सकता है? सो अफसोस में सभी बाराती पड़ गए। एक बाराती ने कहा कि उस वृद्ध पुरुष से सलाह ले लो कि किस तरह से खायी जाये। एकान्त में उन्होंने सन्दूक को खोला और बूढ़े से पूछा कि भाई 50 भेली डेढ़-डेढ़ सेर की मिली हे और 50 ही आदमी हैं तो उनको कैसे खाएं? उस बूढ़े ने कहा कि सभी बाराती एक-एक भेली एकदम न खावें, बल्कि चलते-फिरते, दौड़ लगाते, हंसते व खेलते सभी भेलियों में से थोड़ा-थोड़ा नोच खचोटकर खावें। अब तो मन्त्र मिल गया। अब फिर सन्दूक बन्द कर दिया और सभी अपनी भेलियों को थोड़ा-थोड़ा नोच खचोटकर हंसते, खेलते, दौड़ते, भागते हुए खाने लगे। लो वे सब भेलियां खा ली गयी और मन भी बहल गया। तो देखो यदि इस तरह नहीं करते तो वे डेढ़-डेढ़ सेर की भेली कैसे खाते? तो शरीरबल से बुद्धिबल विशेष हुआ ना।
आत्मचिंतन में आत्मबल का पोषण—भैया ! अब आत्मबल का तो कहना ही क्या, जहां एक भी संकट नहीं रह सकता? क्या हैं संकट? कोई क्लेश सामने आया हो तो एक चिंतन में निगाह कर लो। मैं सबसे न्यारा ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्व हू, मैं परिपूर्ण हू, जिसे कोई जानता नहीं है, कृतार्थ हू, जो मुझमें हैं वह कहीं जा नहीं सकता और जो बाहर की बातें हैं, वे मुझमें आ नहीं सकती। यह तो मैं पूर्ण सुरक्षित अन्तस्तत्त्व हू, एक ही चिंतना में, एक झलक में सारे संकट एक साथ समाप्त हो जाते हैं, जो यह भावना है, इसही भावना को बारम्बार दृढ़ करना यही धर्म का पालन है। अब आप जानिए कि अपने आपके अन्तर में जो निधि है, उस निधि को सुरक्षित बनाने में कितने आत्मबल की आवश्यकता है? ऐसा करने में जो प्रताप उत्पन्न होता है, उसी प्रताप का नाम निश्चयतप है। यह निश्चय आराधना योग मोक्ष का हेतुभूत है।
सहजविश्राम—अहो ! ऐसा सहजज्ञान जिसका निश्चय, जिसका परिज्ञान, जिसमें स्थिति, जिसका प्रताप मोक्ष का हेतु है, वह सहजज्ञान ही हम आपका परमशरण है। चिंता कुछ मत करो, दु:ख रञ्ज भी नहीं है। अपने आपको आराम में रखना, यह सबसे ऊँचा काम है। अपना आराम मूढ़ता में आकर खो मत दो। इन 24 घण्टों में किसी भी समय तो सच्चा आराम पावो। जैसे लोग थककर 10-20 मिनट को हाथ पैर पसारकर चित्त लेटकर आराम ले लिया करते हैं, यों ही विकल्पजालों में जो दु:खों की थकान होती है, उस थकान को दूर करने के लिए सर्व पर की चिंता को छोड़ कर निजसहज ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व का दर्शन करिये और उसही में रमण कीजिए, तृप्त होइये—ऐसा सच्चा आराम एक सेकण्ड को भी हो जाए तो वह भव-भव के सञ्चित कर्मकलंकों को दूर करने में समर्थ है। सो इस निजसमृद्धि के लिये साधनभूत अमोघ अभिन्न उपाय का चार प्रकार से भेद कथन किया गया है।
सहजवृत्ति का प्रताप—इस सहजज्ञान का ज्ञान व सहजज्ञान जयवंत प्रवर्तो और सहजदर्शन तथा सहजदर्शन की दृष्टि जयवन्त प्रवर्तो। जो भी सहज दिखा अपने आपमें, वह ही तो परमात्मतत्त्व है और जो कृत्रिमता से बनावटीरूप से ढंग बनाकर दिखावा करे वह आत्मतत्त्व नहीं है। बनना अच्छी बात नहीं है सहजसरलस्वभाव से, विवेक को खोने की बात नहीं कह रहे हैं, विवेकी रहकर सहजसरलता से तो वृत्ति बने वह उत्तम है। अन्तर में कपट भाव रखना, धन सामग्री होते हुए भी अन्तर में तृष्णाभाव रखना, अन्य जीवों से अपने को बड़ा समझकर मान परिणाम में आना और किसी बात के कारण या इष्टसिद्धि में बाधा होने पर क्रोध भाव करना—ये सब कषायें इस जीव की सहजवृत्ति से विपरीत हैं, बनावटी हैं। ये सब बनावट न करके सहज जो परिणाम जगे, उस परिणाम में रत होना यही मुक्ति का उपाय है।
सहजदृष्टि में साधुता—एक गुरु शिष्य राजा के बाग़ में पहुंचे। वहाँ एक-एक कमरे में ठहर गये। राजा घूमने आया। सिपाहियों को राजा के स्वागत सुविधा के लिए कुछ चीजों की जरूरत थी, उस कमरे से कुछ चीज लाने को एक सिपाही गया तो देखा कि दो आदमी बैठे हैं। सिपाही राजा के पास गया और बोला कि महाराज ! वहाँ दो आदमी बैठे हैं। राजा ने कहा कि उनसे कह दो कि यहाँ से जायें। सिपाही पहिले शिष्य के पास गया और कहा कि तुम कौन हो? शिष्य बोला कि तुमको दिखता नहीं कि मैं साधु हू। तो सिपाही ने कान पकड़कर उसे निकाल दिया। दूसरे से कहा कि तुम कौन हो? तो वह चुपचाप रहा और ध्यान में लीन रहा। सिपाही राजा से कहता है कि महाराज ! एक आदमी तो बिल्कुल बोलता ही नहीं है और आंखें बन्द किए हुए शांत बैठा है। राजा ने कहा कि उन्हें मत छेड़ना, वे साधु होंगे। अब वह राजा धूमधाम कर वापिस चला गया तो शिष्य ने कहा कि महाराज ! आप तो मजे में रहे और हमें तो कान पकड़ कर यहाँ से भगा दिया। गुरु कहता है कि हे शिष्य ! तुम कुछ बने तो नहीं थे। जो बनता है वह पिटता है। कहा महाराज ! हम कुछ नहीं बने थे। मुझसे पूछा कि तुम कौन हो? तो मैंने कहा कि दिखता नहीं है तुम्हें? मैं साधु हू। गुरु बोला कि यही तो बनना हुआ। साधु होकर जो अपने को साधु बताता है, यह श्रद्धान् करता है कि मैं साधु हू तो वह बनना ही है। साधु पुरुष वह है कि जो चैतन्यस्वभावमात्र आत्मा की दृष्टि करके प्रसन्न रहे। साधु पर्यायरूप आत्मश्रद्धान् न बनाए। मैं तो एक चैतन्यतत्त्व हू, ऐसी सती दृष्टि हो तो साधुता वही विराजती है। बनावट में तत्त्व नहीं मिलता है, किन्तु सहजसरल भाव में वस्तु का तत्त्वमर्म विदित होता है, वह सहजदृष्टि जयवन्त हो और वह सहजचारित्र जयवन्त हो।
परमोपकारी परमयोग—सिद्धभगवान् की पूजा में इसका यह छन्द है—
समयसार सुपुष्पसुमालया सहजकर्मकरेण विशोधया।
परमयोगबलेन वशीकृतं सहजसिद्धमहं परिपूजये।।
मैं सहजसिद्ध को परिपूजता हू। यहाँ मैं का अर्थ है उपयोग और सहजसिद्ध का अर्थ है अध्यात्मदृष्टि से अपने आपमें बसा हुआ कारणसमयसार। जो सहज ही सिद्ध है, स्वभावत: परिपूर्ण है उसको में परिपूजता हू अर्थात् अपने आत्मा के सर्वप्रदेशों में दर्शन, ज्ञान, चारित्र की वृत्ति द्वारा पूजता हू। कैसा यह सहजसिद्ध है कि जो परमयोग के बल से वश में होता है। यह सहजसिद्ध मेरे उपयोग के विकल्प में नहीं आता। यह दूर बना हुआ है, यह मेरे लक्ष्य में आयेगा परमयोग के बल से। वह परमयोग क्या है? इसी शुद्धस्वभाव में निश्चयनय का परिज्ञान होना, स्थिरता होना, प्रवचन होना, यह ही मेरा परमयोग है। ऐसे परमयोग के बल से जो वश किया जाता है, ऐसे इस सहजसिद्ध को मैं पूजता हू। काहे के द्वारा? भगवान् की पूजा क्या किसी भिन्न वस्तु में हो सकती है? फूलों की मालाएं ये भिन्न पदार्थ भगवान् को क्या महत्त्व दर्शाने वाले है? मैं तो समयसाररूपी पुष्पमाला से इस सहजसिद्ध को पूजता हू, जो सहजचारित्ररूपी हाथ से तैयार की गई है। अपने सहजसिद्ध से ही यह समयसारदृष्टि में आता है और इसके ही बल से परमयोग प्राप्त होता है और अपने आपके वश में अर्थात् दृष्टि में रहा करते हैं। ऐसा यह कारणसमयसार, सहजज्ञान, सहजदृष्टि, चित्स्वभाव सच्चिदानन्दमय परमपारिणामिक भाव वह सदा जयवन्त प्रवर्तो। मेरा मन एक इस निजस्वभाव के दर्शन में लगो, अन्यत्र मत विचरो।
सहजचेतना विभूति—यह सहजपरमभाव में रहने वाली चेतना समस्त पापमल को दूर करने में समर्थ है। खोटे भाव जगना इससे बढ़कर कुछ विपत्ति नहीं है। वह पुरुष वैभववान् है, जिसके स्वप्न में भी अन्याय करने की वासना नहीं जगती। किसी जीव को सताने का, किसी के बारे में झूठ बोलने का, चुगली करने का, निन्दा करने का परिणाम जिसके नहीं होता; किसी के चीज चुराने का अथवा कामवासना का भूत लादने का और धन परिग्रह की तृष्णा रखने का जिसका परिणाम नहीं जगता है और अपने को निर्भार अनन्त विधिवान् ज्ञानस्वरूप निरखने का यत्न जिनके होता है, वे ही वास्तव में वैभववान् पुरुष हैं।
नियमसार की भावना—अब यह नियमसार का शुद्धभावनामक तृतीय अधिकार समाप्त हो रहा है। इस अधिकार में आत्मा के शुद्ध भवों का स्वरूप कहा गया है। उस स्वरूप के चिंतन द्वारा भावमय अपने को निहारकर कृतार्थ होना यह हमारा कर्तव्य है। एक इस निजअन्तस्तत्त्व को छोड़कर मेरे लिए अन्य कुछ उपादेय नहीं है। इस अन्तस्तत्त्व में केवल ज्ञानप्रकाश पाया जाता है। उस ज्ञानप्रकाश की दृष्टि से ही यह अन्तस्तत्त्व अनुभूत होता है। इसमें न कोई बाह्यपदार्थ है, न उनके निमित्त से होने वाले कुछ तरंग भाव हैं। सर्व पर और परभावों से रहित यह मेरा अन्तस्तत्त्व मेरे को शरण है। जहां संसार का भटकना नहीं हैं, भव से रहित है, स्वाधीन है, सर्वविभावों से दूर है—ऐसा यह अन्तस्तत्त्व मेरी दृष्टि में रहे और ऐसा समय चिरकाल तक बना रहे कि इस प्रतिभासमात्र अपने आपको प्रतिभासता रहूं।
सहजस्वभाव लाभ के लिये यत्नशीलता—इस अन्तस्तत्त्व का कोई बाह्यचिह्न नहीं है, इस चिह्न के द्वारा हम इसके स्वरूप में प्रवेश कर सकें। इसका चिह्न तो केवल ज्ञानभाव है, सहजज्ञान है, जिस सहजज्ञान की दृष्टि में सर्व जीव एक समान हैं। सिद्ध हो, संसारी हो, सर्वप्राणियों में जो एक स्वरूप रहा करता है, ऐसा सहजचित्स्वभाव, वह ही हमारे लिए उपादेय है। उसको ही दृष्टि में रखने के लिये हम पाये हुए सब कुछ समागम को न्योछावर करके भी प्रयत्नशील रहें।
࿕ समाप्त ࿕