वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 63
From जैनकोष
कदकारिदाणुमोदणरहिदं तह पासुगं पसत्थं च।
दिण्णं परेण भत्तं समभुत्ती एसधासमिदी।।63।।
साधुवों के आहार की निरपेक्षता—दूसरे के द्वारा दिये गए और कृतकारित मोदना से रहित प्रासुक और प्रमाद आदिक दोषों को न करने वाले ऐसे वचन ग्रहण करना सो एषणासमिति कहलाती है। एषणा का अर्थ है खोज। अपने आहार की खोज करना, इसका नाम एषणासमिति है और विधिपूर्वक साधनानुकूल शुद्ध आहार की खोज करना सो एषणासमिति है। मुनिजन स्वयं आरम्भ नहीं करते हैं, इसके दो कारण हैं—एक तो भोजन में इतनी आसक्ति नहीं है कि उस भोजन की व्यवस्था के लिए स्वयं कोई यत्न करें। जैसे जिस रोगी को अपना रोग मिटाने के विषय में ख्याल नहीं है तो उसका इतना यत्न न होगा कि अपनी औषधि का फिक्र रक्खे, स्वयं बनाए और श्रम करे। उसे दूसरे ही बनाते खिलाते है तब खाते हैं। यों ही ज्ञानीसंत जिनको अपने आत्महित की धुनि लगी हुई है ऐसे पुरुष को अपने आहार आदिक की धुन नहीं है, आसक्ति नहीं है कि वह स्वयं आहार का आरम्भ करे। तब फिर चूंकि शरीर की स्थिति आहार बिना नहीं रहती है सो ऐसी स्थिति में शुद्ध प्रासुक विधिवत् आहार करना, इसे एषणासमिति कहते हैं। साधु दूसरों के द्वारा भक्तिपूर्वक दि गए आहार को ग्रहण किया करते हैं।
नवकोटिविशुद्ध आहार—आहार की ऐसी एषणा में कारणभूत दूसरी बात यह है कि आहारविषयक आरम्भ करने पर उसमें हिंसा का भी दोष होता है। और वह मुनि 6 कायों की हिंसा से सर्वथा दूर है, इस कारण भी आहारविषयक आरम्भ वे नहीं करते हैं तब वे दूसरों के द्वारा भक्तिपूर्वक दिये गये आहारों को ही ग्रहण करते हैं। वे आहार स्वयं नहीं बनाते हैं और न दूसरों से कहकर बनवाते हैं और न उसमें वे अनुमोदना करते हैं कि अमुक-अमुक तरह से भोजन बनावो। ऐसी कृतकारित अनुमोदना से हित और मन के संकल्पों से रहित वे साधु जन होते हैं। इस प्रकार का आहार बनाएं ऐसा मन से भी संकल्प नहीं रखते, वचन से भी सम्बन्ध नहीं रखते और शरीर का तो सम्बन्ध ही क्या है? यों नवकोटि से विशुद्ध आहार को साधुजन ग्रहण करते हैं। वह आहार प्रासुक होना चाहिए, जीव जंतु के संसर्ग से रहित होना चाहिए, त्रस आदिक जीवों की हिंसा से रहित आहार हो, ऐसा प्रासुक आहार ही साधुजन ग्रहण करते हैं और साथ ही प्रशस्त आहार हो जो प्रमाद न बढ़ायें, जो परिणामों में कलुषता उत्पन्न न करे, ऐसा शुद्ध आहार साधु पुरुष लिया करते हैं।
नवधाभक्ति की अनिवार्यता—शुद्ध प्रासुक आहार को भी साधु नवधाभक्ति देख करके लेते हैं। साधु देख लेते हैं कि श्रावक में उचित भक्ति है या नहीं और जैसी विधि हो उसी विधि में पड़गाहा है कि नहीं और शुद्ध विधि में इसकी उसही प्रकार है कि नहीं, इन सभी बातों को साधुजन देखते हैं। यदि ये सब बातें ठीक-ठीक हैं तो वे आहार ग्रहण करते हैं। यहाँ कोई लोग यह शंका कर सकते हैं कि साधुजन तो सन्मान में अपमान में समान बुद्धि रखते हैं तो आहार के समय इतना क्यों निरीक्षण रखते हैं? इसकी भक्ति यथार्थ है, इसकी यथार्थ भक्ति नहीं है, ऐसा निरीक्षण वे क्यों करते हैं? समाधान उसका यह है कि साधुवों के पास यह जानने का और कोई उपाय नहीं है कि इसके यहाँ आहार शुद्ध और विधिपूर्वक बना है या नहीं। वे किसी से पूछते तो हैं नहीं, मौन से उनकी चर्या होती है। संकेत और इशारा भी नहीं करते हैं। सो साधुजन क्या उपाय कर सकें जिससे यह पहिचान जायें कि इसके यहाँ भोजन शुद्ध प्रासुक और विधि सहित बना हुआ है, इस बात के पहिचानने का उपाय साधुजनों को नवधाभक्ति को उचित देख लेना ही रह गया है। वे नवधाभक्ति को देखकर यह जान जाते हैं कि यह आहार विधि से परिचित पुरुष हैं, इसने विधिपूर्वक आहार प्रासुक बनाया है, फिर वे ग्रहण करते हैं।
साधुवों की आहार में अनासक्ति—साधुजन अंतराय टाल कर आहार ग्रहण करते हैं। साधुवों का आहार ग्रहण निरपेक्षता पूर्वक होता है। जैसे जंगल में हिरण घास खाते हैं तो उनको घास खाने में अधिक आसक्ति नहीं होती है। जैसे बिलाव में चूहे खाने की इतनी आसक्ति है कि उसे डंडे भी मारो तो भी वह चूहे को छोड़ नहीं सकती। पशुवों में सबसे अधिक आसक्ति बिलाव में है और सबसे कम आसक्ति हिरणों में है। वे जंगलों में घास खा रहे होंगे और थोड़ी भी आहट आये तो तुरन्त सावधान हो जाते है। कभी देखा होगा तो समझ गये होंगे कि हिरण अपने भोजन में अनासक्त रहते हैं। यह तो एक उदाहरण की बात कही है। साधुजन अपने आहार में इतने अनासक्त होते हैं कि कोई थोड़ी बाधा आ जाय, जो दोष करने वाली हो, मन में ग्लानि करे अथवा बाह्य में हिंसा हो, इस प्रकार का कोई भी अन्तराय आये तो वे आहार छोड़ देते हैं।
आहार में मुख्यदोष—आहार में मुख्य दोष चार बताये गए हैं, और उनसे भी मुख्य दोष एक अध:कर्म है। अध:कर्म क्रिया से निमित भोजन अत्यन्त सदोष भोजन है याने जो असावधानी से बनाया गया हो, अनछने जल से तैयार किया गया हो, चीजों को समेटकर सारी क्रिया की जा रही हो, मर्यादा से अधिक आटा सामग्री हो, उससे बनाया गया भोजन, कई दिन का पड़ा हुआ भोजन अथवा रात्रि के समय का बनाया हुआ भोजन ये सब अध:कर्म दोष से दूषित हैं। साधुजन अध:कर्म निमित आहार को ग्रहण नहीं करते हैं। आजकल में चर्या के लिये अधिक प्रचलित एक दोष बताया है उद्दिष्ट दोष, किन्तु अध:कर्म दोष तो मुख्य दोष है। कोई साधु उद्दिष्ट दोष का तो बड़ा ध्यान रखे और अध:कर्म दोष का कुछ भी न ख्याल रक्खे तो यह उसकी विपरीत बुद्धि है। ऐसा भोजन जो खूब जगह-जगह मिल जाता है। कोई बना रहा हो, किसी भी जाति का हो, सब जगह भोजन तैयार रहता है वह सब अनुद्दिष्ट भोजन है। वह साधु को आहार कराने की दृष्टि से नहीं बनाया गया है। तो क्या वह आहार निर्दोष है? और उद्दिष्ट का बाबा अध:कर्म दोष उसमें पड़ा हुआ है।
आहार के चार महादोष—अध:कर्म के अतिरिक्त चार महादोष ये हैं—(1) अङ्गार, (2) धूम, (3) संयोजना, (4) अतिमात्र। किसी वस्तु की मन में निन्दा करते हुए, ग्लानि करते हुए भोजन करना। इसने बड़ा रूखा भोजन बनाया, वह बड़ी कंजूसी से परस रहा है अथवा किसी भी प्रकार के दातार की निन्दा मन में करते हुए भोजन करते जाना यह धूम नामक महादोष है। अंगार दोष—यह वस्तु स्वादिष्ट है और मिले, ऐसी अत्यासक्तिपूर्वक भोजन करते जाना सो अंगार दोष है। गरम ठंडा आदि परस्पर विरुद्ध पदार्थों को मिलाकर खाना संयोजना दोष है। शास्त्रोक्त भोजन के परिणाम से अधिक-अधिक भोजन करना, सो , अतिमात्र नामक दोष है। सब महादोषों से रहित शुद्ध प्रासुक आहार को साधुजन ग्रहण करते हैं।
आहार में अनाहारस्वभावी आत्मा का स्मरण—आहार करते हुए में साधु के बार-बार यह स्मरण चलता रहता है कि मेरा आत्मा तो आहार से रहित शुद्ध ज्ञानमात्र प्रभु है। इसमें तो आहार है ही नहीं। आहार तो एक दोष है। आहार करते हुए भी अनाहारस्वभावी अपने आत्मा का ध्यान करते जाते हैं और यह भी स्मरण रखते हैं कि मेरा विकास है अरहंत और सिद्ध की अवस्था। इसका जो उद्यम है वह अरहंत और सिद्ध अवस्था पाने के लिए उद्यम है। जो दशा अनन्तकाल तक बिना आहार के शुद्ध आनन्दमय रहा करती है उस स्थिति के पाने में मेरा यत्न हो, कहां यहाँ इस आहार के झंझट में पड़ा हुआ हू, ऐसा उनके आहार करते हुए में खेद बनता है। कोई लोग तो आहर करके मौज मानते हैं, बहुत शुद्ध, बहुत रसीला भोजन बना और साधुजन भोजन करते हुए खेद कर रहे हैं कि अनाहार स्वभावी इस मुझ आत्मा को जो प्रभुवत् निर्मल है, शुद्धज्ञायकस्वरूप है। यहाँ कहां आहार जैसे झंझट में लगा रहा हू? आहार प्रक्रिया में भी खेद मानते हैं, मौज नहीं मानते हैं।
आहार लेने की विवशता—भैया !साधु आहार से निरपेक्ष होते हैं, उन्हें आहार करना पड़ता है। शरीर लगा हुआ है, उसमें क्षुधा की वेदना पड़ी हुई है, उस वेदना को दूर कर ध्यान में लगा करते हैं। और वेदना ही क्या, वेदना का तो इसमें कुछ प्रवेश ही नहीं है, कितनी ही वेदनाएं हों किन्तु ये वेदनाएं बढ़कर प्राणघात कर देती हैं। ये प्राण भी द्रव्यप्राण हैं ना, परवस्तु हैं, मेरे स्वभाव नहीं हैं; किन्तु अचानक ही मेरे सावधान हुए बिना मेरी अंतरङ्ग में पूरी प्रतिष्ठा हुए बिना अर्थात् ज्ञानानुभूति में स्थिर हुए बिना यदि यह जीवन बीच में ही बुझ गया तो आगे क्या हाल होगा? अन्य देह होना पड़ेगा। ओह जब साधु को यह झनक आती है कि मुझे मरकर देव बनना पड़ेगा तो इसका भी विषाद उनके होता है।
अज्ञानियों की देवगति में रुचि—अज्ञानी जन तो देव होने के लिए तरसते हैं। भाई यह पुण्य काहे को कर रहे हो? अरे पुण्य करेंगे तो देव बनेंगे, भोग मिलेंगे, एक से एक सुन्दर देवांगनायें मिलेंगी। छोटे से भी छोटे, खोटे से भी खोटा देव हो तो भी उसकी कम से कम 32 देवांगनाए होती हैं, और बड़े देव हुए तो वहाँ तो सैकड़ों और हजारों देवांगनाए हो जायेंगी। वहाँ चिंता क्या है, वहाँ खेती नहीं करना है, रोजिगार नहीं करना है। वहाँ देवों को और देवियों को सैकड़ों हजारों वर्ष में भूख लगती है, तो उनके कंठ से कोई अमृतसा झड़ जाता है। होगा कोई एक खासा थूक जैसे अपने कंठ से भी कभी हर्षोत्पादक थूक गले में उतर जाता है, ऐसे ही उनके कंठ से कुछ और कल्पित अमृतसा झड़ जाता है। हित नहीं है वह। लोभ कषाय देवों में इतनी प्रबल हैं जितनी मनुष्यों में प्रबल नहीं हैं। लोग समझते हैं कि लोगों को लोभ कषाय बहुत तेज लग रही है। अरे लोगों का लोभ कषाय तेज नहीं है, मान कषाय तेज है, वह धन का संचय भी मान कषाय को पुष्ट करने के लिए किया करता है।
साधुवों की देवगति में अरुचि—जब साधुजनों को यह झनक आती है कि ओह मरकर देव होना पड़ेगा, सम्यग्दर्शन होने पर मनुष्य को देव आयु का बंध होता है, अन्य आयु का बंध नहीं होता है। अरे धर्मकार्यों में तो लगे हुए हैं और रत्नत्रय की साधना उत्कृष्ट बन पायी है, ऐसी स्थिति में मरण होगा तो देव ही तो बनना पड़ेगा। अहो यहाँ तो बड़ा आनन्द लूट रहे हैं ब्रह्मस्वरूप के अनुभव का, ज्ञानानन्द का और वहाँ जाकर उन देवियों में रमना पड़ेगा, उनका चित्त प्रसन्न रखते रहना पड़ेगा और विषयों में फंसना होगा। यहाँ तो ब्रह्मचर्य की परम साधना कर रहा हू और अन्तर में यह भावना रखता हू कि हे प्रभु !अब जब तक मुक्ति नहीं होती मेरी, तब तक ब्रह्मचर्य रहो। शेष के भव-भव में ऐसी भावना भायी है और इस मुझको वहाँ ब्रह्मचर्य का घात करने में, देवियों को प्रसन्न करने में उलझना पड़ेगा। मुझे इस बात का खेद होता है।
देवगति की पर्याय में भी ज्ञानियों का ज्ञान—हमारे ये ऋषि संतजन कुन्दकुन्दाचार्य, समन्तभद्र, अकलंक आदि-आदि सभी आचार्य जो कि ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण थे, जिन्होंने देवगति को हेय माना था और भोग विषयों को बड़ा निंद्य बताकर दुनिया में प्रसिद्ध किया था। जिनके स्वप्न में भी भोग और उपभोग की वासना न थी, उन आचार्यों की आत्मा अब यहाँ नहीं है, उनका देहांत हो गया है। भला कल्पना तो करो कि वे आचार्यगण मरकर कहां उत्पन्न हुए होंगे? आपकी कल्पना में आ रहा होगा कि वे देव ही हुए होंगे। अब देव बनकर क्या कर रहे होंगे? ओह सभा जुड़ी होगी, नाच गान हो रहा होगा, देवांगनाए नृत्य कर रही होंगी और अपना मन बहलाने के लिए द्वीप द्वीपान्तरों में यत्र तत्र विहार कर रहे होंगे और वे भी भोगोपभोग में रमे होंगे। क्या करें, उन्हें करना पड़ रहा होगा, लेकिन सम्यग्ज्ञान वहाँ भी जागृत है तो उस भोगोपभोग की स्थिति में भी वे विरक्त होंगे और अपने इस शुद्ध चित्स्वरूप परमब्रह्म की ओर ही उनका लक्ष्य होगा।
प्रतिग्रहरूप में भक्तों के आग्रह का रूप—खैर, साधुजन इतने निष्पृह होते हैं कि उनके आहार की रुचि नहीं है फिर भी करना पड़ता है। भला बतलावो जिसको रुचि न हो, जिसे आसक्ति न हों उसे कोई बहुत मनाकर खिलाये तब ही पेट में भोजन पहुंच सकता है। जिस बालक को खाने में रुचि नहीं है, खेल ही खेल में भागता फिरता है उस बालक को मां बहुत मन कर खिलाती है तब एक दो रोटी खा पाता है, और थोड़ा ही पेट में कुछ पहुंचे तो झट हाथ धोकर भाग जाता है। यों ही साधु संतों को आहार करने में आसक्ति नहीं है। इस कारण इन साधुवों के उपासक श्रावक जन मना-मनाकर बड़ी भक्ति करके, बड़ा सत्कार करके उन्हें खिलाते हैं तब जाकर साधुसंतों के पेट में कुछ भोजन पहुंचता है, किन्तु थोड़ी ही उदर की पूर्ति हुई कि झट हाथ धोकर अपनी आहार क्रिया समाप्त करके शीघ्र ध्यान के अर्थ, अपने आत्मशोधक के अर्थ चले जाया करते हैं। उन साधुवों के एषणासमिति होती है।
आहार की नवकोटि विशुद्धता—टीकाकार पद्मप्रभमलधारी मुनि साधु संतों का आहार कैसा होना चाहिए—इस सम्बन्ध में कह रहे हैं कि पहिले तो नवकोटि से विशुद्ध होना चाहिए। यह साधु के हाथ की बात है। न करें न करायें, न अनुमोदे, न संकल्प करें, न वचन से कहें, न शरीर से श्रम करें तो वह नवकोटि विशुद्ध आहार हो जाता है।
आहार की प्रशस्तता—दूसरी बात, वह अति प्रशस्त होना चाहिए। इसका अर्थ देते हैं कि मन को हरने वाला भोजन होना चाहिए। काला कलूटा बुरे रंग का न होना चाहिए। यद्यपि साधुसंत सबमें समता रखते हैं मगर करें क्या, जिनको आहार करने की रुचि नहीं है और जबरदस्ती मनाकर खिला रहे हैं उन्हें तो थोड़ा भी मैलाकुचैला दिखेगा तो जान जायेंगे कि इस श्रावक में कोई कला ही नहीं है। कलारहित होगा बनाने वाला, और जो कलाहीन होगा बनाने वाला उससे शुद्ध भोजन का निर्बाध निर्माण भी कठिन होता है। कितनी ही बातें उससे ज्ञात हो जाती हैं, इसलिए भोजन रूप रंग का भी सुन्दर मन को हरने वाला होना चाहिए। क्यों ऐसा होना चाहिए? उन्हें जबरदस्ती श्रावक खिला रहा है, रुचि नहीं है, सो भक्ति करके जैसे भी उनका मन रम जाय थोड़ा बहुत वैसा यत्न करके आहार कराया जा रहा है। तो आचार्यदेव कहते हैं कि वह भोजन मन को हरण करने वाला होना चाहिए।
प्रासुक आहार की आहार्यता—आहार प्रासुक भी हो। पत्तियों में कोई कीड़े चढ़ जाते हैं या और कोई छोटे-छोटे जंतु रहते हैं तो उन्हें न खाना चाहिए। एक साग होता है गोभी, उसे कहते है गोभी फूल। कैसा लगता होगा? मीठा है क्या है, हमें पता नहीं, उसमें जीव बहुत भरे रहते हैं। उसे काँसे की थाल में झाड़ दो तो आपको वे सारे जंतु दिख जायेंगे। एक क्षणिक सेकेण्ड भर की जिह्वा के स्वाद के पीछे हिंसामय भोजन करना और जीवों के विनाश का कारण बनना यह तो योग्य नहीं है। और जब सारा ही भोजन छूट जायेगा अरहंत बनने पर तो अभक्ष्य पदार्थ में तो रुचि अभी से छूट जाना चाहिये।
अरहंत होने के प्रोग्राम की धुन—सोच लो आपको अरहंत बनना है कि नहीं, भीतर से जरा जवाब तो दो कि ऐसे ही लटोरे घसीटे रहना है संसार में? कुछ अन्दर से बात तो निकले। हाँ हो सकता है कि अरहंत के इतने विशाल वैभव को सुनकर उत्तर दे सको कि हाँ, बड़ा समवशरण हैं, हजारों पुरुष उनकी सेवा में प्रणाम, वंदन करने आते हैं, इतना ध्यान देकर शायद कि हाँ होना है, अब जरा ध्यान से सुनिये अरहंत अवस्था इतनी विशुद्ध अवस्था है कि जहां कोई दोष नहीं है, कोई संकट नहीं है, जन्ममरण भी जहां नहीं रहता है, ऐसी अवस्था चाहिए ना? हाँ चाहिए। उस अवस्था में सदा के लिए आहार छूट जायेगा, वहाँ बाधा ही कुछ न होगी। वहाँ अनन्तबल रहा करता है। तो सदा आहार न किया जायेगा, ऐसी स्थिति की तो धुनि बनायी है और वर्तमान में भक्ष्य अभक्ष्य का भी विवेक न करें यह अपने लिए कितने खेद की बात है।
गृहस्थों का अनिवार्य संयम—भैया ! कम से कम इतनी बात तो जगना ही चाहिए प्रत्येक गृहस्थ में कि जैसे गोभी फूल है, सड़ी बासी पूड़ी हैं, बाजार की चीजें हैं, दही, जलेबी आदि हैं ऐसी चीजों का भक्षण तो न करें और रात्रि में बनी हुई चीजों का क्या विश्वास? वे तो जीवघातमय हैं। रात्रि को न कुछ खायें न बनायें। इन दो चार बातों का ही इन साधुवों की एषणासमिति का वर्णन सुनकर नियम कर लें, उस विधि से चलें तो यह हम आपके लिए भले की बात है।
आहार विहार का प्रयोजन—जैसे सरसों के तेल वाले दिये में दो काम किये जाते हैं—तेल भरा जाता है और बाती उसकेरी जाती है, सभी जानते हैं। सरसों के तेल का दिया जलायें तो उसमें बीच-बीच में बाती में तेल चढ़ता है और जब तेल सूख जाता है, कम हो जाता है तो उसमें तेल डालना पड़ता है। तो बाती का उसकेरना किसलिए किया जाता है कि यथावत् प्रकाश बना रहे और तेल डालना किसलिए किया जाता है कि उसमें यथावत् प्रकाश बना रहे, ऐसे ही प्रकाशपुञ्ज साधुपुरुष में बाती उसकेरने की तरह पैरों की उसकेरने की जरूरत पड़ती है अर्थात् विहार करने की आवश्यकता होती है और तेल डालने की अर्थात् पेट में भोजन डालने की आवश्यकता होती है। यह आहार और विहार साधुजन इसलिए किया करते हैं कि यथावत् शुद्ध ज्ञानप्रकाशमात्र बना रहें।
योग्य आहार विहार के अभाव में आपत्ति—भैया ! लोग कहते भी हैं, रमता जोगी बहता पानी। साधुजन स्वच्छ रहा करते हैं। साधुजन यदि विहार न करें, एक ही स्थान पर वर्षों बने रहें तो उनके परिणाम में रागद्वेष की कोई बात आती रहेगी, इसलिए यथावत् मोक्षमार्ग में लगें, ज्ञानप्रकाश बना रहे, इसके लिए साधुजन विहार करते हैं, और शरीर में क्षुधा की वेदना होती है उसका प्रतिकार न करें। जैसे दिया में तेल न डालें तो प्रकाश बंद हो जायेगा, यों ही उदर में भोजन पानी न डालें तो आत्मसाधना भी दुर्गम हो जायेगी, इसके लिए वे आहार करते हैं। आहार करते हुए में उनकी यह वृत्ति रहती है कि पेट का गड्ढा भर लिया, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि शुद्ध-अशुद्ध भक्ष्य-अभक्ष्य किस ही प्रकार के भोजन से उदरपूर्ति करें, हाँ स्वाद लेकर नहीं, मौज मानकर नहीं, किन्तु उदरपूर्ति करना है इस प्रकार से आहार करें।
साधु की भिक्षा पद्धति—साधु की चर्या वृत्ति को तीन प्रकार से पुकारा गया है—गर्तपूरण वृत्ति, गोचरी वृत्ति और भ्रामरी वृत्ति। गर्तपूरण वृत्ति का भाव यह है कि उदर एक गड्ढा है, उसको पूर लेना। यह पकवान है, यह सरस भोजन है, यों न देखना, अपने गर्त को, नीरस, सरस कैसा ही आहार हो, उसका विकल्प न करके पूर्ण कर लेना गर्तपूरण वृत्ति है। गोचरीवृत्ति का अर्थ यह है कि जैसे गऊ घास खाती है, उसको घास डालने के लिए चाहे कोई नई बहू बड़े गहने पहिनकर आए, कोई बड़े शोभा शृङ्गार से आये या कोई बुढ़िया आए, या कोई पुरुष आये, बूढ़ा आये, या बालक आये उसे इनसे मतलब नहीं है, इनका रूप वह नहीं देखती है। उसे घास खाने से मतलब। इसी प्रकार साधु जनों को चाहे कोई रूपवती स्त्री आहार दे, चाहे बूढ़ा पुरुष दे, चाहे बालक आहार दे, किसी भी प्रकार के रूप की ओर साधुपुरुष की दृष्टि नहीं होती है। उन्हें तो मात्र अपनी उदरपूर्ति से प्रयोजन है। भ्रामरीवृत्ति वाले भ्रमर की तरह आहार की खोज करके किसी भी जगह आहार लेने आते हैं। जिसमें बाधा न आए वह भ्रामरीवृत्ति है।
साधु का 46 दोषरहित आहार—ये संतजन यद्यपि गर्तपूरण के लिए आहार करते हैं, किन्तु भक्ष्य अभक्ष्य का वे विवेक रखकर करते हैं। 46 दोष टालकर साधुजन आहार करते हैं। वे 46 दोष कौन है? 4 तो हैं महादोष, जो पहिले बता दिये थे और 42 दोष ये हैं। 16 उद्गम दोष हैं जो श्रावक के लिए लगा करते हैं, साधुजन उन दोषों को नहीं करते हैं श्रावक करते हैं, किन्तु साधु को मालूम हो जाय तो साधु फिर आहार नहीं लेता। 16 उत्पादन दोष हैं उन्हें पात्र करता है, श्रावक नहीं और 10 अनशन सम्बन्धी दोष हैं इस प्रकार ये 42 दोष हैं।
आहार का उद्दिष्ट और साधिक दोष—उदाहरण के लिए देखिये—(1) केवल साधु के लिए ही आहार बनाया गया हो, आधपाव तीन छटांक की रोटियां बनाकर और थोड़ा साग वगैरह एक आदमी के लिए बनाकर धर दे और कहें कि हमें तो अमुक साधु को भोजन कराना हैं, लो प्रबंध कर लिया फिर घर भर का भोजन अशुद्ध बने, अन्य स्थान पर बने तो ऐसा आहार साधु नहीं लेता है। साधु अगर जान जाय कि यही आहार घर भर करेगा तो वह आहार को लेता है। (2) भोजन बनाया जा रहा है और बीच में ही ख्याल आ जाय कि हमें साधु को भी आहार कराना है ऐसा बनाते हुए में थोड़ी खिचड़ी उसी में और डाल दो साधु के नाम पर और पका ली तो ऐसा आहार साधु के योग्य नहीं है। ऐसा दोष साधु नहीं करता है, गृहस्थ किया करता है।
आहार का पूर्ति, मिश्र व प्राभृत दोष—(3) प्रासुक वस्तु में अप्रासुक वस्तु मिला देना, यह भी साधु के आहार में दोष है। (4) ऐसा ख्याल करके आहार बनाए कि हमें तो सभी को आहार देना है, पाखण्डी भी आ जाय तो, साधु आ जाय तो, सबको यही आहार बनावेंगे तो ऐसा भोजन साधु के लिए योग्य नहीं होता है। (5) श्रावकजन ऐसा भी नियम कर सकते हैं कि मैं अमुक दिन शुद्ध खाऊंगा व साधु को आहार कराऊगा योग मिलेगा तो। ऐसा श्रावक पहिले नियम लिया करते थे, और इस नियम से बहुत सुन्दर व्यवस्था रहती थी। सभी लोग अपने-अपने घरों में साधु को आहार करा लेते थे। उससे साधुजनों को भी कोई परेशानी न होती थी। अब मान लो किसी ने चतुर्थी को आहार कराने का नियम लिया और वह बदलकर दोज को कर ले या एक दो दिन बाद में कर ले तो वहाँ भी एक दोष आता है। क्योंकि कुछ भी बात बदलने से कुछ अड़चन और परिणामों में संक्लेश होता है।
आहार का बलि, न्यस्त व प्रादुष्कृत दोष—(6) कोई किसी देवता को चढ़ाने के लिए आहार बना रहा है और उस आहार को साधुजनों को भी दे तो यह योग्य आहार नहीं है।(7) जिस बर्तन में भोजन बनाया है उस बर्तन से थोड़ा बहुत सामान निकाल अलग रख लिया और बाकी भोजन सामग्री अलग कर दिया तो ऐसा आहार भी साधु के लिए योग्य नहीं है। आजकल इसी की बड़ी प्रथासी दिख रही है। (8) साधुजन चौके में आयें और उस ही समय कुछ विशेष स्थान तैयार करवाया जाय, चौके के, भोजन के बर्तन यहाँ के वहाँ सरकायें जाय, ले जाय या कहीं किवाड़ खोल दिया, कहीं की राख कहीं छोड़ दिया, या बर्तन साफ कर लिया, या उस समय कुछ और भी आरम्भ किया जाय तो ऐसी स्थिति में साधुजन आहार नहीं लेते हैं।
क्रीत, प्रामित्य व परिवर्तित दोष—(9) आ गया साधु आहार करने और उसी समय अमुक चीज नहीं है, चुपके से दूसरे से कहा कि और ले आवो असी समय जाकर—ले आया दौड़कर कहीं से कोई सामान तो ऐसा आहार साधु के योग्य नहीं है। (10) कोई मनुष्य उधार लेकर भोजन बनाए, ब्याज पर उधार लेकर या किसी प्रकार से उधार लेकर और फिर उससे आहार बनाकर खिलाए तो वह आहार साधुजनों के योग्य नहीं है। (11) भिक्षा के लिए साधु आ जाय और उस समय कोई चीज पड़ौस से बदल लावे कि यह चीज तुम ले लो और इसके एवज में एक छटांक घी हमें दे दो ऐसा बदला बदली से तैयार किया गया आहार भी साधु के लिए योग्य नहीं है।
आहार का निषिद्ध व अभिहृत दोष—(12) आहार देते समय कोई किसी चीज को मना कर दे तो मना किए गये आहार को फिर लेने की इजाजत साधु को नहीं है। जैसे बैठे हैं बहुत से लोग कोई किसी चीज को दे रहा हो और कोई-कोई कहे यह नहीं, यह दो तो वह साधु किसी चीज को ले अथवा न ले, पर किसी के द्वारा निषेध किया गया आहार फिर साधु नहीं लेता है। (13) ऐसे ही अटपट अलग बाहर के मुहल्ले में बना हुआ भोजन किसी दूसरे मुहल्ले में ले जाय तो ऐसे आहार को भी साधुजन नहीं लेते हैं।
उद्भिग्न दोष—(14) साधु के ही आने पर किसी सीलबंद डिब्बे वगैरह को खोला जाय और उसमें से निकालकर चीज दी जाय तो वह आहार भी साधुजन नहीं लेते हैं। आप सोचिए—कितना सरल और सात्त्विक विधान है आहार लेने का किन्तु लोग व्यर्थ ही परेशान होते हैं, घंटा भर पहिले से ही चूल्हा बुझा दिया और उसको ऐसा साफ कर दिया कि खाने वाला यह सोचकर हैरान हो जाय कि यह आहार देवतावों ने आकर टपकाया है या इसने अपने घर में बनाया है। और घंटों पहिले से चूल्हा बुझाकर पड़गाहने के लिए खड़े हैं। अरे पड़गाहना तो उस समय है जिस समय आपको भोजन करना है—इससे पहिले देख लो। इससे पहिले यदि कोई साधु आता होगा तो वह अपने आप ही आँगन तक चला जायेगा, न भी आप खड़े हों। हाँ कोई ऐसा चिह्न लगा हो चौके का जिससे यह जान जाय कि साधु कि यह शुद्ध भोजन करने वाले श्रावक का घर है। वह साधु आँगन तक पहुंच सकता है।
आच्छेद्य व मालारोहण दोष—(15) कोई पुरुष बड़े आदमी के, राजा मंत्री आदि के नाराज होने के भय से साधु को आहार कराये तो वह आहार सदोष है। साधु को मालूम हो जाय तो साधु वह आहार नहीं लेता। (16) कोई मनुष्य अटारी पर चढ़कर आहार देने की चीज लाकर देवे तो साधु आहार नहीं लेता है क्योंकि इस तरह आहार लेने लगें और श्रावकों में आदत बन जाय तो सीढ़ी से पैर फिसलकर गिर जाय तो श्रावक की क्या दशा हो? वैसे भी साधु के भोजन के समय श्रावक के कुछ न कुछ घबड़ाहट रहा करती है और सीढ़ी से नीचे उतरने में कहीं गिर जाय तो ऐसी स्थिति में तो विडम्बना खड़ी हो सकती है। साधुजन बिल्कुल सात्त्विक ढंग से, सीधे ढंग से आहार लेकर चले जाते हैं। साधुवों का आहार कठिन नहीं है, बिल्कुल सरल है। साधुजन आपके भोजन बनाते हुए में पहुंच जाये, उस काल में सामने कोई चीज न बनाकर चूल्हा आदि न जलाकर उनको आहार दे दिया और उनके चले जाने पर फिर अपना बनाने लगे। चूल्हा बुझाकर देने में तो दोष है, और जैसी आग जल रही है जलने दो, उसे बढ़ावों जलावो फूको मत, उस पर आरम्भ मत करो, साधु को आहार उस क्रिया को बन्द करके दे दो, वह आहार लेकर चला जायगा। तो वे सब तो हुए श्रावक के द्वारा दोष।
आहार के उत्पादन दोष में धात्रीदोष—अब ऐसे दोषों को सुनिये कि जिनको साधुजन किया करते हैं। इन दोषों को करें तो वह साधु सदोष है। (1) घर गृहस्थी के बालकों के पालन पोषण की बात बतलाकर श्रावक को आकर्षित कराकर आहार लेना साधु के लिए दोष है। कदाचित् उपदेश में बात आ जाय गृहस्थ धर्म के प्रकरण में तो वह बात अलग है, किन्तु यहाँ तो प्रयोजन यह है कि श्रावक के मन माफिक बात अच्छी बता दू तो वह हलुवा आदि कुछ बनवाकर खिला देगा। बालकों को यों खिलाना, यों सुलाना, यों रखना, इस प्रकार की बातें सुनाने पर रागमयी बातें हो जाती हैं। वाह हमारे साधु बड़े अच्छे हैं, हमारे बच्चों की बड़ी खबर रखते हैं और फिर खूब अच्छा-अच्छा बनाकर खिलायें वह साधु का दोष है।
दूतदोष व निमित्त दोष—(2) कोई साधु दूसरे गांव जा रहा है तो किसी से मिलकर जाय और वह संदेश दे कि महाराज फलाने हमारे सम्बन्धी हैं, फलाने हमारे साढू हैं, उनके राज़ी खुशी के सारे समाचार दे देना। वह साधु वहाँ पर जाकर संदेशा कहे और संदेशा कहकर आहार ले तो वह साधु के योग्य नहीं है। देखते जावो साधु कितना निरपेक्ष होता है। इसमें यह दोष भरा है कि मैं संदेशा सुनाऊगा तो वह जान जायेंगे कि महाराज जी हमारे समधी साहब से भी सम्बन्ध है, वह भी आपके भक्त हैं, ऐसी बातें सुनकर वह खुश हो जायेंगे और खूब अच्छा आहार बनाकर खिलायेंगे, ऐसे भी आहार को साधुजन नहीं लेते हैं। (3) कोई निमित्त ज्ञान की बात बताकर, हाथ दिखाकर, लक्षण बताकर जमीन में गड़ा धन है, कोई सगुन असगुन की बात बताकर उसके यहाँ आहार लेना यह भी साधु के दोष वाला आहार है।
अनीपक और आजीव दोष—(4) दाता जैसे वचन सुनकर खुश रहे और उसकी जो कुछ समस्या हो, कथन हो, वार्ता हो, आइटम हो, उनके ही अनुकूल बात बोलना, फिर आहार लेना यह तो साधु के लिए दोष की बात है। (5) अपनी जाति की श्रेष्ठता बताकर हम अमुक जाति के हैं, अमुक वंश के हैं, शुद्ध जाति के हैं, मैं ऐसे बड़े घर का हू, इतना छोड़ करके त्यागी हुआ हू, अथवा कोई जन्त्र मन्त्र की बात बताकर मैं इस बात में बड़ा चतुर हू, मैंने इतने काम किये, ऐसी कुछ वार्ता बोलकर आहार ग्रहण करे तो वह भी आहार सदोष आहार है। अरे पेट भरने भर के लिए इतनी बात सोचना, श्रम करना यह तो आसक्ति को सूचित करता है। साधुजन तो निरपेक्ष वृत्ति वाले होते हैं।
आहारोत्पादन में क्रोधदोष व मानदोष—(6) क्रोध करके भोजन करना अथवा डाट डपटकर क्रोध करके व्यवस्था बनाकर यहाँ आहार करना यह भी सदोष भोजन है। (7) बड़ी कला से बड़ा अभिमान बताकर आहार लेना यह भी साधु के लिए दोष की बात है। लोग कहा करते हैं कि साधु के सिंहवृत्ति होती है। तो सिंहवृत्ति का क्या यह अर्थ है कि अपना बड़ा तूफान मचाकर श्रावकों में खलबली मचा देवे यह सिंहवृत्ति है तो उस सिंहवृत्ति का यह अर्थ है कि अपने आपमें जो कोई कष्ट हो, विपदा हो, दु:ख हो, क्लेश हो उसका कारण दूसरे को न मानना किन्तु अपने भाव को ही अपने क्लेश का कारण समझना और अपने पूर्व उपार्जित कर्म के उदय को निमित्त समझना यह है सिंहवृत्ति। सिंह की तरह खूंखार होकर तूफान मचाकर, एक गड़बड़ी पैदा कर दे, लोगों को भयभीत कर दे इसका नाम सिंहवृत्ति नहीं है।
श्वानवृत्ति व सिंहवृत्ति में अन्तर—देखो एक जानवर होता है कुत्ता। वह बड़ा उपकारी है। रोटी के दो टुकड़े डाल दो, इतने में ही 24 घन्टे आपकी सेवा बजाता है, पहरा लगाता है और बड़ी विनय से पूछ हिलाकर आज्ञा मानकर कृतज्ञता प्रकट करता है, हर समय आपकी सेवा को तैयार रहता है। है नहीं ना, कुत्ता उपकारी जानवर और सिंह अनुपकारी है, दुष्ट है। कहीं सिंह दिख जा यतो कहो धोती ढीली हो जाय। सिंह घर के भी किसी काम नहीं आता है। तो इनमें से श्रेष्ठ कौन हुआ? कुत्ता हुआ ना? कुत्ता उपकारी है। किसी सभा में किसी उपकारी पुरुष के प्रति जरा यह तो कह दो कि अमुकचन्द, अमुकमल, अमुकप्रसाद का क्या कहना है। ये तो बड़े उपकारी जीव हैं, ये तो प्रजा का बड़ा ख्याल रखते है, ये तो कुत्ते के समान हैं (हसी)। इसमें हसने की क्या बात है। कुत्ता बड़ा उपकारी तो है। किसी उपकारी पुरुष को कुत्ते की उपमा देना अच्छी बात है, लेकिन लोग सुनकर रुष्ट हो जायेंगे और, यदि यह कह दो कि अमुक नेता तो सिंह के समान है, कहा तो यह है कि खूंखार है, किसी के काम नहीं आने वाला है, दुष्ट है, अथ्र तो उसका यह है। अरे जैसा सिंह होता है वैसा ही बताया है, किन्तु सिंह की उपमा सुनकर खुश हो जाया करते हैं। यह किस बात का फर्क है? उतने गुण होकर भी कुत्ते की उपमा लोग नहीं सुनना चाहते और इतने अवगुण होकर भी सिंह की उपमा लोग सुनना चाहते हैं। कहां से यह अन्तर आ गया?
ज्ञानी और अज्ञानी में उपादानदृष्टि व निमित्तदृष्टि का अन्तर—सुनिये ! यह अन्तर आ गया एक सभ्य दृष्टि की कला और मिथ्यादृष्टि की कला का, पद्धति का। कुत्ते को कोई लाठी मारे तो वह इतना अज्ञानी है कि वह लाठी तो चबायेगा पर मारने वाले पर हमला नहीं करता। जैसे कि मिथ्यादृष्टि जीव के कुछ पीर आ जाय, दु:ख आ जाय तो दूसरे पुरुषों पर क्रोध करता है, इसने मुझे यों किया, पर यह नहीं जानता कि इस पुरुष का क्या कसूर है, कसूर तो मेरे इस अज्ञानभाव का है, अपने ही कषाय मान से मैं दु:खी हो रहा हू, यह उसे पता नहीं है। सिंह को कोई तलवार मारे लाठी मारे तो वह तलवार या लाठी पर हमला नहीं करता है, वह तो सीधा मारने वाले पर ही प्रहार करता है। जैसे कि सम्यग्दृष्टि पुरुष किसी समय दु:खी हो जाय, पीड़ित हो जाय तो वह किसी मनुष्य पर क्रोध न करेगा, किसी दूसरे व्यक्ति को अपने दु:ख का कारण न मानेगा, किन्तु अपना ही अज्ञान परिणाम, अपना ही कषाय परिणाम जो साक्षात् इस मुझ पर आक्रमण कर रहा है ऐसे परिणाम को क्लेशकारी मानेगा यह अन्तर है और इसी भाव से सिंहवृत्ति नाम पड़ा है कि साधु के सिंह वृत्ति होती है। कहीं उसका अर्थ यह नहीं है कि साधुजन आहार को निकलें तो छाती फुलाकर पहलवानों की तरह हाथ पैर करके इधर-उधर देखते हुए जायें, इसे सिंहवृत्ति नहीं कहते हैं, ऐसे समस्त दोषों को टालकर साधुजन आकार करते हैं।
आहार में मायादोष व लोभदोष—(8) साधुजन मायाचार करते हुए भोजन ग्रहण नहीं करते। ऐसा मायाचार हुआ करता है भोजन ग्रहण करने में? एक तो आहार के समय चक्कर काटे साधु प्रभाव बढ़ाने के अर्थ तब जो भक्त पुरुष हैं वे क्या करते हैं कि देखा कि महाराज का कहीं आहार नहीं हो रहा है तो तीन कलश लेकर खड़े हो गए, स्त्री पुरुष खड़े हो गये, बाप बेटा खड़े हो गए, साधु के लग रहे है चक्कर। चाहे कुछ सोचा हो चाहे न सोचा हो, जिस किसी घर में जो अपने को इष्ट जंचा वहाँ चले गये लोगों के पूछने पर कुछ से कुछ कह दिया यह भी तो मायाचार है। भोजन करते हुए में भी अपनी मुद्रा कुछ कड़ी वीरता बताने वाली बना लेना, जिससे लोग प्रभावित हो जायें, ऐसे कितने ही मायाचार आहार में सम्भव हो सकते हैं। तो अनेक मायाचार होते हैं। कहां तक नाम लिया जाय? कितने ही मायाचार तो बताये जा सकते हैं और कितने ही मायाचार के भाव होते हैं और वे भी नहीं पकड़ पाते हैं। मायाचार सहित भोजन करना चाहे वह अत्यन्त विशुद्ध हो तो भी एक दोष है। (9) लोभ के परिणाम सहित आहारादि ग्रहण करना ऐसा यह भी सदोष आहार है। लोभपूर्वक, आसक्ति पूर्वक आहार लेने वाले के आत्मतत्त्व का ध्यान नहीं रह सकता है।
आहार में पूर्वस्तुति दोष व पश्चात्स्तुति दोष—(10) साधुजन आहार करने के पहिले दातार की स्तुति अथवा प्रशंसा नहीं करते हैं क्यों कि पहिले प्रशंसा करने का भाव यह है कि उनका मन खूब भर जाय और वे दो चार बढ़िया चीजें भी बनाकर खिलायें, यह भी आहार का दोष है कि भोजन से पहिले दाता की प्रशंसा करना। (11) इसी प्रकार भोजन के बाद भी दातार की प्रशंसा करना भी आहार का दोष है, उसमें क्या भाव भरा रह सकता है कि यहाँ ठहरना तो है ही। आगे भी भोजन यह बनाए और बढ़िया भोजन का प्रबंध करे और आहार करने के बाद दाता की प्रशंसा करे, वाह कितना सुन्दर आहार बनाया है, यह चीज बड़ी मिष्ट है, क्या कहना है इनके भावों को, बड़ी उदारता है—ऐसा कहते हुए में एक तो आत्मगौरव नष्ट होता है, दूसरे कृपणता की व्यक्ति होती है।
आहार में चिकित्सा, विद्या व मन्त्र दोष—(12) साधुजन किसी भी प्रकार की चिकित्सा करके, उपकार करके या आयुर्वेद की औषधि सम्बन्धी उपदेश भी करके आहार नहीं लिया करते हैं क्योंकि चिकित्सा करके फिर उस आशय से आहार लेने में साधुजनों को दोष होता है। (13) साधुजन विद्या द्वारा आहार नहीं लिया करते हैं। साधुजन सधी हुई विद्या द्वारा दिया आहार ग्रहण नहीं करते हैं क्योंकि ऐसे परिणाम रखने में साधु ने अपना आत्मविश्वास खो दिया है और दीनता उसके अन्दर आ जाती है। (14) साधुजन मंत्र तंत्र सिखाकर मंत्रों की आशा देकर या मंत्र से देवता का आमंत्रण कर सम्पन्न हुआ आहार साधुजन नहीं ग्रहण करते हैं। कहीं कथानक आया है। जब बड़ा अकाल पड़ा था, हजार वर्ष से भी पुरानी कथा है। कोई जंगल में साधु रहते थे। आहार की कोई विधि न जानते थे, विकट भयानक जंगल था। वहाँ पर देवतावों ने आकर भोजनसामग्री उपस्थित की, किन्तु पहिचान तो साधु को हो ही जाती है। वहाँ उस आहार को साधुवों ने नहीं ग्रहण किया।
आहार में चूर्ण व वेश दोष—(15) चूरन चटनी का नुक्सा बनाकर अथवा कोई वेशभूषा आदिक बनाने का चूर्ण सम्पादित कराके आहार तैयार करे तो ऐसा आहार साधुजन नहीं लेते हैं। वह तो आजीविका की तरह हो गया। (16) कितने ही पुरुष साधु के पास आते हैं और वशीकरण का मंत्र पूछते हैं। कोई कहता है कि हमारा पति हमारे वश नहीं है, कोई ऐसा मंत्र बता दो कि हमारे वश हो जाय। कोई कहता कि हमारी स्त्री वश में नहीं है, आज्ञा नहीं मानती है कोई ऐसी तरकीब बता दो कि हमारी स्त्री हमारे वश में हो जाय। अथवा जिसका जिससे अनुराग हो उसको वश में करने की युक्ति जानने के पीछे पड़े रहा करते हैं। साधुजन ऐसी कोई योजना नहीं बनाते हैं। ऐसा उपाय बताकर साधुजन आहार ग्रहण नहीं करते हैं। ये सब मार्ग विरुद्ध क्रियाए हैं।
मार्ग विरुद्ध सदोष आहार का निषेध—साधुजन इन मार्ग विरुद्ध क्रियावों को करके आहार नहीं लेते हैं। जैसे पहिले के उद्गम दोष श्रावक के द्वारा हुआ करते हैं ऐसा बताया गया था, लेकिन ये उत्पादन दोष पात्र के द्वारा हुआ करते हैं। साधुजन इन दोषों से सहित प्रवृत्ति से आहार को ग्रहण नहीं करते। कैसा अनासक्ति का भोजन है, जैसे हिरण थोड़ी भी आहट पाये तो झट खाती हुई घास को छोड़ देते हैं, यों ही ये साधुजन थोड़ा भी दोष देखते हैं तो आहार को तज देते हैं। ये तो विधिविधान भाव के दोष है किन्तु दोष ऐसा हो जो भोजनविषयक ही हो तो उस भोजन को भी साधु ग्रहण नहीं करते हैं। किसी आहार के सम्बन्ध में साधु को यह शंका हो जाय कि यह आहार ग्राह्य है अथवा नहीं है? भक्ष्य है अथवा नहीं है, , तो उस आहार को साधु ग्रहण नहीं करता। कोई भोजन किसी वजनदार ढक्कन से ढका हुआ है—जैसे डेगची पतेली तो है हल्का और उन पर सेर दो सेर ढक्कन हो तो ऐसे ढक्कन से ढकी हुई चीज को देने में साधु आहार नहीं लेता है। कारण यह है कि यदि वह ढक्कन गिर जाय तो किसी के भी चोट आ सकती है। प्रासुक भी पदार्थ है किन्तु वह किसी अप्रासुक पत्ते आदि से ढका हुआ हो तो ऐसा भोजन भी साधु ग्रहण नहीं करता है। ये आहारविषयक दोष कहे जा रहे हैं। दातार का हाथ घी तेल आदि से चिकना हो, ऐसे चिकने हाथ से दिये गए आहार को साधुजन ग्रहण नहीं करते हैं। जो भोजन किसी जीव जंतु के ऊपर रक्खा हुआ हो, पात्र रक्खा हो वह आहार भी साधुजन नहीं ग्रहण करते हैं।
आहारसम्बन्धी अन्य दोष—कभी कोई इस तरह से आहार दे रहा हो कि कुछ चीज नीचे गिर जाय, कुछ बर्तन में आ जाये, जैसे चम्मच से कुछ तो नीचे गिरे और कुछ चम्मच में आ जाय तो ऐसे आहार को भी साधुजन नहीं लेते हैं। अथवा कोई अनिष्ट नीरस चीज है तो उसे कह दे, उ हू, अंजुली बंद कर ले और जब रसीली चीज दिखाये तो, हाँ, अंजुली खोल दे इस विधि से भी साधुजन आहार नहीं ग्रहण करते हैं। कोई पदार्थ जो प्रासुक न हाँ, रस, गंध, वर्ण बदल जाय ऐसे जल को साधुजन ग्रहण नहीं करते हैं। अर्थात् कुये से जैसा ही जल निकलता है ठीक उसही रूप में जल ग्रहण नहीं करते हैं, गरम हो या रंग बदले तो उसको ग्रहण करते हैं। कोई श्रावक अपने कपड़े लटक रहे हों घसीटकर यत्नाचार रहित खींचकर आहार दे तो साधु आहार ग्रहण नहीं करते हैं बर्तन चौके से घसीटकर विधिवत् आहार बनाए तो साधुजन उस आहार को नहीं ग्रहण करते हैं। यों भोजन सम्बन्धी कोई दोष हो तो वहाँ साधुजन आहार नहीं ग्रहण करते हैं। ठीक है ना।
दायकदोष—अब जरा देने वाले के दोष निरखिये—देने वाला यदि इस-इस प्रकार के दोष से सहित है तो दे नहीं सकता भोजन। आगम में उसको आज्ञा नहीं है। कैसे दोष वाला हो? जो मद्य पीता हो, शराब पीने वाला हो, रोग से ग्रस्त हो, बुखार आता हो, जुखाम भरा हुआ हो, ऐसे कोई कठिन रोग से पीड़ित हो, भूत प्रेत पिशाच का सताया हुआ हो अथवा जो स्त्री रजस्वला हो या बच्चे का प्रसव किया हो वह 40 दिन तक दोष सहित है, कोई गमन करके आया हो, कोई शरीर में तेल लगाये हुए हो, तेल लगाकर नहा धो लिया हो, पोंछ लिया हो वह बात अलग है, पर कोई तेल लगाकर भी आया हो, ऐसे दातार के हाथ का भी भोजन साधुजन नहीं ग्रहण करते हैं। कोई पुरुष अथवा स्त्री भींत की आड़ में खड़ी होकर भोजन दे रही हो जैसे कोई बहू श्वसुर को खिलाये तो आड़ में छिपी हुई एक तरफ से डाल दे, इस तरह आड़ में छिपा हुआ कोई पुरुष या स्त्री साधु को आहार दे तो वह ग्रहण नहीं करता है अथवा रसोई घर के आगे एक आधी भींत बना देते हैं अथवा भींत में कोई बेथा भर का तक्का बना देते हैं, परोसने वाला उससे निकालकर आहार देता है, तो ऐसे आहार को साधुजन नहीं लेते हैं। उनको रसोई तो खुले दरबार की तरह दिखती हुई होनी चाहिए। एक-एक चीज स्पष्ट देखने में आये, कहां बनाया, कैसे बनाया, कौन कैसे खड़े हैं? सब दिख जाय। भींत की आड़ से खड़े होकर दातार आहार दे तो साधुजन आहार ग्रहण नहीं करते हैं। जहां आहार करने वाले साधुजन खड़े हों उससे बहुत ऊपर खड़े होकर कोई भोजन दे अथवा उससे नीचे खड़े होकर कोई आहार दे तो साधु उस आहार को नहीं ग्रहण करता है। समान भूमि प्रदेश में खड़ा होकर कोई आहार दे तो साधु आहार लेता है।
निषिद्ध दायक—कोई नपुंसक हो, जाति से च्युत किया गया हो, बहिष्कार किया हुआ हो, , किसी स्त्री को रख लिया हो अथवा रखी हुई स्त्री से उत्पन्न हुए आदिक दोष हों तो उसके हाथ का साधु आहार नहीं लेता हैं। कोई आचरण से भ्रष्ट हों, पतित हों, परस्त्रीगामी, वेश्यागामी हो, ऐसा दातार तो सदा अशुद्ध रहता है, साधुजन उसके हाथ का आहार नहीं लेते हैं। कोई लघुशंका करके आया हो अथवा और कुछ व्यग्रता करके आया हो तो साधुजन उसके हाथ का आहार नहीं लेते हैं। नग्न पुरुष के हाथ का आहार नहीं लेते हैं। वेश्या तो आहार देने के योग्य है ही नहीं। जो क्षुल्लिका हो, अर्जिका हो या संन्यासपने का भेष रखने वाली कोई महिला हो तो उसके हाथ का आहार साधुजन ग्रहण नहीं करते हैं। 5 माह से अधिक गर्भ वाली स्त्री भी आहार नहीं दे सकती है। जो 8 वर्ष तक की छोटी कन्या हो—कन्या इसलिए कहा है कि भोजन देने का काम प्राय: महिला का होता है, तो छोटी कन्या हो अथवा छोटा बालक हो तो उसके हाथ का आहार साधुजन नहीं लेते हैं। कोई अत्यन्त वृद्धा हो, चलने में पैर कांपे, देने में हाथ कांपे, ऐसी वृद्धा के हाथ से भी साधुजन आहार नहीं लेते हैं।
आहार की अदुर्गमता—आप लोग सोचते होंगे कि तब तो बड़ा मुश्किल है। इतनी इसमें सीमाए लगा दी है। अरे मुश्किल क्या है? साधुजन तो आहार ग्रहण करने की अपेक्षा आहार न मिले, उसमें खुश रहा करते हैं। कोई खाता हुआ आहार देने लगे तो भी साधु आहार नहीं लेता है। आप सोचते होंगे कि ऐसा भी कहीं मौका आता है कि खाते हुए में आहार देने लगे। अरे होते हैं ऐसे मौके। लोगों ने साधुवों के आहार की विधि ही बहुत ऊची बढ़ाकर बना रक्खी है कि वह तो अपने बच्चों को भी न खिलाए, रोता है तो रोने दो जब महाराज को आहार करा देंगे तब इस बच्चे को खाने को देंगे। कितना कठोर बर्ताव का आहार लोगों ने बना लिया है? पहिले क्या होता था, रसोई बन रही है, लोग अपना काम किए जा रहे हैं उसके ही बीच में साधुजन आ खड़े हों और उसही समय उन्हें पड़गाहा या भोजन से पहिले दरवाजे से पड़गाहा, आहार करा दिया, ऐसी अचानक की स्थिति में कुछ भी हो रहा हो, घर में कोई खा रहा हो और खाते हुए में ही कोई साधु आ गया, झट थोड़ा मुह धोया पोंछा और झट पड़गाहा कर आहार देने लगे, ऐसी स्थितियां भी हो जाती थी। इससे आप अंदाज कर लो कि साधु का आहार कितना सुगम और सात्त्विक है? तो झटपट हाथ मुख पोंछकर दातार द्वारा दिए जाने वाले आहार को साधुजन नहीं ग्रहण करते हैं। कोई अंधा हो उसके हाथ का भी आहार साधु नहीं लेता है। कोई स्त्री बैठे-बैठे आहार दे, लो महाराज तो ऐसा आहार भी साधुजन नहीं लेते हैं।
आहार के समय आरम्भ का निषेध—अग्नि जलाने वाला अथवा बुझाने वाला आहार दे रहा हो तो साधु आहार नहीं लेता है। अग्नि जलाने की अपेक्षा अग्नि बुझाकर आहार देने में अधिक दोष है। मगर अग्नि की तो कणिका भी साधु को न दिख जाय, इसलिए अग्नि में पानी डालकर बुझा देते हैं और चूल्हे को लीप पोतकर ऐसा साफ रखते हैं कि जरा भी नहीं मालूम हो पाता कि कैसे आहार बनाया गया है? जरा विवेक तो करो। प्राकृतिकता तो वहाँ है कि गृहस्थ का काम गृहस्थी जैसा हो रहा है, होने दो, वहाँ अचानक साधुजन आ गये तो अग्नि को यों ही जलने देना चाहिए। उसे खूते नहीं बढ़ायें नहीं, बुझाये नहीं और साधु को आहार दे देना चाहिए। यदि कोई अग्नि को बुझाये या ढाके तो साधु उसके हाथ का आहार नहीं लेता है। अग्नि को कोई फूक तो ऐसी स्थिति में भी साधु आहार नहीं लेता है। होता है ऐसा कि चूल्हे में लकड़ी जल रही है—थोड़ी मंदी पड़ गयी तो उसही लकड़ी को मुख से या किसी चीज से फूक दे तो ऐसी स्थिति में साधु आहार नहीं लेता है।
आहर के समय अन्य दोषों का बचाव—मकान कोई लीप रहा हो, उसके हाथ का भी आहार साधुजन नहीं लेते हैं। किसी मिट्टी से या गोबर से घर लीप रहा हो और उसी समय कोई मुनि महाराज आ गये तो झट हाथ पैर धोया, थोड़ा नहाया भी उस समय, तो भी ऐसा आहार साधुजन नहीं लेते हैं। आप जान जावो कि जितना साधुवों के आहार के समय आजकल बनावटी अटेन्सन होना पड़ता है उतना अटेन्सन पहिले नहीं होना पड़ता था। साधुवों के आहार के समय इना बनावटी अटेन्सन होने की जरूरत नहीं है। आपका गृहस्थी का काम चल रहा हो, साधु महाराज उसी बीच में आ जायें तो प्रेम से आहार दे दो, आहार लेकर चले जाते हैं। जो केवल एक ही वस्त्र पहिने हो, उसके हाथ का आहार भी साधुजन नहीं ग्रहण करते हैं। दूध पीते बच्चे को छुड़ाकर आहार कोई दे तो उसके भी हाथ का आहार साधुजन नहीं लेते हैं। कोई बच्चे को नहलवा रहा हो ऐसी स्थिति में भी काम छोड़कर साधु को आहार देने आये तो साधु उस आहार को नहीं ग्रहण करता है। स्त्री हो अथवा पुरुष हो ऐसी व्यग्रतावों में ऐसे स्थानों में रहने वाले दातार के हाथ का भी भोजन साधु नहीं ग्रहण करता हैं।
साधुजनों की आन्तरिक रुचि—भैया ! बहुत समय से आहार-आहार की चर्चा चल रही है और कितनी ही बातें ऐसी हैं कि संक्षेप में बताया जाय तो भी दो तीन दिन में बताया जा सकता है। संक्षेप में यों जानों कि साधुजन इतने निरपेक्ष होते हैं कि लाभ और अलाभ में समता परिणाम रखने वाले हैं, धुन है उनको इसकी। जैसे कंजूस गृहस्थ को धन कमाने की रुचि है उसे क्या कभी देखा है सुख से खाते हुए? खाने की ओर से वह निरपेक्ष रहता है। चाहे दो दिन भूखा रह जाय पर रहना चाहिए धन। यों ही जिसको आत्मीय ज्ञानानन्दघन के संचय करने की धुन लग गयी है ऐसे आत्महित का अर्थी साधु आहार में क्या अपेक्षा रक्खेगा? एक दो दिन न आहार मिले तो उसे कुछ परवाह नहीं है, उसे तो चाहिए ज्ञानानुभव और सहज आनन्द का परिणमन, वह उसी में ही मस्त है।
अपवित्र आहार—अब सुनिये, कोई आहार ही ऐसा विकट हो जाय, साक्षात् सदोष है, तो उस आहार को तो गृहस्थ भी नहीं लेता है, फिर साधुजन ऐसे क्या लेंगे? पीप, थूक, मांस, मज्जा, चमड़ा, दो इन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, चारइन्द्रिय जीव या उसमें पड़ा हुआ कंद या जो अंकुर होने वाला हो ऐसा बीज जैसे कि लोग चने या मूग को शाम को भिगो देते हैं और सुबह अंकुर हो जाते हैं, ऐसी कुछ चीजें मिली हुई हों, बेर आदिक तुच्छ फल पड़े हुए हों या चावल के अन्दर रह जाने वाला कच्चा कण है भीतर कच्चा, बाहर कच्चा, तो ऐसे आहार को साधुजन ग्रहण नहीं करते हैं।
साधु योग्य आहार की तीन विशेषतायें—साधुजन वही आहार लेते हैं जो आहार प्रासुक हो। इसी टीका में बताया है कि आहार मनोहर हो, मन को हरने वाला हो। प्रत्येक बात में कला का आदर रखिये। कला के मामले में कुछ त्यागी संतों को छूट दे देना। वे कपड़े भी ढंग से संभाल नहीं पाते। हम तो जानते है कि कोई ठीक-ठीक कपड़े न ओढ़े हो तो वह भी एक वैराग्य की कला हे। गांधी जी का एक बटन खुला ही रहता था। तो जो पुरुष कर्मठ है और किसी उपकार की धुन में लगा है ऐसा पुरुष दूसरी कला विलास तो प्राप्त हो रहा है। कलाहीन पुरुष की क्रिया यथालाभ नहीं पहुंचाती है। यह न सोचो कि भोजन करना है बना दिया किसी तरह। अरे कला सहित बना हुआ भोजन इस बात की सूचना देता है कि जिसमें ऐसी कला है भोजन बनाने की उसमें सावधानी भी बहुत अच्छी रही होगी। काला कलूटा किस ही रंग का भोजन हो तो उससे यह साबित होता है कि भोजन बनाने वाले ने असावधानी भी बहुत करी है। इसलिए आहार मनोहर हो, प्रासुक हो और नवकोटि से विशुद्ध हो, ऐसा शुद्ध आहार ही साधुजन ग्रहण करते हैं।
अन्तरायों का वर्णन—साधुजन 32 प्रकार के अंतरायों को टालकर आहार लिया करते हैं। अंतरायों के सम्बन्ध में भी सब लोगों को बहुत भ्रम है। जो अन्तराय की बात नहीं है उसे अन्तराय समझना, जो अन्तराय हैं उन पर दृष्टि न देना—ऐसी बहुत सी जानकारियां हैं, ऐसे 32 प्रकार के अन्तराय याने विघ्न हुआ करते हैं कि जिन विघ्नों के होने पर साधु आहार ग्रहण नहीं करते हैं।
काक, अमेध्य व वमन अन्तराय—साधु पुरुष अपने निवासस्थान से अथवा मंदिर से शुद्ध भक्ति करके संकल्प करके जब चर्या के लिए चलते हैं—रास्ते में कोई पक्षी बीट कर जाय और साधु शरीर पर पड़ जाय तो उस समय वह साधु अंतराय मानता है और यह अंतराय सबकी समझ में ही आ जायेगा। वह अपवित्र हो गया, चौके में जाने लायक नहीं रहा ऐसा अंतरंग में प्रकट ही है, इसी प्रकार साधु का पैर बीट में या अपवित्र पदार्थ में पड़ जाय तो भी अपवित्र मानते हैं। यह भी सबको स्पष्ट ज्ञात होगा कि शरीर की अपवित्रता में आहारचर्या का साधक नहीं कहा जा सकता। किसी कारण भोजन करते समय अथवा चर्या को जाते समय वमन हो जाय तो भी साधुजन आहार ग्रहण नहीं कर सकते।
रोधन, अश्रु, आक्रंदन अन्तराय—जब साधु जनों को चर्या करते हुए में कोई विघ्न आ जाता है तो भी साधु को अन्तराय है। कोई पुरुष साधु को रोक दे कि तुम आहार करने मत जावो तो रोकने पर भी साधु को अंतराय हैं। साधुजन निरपेक्ष भाव से सहजरूप में आहार ग्रहण करते हैं। यह भी स्पष्टसा है कि जिसका शरीर अशुद्ध हुआ, परिणामों में अशुद्ध हुआ, परिणामों में अशुद्धता दिखी, वहाँ भी साधु अंतराय मान लेता है। इतनी निरपेक्षता है साधु पुरुषों को। कदाचित् आहार करते हुए मुनिराज के किसी कारण आंसू आ जायें तो भी साधु उसमें अंतराय मान लेते हैं। आहार को जाते समय किसी पुरुष के शोक भरे आंसू दिख जायें या किसी वेदना के कारण चिल्ला रहा हो कोई तो साधुजन अंतराय मान लेते हैं। कदाचित् कोई बच्चा शोकभरा आक्रन्दन मचा दे तो उस आक्रन्दन को देखकर साधुजन आहार नहीं लेते हैं। किसी जगह ऐसा होता है कि खूब घंटा बजावो ताकि साधु किसी का रोना न सुने, ऐसी बनावट योग्य नहीं है। ऐसी हालत में भी साधु आहार नहीं ग्रहण करता है। साधुजन किसी को रोता बिलखता हुआ सुनें तो ऐसी स्थिति में आहार करने में वे असमर्थ हैं। उनका दिल आहार में मदद नहीं दे सकता है, वे करुणा करि के भरे हुए हैं, इसलिए शोकभरी मुद्रा युक्त किसी के आगे, दु:ख अथवा शोकभरी आवाज में ऐसे आक्रन्दन सुनें जिससे यह विदित हो कि इसे ऐसी पीड़ा है, किसी ने सताया है, तो ऐसी स्थिति में साधुजन आहार करने में असमर्थ होते हैं। साधुजनों की आहार के समय ही क्या, प्रत्येक समय बड़ी निरपेक्ष वृत्ति होती है।
असाधु पुरुषों की वृत्तियां—कितने ही पुरुष तो ऐसे होते हैं कि डंडों से मारते जावो फिर भी खाना मांगते जाते हैं। जैसे कोई भिखारियों को भोजन कराये, सबको खबर दे दी जाय तो वे कैसे टूटते हैं? व्यवस्था करने वाले लोग उन्हें पटरी बेंत से मार भी देते हैं, धक्का दे देते हैं, क्यों यहाँ आए, लाइन से खड़े हो, अंत में खड़े हो, दरवाजे से बाहर खड़े हो, कितनी ही बातें की जाती हैं फिर भी वे भोजन मांगते हैं। कुछ लोगों की तो ऐसी वृत्तियां होती हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं कि जहां मारपीट या ऐसी व्यवस्था देखी तो कहते हैं कि भोजन लेने की क्या जरूरत, क्या भोजन लेना। कोई आगे अच्छी तरह बुलाने पर आते हैं और आहार लेकर चले जाते हैं। कोई लोग आमंत्रण और निमंत्रण करने पर आते हैं, कोई आमंत्रण करने पर भी बड़ा प्रेम दिखायें तो भोजन करते हैं अन्यथा नहीं करते हैं।
साधुवों की निरपेक्ष वृत्ति—साधुजनों की सर्वोत्कृष्ट निरपेक्ष वृत्ति है। वे आमंत्रण से भी नहीं पहुंचते हैं और किसी प्रकार की अन्य व्यवस्थावों से भी नहीं पहुंचते हैं। उन्हें आहार करना आवश्यक ही नहीं मालूम होता है। जब तीव्र क्षुधा वेदना होती है और जानते हैं कि रस्सी तन चुकी है अब अधिक तानना अच्छा नहीं है। सो उस समय वे क्षुधा शांत करने के लिए निकल जाते हैं। कोई नवधा भक्ति सहित, बड़े उच्च सम्मान सहित पड़गाहे तो खड़े हो जाते हैं और शुद्धभाव दातार के देखे जिसका वर्णन आगे आयेगा तो वे आहार ले लेते हैं। साधुसंत अपनी मुद्रा में भी ऐसी वृत्ति नहीं करते हैं जिसमें कायरता जाहिर हो।
चर्या के प्रारम्भ से ही साधुवों की आत्मसावधानी—साधु पुरुष चर्या के लिए जब उठते हैं तो सिद्ध प्रभु का स्मरण करके उनकी भक्ति करके और प्रतिज्ञा करके उठते हैं। मैं अब आहार की चर्या के लिए जा रहा हू। हे प्रभु ! यह मैं एक आफत में जा रहा हू क्योंकि आहार लेना भी एक बड़ी आंतरिक विपत्ति है। भोजन की ओर दृष्टि हो जाती है और उन परिस्थितियों में यह आत्मा प्रभु को भी भूल जाता है, अपने स्वरूप को भी भूल जाता है, यों समझो कि साधुजन आहार करने के प्रसंग में एक आग में कूदकर निकल जाने की तरह समझते हैं। अब आहार करने के लिए जा रहे हैं तो कितनी ही परदृष्टियां करनी होगी। हे प्रभु ! जाना पड़ रहा है। आहार से आत्मा का कुछ हित नहीं है। मैं जानता हू, किन्तु वर्तमान भव की परिस्थिति ही ऐसी है कि जाना पड़ेगा।
जान्वध: परामर्श अन्तराय—आहार की चर्या के लिए जब साधु भक्ति करके जाता है तो घुटना के नीचे कोई खाज हो जाय अथवा कोई जीव जंतु थोड़ा काट ले तो भी वहाँ वे हाथ नहीं लगाते। घुटने के नीचे खाज की वजह से किसी कारण से साधु हाथ लगा दे तो अंतराय हो जाता है। क्या बात हुई, वहाँ कायरता जाहिर हुई? शरीर में इतनी आसक्ति की कमर के नीचे घुटने के नीचे हाथ लगाना पड़ा—ऐसा प्रसंग आ जाय तो साधु वहाँ आहार नहीं लेता है, अंतराय हो जाता है। बतलावो जहां अपनी ही बात है वह भी अंतराय में शामिल है तो जोर देकर गुस्सा होकर दंदफंद करके व्यवस्था कराये, ये सब तो महा कायरता की ही बातें हैं।
जानूपरिव्यतिक्रम अन्तराय—साधु चर्या को जा रहा हो। रास्ते में जंगल में कहीं आड़ा बांस लगा हो, अर्गला लगा हो जो जमीन से दो तीन हाथ ऊचा हो, जिसको लांघकर जाने में कुछ अलग से चेष्टा करनी पड़ती हो, ऐसी स्थिति में साधु पुरुष अर्गला को लांघने का अंतराय मानते है। सुनने में ऐसा लगता होगा कि हो क्या गया, किसी जंतु का घात नहीं हुआ कोई और भी गड़बड़ी नहीं हुई, अंतराय क्यों हुआ? अरे अंतराय क्यों हो गया? यों हो गया कि उनके आत्मप्रभु के आदर समानता के विरुद्ध यह चेष्टा है। यों तो भिखारी लोग भोजन करने कूद-कूद कर आया करते हैं, पर साधुपुरुष कूदकर अर्गला को लांघकर चर्या नहीं किया करते हैं। यदि ऐसा करें तो कायरता की बात आती है।
नाभ्यधोनिर्गम अन्तराय—कभी चर्या करते हुए में कोई स्थान ऐसा हो कि दरवाजा अत्यन्त छोटा हो या कहीं तीन साढ़े तीन फीट ऊचे कोई बांस लगे हों और वहाँ से कमर झुकाकर निकले तो वह भी अंतराय हो जाता है। साधुवों की चर्या निरपेक्षता और शांति से होती हैं। जो आहार करते हुए भी छठे गुणस्थान में रह सके ऐसा परिणाम जिसका हो अंदाज करो कितना निरपेक्ष परिणाम साधु का होना चाहिए। वह यदि नाभि से नीचे अपने शरीर को करके निकले, घुटना टेक करके निकले तो वह भी उनका अन्तराय है। फिर साधु आहार नहीं लेते हैं।
प्रत्याख्यातसेवन व जन्तुबध अन्तराय—साधुजनों ने जिस वस्तु का त्याग कर रक्खा हो वह वस्तु खाने में आ जाय तो वह भी अन्तराय है, इसके बाद वह आहार नहीं लेते है। यद्यपि वह भी वस्तु प्रासुक है, कोई दोष वाली चीज नहीं है लेकिन निर्दोष चीज में भी और अधिक त्याग का करना विधि में है। त्यागी हुई चीज खाने में आ जाय और फिर भी खाता रहे तो यह उसके भीतर कायरता की बात है। यदि कोई चूहा, बिल्ली, कुत्ता आदि जानवर कोई जीव का घात करे और साधु देख ले तो ऐसी स्थिति में साधु आहार नहीं लेता है। थोड़ा-थोड़ा तो आप भी आहार न लेते होंगे जब आपके सामने कोई बिल्ली चूहे को पकड़ ले और आप आहार ले रहे हों तो अंदाज कर लो कि क्या आहार करने को दिल उस समय करता है? फिर वे साधु तो उत्कृष्ट पुरुष हैं, उन्हें आहार करते में यदि ऐसी बात दिख जाय तो साधुजन आहार कैसे ले सकते हैं?
काकादिपिण्डहरण अन्तराय—साधुजन आहार हाथ में लेते हैं बर्तन में नहीं। हाथ में आहार लेने में कई गुण हैं। पहिले तो एक आयुर्वेद का ही गुण देख लो—हाथ की हथेलियों पर रक्खे हुए भोजन के खाने में कई विशेष गुण होते हैं। बहुत देर तक रक्खे रहने में तो गुणों के बजाय अवगुण हो जाते हैं। जैसे हथेली पर कुछ चाट वगैरह लोग खाते है और फिर जो बच जाती है उसे भी जीभ से चाटकर खाते हैं तो चाटने वालों को शायद भारी स्वाद आता होगा। हाथ में भोजन करने से बीच में अंतराय आ जाय तो श्रावक का एक दो ग्रास ही खराब होगा। थाली में भोजन करेंगे तो बीच में अन्तराय आ जाने पर सारा खाना खराब हो जायेगा। साधु पुरुष तो साधु हैं, वे भोजन भी बरबाद नहीं करना चाहते हैं। साधुजन अपने हाथ पर ही आहार लिया करते हैं। किसी के घर बरतन हो अथवा न हो अथवा बरतन में भोजन करने के बाद श्रावक उसे मांजने दे अथवा न मांजने दे, पता नहीं कब तक थाली मांजने के लिए रक्खी रहे और फिर हाथ में खाने से स्वतंत्रता है। हाथ में ले लिया खाकर चल दिये। साधुजनों के पास समय कम होता है, खाने पीने में समय काफी लगता है, इससे भी वे हाथ में ही भोजन करके चले जाते हैं। हाथ में भोजन करते हुए में या मार्ग में ऐषणा चर्या में चिड़िया बीट कर देतो साधु को अंतराय हो जाता है। वह लोकव्यवहार में अशुद्ध हो गया। ऐसी स्थिति में यदि साधु आहार ग्रहण करे तो आसक्ति जाहिर होती है।
पाणिपिण्डपतन अन्तराय—साधु पुरुष हाथ पर भोजन कर रहे हों, वहाँ किसी समय अपने हाथ से कोई ग्रास नीचे गिर जाय तो साधु अंतराय मान लेता है। जिसकी छितरी अंगुलियां होती हैं उसे साधु होना नहीं बताया है। टेढ़ीटाढ़ी बीच में कहीं मोटी, कहीं पतली ऐसी अंगुली हों तो उसे साधु होना नहीं बताया है, क्योंकि ऐसी छितरी अंगुलियां हों तो वह सिद्धान्त के अनुसार चर्या करके आहार ले ही कहां सकेगा? आहार नीचे गिरेगा, दूध गिरेगा, पानी भी गिरेगा, जंतुवों को बाधा होगी, श्रावकों को बाधा होगी। लो कोई साधु ऐसा जो आहार के लिए न उठ सके, जिस किसी में ऐसा दम बने, वह भले ही बने ऐसा साधु और अपना कल्याण करे, परन्तु व्यवहार की बात तो व्यवहार की तरह होगी। कल्याण की बात कोई साधु ही होकर करे, ऐसी तो बात नहीं है। कोई क्षुल्लक वगैरह बन कर करे यानीचे कोई ब्रह्मचारी वगैरह बनकर करे, पर व्यवहार में जो विधि बतायी गयी है, चर्या उस विधि से ही होगी।
तीर्थविरुद्ध प्रवृत्ति के निषेध का समर्थन—जिसका लिङ्ग या अंडकोश बड़ा हो वह साधु नहीं बन सकता। कोई कहे कि आत्मकल्याण से और इससे क्या मतलब है, अरे मतलब व्यवहार में प्रजा से भी है और परमार्थ में आत्मा से भी है। वृद्ध अंडकोशादि होने से लोक वातावरण में धर्म की कितनी अप्रभावना है। उसे साधु होना नहीं बताया है। हाँ, अगर हो भी जाय साधु तो वह जंगल में एकांत में रहे, पर वह चर्या नहीं कर सकता है। जैसा आगम में कहा है उस विधि से चले। आत्मकल्याण तो आत्मस्वरूप के श्रद्धान् में, ज्ञान में और आचरण में है। मनाही नहीं है, कैसा ही पुरुष हो तो भी धर्म और तीर्थ प्रवृत्ति के अनुकूल ही व्यवहार हुआ करेगा। साधुजनों के भोजन करते हुए में आहार यदि हाथ से गिर जाय नीचे तो वे अंतराय मानते हैं, उसमें जंतुवों को पीड़ा हुई, श्रावक का अन्न खराब गया। आहार का चौका भी अशुद्ध हो गया। सब जगह भोजन के कण बिखर जायें, ऐसी वृत्ति सहित साधुजन आहार नहीं करते हैं।
पाणिजन्तुबध अन्तराय—किसी भी प्रकार से श्रावक को बाधा न हो—ऐसी वृत्ति वाला साधु भोजन कर रहा है। कोई मच्छर उसके हाथ पर आ गया और मर गया तो ऐसी स्थिति में साधु आहार नहीं करते हैं। यहाँ क्या हो गया, क्यों किया ऐसा? मच्छर मर गया, अरे क्या हुआ खावो हर एक के यहाँ ऐसा चलता है। भैया !क्यों सब जगह अधिक नहीं चलता है? क्यों थोड़ा चला करता है?
सीमातीत तर्क की अनुपयोगिता—एक पुरुष था वह हर बात में ‘‘क्यों’’ के बिना कोई काम ही न चले और ‘‘क्यों’’ से सब जगह आपदा मिले तो भी हर जगह वह क्यों ही कहे? तो उसने सोचा कि यह अपना ‘‘क्यों’’ किसी को दे देवें। सो वह अस्पताल में पहुंचा। वहाँ एक रोगी से कहा कि भाई तुम्हारे रोग है, हमसे 100 रु0 ले लो और हमारा क्यों का रोग ले लो। अच्छा भाई। अब जब उस रोगी को डाक्टर देखने आया तो पूछा कि तुम्हारी तबीयत कैसी है? तो मरीज बोला—क्यों? डाक्टर ने उसे निकाल दिया। अब वह रोगी उसके पास पहुंचा जिससे 100 रु0 लेकर क्यों का रोग लिया था। बोला लीजिए अपने रुपये और क्यों का रोग हमें न चाहिए कुछ। अब क्यों वाला वह एक वकील के पास पहुंचा, बोला 100 रु0 ले लो और हमसे हमारा क्यों का रोग ले लो। वकील ने कहा अच्छा भाई। अब कोई केस आया—जज ने वकील से पूछा कि इस मामले में तुम कुछ सबूत भी रखते हो? वकील बोला—क्यों? क्यों तो क्यों सही। मामला खारिज हो गया। वकील ने फिर उसे उसके रुपये और क्यों का रोग वापिस कर दिया। अब उसने सोचा कि अपना क्यों का रोग किसे दें? ध्यान आया कि किसी स्कूल जायें, स्कूल के बच्चे नटखट होते हैं उन्हें 105 रुपये देकर अपना क्यों का रोग दे देंगे। सो स्कूल में जाकर किसी बच्चे से कहा कि हमसे 10 रुपये ले लो और हमारा क्यों का रोग ले लो।...अच्छा भाई। अब मास्टर ने उस बच्चे से पूछा कि तुमने अपना पाठ याद कर लिया? तो वह बोला—क्यों? मास्टर ने उसे पीटा, परेशान किया। उसने फिर उसके 10 रु0 और क्यों का रोग उसी को वापिस कर दिया। तो यह क्यों का रोग बड़ा विकट होता है। सो क्यों थोड़ी ही चलाना अच्छा है, कुछ अनुभव व श्रद्धा से भी काम लो। इन सबमें कुछ कारण तो विदित हो जाता है। यहाँ हिंसा का दोष लगा। यहाँ कायरता की बात आयी। जहां कोई भी अपेक्षा विदित हो वहाँ साधुजनों को अंतराय हो जाता है।
मांसादिदर्शन, उपसर्ग, पादान्तरपचेन्द्रियगमन व भाजनसंपात अन्तराय—भोजन करते हुए में साधु को कोई मांसादिक अशुचि चीज दिख जाय तो वे अंतराय मानते हैं। भोजन करते समय कोई उपसर्ग करे किसी प्रकार की पीड़ा दे तो वह भी अन्तराय हो जाता है। वे नहीं सोचते कि अभी तो भोजन कर लें फिर देखा जायेगा। जरा भी कोई उपसर्ग करे तो वहाँ अन्तराय हो जाता है, फिर वे आहार नहीं लेते हैं। भोजन के लिए वे चल रहे हैं, चलते हुए में उनके दोनों पैरों के बीच में से कोई पंचेन्द्रिय जीव निकल जाय तो वे आहार नहीं लेते। दाता आहार दे रहा है, आहार करते हुए में दाता के हाथ से कोई कटोरा आदि बरतन नीचे गिर जाय तो साधु आहार नहीं लेता है। वहाँ फिर यह भिक्षा नहीं चलती है कि आइये महाराज कोई जीव नहीं मरा, कोई दोष नहीं हुआ, खाली कटोरी थी, आप अभी न जावो, आहार करते रहो। वे आहार नहीं करते है। तीर्थप्रवृत्ति को बिगाड़ने में बड़ा दोष है। जो दोष खुद से सम्बन्ध रखता है वह इतना भयानक नहीं है और जो दोष आम व्यवहार से सम्बन्ध रखता है उसमें अधिक दोष है। वे साधुजन अन्तराय के समय आहार ग्रहण नहीं करते हैं।
उच्चार, प्रस्रवण व अभोज्यगृहप्रवेश अन्तराय—साधु भोजन के लिए जा रहे हैं या आहार कर रहे हैं और कदाचित् पेट की खराबी से या किसी कारण अशुचि हो जाय तो भी वे आहार नहीं करते हैं। इसी तरह कुछ थोड़ासा मूत्र निकल आये तो आहार छोड़ देते हैं। साधुजन भोजन के लिए चलते हैं वहाँ यह नहीं देखते हैं कि यह धनी का मकान है या गरीब का मकान है। वे चौके में जाकर थालियों की निगरानी नहीं करते कि हमें आहार दिखावो। उन्हें सरस नीरस की अपेक्षा नहीं रहती हैं। कोई धनी हो चाहे गरीब हो, प्रत्येक के यहाँ साधुजन आहार लेते है। तब किस अभोज्य के घर कभी प्रवेश हो जायें तो फिर आहार को न जावेंगे अंतराय हो जायेगा। यों साधुपुरुष निरपेक्ष वृत्ति से अपने आहार की ऐषणा करते हैं।
पतन व उपवेशन अन्तराय—साधुजनों के आगे कोई मूर्छित हो जाय, गिर जाय अथवा किसी कारण भूमि पर कोई गिर जाय तो साधु अंतराय मानते हैं, शरीर की अति दयनीय स्थिति में भी आहार करे कोई तो उसमें आसक्ति कारण होती है। साधुजन आहार में अनासक्त है, इस कारण सीधी सुविधापूर्वक सद्वातावरण में आहार प्राप्त होता है तो आहार ग्रहण करते हैं। कदाचित् आहार लेते हुए में थके होने के कारण साधु भूमि पर बैठ जायें तो यह भी उनका अन्तराय है। जैसे मंदिर में या निवासस्थान में सिद्धभक्ति करके आहार की चर्या को चले और रास्ते में कहीं किसी चबूतरे पर या अन्य किसी जगह बैठ जाय तो फिर वहाँ साधु को अन्तराय हो जायेगा, वह फिर आहार को न जायेगा। शीघ्र सोचने में ऐसा लगता है कि इसमें हो क्या गया अंतराय? बैठ गया तो अच्छी बात है। लेकिन बैठकर आराम करके, भोजन के लिए जाय, ऐसी वृत्ति निरपेक्ष साधु संत जनों की नहीं होती है।
संदेश व भूमिस्पर्श अन्तराय—साधु की चर्या हो रही हो, उस समय या आहार के समय कोई कुत्ता, बिल्ली आदि जानवर काट जाय तो वहाँ साधुजन अंतराय मानते हैं। कोई कीड़ा काटता भी रहे और खाता भी रहे—यह बात आसक्ति बिना नहीं होती साधारणजनों को भी, बालक जनों को भी यदि कोई मार पीटकर खिलाना चाहे तो वे ऐसा खाना भी पसंद नहीं करते। यदि ऐसा करते हैं तो समझो कि उन्हें भोजन की अधिक आसक्ति है। सिद्धभक्ति करने के बाद साधु का हाथ भूमि को स्पर्श कर ले तो भी उनके अंतराय हो जाता है। इन सब बातों का आसक्ति से अधिक सम्बन्ध है।
निष्ठीवन अन्तराय—आहार करते हुए में साधु के कफ निकल आए, थूक निकल आए जो वहाँ भी साधु को अंतराय होती है। उसकी मुद्रा इतनी शांत निरपेक्ष दर्शनीय होनी चाहिए कि किसी भी समय साधु के दर्शन करे कोई, आहार के समय अथवा बैठे, उठे, लेटे के समय किसी भी समय साधु का दर्शन करे कोई तो उसको उनमें आकुलता न विदित हो। जैसे अन्य लोग मोही जन अपने मोह और नाम को पुष्ट करने वाली वृत्तियां करते हैं ऐसी प्रवृत्ति करते हुए साधु दिख जाय तो दर्शक के चित्त में वहाँ उपासनीयता की उन्मुखता नहीं रहती हैं। मान लो आहार करने जा रहे हैं और नाक पोंछते जा रहे हैं, उसमें कुछ पूज्यता वाली बात नहीं रह पाती चित्त में और वह पोंछे काहे से, वस्त्र भी नहीं है, हाथ ग्रास में फंसा हुआ हैं, ऐसी स्थिति में कफ, थूक, नाक निकल आये तो साधुजन अंतराय मानते हैं।
उदरकृमिनिर्गम व अदत्तग्रहण अन्तराय—कोई ऐसा रोग हो जिससे पेट में कीड़े पड़ जायें, वे कीड़े किसी द्वार से निकलें तो ऐसी स्थिति में भी साधु के भोजन में अन्तराय है। साधुजन बिना दिए हुए भोजन नहीं लेते। जैसे कि गृहस्थजन पास में वस्तु रखे हैं तो जो हाथ उठा नहीं है उस हाथ से परस लेते, उठा लेते, खाते हैं, ऐसी बात साधुसंतों के नहीं होती। यह बात तो दूर ही रहे संकेत करके भी साधुजन आहार नहीं लेते हैं, अपनी मुट्ठी से किसी वस्तु को संकेत करे ‘हूं हूं अमुक चीज’ ऐसा संकेत करके भी साधुजन आहार ग्रहण नहीं करते। न बिना दिया हुआ लेते, न संकेत किया हुआ लेते। यदि बिना दिया हुआ आहार ग्रहण में आ जाय या किसी वस्तु का संकेत कर दिया जाय तो साधु के अंतराय होती है।
प्रहार व ग्रामदाह अन्तराय—कोई पुरुष साधु पर प्रहार करे, ढेला मारे तो भी साधु अंतराय मान लेते हैं, आगे नहीं जाते हैं। जिस ग्राम में चर्या हो रही है, जिस स्थान पर चर्या चल रही है उसके निकट किसी ग्राम में आग लग जाय, अग्निदाह हो जाय ऐसी स्थिति में भी साधुजन आहार ग्रहण नहीं करते हैं। अन्य जगह तो लग रही आग और साधु महाराज अपने पेट की ही फिकर रक्खें, ऐसी निर्दयता का परिणाम संत पुरुषों के नहीं होता है।
पादग्रहण व हस्तग्रहण अन्तराय—साधुजन किसी वस्तु को पैर से उठाकर ग्रहण करे, ऐसी कोई बात बन जाय तो भी अन्तराय है। हो जाता होगा कुछ ऐसा, किसी वस्तु को भूमि पर से हाथ से उठा लिया तो यह भी अंतराय है। सुनने में ऐसा लगेगा कि कोई चीज हाथ से उठा लिया भूमि पर से तो क्या हर्ज है? अरे अन्य समय उठा ले तो हर्ज नहीं है। समिति पूर्वक पिछी कमण्डल आदि उठाते ही हैं किन्तु आहार चर्या के लिए गमन होने के बीच में किसी वस्तु को भूमि पर से उठाये तो यह राग प्रसिद्ध करता है और भोजन में भी इतनी आसक्ति है कि भोजनविषयक चर्या और मुद्रा से वह हट गया।
आहार में साधुवों की निर्दोष प्रवृत्ति—यों साधुजनों के 32 प्रकार के अन्तराय होते हैं। उन अंतरायों को टालकर साधुजन आहार लेते हैं। 46 दोषों को टालकर 32 अंतरायों को टालकर साधुवों का आहार होता है। उसके अतिरिक्त साधुजन वहाँ ही आहार लिया करते हैं जहां दातार में ये 7 प्रकार के गुण हों।
दातार के सप्तगुणों में श्रद्धा गुण—दातार श्रद्धावान हो। यदि दातार में श्रद्धा नहीं है, आ गये हैं सिर पर खिलाना ही पड़ेगा, ऐसी स्थिति में वे आहार बनाए तो साधुजन आहार नहीं लेते हैं। यदि दातार श्रद्धालु हो तो साधुजन आहार लेते हैं। साधुजनों की उपासना से ही हम आपका हित होगा और हम लोगों का यह कर्तव्य है और सौभाग्य है कि ऐसे पात्रों का समागम मिल रहा है। बड़ी श्रद्धा सहित दातार होना चाहिए।
शक्ति गुण—दूसरा गुण है दातार में शक्ति का होना। श्रद्धा तो है सब कुछ, किन्तु व्यय करने की शक्ति नहीं है अथवा श्रम करने की शक्ति नहीं है। यहाँ वहाँ से उधार लेकर या अपने आपके घर वालों को भूखा रखकर अधपेट रखकर, चलो आज हम सब थोड़ा ही थोड़ा खायेंगे साधु को आहार दें—श्रद्धा तो है, परिणाम भी निर्मल है किन्तु साधु ऐसा जान जाय तो वहाँ आहार नहीं लेता है। उसमें शक्ति भी होनी चाहिए।
अलुब्धता—तीसरा गुण है दातार में अलुब्धता का होना, लोभ का न होना। श्रद्धा भी है कि दान देने से सुख मिलता है, पुण्य होता है, अगला भव भी सुधरता है, देना चाहिए। कदाचित् इस ही बात का लोभ हो जाय कि मुझे भोगभूमि मिलेगी तो यह भी एक आंतरिक लोभ है, पर ऐसा लोभ भी हो जो वर्तमान में समर्थ होते हुए भी व्यय करने का भाव न हो तो वहाँ साधुजन आहार नहीं लेते हैं। और किसी-किसी श्रावक के तो लोभ का परिणाम इतना अधिक हो जाता है कि अतिचार में लिखा है कि साधु के खाने योग्य पदार्थ को संचित वस्तु से ढाक देना, यह है अतिथि संविभाग व्रत, किन्तु उसमें दोष लग गया। जैसे 10 चीजें रक्खी हैं, एक चीज पर हरा पत्ता ढाक दे तो अतिथि संविभाग में क्यों दोष है? यों दोष है कि दातार ने यदि इस भाव से ढाका है कि यह चीज कीमती बनी है, सचित से ढाक दें तो साधु में खर्च न होगा। घर में बाल बचे बहुत हैं तो उनके काम आयेगा। यह परिणाम है इसलिए अतिथि संविभाग व्रत में यह दोष है। इतना तक लोभ हो जाता है कि अगर घी पास में रक्खा है और उसे कोई दूसरा परोसे तो उसे कह दिया जाता है तुम यह परोसो, यह काम करो और खुद घी परोसते हैं, ऐसा परिणाम भी एक लोभ का परिणाम है। ऐसे कितने ही कार्य लोभ में शामिल हो जाते हैं ऐसा परिणाम रखने वाले दातार के हाथ का भोजन साधुजन नहीं लेते हैं। साधु को तो ना ना चाहिए और श्रावक को हाँ हाँ चाहिए। वह आहार दान प्रशंसा के योग्य है। अगर साधु संकेत करे, हाँ हाँ करे तो वह आहारदान योग्य नहीं है। तो दातार में अलोभ का भी गुण होना चाहिए।
भक्ति—चौथा गुण है भक्ति। दातार में भक्ति हो। भक्ति कहते हैं गुण के अनुराग को। साधु के गुणों में अनुराग रखते हुए जो दान किया जाता है वह हे भक्तिसहित दान। साधु को दानदाता की सब परख हो जाती है जैसे कि व्यापारी को अपने सभी काम धंधों की बड़ी परख रहती है और कहते भी हैं कि हम उड़ती हुई चिड़िया भी परख लेते हैं। यों ही साधुसंतजनों का इस प्रसंग का रोज-रोज काम रहता है इसलिए दातारों को वे शीघ्र परख लेते हैं और अपने इस अनुभव के बल से वे अपनी प्रवृत्ति निर्दोष रखते हैं। दातार में अटूट भक्ति रहनी चाहिए, उस साधु के प्रति जिसे आहार दान किया जा रहा है।
दातार का ज्ञानगुण—5 वां गुण है ज्ञान। दातार में सर्व प्रकार का ज्ञान होना चाहिए। जिसने कभी आहार न दिया हो, पहिले ही आहार देवे तो कुछ देने का ही नाम तो दान नहीं है। विधि हो, पद्धति हो, ढंग हो, सर्व प्रकार का ज्ञान हो, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का ज्ञान हो। पुरुष तो पड़गाह कर भक्तिपूर्वक ले गया और कहा अन्न जल शुद्ध है आइये। और चौके में पूछते हैं कि यह क्या चीज है, अरे उसे जब यह नहीं मालूम है कि यह काहे का साग है तो उसने क्यों बोल दिया कि अन्न जल शुद्ध है। प्राय: ऐसा लोग बहुत जगह करते हैं। स्त्रियां बहुत ऐसा करती हैं। तुम्हारे घर आहार बना है? हाँ हाँ अच्छा हम भी आती हैं। धोती बदल दें फिर आहार दे दें। वहाँ सभी चीजों का पता नहीं है और कह देती हैं कि महाराज आहार जल शुद्ध है। अरे ऐसा कहने का उन्हें क्या अधिकार? तो सर्व बातों का ज्ञान होना चाहिए। क्या बना है, कैसी चीज है, आहार का भी ज्ञान हो, आहार देने की विधि का भी ज्ञान हो, कुछ धार्मिक ज्ञान हो ताकि समझ में तो आ जाये कि यह साधु है, पात्र है, अमुक है इस सम्बन्ध में भी कुछ ज्ञान हो, तो दातार में ज्ञानगुण भी होना चाहिए।
दया—छठा गुण है दया। दयाशील साधु हो। किसी भी दूसरे पुरुष पर दया न रक्खे, खुदगर्ज हो, निर्दयी हो, ऐसे पुरुष के हाथ का आहार लेना योग्य नहीं है। कोई कहे वाह हम निर्दय है तो रहने दो, हम खुदगर्ज है तो तुम्हें इससे क्या मतलब? तुम्हें तो भक्तिभाव से ही आहार दिया जा रहा है। तुम्हें तो कुछ टोटा नहीं है। बढ़िया चीज बनाया है और बड़े आदर से आपको दे रहे हैं क्यों नहीं लेते? अरे कहने दो। जो पुरुष अन्य जीवों के लिए निर्दय है, किसी के उपकार के काम नहीं आता है उससे सेवा लेने में कुछ संकोच होता है कि नहीं? अपने-अपने अनुभव से विचारो। जो पुरुष दयाहीन हैं, अन्य जीवों के किसी भी काम में नहीं आते, खुदगर्ज हैं, ऐसे दातार साधु को आहार देने के योग्य नहीं माना गया है। दया होनी चाहिए सर्व जीवों के प्रति। यहाँ दया से मतलब यह नहीं है कि साधु पर दया करे ऐसा गुण होना चाहिए, किन्तु दया का स्वभाव होना चाहिये। ऐसे दयालु स्वभाव वाले श्रावक से साधुजन आहार लिया करते हैं।
क्षमा—7 वां गुण है क्षमा। क्षमा की प्रकृति का होना। अन्यथा कहो उसी समय जरा-जरासी बातों में क्रोध करे। कोई चीज दे रहा है, कोई पुरुष उससे कहे कि तुम देना नहीं जानते हो, यों दो, इतने में ही गुस्सा चढ़ सकती है। तुम आए बड़े देने वाले, कहो वही लड़ बैठे। साधु तो आहार कर रहा है और वह वही लड़ बैठे। तो क्षमा का भी गुण दातार में होना चाहिए। कुछ भी किसी से अपराध बन गया, वहाँ क्षमा होना चाहिये। इसके अतिरिक्त अन्य समयों में भी क्षमा की प्रकृति वाला दातार को होना चाहिए। क्रोधी पुरुष के हाथ का तो आहार भी पचना कठिन है।
क्रोधशील पुरुष द्वारा प्रदत्त आहार का परिणाम—गुरुजी ने एक बार सुनाया था कि ईसरी में एक ब्रह्मचारी आये थे। थे तो बड़े श्रद्धालु, किन्तु क्रोध की प्रकृति अत्यधिक थी। एक दिन आहार बनाया, उसमें वह चीज लाये जिसमें गुरुजी का उस दिन त्याग था। जैसे मानो सावन में आम नहीं खाते हैं, ऐसी कुछ बात थी, पर दूसरे के द्वारा कुछ मना किये जाने पर एकदम क्रोध आ गया और कहा कि कल हम आहार करेंगे, अगर महाराज आहार न लेंगे तो हम कुए में गिरकर मर जायेंगे। खैर ऐसा कोई कहे तो वहाँ आहार को जाना चाहिए ऐसी विधि नहीं है। न जावे। सिद्धान्त में यह आज्ञा है कि न जावे। अपना विनाश करने वाला कोई नहीं है। और इस भय से यदि उस ही के घर जाने लगे तो रोज कहने वाले मिलेंगे और गिरने की धमकी देने वाले मिलेंगे, तब रक्षा साधु अपनी कैसे करेंगे? हठ करे, कोई भी भय दिखाये कि हमारे यहाँ आहार करने जाना ही पड़ेगा तो आज्ञा नहीं है कि वहाँ जाय। लेकिन गुरुजी तो कोमल स्वभाव के थे। गये, भोजन किया। उस भोजन के बाद उनके जो मलेरिया आई कि उस मलेरिया ने 20, 25 दिन पिंड नहीं छोड़ा। दातार को क्षमाशील होना चाहिए। उसके ही हाथ का आहार ग्रहण करना साधु को योग्य है।
सप्तगुण सहित दातार द्वारा दत्त आहार के ग्रहण का विधान—ऐसे दातार के जो सात गुण हैं, दातार उन गुणों से सहित हो और शुद्ध हो, आचार विचारों का पवित्र हो और बाह्य में भी स्नान किए हुए शुद्ध वस्त्र पहिने हुए हो, ऐसे योग्य आचरण वाले उपासक के द्वारा दिए गए भोजन को साधुजन ग्रहण करते हैं। ऐसे जो परमतपस्वी पुरुष है उन्हें आहारविषयक आसक्ति नहीं रहती। यद्यपि आहार संज्ञा छठे गुणस्थान तक है, पर आहार संज्ञा की भी तो अनेक डिगरियां हैं। छठे गुण स्थान में आहारविषयक वाछा का संस्कार अत्यन्त शिथिल है। श्रावक की भांति भी नहीं और अन्य अज्ञानियों की भांति तो कुछ भी नहीं है। ऐसे निरपेक्ष परमतपोधन सप्तगुणसहित श्रावक के हाथ का आहार ग्रहण करते है और उनके एषणासमिति होती है।
समिति में निवृत्ति अंश का आदर—एषणा नाम है आहार की खोज करने का, पर इस तरह की खोज नहीं कि ढूढ़ रहे हैं, कहीं आहार बन रहा है और हाथ मारकर ले गए, इस प्रकार का नहीं, किन्तु चर्या से जाकर वहाँ किसी दातार ने भक्तिपूर्वक शुद्ध विधि से आदि आहार दान किया तो वहाँ आहार ग्रहण करते हैं। इस वृत्ति का नाम है एषणासमिति। प्रत्येक समिति में निवृत्ति भरी हुई है। प्रवृत्ति की मुख्यता नहीं है, प्रवृत्ति की मुख्यता हो तो वहाँ संवर निर्जरा न होगा, सो वहाँ अनशन स्वभाव वाले आत्मतत्त्व का ध्यान रखते हुए आहार को वे ग्रहण करते हैं अर्थात् निश्चयसमितिपूर्वक व्यवहार-एषणा का पालन करते हैं।
साधु योग्य नवकोटिविशुद्ध आहार—साधुजन नवकोटि विशुद्ध आहार लेते है, अर्थात् जिसे न मन से किया हो, न कराया हो, न अनुमोदा हो, न वचन से किया हो, न कराया हो, न अनुमोदा हो, जिसे काम से न किया हो, न कराया हो, न अनुमोदा हो ऐसा नवकोटि विशुद्ध आहार साधुजन लेते हैं। प्रासुक भोजन का भी साधु के आरम्भ हो तब भी उसमें दोष है। साधुजन अपना अधिक ध्यान रखकर आहार को करें, करायें अथवा अनुमोदे तो भी आरम्भ के दोष का भागी होना पड़ता है। गृहस्थजन आरम्भ करने के दोषी है ही। वे त्रसहिंसा के त्यागी हैं, पर स्थावर हिंसा का त्याग गृहस्थ के नहीं है। वे अपने लिए कल्याण भाव से शुद्ध भोजन किया करते हैं, उस बने हुए शुद्ध भोजन के समय साधुजन आ जायें तो श्रावक के अतिथि संविभाग होता है, वे अपनी वृत्ति का पालन करते हैं, वहाँ साधुजन आहार करने आयें तो दोष नहीं है।
साधुयोग्य मनोहर एवं प्रासुक आहार—साधुजन मनोहर आहार करते हैं। अमनोहर पदार्थ न होना चाहिए। यदि आहार बेडोल, बेरूप, बैरंग, बेढंग का हो तो उसे आहार के करने में एक आसक्ति का भी दोष लगता है। इतनी तीव्र आसक्ति है कि कैसा ही बेडोल आहार बना लो और फिर भी उसे खाया जाय, ऐसे आहार के करने में आसक्ति की भी बात आती है। साथ ही उसमें यह भी बात गर्भित है कि बनाने वाला कलावान् नहीं है। जिसके बनाने की रंच भी कला नहीं है उसके बनाने में सावधानी भी नहीं हो पाती है। इस कारण साधुजन मन को हरने वाले आहार को ही लेते हैं। साधुजन प्रासुक ही आहार लेते हैं। ऐसे आहार को भी साधुजन लड़ भिड़कर नहीं लेते। मांगकर नहीं लेते, किन्तु नवधा भक्ति से कोई आहार कराये तो आहार लेते हैं। वे नौ भक्ति कौनसी हैं उन्हें सुनिये।
प्रतिग्रह—नवधाभक्ति में प्रथम है प्रतिग्रह पड़गाहना। सामने आते हुए साधु को ग्रहण करना, ले लेना। जैसे जब बारात आती है तो लड़की वाला कहता है कि टाइम हो चुका अब बारात ले लो। बारात ले लेने का अर्थ है कि कुछ आगे जाकर बारात को साथ में अपने घर ले आवे। सर्व प्रथम बारात लायी जाती है वह बारात प्रतिग्रह हुआ। कोई आपका दामाद अथवा अन्य कोई आये और आपको सामने से दिख जाय तो आप अपनी बैठक छोड़कर थोड़ा जाते हैं और उसे ले आते हैं। यह हुआ रिश्तेदार का प्रतिग्रहण। यों ही साधुजन अपने मार्ग से चले जा रहे हैं, यदि उनका प्रतिग्रह न किया जाय तो वे आपके घर में न आयेंगे। उनका प्रतिग्रह इस प्रकार है नमोस्तु बोलना और अन्न जल शुद्ध बना हुआ है ऐसा ज्ञापित करके निवेदन करना कि आप ठहरें इसका नाम प्रतिग्रह है। फिर यह कहें कि गृह में प्रवेश कीजिए। अब घर में प्रवेश कराया जाय।
उच्चस्थान—घर में ले जाकर उच्च आसन पर बिठा देना। उच्चस्थान पर बैठने के लिए प्रार्थना करना। दूसरी भक्ति है उच्च स्थान। साधु घर में पहुंच गया और छोटासा तख्त भी पड़ा हुआ है पर साधु स्वयं उस पर अपने आप नहीं बैठेगा। आप निवेदन कीजिए कि महाराज आप उच्च आसन पर पधारे तो वे बैठेंगे। इन भक्तियों को सुनकर थोड़ा ऐसा लगता होगा कि यह तो कुछ सम्मान और गर्व की बात है। उच्च स्थान पड़ा हुआ है और जान भी रहे है कि हमारे बैठने को ही डाला है पर जब तक कोई कहता नहीं तब तक नहीं बैठते तो यह तो गर्व की बात है। अरे गर्व की बात नहीं है। आहार एक ऐसा कार्य है कि वहाँ कितने ही कारणों की वजह से पूर्ण भक्ति देखे तब ही आहार किया जाना चाहिए। अन्य सब बातों के लिए तो सारा समय पड़ा हुआ है। आहार विधान के अतिरिक्त अन्य समय में कोई उपसर्ग करे, अपमान करे, कैसी भी स्थिति गुजरे, वहाँ साधु ध्यानस्थ रहते हैं। आहार के समय में भी समता हे, पर आहार करने का कार्य पूर्ण रूप से नवधाभक्ति हुए बिना नहीं हुआ करता है।
पादप्रक्षालन—तीसरी भक्ति है पादप्रक्षालन, उनके चरण धोना। चरण धोने में भी श्रावक को परख लेते हैं कि यह समझदार ज्ञानी भक्त है अथवा नहीं, कई बातें जान ली जाती हैं। पानी ज्यादा बखेड़ दें, अधिक पानी से चरण धो दें तो साधु जान जायेगा कि यह समझदार गृहस्थ नहीं है। साधु की विधि भली भांति याद होनी चाहिए और चरण धोने की प्रक्रिया में कैसे हाथ लगायें, किस ढंग से बैठें, उन सब मुद्रावों से भी यह जान लिया जाता है कि यह प्रीतिपूर्वक हृदय से यत्न कर रहा है अथवा नगर में आ गए तो करना ही पड़ेगा इस कारण कर रहा है, कुछ भी उपेक्षा गृहस्थ की समझ में आये तो साधुजन वहाँ से लौट जायेंगे।
अर्चन—चौथी भक्ति है अर्चन, अभिवादन, अभिनन्दन, पूजन, गुणस्मरण। पादप्रक्षालन करने के बाद थोड़ा भी कीर्तन करे, धन्य हो महाराज हमारा जन्म सफल हो गया, इतना ही अगर प्रीतिपूर्वक कर दे तो वह अर्चन में शामिल है। उनके लिए चन्दन, अक्षत, धूप आदि सर्व द्रव्य हो, उनकी पूजा भी हो, ऐसा थोड़ा-थोड़ा बढ़कर एक व्यर्थ का व्यवहार बन गया है। जिस साधु को आत्मकल्याण की धुन के कारण इतनी फुरसत नहीं है कि किसी के यहाँ चौकी पर पालथी मारकर ढंग से बैठकर मौज पूर्वक खा सके, जिसको इतनी भी फुरसत नहीं है वह क्या बैठकर घंटा पौन घंटा खराब करेगा? यदि कोई साधु चाहता है कि होने दो पूजन, लगने दो घंटा पौन घंटा तो समझ लो कि उसका दिल कैसा है? साधु नहीं चाहता है कि गृहस्थ के घर हम अधिक समय लगायें और श्रावकजन ऐसा ही बखेड़ा बनाकर उन्हें घंटा पौन घंटा रोग दें तो बतलावो कि साधु की भक्ति की अथवा साधु के प्रतिकूल काम किया। उनकी अर्चना अत्यन्त थोड़े समय में होनी चाहिए।
प्रणाम और योगशुद्धि—5 वीं भक्ति है प्रणाम, उनका प्रणमन करना, उनको प्रणाम करना, नमस्कार करना, सिर झुकाकर हाथ जोड़कर अथवा घुटने टेककर उन्हें प्रणाम करना। यह प्रणमन नामक भक्ति है। इसके बाद यह निवेदन करना कि मेरा मन शुद्ध है, मेरे मन में कोई दोष नहीं आया है इस आहार की विधि में, अथवा अप्रीति पूर्वक, खेदपूर्वक आहार नहीं बनाया। बड़ी प्रसन्नता से शुद्धि सहित यह आहार बना है। वचन भी मेरे शुद्ध हैं यह तो प्रकट ज्ञात होता है, काय भी शुद्ध है, यों शुद्धि बोलना चाहिए—इसके बाद चौके के निकट पधरायें और कहें, कहें अन्न जल शुद्ध है, महाराज आहार ग्रहण कीजिए।
किसी न किसी अंश में सबके प्रति नवधाभक्ति की झलक—इस प्रकार की नवधाभक्ति होने के पश्चात् साधुजन आहार लेते हैं। आपको यह बात कुछ ऐसी लग रही होगी कि यह कुछ बहुत बढ़ चढ़कर बात हो रही है। यह बढ़ चढ़कर बात नहीं है। आप अपने रिश्तेदारों को भी खिलाते हैं तो किसी न किसी रूप में नवधाभक्ति करते हैं। चाहें किसी भी रूप में करें। साधुवों की बात साधु के योग्य है, व्यवहार की बात व्यवहार के योग्य है, आप बुलाते है कि नहीं चलो लाला साहब भोजन तैयार है, यही तो पड़गाहना हुआ लाला जी का। और जब घर के भीतर ले जाते हैं तो बैठक में बैठते हैं चलिये कुर्सी पर, इतनी देर में भीतर आवाज गई, अभी कितनी देर है? भीतर से आवाज आयी कि अब देर नहीं है बुला लो। सो अब जल लेकर आ गये चलो लाला जी पैर धोवो। बिना पैर धोए तो चौके में नहीं जाते। अब आज की पद्धति में हम क्या बात कहें? हम तो जो भारत की पुरानी पद्धति है उसके अनुसार कह रहे हैं। सो आज की पद्धति में खाने वालों ने अपमान अपने आप कराया। यदि ऐसा न करते तो उनकी नवधाभक्ति होती। यहाँ तो सीधा दरवाजे के पास के कमरे में बैठाल दिया कुर्सी पर, टेबल रख दिया और भीतर से खां साहबान प्लेट लेकर आ गये। तो उन्होंने खुद अपना अपमान कराया। नहीं तो आदर होता।
खैर, अब लाला जी का पैर पखारा गया, फिर इसके बाद ही थोड़ा सा गुण कीर्तन करते हैं। बहुत दिन में आये हो, धन्य हो, कुछ भी कहें, इसके बाद कुछ न कुछ हाथ जोड़कर कहते हैं। कि आइये चाहे थोड़ा ही हाथ जोड़ें, पर कुछ न कुछ हाथ जुड़ ही जाते हैं। वहाँ मन, वचन काय के शुद्ध बोलने की कुछ बात ही नहीं है। वह तो होना चाहिए लाला जी के योग्य मन, वचन, काय। फिर इसके बाद में कहते हैं कि भोजन कीजिए। अगर वे लाला जी तनिक भले हैं, शुद्ध खाते हैं तो कह देंगे कि सब ठीक है, कुवां का पानी है, हाथ का पीसा आटा है, भोजन कीजिए और जो अगड़म बगड़म खाने वाला है तो कह देंगे कि अच्छा भोजन शुरू कीजिए। क्या शुरू किया जाय, सो वह सब जानता है।
योग्यदाता व योग्य भक्ति—नवधाभक्ति पूर्वक जो आहार दान किया जाता है उसे साधुजन ग्रहण किया करते हैं। यों नवधाभक्ति से 7 गुणों से भरा हुआ श्रावक जिसका कि योगय आचरण है, 7 व्यसनों का त्याग है, न जुवा खेलता है, न मांस मदिरा खाता पीता हो, न शिकार खेलता हो, न चोरी करता हो, न झूठ बोलता हो, न परस्त्रीगामी हो, न वेश्यागामी हो—ऐसे शुद्ध आचरण वाला श्रावक हो उसके हाथ से ही आहार बना हो तो तपस्वीजन आहार ग्रहण करते है। निश्चय से देखा जाय तो इस जीव के आहार ही नहीं होता। आहार मूर्तिक है, आत्मा अमूर्तिक है। अमूर्तिक आत्मा में आहार का सम्बन्ध कहा होता है? इसके आहार करने का स्वभाव नहीं है, किन्तु व्यवहार से जब यह जीव इस असमानजातीयो पर्याय को ढो रहा है तो उसके आहार भी चलता है।
षड्विध आहार में नोकर्माहार—वे सब आहार 6 प्रकार के होते हैं। यहाँ कवलाहार का वर्णन है पर सब प्रकार के आहार 6 तरह के होते हैं। एक तो कर्माहार होता है। अपने शरीर में चारों ओर से वर्गणाए आती हैं, सूक्ष्म परमाणु स्कंध आते हैं और शरीर में सीधे प्रवेश कर जाते हैं, शरीररूप बन जाते हैं यह है नोकर्माहार। जब हम आप कवलाहार नहीं कर रहे, ग्रास लेकर आहार नहीं कर रहे तब ही नोकर्माहार हम सबमें चलता रहता है—उसी का विशेषरूप है इन्जेक्शन। इन्जेक्शन से बाहर की चीज शरीर में प्रवेश करा दे, पर यह प्राकृतिक इन्जेक्शन है कि शरीर की वर्गणाए पुद्गल स्कंध के चारों और भरी पड़ी हैं, वे शरीर में आती हैं और शरीररूप बन जाती हैं यह है नोकर्माहार।
कर्माहार व लेप्याहार—दूसरा है कर्माहार जीव को ग्रहण कर रहा है। चूकि यह जीव व्यवहारदृष्टि में असमानजातीय पर्याय के बन्धन में है, इस कारण इस जीव के साथ इन पुद्गल वर्गणावों को ग्रहण करने का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। कर्मों को ग्रहण करना सो कर्माहार है। यह कर्माहार भी प्रति समय इन संसारी जीवों के चलता रहता है। एक आहार है लेप्याहार—लेपकर आहार लेना। जैसे पेड़ हैं ये किस तरह आहार लेते हैं? इनके मुख तो है नहीं, ये लेपकर आहार लेते हैं। जड़ों में मिट्टी पानी आदि चिपक जाता है, लिप जाता है और उसही के माध्यम से वह पुष्ट हो रहे हैं, आहार ग्रहण करते हैं।
कवलाहार—एक होता है कवलाहार, जिसमें बहुत बड़ी परेशानी है—कमावें, इकट्ठा करे फिर भोजन बनावे, तैयार करे, इतनी विपत्तियों द्वारा साध्य है यह कवलाहार। यहाँ तक तो उसकी एक प्राकृतिकसी बात चल रही है, पर यहाँ तो जान बूझकर कुछ उद्यम करके ही कवलाहार की बात की जा सकती है। कमाना भी पड़ता है, सामने हाजिर भी हो जाय तो भी उठकर खाने के लिए यत्न किया जाता है। उद्यम किए बिना कवलाहार नहीं बनता है। कवलाहार देव और नारकियों के भी नहीं होता है। यह तो दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के तिर्यञ्चों में और मनुष्यों में हुआ करता है।
ओजाहार व मानसिक आहार—एक आहार का नाम है ओजाहार। चिड़िया अंडे देती है, उस अंडे में वह जीव कई दिन तक रहता है। उस बच्चे को कैसे आहार मिले? उस अंडे पर चिड़िया बैठ जाती है और अपनी छाती की गरमी देती है जिसे कहते हैं अंडे को सेया, वह सेया क्या है? अपने शरीर की गरमी अंडे में पहुंचायी, यह है ओजाहार। एक आहार होता है मानसिक आहार। मानसिक आहार देवों के होता है। भोजन की इच्छा हुई कि उनके गले से एक सुधा सरती है और उससे तृप्त हो जाते हैं। इन 6 प्रकार के आहारों के बिना शरीर कायम नहीं रह सकता भले ही किसी में एक आहार हो, किसी में दो हों, किसी में तीन हों, पर छहों आहार एक जीव में नहीं होते। कुछ विशेष हो या एक हो। होना चाहिए। आहार न हो तो शरीर की स्थिति नहीं रह सकती।
संयोगकेवली के नोकर्माहार—कोई मनुष्य मानो 8 वर्ष की उम्र में साधु बन जाय और उसके भाव बढ़े, क्षपक श्रेणी में चढ़े और अरहंत हो जाय, तेरहवें गुणस्थान की स्थिति हो गयी और आयु है उसकी मान लो एक कोट पूर्व की। एक कोट पूर्व में करोड़ों वर्ष होते हैं। तो 8 वर्ष कम इन करोड़ों वर्षों तक अरहंत भगवान् बना रहेगा। लोगों को उसका दर्शन मिलेगा। अब यह बतलावो कि अरहंत भगवान् कवलाहार करते कि नहीं? नहीं करते। करोड़ों वर्ष तक वे भोजन नहीं लेते। उनके शरीर की स्थिति कैसी रहती है? नोकर्माहार के कारण, शरीर वर्गणाए उनकी पवित्र औदारिक शरीर में आती रहती है और केवल नोकर्माहार के बल पर उनका शरीर करोड़ों वर्ष तक बना रहता है और वह भी शरीर पूर्ण बल युक्त होता है। उनके कर्माहार नहीं है, लेप्याहार नहीं है, कवलाहार नहीं है, ओजाहार नहीं है, मानसिकाहार नहीं है केवल एक नोकर्माहार है। शरीर की वर्गणाए आती हैं और उनके कारण शरीर टिका रहता हैं। ये 6 प्रकार के सभी आहार एक विभावरूप है, व्यवहारनय की अपेक्षा से ये 6 प्रकार के आहार हैं। निश्चय से साधुवों का कैसा आहार होता है? इसको परिचय में उदाहरणरूप साधुवों के आंतरिक वृत्ति के आहार की बात कहेंगे।
अनाहारता की सिद्धि के लिये आहार—साधुसंत जिनको यह श्रद्धा है कि मैं आत्मा आहार रहित हू, अनाहारस्वभावी हू ऐसे साधुसंतों के अंतरंग में ऐसी प्रतीति रहती है, वह तो तप है ही, किन्तु अनाहार स्वभावी आत्मतत्त्व की सिद्धि के लिए जो निर्दोष आहार को ग्रहण करते हैं वह भी तप है। क्या करते हैं साधुजन? अनाहारस्वभावी आत्मा को सिद्ध करने के लिए आहार करते हैं अर्थात् मुझे अनन्तकाल तक भी आहार न करना पड़े, ऐसी सिद्धि का प्रयोजक आहार करते हैं। जिज्ञासा हो सकती है कि क्या ऐसा भी सम्भव है कि आहार न करने के लिए आहार करते हैं? हो सकता है।
देखो कोई रईस पुरुष बीमार है, कमरा सजा हुआ है, डाक्टर दो तीन-तीन घंटे में खबर ले रहे हैं। नौकर-चाकर भी लगे हैं, सभी वस्तुवें उपस्थित हैं, परिवार, मित्रजन, इष्टजन बड़ी चापलूसी करके उसका चित्त खुश कर रहे हैं, वह दवाई ले रहा है, लेकिन उसके भीतर से पूछो कि क्या तुम दवाई खाते रहने के लिए दवा ले रहे हो या दवाई न खाना पड़े इसके लिए दवाई ले रहे हो? रोगी पुरुष दवाई न खाने के लिए दवाई खा रहा है। तो ज्ञानी पुरुष भोग न भोगने के लिए भोग भोग रहा है। बड़े पुरुषों की बात छोटों में नहीं होती है, ज्ञानियों की बात अज्ञानी लोगों में नहीं होती है, निर्मोहियों की बात मोही पुरुषों की भांति नहीं होती है, इसलिए किसी को शंका हो सकती है पर अन्तर में यह आशय ज्ञानी का विशुद्ध बन गया है कि लौकिक सुख को भोगने के लिए नहीं भोग रहा हू किन्तु सुख दु:ख दोनों से निवृत्त होकर स्वाधीन ज्ञानानन्द स्वरूप के विकास के लिए मैं इससे निपट रहा हू। अब देखो जो रोगी औषधि के परिहार के लिए औषधि खा रहा है उसे औषधि खाने वाला नहीं कहा जायेगा, यों ही वियोगबुद्धि से उपभोक्ता को उपभोक्ता नहीं कहा जायेगा।
प्रवृत्ति में निवृत्ति का प्रयोजन—जो किसी सेवा से निवृत्त होने के लिए अंतिम सेवा कर रहा है उसे सेवा करने वाला नहीं कहा जाता। जैसे मानों दो मित्र बड़े परस्पर के हित चाहने वाले हैं, उनमें हो गया झगड़ा अथवा दो साझेदार हैं और उनमें हो गया मनमुटाव, तो मन में यह ठान लिया कि मुझे तो उससे पृथक् होना है, अब ऐसा पृथक् होने के लिए आखिरी व्यवहार प्रेम का भी कर रहा है और बड़ी मित्रता के वचन भी बोल रहा है, पर यह सब व्यवहार पृथक् होने के लिए हैं ऐसा व्यवहार मिलन बनाये रहने के लिए नहीं है, यों ही जानो कि इन विषयों से इस जीव की अनादि काल से मित्रता चली आ रही है। अब इस ज्ञानी संत का विषयों के भाव से मनमोटाव हो गया है, अज्ञान हट गया है, विवेक जग गया है, लेकिन अभी फंसा है। परिस्थिति विचित्र है। ऐसी स्थिति में आहार भी करना पड़ता है और कुछ मानसिक शारीरिक वेदनाए बढ़ती है तो उनका परिहार भी कर रहा है, पर इस ज्ञानी ने अपने मन में यह ठान ली है कि मुझे तो सबसे न्यारा होना है और अपने ज्ञानानन्दस्वरूप में मग्न होना है, ऐसी ठान ठानने वाले साधुसंत अनाहार स्वभाव की सिद्धि के लिए आहार लेते हैं, तो वे श्रवण आहार करते हैं या अनाहारी हैं, वे साधुसंत आहार करते हुए भी अनाहारी हैं।
ज्ञानी की सदाशयता पर एक दृष्टान्त—निकटभव्य जीव जो मुक्ति के अत्यन्त निकट हैं, संसार से हटने वाले है उन्हें संसार की बातें करनी भी पड़े तो भी वे हटे हुए करते हैं। किसी सेठ की लड़की विवाह योग्य हो गयी। सेठ कहीं बाहर किसी नगर में वर ढूढ़कर आया। अब घर पर सेठ सेठानी में बातें हो रही हैं, हम अमुक नगर में वर ढूढ़ आये हैं, पक्का भी करके आए हैं, इतनी जायदाद है, इतना पढ़ा लिखा है, दूकान है, किराया है, बातें हो रही हैं, सेठ सेठानी से सब कहता जा रहा है। बिटिया वही पीछे बैठी हुई सब बातें सुन रही है। सुनते ही उसके दिमाग में आ गया कि मेरा तो वह घर है और यहाँ पिता के यहाँ पड़ा हुआ लाखों का वैभव मेरे लिए कुछ नहीं है। इतने पर भी क्या वह लड़की पिता की जायदाद को बिगाड़ देती है? क्या वह सारी व्यवस्था ज्यों की त्यों नहीं करती है, कहो पहिले से भी ज्यादा करे यह समझाने के लिए कि मेरा दिल तुमसे हटा नहीं है। कहो पहिले से भी ज्यादा मन लगाकर पिता का कार्य करे। तब भी उसके चित्त में दूसरी ही बात समायी है कि मेरा सर्वस्व वैभव वह है। यहाँ से विरक्ति आ गयी है। ऐसे ही इस संसार में अनादिकाल से बसे हुए इन जीवों में से जिस निकट भव्य ने यह बात समझ ली है, ज्ञान जग गया है, मुझे तो मुक्त होना है, संसार के सब झंझटों से मुक्त होकर वहाँ जाना है, वहाँ ही मेरा अनन्तकाल आनन्द में बीतेगा ऐसा जिसका दृढ़ निर्णय हो गया है, घर में रहते हुए भी उसका चित्त घर में नहीं है। घर में क्या संसार में नहीं है। चित्त तो परमात्मतत्त्व में है, कारणसमयसार में है।
प्रमत्त अवस्था में भी ज्ञानी की परमोपेक्षा—भैया ! परम उदासीन होने पर भी यह ज्ञानीसंत जिस समागम में रह रहा है, जिस व्यवहार में रह रहा है—क्या वहाँ जी तोड़ बात करेगा, क्या प्रेमालाप न करेगा? क्या सबको यों कहेगा कि तुम सब विनाशीक हो, असार हो, भिन्न हो? यद्यपि वह कहता नहीं है किसी से, पर चित्त में सब जानता है। और कहो कुछ उस ज्ञानी को यह विदित हो जाय कि हमारे घर के लोगों को, मित्रों को यह विदित हो गया है कि मैं विरक्त हो गया हू तो कहो उनका मन रखने के लिए पहिले से भी अधिक प्यार पूर्वक बोले, लेकिन यहाँ तो मामला ही उलट चुका है। दृष्टि तो स्वरूप विकास की ओर लग गयी। जिस ज्ञानी ने अध्यात्म के सार का निश्चय किया है—क्या है अध्यात्मतत्त्व? केवल ज्ञानमात्र ज्ञातादृष्टा रहना—यह मेरा सर्वस्व वैभव है—इतना ही मात्र मैं हू, इससे अतिरिक्त अन्यत्र में कहीं कुछ नहीं हू, न मेरा कहीं कुछ है, ऐसे चैतन्यस्वभावमात्र अपने तत्त्व का जिसने निश्चय कर लिया है और जो यम नियम कर सहित है, ऐसा पुरुष तो इन समस्त क्लेशजालों को जड़ से उखाड़ देता है।
यम और नियम—साधु पुरुष यम और नियम की साधना में बहुत सावधान रहते हैं। और सावधानी क्या? जिसको भीतर में ज्ञानकला जग गयी उसको यम और नियम का पालन करना तो सहज हो जाता है जिसको आत्मीय आनन्द का अनुभव हो गया है ऐसे पुरुष को बाह्यपदार्थों का परित्याग, बाह्यपदार्थों की उपेक्षा वे सब सुलभ हो जाते हैं। यम कहते हैं यावत् जीवन विषय-कषाय का त्याग करने को और नियम कहते हैं किसी समय की अवधि लेकर त्याग करने को। जैसे किसी ने प्रतिज्ञा ली कि दस लक्षणी के दिनों में शुद्ध ही खाऊगा और जो प्रतिमाधारी पुरुष है उसको यावत् जीवन शुद्ध खाने का संकल्प है। यावत् जीवन जो त्याग का संकल्प है, प्रवृत्ति है उसको तो कहते हैं यम और कुछ समय की अवधि लेकर कोई प्रतिज्ञा निभाना इसको कहते है नियम। नियम की अपेक्षा यम में बल बहुत है। दस लाक्षणी के दिनों में तेरस को भोजन करके चौदस को आहार की प्रतिज्ञा लेंगे उपवास की तो तेरस को ही यह दिमाग में है कि आने तो दो पूर्णिमा का दिन। तो जहां नियम होता है इतने समय तक के लिए मेरा अमुक वस्तु का त्याग है वहाँ उसके बाद का संकल्प भीतर पड़ा हुआ है।
सावधि नियम में अन्त:निहित संकल्प—एक घर में एक सांप था, वह बड़ा सीधा था। सो बालक जब दूध पीता था तो उस रखे हुए दूध को सांप आए और खूब अच्छी तरह से पी ले। सो वह सांप बड़ा तन्दुरुस्त रहे, शांत रहे और प्रसन्न रहे। दूसरे सांप ने आकर उस सांप से पूछा—यार तुम कहां से मालटाल रोज छान आते हो? तो उस सांप ने कहा—हम दूध पीते हैं इसी से मोटे हो रहे हैं। बालक मुझे थप्पड़ मारता है तो उन थप्पड़ों को मैं बराबर सहता रहता हू और दूध पीकर चला आता हू। दूसरा सांप बोलता है कि अच्छा हम भी ऐसा ही करेंगे। वह सांप बोला कि तुम ऐसा न कर सकोगे। ऐसा करने के लिए बड़ा धैर्य और शांति चाहिए, क्रोध का त्याग चाहिए। दूसरा सांप बोला हम ऐसा कर लेंगे। अरे भाई तुम ऐसा न कर सकोगे। तो दूसरा सांप बोला कि 100 थप्पड़ों तक क्षमा कर देने का मैं नियम लेता हू। अब चला वह सांप दूध पीने के लिए। वह सांप दूध पीता जाय वह लड़का थप्पड़ मारता जाय। अब उसका चित्त दूध पीने में तो न रहा, थप्पड़ गिनने में लग गया। वह थप्पड़ गिनता जाय, 90, 95, 98, 99 और 100 हो गए। एक थप्पड़ जब और मारा तो गुस्से में आकर बड़ी जोर की फुंकार मारी। वह लड़का चिल्लाकर बड़े जोर से भागा। लोग जुड़ आए और वह सांप मारा गया।
साधुसंत का विशुद्ध आशय—भैया ! यम में होता है यावत् जीव विषय-कषाय का त्याग और नियम में होता है किसी अवस्था तक त्याग। जो साधुसंत यम और नियम दोनों प्रकार से संयम को निरन्तर निभाते हैं, जिनका बाह्य आचरण भी अत्यन्त शांत है और अन्तरंग भी अत्यन्त शांत है ऐसे साधुजन इस क्लेशजाल को क्षणभर में नष्ट कर डालते हैं। साधुवों की बाह्यवृत्ति बाह्य मुद्रा शांत रहती है। किसी कारण किसी शिष्य पर कभी क्रोध भी करें तो भी उनका क्रोध ऊपरी है। भीतर के स्वभाव में प्रवेश नहीं करता। होता है ऐसा कि नहीं? होता है। आपका छोटा बालक कोई अनुचित व्यवहार करे तो आप उस बालक को डाटते भी हैं—दो एक थप्पड़ भी लगाते है पर आपका क्रोध ऊपरी है, भीतरी क्रोध नहीं है। कोई दूसरा आदमी थोड़ा गाली भी दे जाय तो वह दूसरे आदमी का वह भीतरी क्रोध है। इसी कारण दूसरे से लड़ाई हो जायगी।
ज्ञानी का हितकर व्यवहार—मां अपने बालक को किसी मुड़ेर पर खेलते हुए देखे तो गुस्सा करती है और गाली देती है, नाश के मेटे, होते न मर गए। कितनी ही बातें वह मां बोलती है लेकिन उस मां को कभी किसी ने बुरा नहीं कहा, हत्यारिन नहीं कहा। और कोई आदमी दूसरा कह तो दे कि तू मर न जा, इतनी बात पर कितना झगड़ा हो जाता है। यों ही गुरुजन साधुजन हैं। उन्हें क्या पड़ी है कि दूसरों पर क्रोध करें, लेकिन जब प्यार होता है तो किसी-किसी प्रसंग में गुरु को शिष्य पर क्रोध आता है उसे किसी-किसी बात पर गुस्सा भी करना पड़ता है। गुरुजी हमें जब कभी बुलाते थे तो मनोहर कहकर बुलाते थे, ऐ मनोहर ! आना और जिस दिन यह बोलते थे ‘‘वर्णी जी आना’’ तो हम समझ जाते कि कोई गड़बड़ बात है। ऐसी हालत एक आध बार साल में आ जाती थी, फिर भी वे कहते कुछ न थे, बल्कि धर्मचर्चा करने लगते थे, हम सावधान हो जाते थे। तो ज्ञानी संत साधुजनों के अन्तरङ्ग में अन्तर नहीं आता।
साधुवों की मन्दकषायता व अन्त: अनुकम्पा—साधुवों के कुछ संज्वलन कषाय रहता है। ये अनन्तानुबंधी नहीं है, अप्रत्याख्यानावरण नहीं है, तो भी संज्वलन कषाय तो छठे गुणस्थान से लेकर 9 वें गुणस्थान तक तो सब और 10 वें में केवल संज्वलन लोभ रहता है। ऐसा मात्र संज्वलन कषाय में गुरुजन कभी क्रोध करते हैं पर संज्वलन का क्रोध ऐसा होता है जैसे पानी में लकीर खींची जाय। पानी में लकीर खींची जाती है और मिट जाती है। इसी तरह साधुजन बाहर में भी शांत रहते हैं और भीतर में भी शांत रहते हैं। उन साधुवों की चर्चा की जा रही हैं। ये साधु निकटकाल में ही संसार के समस्त जाल समूह को नष्ट कर देने वाले है। उनका परिणमन समाधिरूप होता है। सामायिक संयम उनके प्रकट होता है। वे साधुजन सर्व भूतों में अनुकम्पा भाव रखते हैं।
साधुवों की आहार प्रवृत्ति का प्रयोजन—ऐसे साधु भी जब क्षुधा से उनका शरीर अत्यन्त विकल हो जाता है तो अपना जीवन रखने के लिए वे हितकारी परिमित आहार लिया करते हैं। साधुजन आहार किसलिए लेते हैं कि जीवन बना रहे। साधुजन जीवन रहे ऐसा क्यों चाहते हैं? इस प्रयोजन के लिए कि हम व्रत और तप में समर्थ रहेंगे। किसलिए साधुजन आहार चाहते हैं कि वे अपने ज्ञानस्वभावी अंतस्तत्त्व में संयत हो लें। सब समझ लो कि आहार का क्या प्रयोजन है? अनाहारस्वभावी निज अंतस्तत्त्व में विकास का प्रयोजन है। अब जरा मोहीजनों से पूछ लो कि किसलिए आहार करते हो, तुम्हारा आहार करने का उद्देश्य क्या है? तो यह उत्तर मिलेगा कि आनन्द आता है, रस आता है, अच्छा लगता है, सो मौज मानने के लिए बढ़िया सामान बनाते हैं, खाते हैं। उद्देश्य के अन्तर से जमीन आसमान जितना अन्तर ज्ञानी पुरुष और इन मोही पुरुषों में हो जाया करता है। ससुराल में गाली खूब सुनने को मिलती है ना। कैसी-कैसी गाली सुनने को मिलती हैं कि जिनके बोलने में लाज आती है। पर वहाँ तो बड़े प्रसन्न होकर सुन लेते हैं। अगर वहाँ गालियां सुनने को नहीं मिलती तो समझते हैं कि साले साहब नाराज हो गए हैं क्या? उतनी ही गालियां घर में कोई दे दें तो कहीं लड़ाई हो जाय? तो उद्देश्य के अन्तर में सारे अन्तर आ जाते हैं।
प्रयोजन की सिद्धि—अनाहारस्वभाव की सिद्धि का उद्देश्य रखकर जो साधु आहार में प्रवृत्त होते हैं वे परिमित अल्प आहार करते हैं, उनका निद्रा प्रमाद नष्ट हो जाता है। ऐसे ही साधु पुरुष संसार के सारे क्लेश को नष्ट करते हैं। अंतिम आचार्य संतों का यह संदेश है कि देखो भक्त श्रद्धालु पुरुष की अंगुलियों से दिये गए भोजन को साधु ग्रहण करते हैं और ज्ञानप्रकाशमय आत्मा का ध्यान किया करते हैं, तप को तपा करते हैं। ऐसे तपस्वी साधु पुरुष ही मुक्ति को प्राप्त करते हैं। इस कारण हे कल्याणार्थी मुमुक्षु पुरुषों सर्व प्रकार का उत्साह बनाकर, प्रयत्न बनाकर सर्व पर से विरक्त होकर एक मात्र निज शुद्ध स्वच्छ ज्ञानमात्र निष्कलंक इस आत्मतत्त्व की उपासना करो और ये सब समितियां पालते हुए ध्यान रक्खो कि मुझे तो परमार्थस्वरूप निज अंतस्तत्त्व में प्रवेश पाना है। ऐसा ध्यान रखकर जो साधुजन समिति में प्रवृत्त होते हैं वे साधु पुरुष निकट काल में ही सर्वक्लेशजालों से दूर हो जाते हैं।
स्वभावविरुद्ध प्रवृत्ति पर खेद—हम आप सब जीवों का स्वरूप प्रभु की तरह अनन्त आनन्द का निधान है, किन्तु एक अपने इस स्वरूप का भान न होने के कारण इन्द्रिय के विषयों में यह भटक रहा है। धन जैसी तुच्छ चीज जिसका मूल्य कंकड़ पत्थर की तरह है उसको यह हृदय से लगा रहा है। कहां तो सारे विश्व को जाने देखे, ऐसी कला वाला है यह आत्मा है और कहां यह स्वरूपविरूद्ध नृत्य कर रहा है? इन रूपी पदार्थों में जो अपने स्वरूप से अत्यन्त भिन्न है, इन पुद्गलों से इन आत्मा का रंच भी नाता नहीं है, पर कैसा पागलपन छाया है कि यह जीव अपने महत्त्व को नहीं चूक सकता कि मैं इतना वैभवशाली हू, और निज की ओर से मुख मोड़कर दीन बनकर भिखारी की तरह परपदार्थों की ओर निगाह लगाये हुए है। रात दिन धन के सपने हैं। रात दिन इन लोक में मायामय स्वरूप में मेरी इज्जत बन जाय, इसका ध्यान है। अरे मूढ़ आत्मन् ! इस लोक में तेरे को पहिचानने वाला है कौन, जिसके आगे तू नाच नाचने का संकल्प कर रहा है।
प्रभु की विचित्र लीला—अहो ! इस प्रभु की विचित्र लीला है। यह बिगड़ता है तो पूरा बिगड़ कर बता देता है और बनता है तो पूरा बनकर बता देता है। ऐसा हम आप प्रभुवों का महात्म्य है। कहो वृक्ष बन जाय, कहो आग पानी बन जाय, कीड़ा मकोड़ा बन जाय। कहां तो है त्रिलोकोत्तम तत्त्व चित्स्वभाव और कहां हो रहा है ऐसी दरिद्र योनि कुलों को उत्पन्न होने का परिणमन? यहाँ बिगड़ रहा हो कोई रईस आदमी क्रोध में हो तो नौकर-चाकर कहते हैं कि अभी इसे मत छेड़ो, यह क्रोध में है, बिगड़ रहा है, यह बिगड़ेगा तो हम लोगों का बिगाड़ कर देगा। अब मत छेड़ो इस रईस को। ऐसे ही यह प्रभु इस समय बिगड़ रहा है। बिगड़ रहा है तो ऐसा भयंकर बिगड़ रहा है कि कीड़ा मकोड़ा की तो बात ही क्या कहें—यह मनुष्य शरीर में भी है तो क्या यहाँ कम बिगड़ा हुआ है?
वर्तमान विवशता—भैया ! क्या करे यह जीव, कोई शेर किसी कठघरे में बंद हो जाय तो वहाँ से कैसे निकले, अपना चित्त मसोस कर रह जाता है। ऐसे ही यह अन्तरात्मा ज्ञानी साधु संत देह के कठघरे में बंद है तो क्या करे अपने चित्त को मसोस कर रह जाता है। साधु संतों को आहार करना पड़ता है। वह आहार कुछ प्रसन्न होकर नहीं किया करते वह खेद मानकर किया करते हैं कि अब पुद्गलों में, विषयों में सिर मारना पड़ेगा, उपयोग लगाना पड़ेगा, अपने स्वभाव से भ्रष्ट होकर गंदी वासनावों में जाना पड़ेगा। उन्हें इसका खेद होता है। ये साधु पुरुष यों निर्मल परिणामों सहित अपनी प्रवृत्तियों का पालन करते हैं, करना पड़ रहा है। इच्छा तो केवल उनकी एक यह ही है कि वे अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप में निरन्तर निरत रहा करें। इसके अतिरिक्त उन्हें और किसी चीज की कामना नहीं है।
परमार्थ साधुता—गृहस्थ लोग किसलिए साधुवों के उपासक होते हैं? अपने में साधुता पाने के लिये। साधुवों की सच्ची उपासना यही है कि साधुवों के चलते हुए मार्ग पर चलने की उत्सुकता रहना और अनासक्ति से मार्ग पर चलना, किन्तु इस मार्ग पर चलना तब हो सकता है जबकि पहिले बुद्धि में यह बात आये कि सोना, चाँदी, रत्न, जवाहरात, पत्थर, मिट्टी—ये सब मेरे से भिन्न हैं। ये पदार्थ तो व्यवहार में इज्जत बनाने के कारण है, पर लोकव्यवहार की इज्जत भी तो आफत है, मायारूप है, परमार्थ सार उसमें कुछ नहीं है, ऐसा समझकर पहिले अपने को विविक्त देख लो। मैं सबसे न्यारा केवल ज्ञानमात्र हू। इसके दर्शन कर लिये तो आपने सब कुछ कर लिया। एक यही काम न किया तो कुछ भी न किया।
गुरुभक्ति—इस मनुष्य भव में आकर जो आत्महित करते हैं, जो साधुसंतों के उपदेशों को पढ़ते हैं, और विवेक में आते हैं वे धन्य हैं। कैसे-कैसे उनके ग्रन्थ हैं? कैसा-कैसा उन्होंने तत्त्व मर्म बताया है? करणानुयोग के ग्रन्थ, द्रव्यानुयोग के ग्रन्थ, इन सब ग्रन्थों में जब प्रवेश होता है तो ऐसी भक्ति जगती है कि अहो कुन्दकुन्दाचार्यदेव, हे अमृतचन्द्रसूरि, समन्तभद्र आदिक तुम यदि अब होते तो आनन्द के अश्रुवों से तुम्हारे पैर पखार डालते। तुम्हारी चरणरज को अपने मस्तक में लपेटकर अपने आपको पवित्र बना लेते। उन साधु संतों की वाणी हमारे हृदय में घर कर जाय इससे बढ़कर तीन लोक में हम और आपका कोई वैभव नहीं है। ‘‘चक्रवर्ती की सम्पदा इन्द्र सारिखे भोग। काकवीट सम गिनत हैं सम्यग्दृष्टि लोग।।’’
समागम के सदुपयोग का ध्यान—भैया ! यह समागम क्या है? आफत है। मिला है तो इसका सदुपयोग करो और अपने आपके अन्तर में बसे हुए इस सहजज्ञानस्वरूप प्रभु की उपासना करो। ऐसा करने में ही अपना हित है। और बातों का भ्रम छोड़ दो, करना कुछ पड़े पर अन्तर में ज्ञान सही रक्खो तो निकट भविष्य में कभी संसार से पार हो जावोगे। यदि अन्तर का ज्ञान न रहा तो फिर संसार में जन्म-मरण के चक्र काटने पड़ेंगे।
गृहस्थों का कर्तव्य—गृहस्थ लोगों के 6 कर्तव्य हैं। देवों की पूजा करना, पर देवों की पूजा के ढंग में थोड़ी देर में प्रभु के गुणों पर दृष्टि गयी तो थोड़ी ही देर बाद अपने को ज्ञात कर लिया कि ओह यह तो स्वरूप मेरा है। मैं भी तो आनन्दघन हू। कहां क्लेश है? गुरुवों की उपासना करें तो ऐसे विश्वास के साथ करें कि हमारे हिततम यदि कुछ हैं तो ये साधुसंत हैं और उनके सत्संग में रहें, स्वाध्याय करें वह आत्मकल्याण की दृष्टि रखकर करें। दुनिया में किसको हम यह बतावेंगे कि मैं इसका जाननहार हू, अरे यह तो महाविष है। मैं कहां तक दृष्टि रख सकू? इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ज्ञान में स्वाध्याय में निरत रहें। संयम—इन्द्रिय का संयम, जीवरक्षा का संयत कर्तव्य को निभावो और अपनी इच्छा होती है संसार के कामों के करने की, विषयों के भोगों की, उन इच्छावों की रस्सियां काटते रहें। ऐ इच्छावों ! तुम यदि आई हो तो तुम्हें लोटना ही पड़ेगा। तेरा परिहार करके मैं अपने ज्ञानस्वरूप में रमूगा और रोज-रोज दान अथवा समय-समय पर त्याग यह भी आत्मकल्याण के लिए बहुत आवश्यक चीज है। जब तक परद्रव्यों में पुद्गल में यह मेरा कुछ है, इसी से मेरा बड़प्पन है, यह ही हितकारी है ऐसी आसक्ति रहेगी तो धर्म के पात्र नहीं हो सकते हैं। अपना गृहस्थधर्म निभायें और परोक्ष गुरुवों की उपासना से व प्रत्यक्ष गुरु कहीं मिल सकें उन प्रत्यक्ष गुरुवों की उपासना से अपना जीवन सफल करें।