वर्णीजी-प्रवचन:पंचगुरु भक्ति - श्लोक 1
From जैनकोष
श्रीमदमरेंद्रमुकुटप्रघटितमणिकिरणवारिधाराभि: ।
प्रक्षालितपदयुगलान्प्रणमामि जिनेश्वरान्भक्त्या ।।1।।
ज्ञानानंदाभिलाषी भक्त द्वारा ज्ञानानंदमूर्ति को नमस्कार―आत्मा के सहजस्वरूप का परिचय पा लेने वाले ज्ञानियों की दृष्टि उस ही आदर्श पर पहुंचती है जिसके इस सहज ज्ञान स्वरूप का पूर्ण विकास हुआ है और इसी कारण सहज ज्ञान स्वभाव का भक्त यहाँ कह रहा है कि मैं जिनेश्वरों का वंदन करता हूँ । जिनका सहज ज्ञानस्वरूप केवल बन गया, शुद्ध हो गया उन्हें जिनेश्वर कहते हैं । जो रागद्वेष मोह को जीते सो जिन, ऐसे श्रेष्ठ जिनको जिनेश्वर कहते हैं । जो जिसका अर्थी होता है वह ढूंढ-ढाँढकर सब तरह से पता लगाकर उस ही के पास पहुंचता है । लोक में भी यही बात है जो धन का अर्थी होता है वह सब कुछ समझकर धन का जो स्रोत हो, धनी हो, राजा हो, उस पुरुष के पास पहुंच जाता है । जिसको ज्ञान की ही इच्छा है, जो केवल ज्ञान में ही रुचि रखता है वह पुरुष सब तरह से पता लगाकर ज्ञानियों के ही पास पहुंचता है । जिसको विशुद्ध आनंद की अभिलाषा है वह पुरुष सब तरह से समझकर जिनके विशुद्ध आनंद पूर्ण प्रकट हुआ है ऐसे आत्माओं के निकट ही पहुंचता है ।
विशुद्धानंदाभिलाषी भक्त द्वारा विशुद्धानंदमूर्ति प्रभु की उपासना―यहाँ इस ज्ञानी की विशुद्ध स्वायत्त आनंद की अभिलाषा हुई है । ज्ञानी संसार के सुख नहीं चाहता, ये सारे सुख धोखा है, विडंबना है, क्षोभ है । इन सुखों में उपयोग लगाने पर समझिये कि यह समय ही बरबाद हो रहा है । किसी भी सुख में ज्ञानी की आस्था नहीं है । स्पर्शनइंद्रियजंय सुख एकमात्र काल्पनिक सुख है । विषय संबंधी सुख केवल एक मन की वासना की मौज है, उसमें ज्ञानी को क्या प्रीति हो? आत्मा में ये विकार भाव उत्पन्न होते हैं और होकर दूसरे क्षण नष्ट हो जाते हैं । फिर नवीन विकार जगता है । वह तीसरे क्षण नष्ट हो जाता है । इस तरह से विकारभावों की यह जो परंपरा लग गयी है बस यही एकमात्र बिपदा है । इसके अतिरिक्त लोक में और कोई विपदा नही । हम आत्मा हैं, हम ज्ञानानंदस्वरूप वाले हैं, हम संसार के संकटों से छूटना चाहते और कुछ बात नहीं चाहते, ऐसा निर्णय ज्ञानी के होता है और इसी कारण बाह्यपदार्थों में, अन्य जीवों में जो भी कुछ बात गुजरती है, परिणति होती है उस परिणति का वह ज्ञाता द्रष्टा रहता है, क्योंकि उस ज्ञानी का पूर्ण विश्वास है कि यहां किसी भी परपदार्थ के परिणमन से मेरा सुधार बिगाड़ कुछ नहीं है । मैं ही कल्पनायें करके उन्हें अपनाऊँ तो मैं अपना बिगाड़ कर लेता हूँ । दूसरा मेरा कोई विरोधी नहीं है । सब जीव अपनी-अपनी कषाय के अनुसार अपनी-अपनी चेष्टा करते हैं । ऐसा सब तरह से निर्णय कर लेने वाला ज्ञानी पुरुष संसार के सुखों में विश्वास नहीं करता ।
विषयोपभोग से संतोष की असंभवता―रसनाइंद्रिय के स्वाद सुख लेते रहने के लिए क्या यह जीवन मिला है? क्या खाते पीते रहने के लिए ही यह सारा समय है? अनादि काल से अब तक जिस-जिस पर्याय में गए तो वहाँ कुछ नु कुछ खाया पिया ही तो है । कहीं खाद खाया, मिट्टी खाया, कहीं घास खाया, कहीं अन्न खाया । यों खाते-खाते में खूब समय गया, पर खाने का दुःख, तो ज्यों का त्यों लगा है । काम तो वह करना है जिसको करने के बाद वह दुःख छूट जाये । खाते खाते न जाने कितना समय गुजर गया, पर खानें का दुःख न मिटा । अरे खाना-खाना तो एक थोड़ीसी दवा है । यह थोड़ा भूख की वेदना को दबा देता है, लेकिन वेदना को मूल से नष्ट नहीं करता । कोई ऐसा उपाय करना चाहिए कि सदा के लिए, भूख प्यास सम्मान अपमान आदिक के संकट दूर हो जायें तथा शरीर मिलते रहने के झंझट भी दूर हो जाये ।
ज्ञानी द्वारा प्रभुस्मरणशरणग्रहण में प्रधान कारण―जन्ममरण का क्लेश भी बड़ा भयंकर है । और इस जन्म-मरण के बीच का जो समय है वह समय भी क्लेश में व्यतीत होता है । तो यहाँ की किसी भी बात के अनुकूल हो जाने से मौज मानना यह भी कर्तव्य नहीं और किसी भी बात के प्रतिकूल हो जानें से विषाद मानना यह भी विवेक की बात नहीं । अपने आप में बहुत धीरता लाना है । अपने आपकी दृष्टि जो बाहर में चारों ओर फीक रही है, भ्रम रही है उसको केंद्रित करना है । कैसे अपने आपके स्वरूप का संपर्क बनाया जाय, कैसी दृष्टि और संबंध किया जाय कि यह ज्ञान अपने ज्ञान स्वरूप में मग्न हो सके? ऐसी भावना जगी है ज्ञानी पुरुष की । तो वह बाहर में किसी का स्मरण करे, गुणगान करे, शरण गहे तो किसकी गहे? जिसका यह ज्ञानस्वभाव -पूर्ण विकसित है, जिसका ज्ञान ज्ञानस्वरूप में मग्न हो गया है, जो संसार के संकटों से सदा के लिए छूट गए हैं, ऐसे पुरुषों की शरण ग्रहण करे । सो इसी प्रयास में यह ज्ञानी यहाँ अरहंत परमगुरु की भक्ति में आ रहा है ।
प्रभु की श्रीमत्ता―विवेकियों के आराध्यदेव कैसे हैं वे जिनेश्वरदेव? श्रीमान् हैं । श्री कहते हैं उसे जो आत्मा का आश्रय करे । श्रयते आत्मानं इति श्री: । जो आत्मा का आश्रय करे उसे श्री कहते हैं । श्री आत्मा का आश्रय करती है मगर यह मोही जीव भ्रम करके श्री का आश्रय तकता है । श्री शब्द के अर्थ में ही यह बात पड़ी हुई है कि श्री कहते ही उसे हैं जो आत्मा का आश्रय करे, आत्मा को कभी छोड़े नहीं । वह श्री क्या है? ज्ञानश्री, ज्ञानलक्ष्मी । किसी समय में जब कि ज्ञान का प्रसार था विषयवासनाओं की बात विशेष न थी, जगह जगह ऋषीश्वर विहार करते थे, जब चाहे अरहंत भगवान के साक्षात् दर्शन होते थे ऐसे समय में श्री को ज्ञानलक्ष्मी ही कहा करते थे । ज्ञानलक्ष्मी से जो विभूषित हैं वे हैं सर्वज्ञ वीतराग अरहंतदेव । साथ ही साथ जो लोक में श्री (शोभा) मानी जाती है वह बहिरंगश्री भी सर्वोत्कृष्ट विशिष्ट अरहंत भगवान के होती है । अरहंतदेव उस श्री में रंचमात्र भी राग नहीं करते । जरा भी कल्पनायें नहीं जगती । वे तो परमात्मा हो गए । यह श्री, समवशरण की शोभा, रचना जो समवशरण में होती है वह और कहीं भी नहीं होती । और सबसे बड़ी भारी श्री शोभा तो यह है कि छह खंड के स्वामी चक्री भी जिनके चरणारविंद में नमस्कार करें । स्वर्गों के इंद्र जिनके पास बड़े वैभव हैं, बड़ी ऋद्धियां हैं वे भी चरणों में नमस्कार करते और बड़े-बड़े ऋषिसंत समृद्धि शील अंतस्तत्व के रुचिया ज्ञानाभिमुख, जिनकी धुन केवल एक ज्ञानस्वभाव को साधने की है, जो निरपेक्ष हो गए हैं, ऐसे ऋषिराज भी जिनका स्मरण किया करते हैं, वह बहिरंगश्री कितनी बड़ी श्री है, ऐसी बहिरंग लक्ष्मी अरहंतदेव को छोड़कर क्या अन्य किसी की हो सकती है? यों ऐसी अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी अरहंतदेव को छोड़कर क्या अन्य किसकी हो सकती है? तो ऐसी अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी से शोभायमान जिनेश्वरदेव को मैं भक्ति से नमस्कार करता हूँ ।
विवुधवंदन से प्रभुचरणद्वय की शोभा का वर्णन―अरहंत परमगुरु के चरणारविंद की कैसी शोभा कि जब इंद्र नमस्कार करते हैं तो उनके मुकुट में जो मणि लगी हुई हैं उन मणियों की किरण धारा सीधे चरणारविंद पर पड़ती है और उस समय ऐसी शोभा लगती कि मानो जल की धारायें प्रभु के चरणारविंद का प्रक्षालन कर रही है । जैसे दीप, सूर्य आदि प्रकाशमान पदार्थों से किरणें निकलता है और वे किरणें सीधी होती है, टेढ़ी तो नहीं हुआ करती, तो ऐसे ही इंद्र के मुकुट में लगी हुई प्रकाशमान मणियों की किरणें जब प्रभु के चरणारविंद पर पड़ती हैं तो ऐसी शोभा होती कि मानो वे किरण रूप जलधारायें प्रभु के चरणारविंद का प्रक्षालन कर रही हैं; अर्थात् जिनके चरणों में बड़े-बड़े इंद्र, विवेकी बुद्धिमान लोग नमस्कार करते हैं ऐसे जिनेंद्रदेव की मैं वंदना करता हूँ ।
विवेकियों का वीतराग के प्रति आकर्षण―विवेकी पुरुष वीतराग के प्रति आकृष्ट हो सकते हैं । मूर्खजन, मोहीजन चाहे धनिकों की, स्वार्थियों की सेवा करें, लेकिन, जिन ज्ञानी पुरुषों के संसार, भोगों से वैराग्य जगा है ऐसे ज्ञानी पुरुषों को यदि कोई आकर्षण की वस्तु है तो वह हैं वीतराग जिनेंद्रदेव देखो ना―स्वर्गों के देव इंद्र भी जिनकी सेवा के लिए लालायित हैं, मनुष्यों में राजा महाराजा ऋषिसंत प्रजाजन जिनकी सेवा के लिए लालायित हैं, और तो जाने दीजिए, ये पशु पक्षी आदिक तिर्यंच भी जिनकी बुद्धि में किसी भी तरह समझाया जाय तो समझ न बैठे वे भी समवशरण में पहुंचकर प्रभुपूजा प्रभुभक्ति को लालायित रहते हैं । समस्त विवेकी पुरुष जिनकी ओर खिंचे जा रहे हैं और मिलता उनसे कुछ है नहीं दुनियावी दृष्टि से । उनसे धन मिलता नहीं, उनसे परमिट मिलता नहीं, कोई उनसे सुविधा मिलती नहीं, लेकिन ये सभी जीव वीतराग जिनेंद्रदेव की ओर आकर्षित हुए जा रहे हैं । तो वास्तविकता यह है कि यदि कोई आदर्श की चीज है, आकर्षण की वस्तु है तो वह है रागद्वेषरहित, विकाररहित ज्ञानपुंज । वही विवेकियों के लिए आकर्षण का केंद्र है । उसही में आनंद है, शुद्ध आनंद । लोक में मंगल वही है । लोक में सर्वोत्कृष्ट वही है, इसीलिए इंद्र राजा महाराजा यति योगी सभी पुरुष जिनेंद्रदेव की उपासना में अपना उपयोग लगाकर अपने जीवन को धन्य समझते हैं ।
विवेकियों के आकर्षणकेंद्र श्री जिनेंद्रदेव को नमस्कार―जिनको मुझसे कुछ आशा नहीं । जो इतनी प्रतिष्ठा पाने पर भी अपने मन में रंच भी हर्ष नहीं मानता, जिसमें विकार तरंग बिल्कुल नही उठते हैं, उनके प्रति ही विवेकियों का आकर्षण होता है । हम किसी का सन्मान करें, गुणस्तवन करें, प्रशंसा करें और उस पर वह पुरुष थोड़ा अपना गौरव बताये, थोड़ा अहंकार की बात झलके तो गुणगान करने वाला, प्रशंसा करने वाला अपनी भूल पर पछतावा करने लगता है । अरे मैं कहाँ आकर्षित हुआ? यहाँ तो कुछ भी नहीं है । वीतराग जिनेंद्रदेव की ऐसी पवित्र आत्मा है कि जिनके गुणस्मरण, गुणस्तवन, प्रशंसा अनेकानेक करने पर भी कभी भी तो रंचमात्र विकार नहीं आता । अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद, अनंत शक्ति में वे मग्न रहा करते हैं । बस यही कला, यही गुण, यही विकास सर्व विवेकी सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुषों का आकर्षणकेंद्र हो जाता है । मैं किसकी शरण में जाऊँ जो मुझे सत्य शरण हो, धोखा न हो? वह सत्य शरण है यह जिनेंद्रदेव, यह वीतराग ज्ञानपुंज । इस वीतराग ज्ञानपुंज के स्मरण में ही ऐसी सामर्थ्य है कि भक्त के भव-भव के जन्म-जन्म के पापकर्म दूर हो जाते हैं । ऐसा केवल ज्ञानतत्त्व अर्थात् आत्मा अपने स्वरूप से जैसा सहज है वही जो प्रकट हुआ है । सर्व परतत्त्व से जो निराला बन गया है, ऐसे जिनेंद्रदेव को मैं नमस्कार करता हूँ ।
पंच परमगुरुवों में प्रथम अरहंत नमस्कार किये जाने का कारण―पंचपरम गुरुवों में सर्वप्रथम अरहंत परमगुरु को नमस्कार किया है । णमोकार मंत्र में भी सर्वप्रथम णमो अरहंताणं कहा है । अरहंत पद से सिद्धपद उत्कृष्ट है । अरहंत भगवान के चार अघातिया कर्म हैं । शरीर का संबंध है, किंतु सिद्धभगवान के चार घातिया कर्म भी नहीं रहे और शरीर का संबंध भी नही रहा, तो औपचारिक संबंध भी सिद्ध में नहीं है तथा अरहंत भगवान भी कुछ ही समय अरहंत रहते हैं । फिर उनके चार अघातियाकर्म नष्ट होते हैं, शरीर का भी वियोग होता है और वे सिद्ध बनते हैं । अरहंतभगवान् सदा अरहंत रहे ऐसा नहीं है अरहंत के बाद थे सिद्ध होते हैं । तो इस दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट पद यद्यपि सिद्ध का है, लेकिन अरहंत भगवान को प्रथम नमस्कार क्यों किया? सो इसके अनेक कारण हैं । पहिली बात तो यह है कि सिद्धभगवान के आत्मा में जो विरागता है, जो सर्वज्ञता है, जो अनंत चतुष्टय संपन्नता है, जो आंतरिक विकास है यह विकास अरहंत में भी है । आंतरिक विकास अरहंत और सिद्ध में समान है । अतएव यह गुंजाइश है कि हम प्रथम अरहंत को नमस्कार कर सकें ।
एक कल्पना करो कि संभवतया ऐसा भी हो जाय कि अरहंत सदा अरहंत रहें, न अघातिया कर्म नष्ट हों तो उन अरहंत के सिद्धप्रभु की भांति उत्कृष्टता कहाँ हो सकेगी? पर ऐसा नहीं होता । उनके घातियाकर्म दूर हो गये । बाह्य का संपर्क बनाने का मूल कारण तो रहा नहीं, मोह राग द्वेष ये ही शरीर का संबंध बनाये रखने के कारणभूत हुआ करते हैं, अत एव उन अरहंत को भी सिद्ध होना होता है । तो क्या यह कहा जा सकता है कि अरहंत में सिद्ध बनने के बाद कुछ ज्ञान बढ़ गया अथवा आनंद बढ़ गया? अरे जो ज्ञान और आनंद सिद्ध में है वही ज्ञान और आनंद अरहंत में है अर्थात् आंतरिक गुण विकास सिद्ध में और अरहंत में एक समान है । इसलिए अरहंत को अगर पहिले नमस्कार कर लिया तो कोई आपत्ति की बात नहीं आयी । अरहंत को प्रथम नमस्कार करने का कुछ कारण और है । सिद्धभगवान को महिमा किसने बतायी? यद्यपि ऋषि संतों ने यहाँ सिद्ध महिमा बतायी, उनके ही ग्रंथ हमें पढ़ने को मिलते हैं, लेकिन यह परंपरा अरहंत भगवान की दिव्यध्वनि से बनी । यों परम उपकार के कारण होने से और सिद्धभगवान का भी पता अरहंत की ध्वनि की परंपरा में लगा है, इस कारण परम उपकार होने के कारण अरहंतदेव को प्रथम नमस्कार किया है ।
अरहंतप्रभु के प्रथम नमस्कार का अन्य कारण―अरहंतभगवान को प्रथम नमस्कार के उक्त दो कारण तो अलौकिक कारण हैं, पर लौकिक कारणों पर भी दृष्टि दें । अरहंत भगवान का ध्यान करने से पुण्यबंध बहुत होता है और सांसारिक संकट बाधायें सब समाप्त होती हैं । जितने भी ऋद्धि मंत्र बने हुए हैं उन सबमें अरहंत के अर्थ का अनेक प्रकारांतर से उनके बीज मंत्र का अंतर्निधान है । इन अनेक कारणों से हम इस णमोकारमंत्र में सर्वप्रथम अरहंतदेव को नमस्कार करते हैं । उन अरहंतों के विषय में और सुनो । जब हम अनेक संकटों से घिर जाये और बहुत परेशान हो जायें तो किसकी शरण में जायें ? किस जगह हमारा उपयोग जाये? तो वह उपयोग जाता हैं बहुत ही सुगमता से, सीधे ढंग से अरहंत की ओर । अरहंत भगवान हमको दर्शन करने को भी मिल सकते हैं । यद्यपि आज कल हम आपको अरहंत प्रभु के दर्शन नहीं मिलते हैं लेकिन अरहंत भगवान के दर्शन मनुष्यों को मिल जाया करते हैं । अरहंत प्रभु का समवशरण इस पृथ्वी से 5 हजार धनुष ऊपर रचित होता है, जिस समवशरण की रचना बड़े-बड़े इंद्र कुबेर ऋद्धि संपन्न देव आदि किया करते हैं । जैसे―कहते हैं ना कि जिन महापुरुषों के नाम इतिहास में आये हैं उनके विषय में बातें सुनकर जो असर जनसाधारण पर होता है उससे अधिक असर उनके दर्शन करने मात्र से होता है । जो पुरुष निष्पक्ष हैं, जिनकी कषायें मंद हैं, जिनकी प्रवृत्ति उदार है, जो अनेक गुण संपन्न हैं उन महापुरुषों के मिलने से जरा जल्दी जनसाधारण पर प्रभाव पड़ता है । महापुरुषों की, पुराणपुरुषों की कथायें सुनकर जनसाधारण पर जो प्रभाव पड़ता है उससे अधिक प्रभाव वर्तमान महापुरुषों के दर्शन करने से पड़ता है । यों देखिये यद्यपि देव दो हैं―अरहंत और सिद्ध, लेकिन अरहंत प्रभु के हमें दर्शन हो सकते हैं अतः अरहंत देव का हम पहिले ही स्मरण करते हैं।
अरहंतप्रभु के समवशरण की शोभा―अरहंत प्रभु के समवशरण की शोभा देखिये―जहाँ समवशरण में चारों ओर से गान तान करते हुए देव देवियाँ आ रहे हों, प्रभु की भक्ति में चारों ओर के जीव खिंचे हुए चले आ रहे हों, ऐसा दृश्य यदि देखने को मिल जाय तो जनसाधारण पर इतना प्रभाव पड़ सकता है कि जिसका वर्णन क्या किया जाय? इंद्रों की कला की कौन महिमा बताये? जब यहाँ ही बहुत अच्छी तरह अनेक तरह के वाद्य बजाने वाले पुरुषों की कला का इतना अधिक आकर्षण होता है तो इससे हजारों गुनी कलायें उन देव देवियों में होती हैं । उनमें संगीत, नृत्य, भक्ति स्तवन आदि की बड़ी अद्भुत कलायें होती हैं । वे सब देव प्रभु के चरणों में वंदन करने के लिए चारों तरफ से उमड़े आ रहे है, तो यह सब किसका प्रताप है? यह सब प्रताप है वीतरागता का । उस वीतरागता में मनुष्य, पशु-पक्षी आदिक सभी आकर्षित होते हैं । यहाँ घरों में तो परस्पर में दो चार लोगों का ही आकर्षण होता है, यह मेरा पुत्र है, पिता है, अमुक है आदि, लेकिन जिस आत्मा में वीतरागता प्रकट होती है वहाँ देव, मनुष्य, पशु पक्षी आदि सभी जीव आकर्षित होते हैं और वहां पहुंचकर शांति पाते हैं, तो उनमें शरीर संबंधी कोई नाता नहीं है, किंतु एक आत्मतत्त्व का नाता है । जिसने तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया था वह भी अरहंत बनता है और जिसने तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं किया वह भी अरहंत बनता है । और इस भेद से अरहंत दो प्रकार के हुए एक तीर्थंकर अरहंत और एक सामान्य अरहंत । ऐसे दो प्रकार के अरहंत होने पर भी अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति अनंत आनंद आदि जो ये खास गुण हैं, जो अरहंत के खास लक्षण हैं, जिनके बिना अरहंत नहीं कहला सकते उनकी तीर्थंकर अरहंत, सामान्य अरहंत व सिद्ध―इन तीनों में समानता है । ये ज्ञान, दर्शन, शक्ति आनंद आदिक गुण जैसे सिद्ध में हैं वैसे हो अरहंत में हैं । अरहंत प्रभु में सिद्ध प्रभु से किसी प्रकार की हीनता हो, यह बात नहीं है, फिर भी भव्य जीवों का उपकार विशेष अरहंतदेव के निमित्त से है । अरहंत प्रभु की बहुत समय तक दिव्यध्वनि खिरती रहती है जिससे हम आपका उपकार होता है । इस दृष्टि से अरहंतदेव को णमोकारमंत्र में व पंचगुरुभक्ति में प्रथम नमस्कार किया है ।
तीर्थंकर होने का कारण―जरा अब अरहंत प्रभु के विषय में कुछ और भी विचारिये । उन अरहंतों में तीर्थंकर वह पुरुष होता है जिसने पूर्वभवों में अथवा उसी मनुष्यभव में सोलह कारण भावनायें भायी, जिन में प्रधान भावना है दर्शनविशुद्धि । दर्शनविशुद्धि का अर्थ है―सम्यग्दर्शन के होने पर लोककल्याण भावना से जो परिणामों में विशुद्धि जगती है उसे दर्शनविशुद्धि कहते हैं । जिन सम्यग्दृष्टि ज्ञानी संत पुरुषों ने यह भावना भायी कि ये संसार के प्राणी अपने आपके अभिमुख उपयोग न करके पर की ओर उपयोग करते हैं, जो कि बिल्कुल व्यर्थ का काम है, जिससे कोई आत्मा में सिद्धि नही होती, इस परोपयोग के कारण जीव व्यर्थ ही भटक रहे है । जिन ज्ञानी पुरुषों के चित्त में आत्मकल्याण करने की भावना आती है उनके ऐसा विकल्प नही है कि मैं जगत के जीवों को यहाँ से छुटाकर इनके कर्मों को नष्ट कर मोक्ष में भेज दूं, किंतु उनके सीधा यह भाव जगता है कि देखो―ये अपनी ही दृष्टि अपनी ओर कर लें, अपने आपका जो सहज स्वरूप है उसका अनुभव करले तो ये प्राणी अभी शांत हो जायें, लेकिन इनका पर की ओर उपयोग है, इनका यह परोपयोग कैसे मिटे? वे सब अपने ही परिणमन से परोपयोग कर रहे लेकिन भावना यह जगती है कि इनकी यह परदृष्टि मिटे और स्वदृष्टि मिले तो ये सुखी हों । इस प्रकार की भावना के साथ जो एक विशुद्धपरिणमन बनता है, उसकी दर्शन विशुद्धि के साथ जो शेष 15 भावनायें समस्त या कम बनती हैं उनसे तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है ।
तीर्थंकर प्रकृतिबंधक जीव की विशेषता―जिस मनुष्य ने तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया वह मनुष्य उस भव को त्यागकर या तो देव होगा या नारकी, बीच-बिचौनिया की बात न होगी । यदि किसीने पहिले नरक आयु का बंध किया, सम्यक्त्व जगा, विशेष प्रगति हुई, तीर्थंकर प्रकृति का बंध हुआ तो अब जाना होगा नरक में, मगर तीसरे नरक से नीचे वह नहीं जा सकता । यदि किसी ने क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न किया तो वह पहिले नरक से नीचे न जायगा । क्षयोपशम सम्यक्त्व में तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया तो वह तीसरे नरक तक जा सकेगा । क्षयोपशम सम्यक्त्व मिटेगा और अंतर्मुहूर्त बाय क्षयोपशम सम्यक्त्व होगा । तीर्थंकर प्रकृति जब से बँधती है, चिरकाल तक निरंतर वही रहती है, जब तक कि उसके बँधने का आखिरी गुणस्थान आता है । नरकायुबंधी के यह तीर्थंकर प्रकृति बँधी, और जीव नरक जायगा । मरणसमय में मिथ्यात्व आया तो यहाँ का एक अंतर्मुहूर्त व नरक में अपर्याप्ति का अंतर्मुहूर्त जो कि बहुत कम काल है, एक ही अंतर्मुहूर्त है, रहा वह मिथ्यात्व में, इस काल में तीर्थंकर प्रकृति को बंध रुक जाता है । पर्याप्ति होते ही वहाँ फिर क्षयोपशम सम्यक्त्व हो जाता हें तथा तीर्थंकर प्रकृति बँधने लगती है । जो नरक में जीव है, जिसे नरक से निकलकर सीधे तीर्थंकर होना है, जब उसकी आयु 6 माह शेष रह जाती है तो देव लोग वहाँ कोट रचते हैं, उसकी रक्षा करते हैं । उन 6 महीनों में वहाँ कोई नारकी उसको कोई बाधा नहीं पहुँचा सकता और गर्भ में आने के 6 माह पहिले से ही वहाँ रत्नों की वर्षा होने लगती है । ऐसा नहीं होता कि यहाँ तो रत्नवर्षा होती रहे और जिसके उपलक्ष में रत्नवर्षा हो वह जीव नरक में कूटे पिटे । जिस माता के गर्भ से उस तीर्थंकर महापुरुष का जन्म होना है उस माता की देवियां सेवा करती । जब वह गर्भ में आता है तो स्वर्गों से व कल्पोत्तरों से चय कर गर्भ में आने वाले तीर्थंकरों की गर्भकल्याणक मनाते हैं जिस प्रकार, इसी प्रकार नरकगति से आकर होने वाले तीर्थंकरों का भी कल्याणक मनाते हैं । तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने वाले आत्माओं का प्राय: स्वर्गों में और उसके ऊपर कल्पांतरों में जन्म होता है, परंतु बहुत कम कुछ जीव ऐसे भी होते है जो नरकगति में जन्म लेकर वहाँ से निकलकर तीर्थंकर होते है ।
तीर्थंकर का गर्भकल्याणक―अब तीर्थंकर का पुण्य प्रभाव देखिये―गर्भ से 6 माह पहिले से 15 मास तक यहाँ रत्नवर्षा होती है । सारी नगरी में आनंद छा जाता है । वे तीर्थंकरदेव जब से गर्भ में आते हैं तब से अनेक देवियाँ उस तीर्थंकर की माता की सेवा करती हैं । 56 कुमारिका देवी तथा श्री हृी घृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी आदिक सभी देवियाँ उस तीर्थंकर की माता की सेवा करने में तत्पर रहती हैं । जिस माता के उदर से तीर्थंकरदेव का जन्म होना है उस माता को कोई दुःख नहीं होता । जिस माता के उदर से ऐसे पुण्यवान पुरुष का जन्म होगा उस माता को किसी भी प्रकार की वेदना नहीं होती । जैसे कि अनेक गर्भवती माताओं को वेदना होती है ऐसी कोई वेदना तीर्थंकर की माता को नहीं होती । और भी देखिये कि वे तीर्थंकरदेव गर्भ में और बच्चों की भाँति लिपटे हुए नहीं रहते हैं, वहाँ वे तीर्थंकरदेव निर्लेप जैसे ढंग से रहते हैं ।
तीर्थंकर का जन्मकल्याणक―जब तीर्थंकर का जन्म होता है तो देवों द्वारा उनका जन्मकल्याणक मनाया जाता है । जब वह बच्चा उत्पन्न होता है तो शची प्रसुतिगृह में मायामयी बालक सुलाकर उस बालक को लाकर इंद्र को सौंपती हैं । शची मायामयी बालक को यों रख जाती है कि वह माता खिलाने को न पाये तो वह विह्वल नहीं हो वह मायामय बच्चा को सुलाकर । जो भगवान होने वाला है, उस बच्चे को अपने दोनों हाथों पर रखकर लाती है । उस समय उस बच्चे की क्या स्थिति होती है? उसके दोनों पैरों के तलवा पूरे दिखते हैं । उस बच्चे के पैरों के तलुवों में चिह्न बने होते हैं । उनमें से जो प्रथम चिह्न दिखा उसकी इंद्र प्रसिद्धि करता है ध्वजा में बनाकर । उस बालक को सबसे पहिले इंद्राणी देखती है । जिस इंद्राणी ने उस तीर्थंकरदेव का सर्वप्रथम दर्शन किया उस इंद्राणी की ऐसी महिमा बताई गई हे कि वह वहाँ से चयकर मनुष्य होकर उस भव के बाद में मोक्ष जायगी । उस तीर्थंकर के उत्पन्न होते समय इंद्राणी ने जो उनके तलुवों में चिह्न देखा था उसी की प्रसिद्धि हो जाती है कि अमुक तीर्थंकर का अमुक चिह्न है । इंद्रादि देव तीर्थंकर को मेरुपर्वत पर ले जाते हैं वहाँ पांडुकशिलादि पर विराजमान करके उनका इंद्र अभिषेक करते है । अमिषेकार्थ क्षीर समुद्र से वे देव जल लाते हैं, उस क्षीर समुद्र के जल को छानने की जरूरत नहीं पडती, वहाँ कोई विकलत्रय जीव नहीं होते । किंतु यहाँ तो जल छानना ही चाहिये और कुछ समय रखने के लिये प्रासुक भी करना चाहिये । वहाँ 1008 कलशों के क्षीर समुद्रीय जल से भगवान का अभिषेक होता है जिसका परिमाण बहुत बड़ा है । तीर्थंकर के सिर पर वे कलश ढोरे जाते हैं, लेकिन वह बच्चा उससे जरा भी नहीं हिचकिचाता । उन तीर्थंकर देव में ऐसा बल है ।
तीर्थंकर के जन्म के 10 अतिशयों में सुरूप, सुगंधित तन, निर्मल तन व प्रियहित वचन नामक अतिशय―तीर्थंकर देव के जन्म से ये 10 अतिशय होते हैं, जिनका रूप बहुत सुहावना होता है । जिनका शरीर सुगंधमय होता है । अब यहाँ बहुत से मनुष्य महिलायें ऐसे भी होते हैं जिनके शरीर में अधिक दुर्गंध होती है । दुर्गंध तो सभी के शरीर में हैं, पर किसी के शरीर में कम दुर्गंध है किसी के शरीर में अधिक तीर्थंकर का शरीर सुगंधित होता है । जिनके शरीर में पसीना और मल-मूत्र नहीं होता, जिनके वचन प्रिय होते हैं और मधुर बोलते हैं । उनके वचन दूसरों को सुनने में प्यारे, दूसरों का हित करने वाले ऐसे प्रिय, हित, मधुर वचन होते हैं । वे पुरुष भी बहुत धन्य थे, जिनसे ये तीर्थंकर गृहस्थावस्था में खूब बातें करते थे जिनके बीच उठते बैठते थे । लोक में यह प्रसिद्धि है कि बड़े पुरुष किसी पर गुस्सा भी हों तो भी उसका बड़ा भाग्य है । चलो गुस्सा के रूप में ही मिलाप हुआ । जिस किसी भी प्रकार महापुरुष का संपर्क तो बनें । किंतु यहाँ तो प्रियहितसंलाप में तीर्थंकर का मिलन होता है । महापुरुष का संपर्क इस जीव का उद्धार कर देता है । वे पुरुष भी धन्य हैं जो गृहस्थावस्था में तीर्थंकर के वातावरण में पलते पुसते रहे । तो प्रभु के प्रिय हित मधुर वचन होते हैं । और उस गृहस्थावस्था में भी उनमें अतुल बल है ।
तीर्थंकर देव का अतुल्य बल―कविजन तीर्थंकर के बल की इस प्रकार उपमा देते हैं कि 20 बकरों के बराबर बल एक गधे में होता है, 20 गधों के बराबर बल एक घोड़े में, 20 घोड़ों के बराबर बल एक भैंसे में, 20 भैंसों के बराबर बल एक हाथी में और 20 हाथियों के बराबर बल एक सिंह में, 2 सिंहों के बराबर बल एक नारायण प्रतिनारायण में और अनेक नारायण प्रतिनारायणों के बराबर बल एक चक्रवर्ती में और अनेक चक्रवर्तियों के बराबर बल एक इंद्र में और इंद्र में जितना बल है उतना बल तीर्थंकर देव की एक छोटी अंगुली में होता है । तो इस प्रकार से तीर्थंकर के बल का वर्णन कवि लोग करते हैं । एक पौराणिक घटना में यह बात आयी है कि जब श्रीकृष्ण नारायण आदि के बल की परीक्षा हो चुकी और नेमि तीर्थंकर के बल की परीक्षा होनी थी तो तीर्थंकर की एक अंगुली को टेढ़ी कर देने के लिए बड़े-बड़े सुभट नारायण आदि आवे, सबने खूब प्रयत्न किया, पर वे अंगुली टेढ़ी कर सकने में असफल रहे । तीर्थंकर में इतना बल होता है ।
तीर्थंकर के श्वेतरक्तवान देह, 1008 देहलक्षण, समचतुरस्रसंस्थान व वज्रर्षभनाराचसंहनन―तीर्थंकर के शरीर का रक्त श्वेत बताया है । यों तो हर एक मनुष्य में दो तरह के खून पाये जाते हैं―लाल और सफेद । लेकिन तीर्थंकर के शरीर में केवल सफेद खून होता है । यहाँ भो एक कवि की कल्पना देखिये कि माता को एक अपने बच्चे से प्रेम होने के कारण उस माता के स्तन में दूध आ जाता है । तो फिर जिस तीर्थंकर देव को संसार के समस्त प्राणियों के प्रति अपार करुणा है, जिन्हें संसार के समस्त प्राणियों से प्रेम है ऐसे तीर्थंकर देव का यदि संपूर्ण शरीर श्वेत रक्त वाला हो जाय तो इसमें कौनसा आश्चर्य है? ऐसे तीर्थंकर देव के शरीर में 1008 लक्षण होते हैं । जो लक्षण उनकी पुण्यवत्ता के सूचक होते हैं । उनके समचतुरस्रसंस्थान होता है । जितने सही नाप के अंग होने चाहिएँ वे उनके शरीर में पाये जाते हैं । उनके शरीर में वज्रवृषभनाराचसंहनन होता है । जन्मते समय में ही उनमें ये अतिशय प्रकट होते हैं । ऐसे तीर्थंकर देव सकल प्राणियों के द्वारा पूज्य होते हैं, योगी जनों के द्वारा ध्येय होते हैं । उन अरहंतदेव को हमारा भक्तिपूर्वक नमस्कार हो ।
तीर्थंकर के तपकल्याणकसमारोह में वैराग्यप्रिय लौकांतिक देवों का समर्थन―तीर्थंकर गृहस्थावस्था में भी देव और इंद्रों के द्वारा लालित रहते हैं । उनकी भोजनसामग्री और उनका दिल बहलावा आदि का प्रबंध इंद्र करते हैं, और देव इंद्र उनकी सेवायें करके अपने को धन्य समझने हैं । बहुत समय बाद जब तीर्थंकर को किसी कारण वैराग्य उत्पन्न होता है तो उस समय लौकांतिक देव आते हैं जो कभी भो किसी के पास नही जाते, जिन्हें देवर्षि कहते हैं । द्वादशांग के वेत्ता, सदा तत्त्वचर्चा में तत्पर, वैराग्य भावनायें ओत-प्रोत, अपने ही स्थान पर रहकर अपने लक्षण के अनुकूल धर्मसाधना करते हैं । ये देव न तो भगवान का गर्भकल्याणक में आते, न जन्मकल्याणक में आते और न ज्ञानकल्याणक में आते और न निर्वाणकल्याणक में आते उन्हें वैराग्य अत्यंत अधिक प्रिय होता है । जिसको जो चीज अधिक प्रिय होती है उसकी रुचि उसी प्रसंग में अधिक होती है । तपकल्याणक के समय लौकांतिक देव आते हैं और भगवान के वैराग्य का समर्थन करते हैं । धन्य है प्रभु आपको, जो संसार शरीर भोगों में विरक्त होकर एक आत्मसाधना के लिए ही पूर्व प्रयत्नशील हो रहे हैं, जिनसे अनेक भव्य जीवो का भी कल्याण होगा, ऐसा समर्थन करके वे देव अपने स्थान में लौट जाते हैं और उसके बाद जब भगवान तीर्थंकर घर से निकलकर वन की ओर जाने को उद्यत होते हैं तो इंद्र एक बहुत शोभायमान पालकी की रचना करता है । पालकी में तीर्थंकर महाराज को बैठने की विनती करते हैं ।
तपकल्याणकसमारोह के प्रसंग में मनुष्यत्व के महत्त्व का परिचय―तपकल्याणक के प्रारंभ में एक विवाद खड़ा हो जाता है मनुष्यों में और देवों में । मनुष्य कहते हैं कि इस पालकी को पहिले हम उठायेंगे, देव कहते हैं कि पहले हम उठायेंगे । देवों की दलील भी बहुत सबल थी । गर्भकल्याण, जन्मकल्याणक आदि में मनुष्य कहाँ इनकी सेवा कर सके? सभी उत्सव तो हमने मनाया, तो तपकल्याणक में भी भगवान की पालकी ले जाने का प्रथम अधिकार हमें है । मनुष्य भी अपना विवाद रखने लगे । जब विवाद बढ़ा तो दो-चार पंच दोनों तरफ के मुकर्रर किए गए और दोनों की बातें सुन-सुनकर अंत में बहुत संयुक्ति पूर्वक विचार कर-करके यह निर्णय हुआ कि जो भगवान के साथ जाकर, इन जैसी साधु दीक्षा लेकर इन जैसा बन सकता हो वही इस पालकी को पहिले ले जायगा । उस समय इंद्र रोता है और मनुष्यों से प्रार्थना करता है कि ऐ मनुष्यों, मुझे जितना वैभव मिला है, जितनी समृद्धि मिली है सब ले लो और अपना मनुष्यत्व मुझे दे दो । उस समय मनुष्यों का मनुष्यत्व कैसा अनर्ध्य है यह विदित होता है । आखिर सबसे पहिले भूमिगोचरी मनुष्यों ने पालकी उठायी । उसके बाद विद्याधर, उसके बाद देव उस पालकी को ले गए । वहाँ प्रभु किसी वृक्ष के नीचे किसी अच्छे स्थान पर बैठकर वस्त्र उतारते हैं, केशलोच करते हैं ‘ॐ नमः सिद्धेभ्य:’ बोलकर । वे दीक्षा कार्य स्वयं करते हैं, तपश्चरण करते है, कुछ दिनों को उपवास करते हैं । किसी का दो दिन, किसी का 6 माह, किसी का कितने ही दिन तक उपवास चलता है । फिर पंच आश्चर्य प्रभु की पारणा में प्रकट होते है ।
तीर्थंकरों की दीक्षासंबंधित विशेषतायें―कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि प्रभु मुनि होने के बाद एक बार ही आहार लेते हैं, लेकिन ऐसी बात नहीं है । तीर्थंकर मुनि होने के बाद अनेक बार आहार लेते हैं । लेकिन प्रथम बार आहार लेने का अधिक महत्त्व पुराणों में वर्णित है । इससे कुछ लोग एक ही बार आहार लेते हैं, ऐसा समझते हैं, लेकिन उनकी अनेक बार आहार होता है । जब से तीर्थंकर दीक्षा ग्रहण करते हैं तब से लेकर उनका मौन तब तक रहता है जब तक केवलज्ञान नहीं उत्पन्न होता । बड़ों की बड़ी ही बात होती है । तीर्थंकरों की गृहस्थावस्था में वृत्ति, श्रावकों की वृत्ति की तरह निर्मल होकर भी वे अविरत सम्यग्दृष्टि रहते हैं । जैसे कि प्रतिमाओं का ग्रहण किया जाना श्रावक दीक्षा में है वे ग्रहण नहीं करते, अविरत सम्यग्दृष्टि रहते हैं और जब वैराग्य होता है तो एकदम सकलव्रती मुनि बन जाते हैं । इसी प्रकार वे गृहस्थावस्था में तो बोलते रहे, लेकिन दीक्षा लेने के बाद उनकी वाणी, उनके वचन अब न खिरेंगे । केवलज्ञान होने पर दिव्यध्वनि खिरेगी । इससे बड़े की महिमा जानी जाती । बोलना हो तो स्वयं अपने आप परिपूर्ण ज्ञान होने पर हो, लेकिन केवलज्ञान से पहिले उनका वचन नहीं चलता है । ऐसा मौनपूर्वक तपश्चरण करके प्रभु को जब केवलज्ञान उत्पन्न होता है तो उस समय भी इंद्र देव सब आ करके वहाँ केवल कल्याणक उत्सव मनाते हैं । समवशरण की रचनायें होती हैं । प्रभु की दिव्यध्वनि खिरती है । सभी मनुष्य देव आदि धर्मामृत का पान करते हैं । प्रभु केवलज्ञानी होते हैं । इसका अर्थ यह है कि अब प्रभु के ज्ञान में समस्त लोकालोक, त्रिलोक हि कालवर्ती समस्त पदार्थ स्पष्ट झलकते हैं ।
केवलज्ञान के दस अतिशयों में सुभिक्ष व गगनविहार का निर्देश―केवलज्ञान के समय तीर्थंकर प्रभु के 10 अतिशय विशेष प्रकट होते हैं । जहाँ भगवान विराजे हैं वहाँ से सौ-सौ योजन चारों ओर तक सुभिक्ष रहता है । सौ-सौ योजन चारों ओर का अर्थ हुआ 400 कोश का चारों तरफ का एरिया और कुछ अधिक ढाई मील का एक कोश होता है तो इसके मायने हुए कुल एक हजार मील । एक हजार मील चारों ओर सुभिक्ष रहता है । जैसे हिंदुस्तान एक ओर से दूसरी ओर तक दो हजार मील या इससे कुछ अधिक होगा । यहाँ भगवान विराजे हों तो समझो कि सारे देश में सुभिक्ष हो गया । वीतराग सर्वज्ञ पावन परमात्मा, जिनेश्वर का स्वभाव जैसा है तैसा निर्बाध प्रकट हो चुका है, वे जहाँ विराजे हैं । वहाँ के आस-पास के लोग दुःखी नहीं रह सकते हैं । प्रभु आकाश में ही गमन करते हैं । वे पृथ्वीतल से 5 हजार धनुष ऊपर स्वयं सहज अपने आप चले जाते हैं और वहीं समवशरण रचना होती है, विहार करते हैं तो वे आकाश में ही विहार करते हैं, उन्हें गगनविहारी कहते हैं ।
केवलज्ञान के दस अतिशय में चतुर्मुखदर्शन व अदया के अभाव का निर्देश―प्रभु समवशरण में विराजे हैं । समवशरण में चारों ओर सभायें होती हैं, गोलाकार में बारह सभावों की रचनायें होती हैं । अब जो पीछे बैठे हों वे कहीं व्याकुलचित्त न हो जायें, वे कहीं आपस में झगड़ा न कर बैठे, आगे बैठने दालों से कहीं लड़ न बैठें । इसलिए वहाँ ऐसा होता है कि भगवान का मुख चारों ओर से दिखता है । उनका परमौदारिक देह होने के कारण ऐसा अतिशय होता है कि चारों दिशावों में उनका मुख दिखता है । उनके मुख एक ही है, लेकिन उनमें ऐसी निर्मलता है कि चारों ओर श्रोताओं को उनका मुख दिखता है । अब भी तो जो स्फटिक मणि की प्रतिमायें हैं उनमें आगे पीछे दोनों ओर से बराबर मुख दिखता है । उनमें थोड़ा और विशेष अतिशय है कि उनका मुख चारों ओर से दिखता हैं । प्रभु के उदयाभाव नहीं है, । किसी भी प्रकार का विकार नहीं, किसी पर क्या अदया करें? जैसे कि बहुत से लोग सोचते हैं कि ईश्वर हम पर प्रसन्न होता है, हमें सुख देता है । जिस पर नाराज होता है उसे दुःख देता है, लेकिन परमार्थ से ऐसी बात ईश्वर में नही है । वे रागद्वेष से रहित हैं, केवल ज्ञानस्वरूप को ज्ञान में अनुभवते रहते हैं और उसके फलस्वरूप अनंत आनंद का निरंतर अनुभव चलता रहता है । हम आपको यही स्थिति तो पाना है । हम आपका स्वभाव इस स्थिति के पाने योग्य है, हम है ना कुछ । जो हैं सो हैं । अपने आप अपने ही सहजसत्त्व के कारण जिस प्रकार हैं बस वर्तमान समय में कुछ उपाधि लगी है । जो बाहरी बातें हैं वे सब हट जाये और सहज जैसा अपना सत्त्व है वैसा ही प्रकट हो जाय, इसी के मायने तो परमेश्वर है । परमेश्वर में रागद्वेष नहीं है ।
केवलज्ञान के दस अतिशयों में उपसर्गाभाव व कवलाहाराभाव का निर्देश―केवली प्रभु पर अब कोई उपसर्ग नहीं कर सकता । भले ही इस अवसर्पिणी के काल में केवल ज्ञान होने से पहिले मुनि अवस्था में किसी तीर्थंकर पर कुछ उपसर्ग हो, यह भी उपसर्ग होने का काम न था, किंतु एक हुंडावसर्पिणी के दोष से वह उपसर्ग हो जाता है । प्रभु में कवलाहार नहीं है । केवलज्ञान होने के बाद अरहंत भगवान अब मुनिजनों की भाँति आहार लेते हों ऐसी बात नहीं है । जहाँ चार घातिया कर्म नष्ट हो गए, जिनके कोई आकांक्षा नहीं रही । भूख भी बुभुक्षा को कहते हैं, अर्थात् भगवान के अब खाने की इच्छा भी नहीं रही । उनमें अनंत शक्ति प्रकट हुई है, इस कारण उनके अब कवलाहार नहीं होता । आहार लेने पर बहुत-सी आपत्तियाँ आती हैं । इसका अर्थ यह है कि कुछ बल क्षीण हो गया, कुछ क्लान परिणाम हो गए, कुछ वेदना हो गयी, आहार करने जाना पड़ता है । अनंत शक्ति फिर वहाँ कहाँ रही? मोहनीय का अभाव होने पर वेदनीय का कोई प्रभाव न रहा । प्रभु कवलाहार से रहित हैं ।
केवलज्ञान के दस अतिशयों में सर्वविद्यैश्वर्य, नखकेशवद्धयभाव अनिमेषनेत्र व छायाराहित्य का निर्देश―केवलज्ञान में समस्त विद्यायें आ गई, लोक की कोई भी विद्या, लौकिक अथवा अलौकिक, ऐसी नहीं बची जिसका ऐश्वर्य प्रभु के न प्रकट हुआ हो । वे समस्त विद्याओं के ईश हैं । अब प्रभु के नख और केश नहीं बढ़ते हैं । केवलज्ञान होने पर सभी अरहंत देवों के यह अतिशय होता है कि उनके नख और केश नहीं बढ़ते, कवलाहार नहीं होता, सभी विद्यायें प्राप्त हो गई । तीर्थंकर भगवान के ये दस अतिशय बताये जा रहे हैं । वे अपने सुंदर परमौदारिक दिव्य देह में विराजे हुए अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति, अनंत आनंद का अनुभव करते हैं । केवलज्ञान होने के बाद प्रभु के नेत्र टिमकार नहीं लेते । नेत्र ऊँचे नीचे नहीं उठते गिरते । उनकी नासादृष्टि रहती हे । उनके शरीर की छाया भी नहीं पड़ती । छाया तो अभी कोई कांच का पुतला बना हो उसकी भी नहीं पड़ती । जो काँच चारों ओर से साफ है उसकी छाया नहीं पडती । कदाचित् काँच की छाया पड़ भी जाय, पर प्रभु की ऐसा दिव्य देह है कि उसकी छाया नहीं पड़ती । इस प्रकार केवलज्ञान होने पर प्रभु में ये दस लक्षण प्रकट हो जाते हैं ।
प्रभु का अंतरंग अलौकिक अतिशय―अंतरंग अतिशय तो प्रभु के अनंत आनंद का लाभ है । विकारों का सदा के लिए अभाव है । अब परदृष्टि रागद्वेष मोह आदि किसी भी प्रकार के विकारों का कोई प्रसंग न रहा । सत्य आनंद इसी स्थिति में है इसीलिए अरहंतदेव हमारे आदर्श हैं । सबको एक यही चुनाव करना है । कोई आत्मा के नाते से पूछे कि तुमको क्या बनना इष्ट है? तुम क्या होना चाहते हो? तो यही उत्तर निकले कि हम परम आत्मा होना चाहते हैं । अरे न जन्म हो; न मरण हो, न भव धारण करना पड़े, न संयोग हो, न नियोग हो, न किसी की ओर दृष्टि जाय तो वह अनंत आनंदमय स्थिति है । घर से मतलब है आपका या विशुद्ध अनंत आनंदमय बनने से मतलब है? परिवार से मतलब है, देह से मतलब है या अनंत आनंदमय बनने से आपका प्रयोजन है? छाँट कर लीजिए । हम को अनंत आनंदमय होना है, ऐसा उपयोग बढ़े, ऐसी दृष्टि बने कि फिर कभी भी हमारी परिणति किसी बाह्य की ओर न जाय, पर की दृष्टि न हो, किसी भी प्रकार का औपाधिक परिणमन न हो, ऐसा सदा चुनाव करिये ।
नि:संकट अनुभवन की शिक्षा―इस भव में अनेक संकट आते हैं, अनेक स्थितियाँ आती हैं । इष्टवियोग हो गया, अनिष्ट संयोग हो गया, अरे जरा भी घबड़ाने की बात नहीं है । बहुत ही प्रिय पुत्र हों, मित्र हों, स्त्री हो, आखिर वियोग तो होगा ही । यह तो संसार की रीति ही है । तो हमें सत्यस्वरूप समझना चाहिए । यहाँ मेरा क्या है? सब परद्रव्य हैं, भिन्न हैं, इनका परिणमन इनके आधीन है । संसार में जो कुछ हो रहा है इनके कर्मानुसार हो रहा है, इनकी पात्रता के अनुसार हो रहा है, इनसे मेरा क्या संबंध? धन जुड़ गया तो जिनके उपभोग में आयेगा उनके भाग्य से । विपत्ति तो यही है कि दूसरे के प्रति मोहभाव जागृत होना । मोहपरिणाम के जागृत होने का ही नाम वास्तव में विपत्ति है, अन्य कोई विपदा ही नहीं । यह आत्मा आकाशवत् अमूर्त, निर्लेप है, जिसका किसी के साथ बंधन नहीं बन सकता । ये सब निमित्तनैमित्तिक भावरूप बंधन हैं । रस्सी में रस्सी का ऐसा बंधन बनता है, उस तरह के बंधन की योग्यता नहीं है, क्योंकि यह आत्मा अमूर्त है, ऐसा अमूर्त आत्मा निर्लेप है, यह किसी से क्या संबंध रखता है? यह तो अपने स्वरूप में है । अपने स्वरूप का सत्त्व नही रखे हुए है । इसमें किसी भी प्रकार का पर-संपर्क नहीं है जो मूर्त पदार्थों में हो सकता है । हाँ निमित्तनैमित्तिक बंधन चल रहा है । ऐसे इस आत्मा का किसी पर के साथ क्या संबंध? इसकी कौन स्त्री, कौन पिता, कौन पुत्र, कौन मित्र? जब यह देह भी इसका नहीं तो अन्य कोई कैसे इसका हो सकता है? तब यहाँ हर प्रसंगों में विवेक से काम लेना चाहिए, धैर्य धारण करना चाहिए, यहाँ घबड़ाने का क्या प्रसंग? यदि घबड़ाहट की जाती है तो समझिये कि हम अपने विवेक से चिग गए, ऊधम में आ गए, बाह्य में फंस गए । अपने स्वरूप को निहारो, किसी भी समय किसी भी प्रकार का पर के कारण क्लेश नहीं है । हम अपने में कल्पनायें जगाते हैं और दुःखी होते हैं । यह मर्म जिसके परिज्ञान में आ गया वह संसार से अवश्य तिरेगा ।
भैया ! जन्म-मरण की परंपरा, बनाये रखने में क्या लाभ? आज के समय में इस भव में जो हम परिजनों से मोह रखते हों तो इसका अर्थ यह है कि हम अपनी जन्म-मरण की परंपरा को और बढ़ा रहे हैं । तो हम आपकी छटनी निराकुल निर्वाध परमात्मतत्त्व के लिए होना चाहिये, आत्मा के इन विकासों के लिए होना चाहिए । मुझे तो अरहंत होना है, मुझे तो परमऐश्वर्य प्राप्त करना है । अन्य बातों से हमें कुछ प्रयोजन नहीं । एक मुख्य प्रोग्राम बने, एक मुख्य लक्ष्य हो जाय तो बीच में आने वाली बातों की उपेक्षा हो सकती है । भगवान विहार भी करते हैं केवलज्ञान के बाद, लेकिन राग विरोध उनमें नहीं रहता । जहाँ के जीवों का पुण्यक। उदय होता है उस ओर उनका विहार होता है । जैसे मेघ योग्य रीति से वहाँ ही बरसते हैं जहाँ के जीवो का भाग्य अच्छा है । ऐसा एक निमित्तनैमित्तिक संबंध है । प्रभु वीतराग हो गए, अब वे किस ओर जायें? तो जिस तरफ के लोगों के पुण्य का उदय होता है उस ओर उनका विहार अतिशयों में होता है ।
सकल परमात्मा के देवकृत अतिशयों में अर्धमागधी भाषा, जीवों में मैत्री, निर्मलगगन, षड्ऋतुफलपुष्प, पृथ्वीकांति का निर्देश―अब देवकृत चौदह अतिशय सुनिये―उन अतिशयों में कुछ विहार समय में अतिशय हैं, कुछ समवशरण में । यों सब मिलकर ये चौदह अतिशय देवों के द्वारा किए जाते हैं । प्रभु की अर्द्धमागधी भाषा होती है । जिस देश में प्रभु विराजमान हैं उस देश की तो भाषा है ही, साथ ही साथ अन्य देशों की भी भाषायें होती हैं, अथवा भगवान की दिव्यध्वनि जिस प्रकार है सही, उसको सुनकर लोग अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं । आज के समय में सुना जाता है कि कुछ यंत्र इस ढंग के तैयार हो रहे हैं कि कोई किसी भी भाषा में व्याख्यान दे उसका रूपांतर अन्य-अन्य भाषाओं में भी हो जाता है । लाउडस्पीकर तो जगह-जगह हैं, उनकी भाषा बहुत दूर-दूर तक पहुंचती रहती है । जहाँ इंद्रादिक देव समस्त प्रबंधों के करने वाले हैं, उनमें बहुत-सी कलायें होती हैं जिससे वे बहुत-बहुत अतिशयों को उत्पन्न कर सकते हैं । प्रभु की अर्द्धमागधी भाषा होती है । उनके निकट जो भी जीव पहुंचते हैं उनकी आपस में मित्रता रहती है । उनमें बैर विरोध नहीं रहता । चूहा बिल्ली, हिरण सिंह आदि परस्पर विद्रोही जीव भी भगवान के समक्ष पहुंचने पर अपने बैर विरोध को छोड़ देते हैं । मनुष्य भी परस्पर में एक दूसरे से शत्रुता रखते हों पर वहाँ बैर विरोध नहीं रहता । सब जीवों में परस्पर मित्रता रहती है । वहाँ निर्मल पृथ्वी, निर्मल आकाश रहता है । वहाँ सभी ऋतुवों के फल-फूल एक साथ फल जाते हैं । जिस ओर प्रभु विहार करते हैं उस ओर की भूमि कांच के समान पवित्र होती है । यद्यपि प्रभु पृथ्वी पर पैर धर कर नहीं चलते, किंतु जहाँ से चलते हैं वहाँ की पृथ्वी काँच के समान निर्मल हो जाती है । वहाँ कंटक नहीं रहते । यह सब कौन करता रहता है? यहाँ यदि प्रोग्राम बनाया जाय तो बड़ी खलबली मचती, बड़ा प्रबंध करना पड़ता, म्यूनिसिपलटी की सहायता लेते, बहुत से नौकरचाकरों की योजना बनाते, लेकिन प्रभु के विहार समय में जिनके ऋद्धि है, जिन में अनेक कलायें हैं, जो क्षणभर में ही कुछ से कुछ व्यवस्था बना सकते हैं वे सारा प्रबंध किया करते हैं ।
सकलपरमात्मा के देवकृत अतिशय में प्रभुपदतलस्वर्णकमल, जयजयकार, मंदसुगंध पवन, गंधोदकवृष्टि, भूमिनिष्कंटकता व हर्षमयी सृष्टि का निर्देश―भगवान जब विहार करते हैं तो उनके चरणकमल के तल में स्वर्ण की रचना होती चली जाती है न, पंद्रह-पंद्रह कमल एक-एक दिशा में रखे हुए हैं । जिस दिशा में प्रभु चल पड़े उसी दिशा में वे कमल बढ़ते चले जाते हैं । इंद्र को अवधिज्ञान के द्वारा सब पता हो सकता है कि प्रभु किस तरफ चलेंगे तो फिर क्या जरूरत थी सब ओर कमल रखने की? जिस ओर प्रभु का विहार होता उसी ओर कमल रख देना चाहिए था । लेकिन यह एक शोभा है, यह महिमा है । प्रभु जिस ओर भी चल दें उसी ओर कमल रचे होते हैं और आगे रचते हुए चले जायेंगे । वहाँ आकाश से जय-जय की ध्वनियां निकलती हैं । अभी आप लोग ही जब तीर्थराज की वंदना करने जाते हैं एक बहुत बड़े समूह के साथ तो वहाँ जय-जय की ध्वनियों से सारा पहाड़ गूँज जाता है । फिर जहाँ साक्षात् प्रभु विराजे हो, जहाँ देव देवियाँ, मनुष्य आदिक सभी पहुंच रहे हों वहाँ की जय-जय की ध्वनियों का क्या कहना? उस समय बड़ी सुगंध से भरी हुई वायु चलती है और मंद-मंद सुगंधित जलकण की वर्षा होती रहती है । वे जलकण किसी को व्याकुलता न उत्पन्न करें और सबके संताप मेट दें, मानो इस प्रयोजन को साधने वाले गंधोदक की वृष्टि होती है । भूमि निष्कंटक होती है । सभी लोग हर्षित होते हैं । ऐसे अतिशय जिनके समवशरण में व विहार समय में हुआ करते हैं, उन प्रभु की महिमा समझ करके लोग धर्म की ओर प्रेरित होते हैं, और ऐसा होना भी चाहिए कि जब एक परम आत्मा संसार से बिदा होने की तैयारी में है । सदा के लिए इस-संसार से निकल जायगा, मुक्त हो जायगा, उसका सम्मान, उसका स्वागत, उसकी बिदाई, उसका समारोह ये सब कितने ऊँचे पैमाने में होने चाहिएँ, सो वे सब देव इंद्र आदिक करते हैं । साथ ही वीतराग होने के नाते भक्ति भी उनके प्रति प्रबल है । ऐसे अरहंत भगवान को पंचगुरुभक्ति में यह ज्ञानी संत नमस्कार करता है ।
अरहंत प्रभु की जगन्मान्यता―जो भगवान भी हो और जिससे किसी विधि संपर्क भी हो सके ऐसे भगवान हैं तो अरहंत देव हैं । इसी कारण उपासना में इस ही सकल परमात्मा को पहिले लक्ष्य में रख लेने से और फिर उसके प्रति भिन्न-भिन्न ख्याल बन जानें से भिन्न-भिन्न रूप हो गए, पर मूल में यही रूप था उस व्यवहार का । जैसे कि लोग कहते हैं कि भगवान चतुर्मुख हैं, ब्रह्मा चतुर्मुख है; तो समवशरण में उनका चारों ओर मुख दिखता है सो चतुर्मुख होते हैं, इसमें कोई गलत बात तो न रही, लेकिन उसमें मूल लक्ष्य जो वीतरागता और सर्वज्ञता है इन दो मूल तत्त्वों को तो छोड़ दिया याने असली स्वरूप से तो चूक हो गयी और चतुर्मुखपन और विधातृत्व―ये दो बातें मुख्य हो गयीं । अरहंतदेव को लोग विधाता भी कहते हैं । इसमें भी लोगों ने वीतरागता और सर्वज्ञता को तो छोड़ दिया अब केवल उस विधातृत्व में क्या दम रही? मोक्षमार्ग की विधि का विधान अरहंतदेव द्वारा होता है । आज की परंपरा में सर्वप्रथम ऋषभदेव तीर्थंकर हुए । उन्होने भोगभूमिया के अंत में कर्मभूमिया की आदि में घबड़ाये हुए लोगों को सब विधि विधिविधान बताया, फिर से एक नवीन सृष्टि सी हुई । एक नई रचनासी ही तो की । कोई लोग भगवान को नाभिकमल से पैदा हुआ बताते हैं । नाभि में से कमल निकला, उस पर वे उत्पन्न हुए, तो इसका भी सिलसिला कुछ-कुछ तो है ही । बाद में बिगड़-बिगड़कर उसका रूप ज्यादह भिन्न बन गया । अरहंतों में तीर्थंकरों में इस परंपरा में आये हुए ऋषभदेव थे जो कि नाभिराजा के पुत्र थे । तो नाभि से उत्पन्न हुए, ये नाभिकमल से पैदा हुए, भगवान माने जाते हैं । प्रयोजन यह है जितने भी दर्शन हैं, जितने भी लोगों के मंतव्य हैं प्रभु के रूप में वे सब मंतव्य आदि में जिस समय उठे थे वे प्राय: सकलपरमात्मा को लक्ष्य में लेकर चले । धीरे-धीरे बिगड़-बिगड़कर विशेषरूप बन गए । जैसे कि किसी एक ही समाज में मानो जैनसमाज में सबसे मूल में क्या बात थी? सभी एक पथ के अनुयायी थे । अब बात तो मूल में यही रही, लेकिन भेद प्रभेद होकर कितनी ही तरह के पंथ निकले हैं और वे परस्पर में एक दूसरे को अपने से विरुद्ध मान लिए गए हैं । यों समस्त दर्शनों की दृष्टि से देखो तो किसी समय में केवल एक ही शासन था, एक ही दर्शन था और वह दर्शन एक व्यापक दर्शन था, समन्वयात्मक दर्शन था । जिसमें सब मंतव्य गर्भित हों उन सब को बताने वाला भी दर्शन था, पर उसके मानने वालों को अनुभव कुछ था नहीं जिससे बन करके दर्शनों के बड़े-बड़े मजहब के रूप हो गए ।
प्रभु के प्रातिहार्यों में अशोकवृक्ष व सिंहासन का निर्देश―अरहंत भगवान को अरहंत कहो या अल्य: कहो । यै प्रभु पृथ्वीतल से 5 हजार धनुष ऊपर विराजे रहते है । उन्हें किसी से सेवायें लेने की कुछ जरूरत नहीं है, वे वीतराग सर्वज्ञ देव हैं । अपने आप में ही तृप्त रहते हैं, परम निर्मल है लेकिन तीर्थंकर प्रभु का पुण्य प्रताप कहो अथवा वीतरागता से आकर्षित होकर घर्मप्रेमियों का अनुराग कहो, उनके सेवक उनके प्रतिहार इंद्र होते हैं । प्रतिहार कहते हैं मुख्य द्वारपाल को मुख्य सेवक को और प्रतिहार के द्वारा जो कार्य किए जायें उन्हें कहते है प्रातिहार्य । भगवान के ऐसे आठ प्रातिहार्य होते हैं और प्रतिहार द्वारा परिकल्पित होते हैं । पहिला प्रातिहार्य है अशोकवृक्ष के तल में भगवान का विराजना । समवशरण में भो अशोकवृक्ष को एक रचना होती है, वह देवकृत रचना है । उस वृक्ष का नाम अशोक यों पड़ गया कि जो पुरुष प्रभु के दर्शन करता है, जिस वृक्ष के निकट विराजे हैं उस वृक्ष के दर्शन करने से उनका शोक दूर हो जाता है अतएव वह अशोक वृक्ष कहलाता है । दूसरा प्रातिहार्य है बड़ा कांतिमान सिंहासन होना । सिंहासन का अर्श है श्रेष्ठ आसन । कहीं सिंह का अर्थ यहाँ उस चार पैर वाले सिंह पशु से नहीं है । यद्यपि आज कल लोग प्रभु के सिंहासन में कुछ सिंह के पंजे वगैरह बना देते हैं, पर सिंहासन का मतलब सिंह (पशु) वाले आसन से नहीं है, बल्कि श्रेष्ठ आसन से है । ऐसे मणि-रत्नजटित बहुत शोभायमान आसन को सिंहासन कहते हैं ।
प्रभु की वीतरागता―प्रभुसेवा में वहाँ सिंहासन रचा जाता है, लेकिन प्रभु जिस सिंहासन पर विराजमान हैं उसे वे छूते नहीं । इस लक्ष्मी ने बहुत प्रयत्न किया कि मैं प्रभु को छू तो लूं, लक्ष्मी के मायने हैं शोभा शृंगार । लोक की मूल्यवान वस्तुवें मणि रत्न आदिक इन सबका एक आधार कहा जा रहा कि ऐसे वैभवसंपन्न समवशरण में प्रभु विराजमान हैं फिर भी वह सिंहासन प्रभु को छू न सका । गंधकुटी बनी, सिंहासन उन पर वह लक्ष्मी प्रभु को न छू सकी । तो लक्ष्मी ने सोचा कि हम नीचे से चलकर प्रभु को छू न सके तो अब ऐसी करें कि ऊपर से प्रभु के शिर पर गिरें तब तो छू लेंगे । सो लक्ष्मी ने तीन छत्र के रूप में ऊपर से गिरकर मानो प्रभु को छूना चाहा, पर वे छू न सकी । लक्ष्मी किसी को छूती नही । पुरुष ही लक्ष्मी को छूते हैं । वैभव सोना चाँदी और सब जो कुछ भी मूल्यवान वस्तुवें हैं उनको लोग तिजोरी में जमा करते हैं । पुरुष उस लक्ष्मी को छूने लगता है तब पुरुष फिर संसारी ही रहता है और वीतराग सर्वज्ञदेव जो इस लक्ष्मी को छूना भी नहीं चाहते उनके चारों ओर से, अगल-बगल से, ऊपर नीचे से आ आकर वह लक्ष्मी प्रभु को छूना चाहती है, पर वे प्रभु उससे निर्लेप रहते हैं । सिंहासन के ऊपर कमल और उसके चार अंगुल ऊपर प्रभु विराजमान रहते हैं और उनके सिर के ऊपर तीन छत्र फिरते रहते हैं । अरहंत भगवान का साकार स्वरूप क्या है यह भी ज्ञात हो जाय तो भक्ति में बहुत प्रीति उमड़ती है । समवशरण का पूरा दृश्य रचना, प्रभु का विराजमान होना, बारह सभाओं का लगना और जो-जो उसके प्रातिहार्य है, मंगल द्रव्य हैं सबमें युक्त जब वह चित्रण चित्त में आता है तो एक वेगपूर्वक भक्ति उमड़ती है । प्रभु का दूसरा प्रातिहार्य सिंहासन है ।
सकलपरमात्मा के प्रातिहार्यों में छत्रत्रय, भामंडल व दिव्यध्वनि का निर्देश―तीसरा प्रातिहार्य है तीन छत्रों का होना । जो तीन छत्र यह घोषणा कर रहे हैं कि वे प्रभु तीनों लोकों के अधिपति हैं । त्रिलोकाधिपतित्व की सूचना मानो वे तीनों छत्र दे रहे हैं । चौथा प्रातिहार्य है भामंडल का होना । प्रभु के शरीर की कांति का एक भामंडल बन जाता है । जैसे चंद्र कांतिमान होता है और उसके गोल फेर एक कांति का मंडल बना रहता है । इस प्रकार कांतिवां परमौदारिक दिव्य देह का मंडल बनता है जिसे भामंडल कहते हैं । 5 वाँ प्रातिहार्य है भगवान का दिव्यध्वनि खिरना । दिव्य ध्वनि यद्यपि भव्य जीवों के भाग्य से और प्रभु के वचनयोग से खिरती है फिर भी प्रतिहार ने उस संबंध में क्या किया है? एक उस ध्वनि को बहुत दूर तक फेंक दिया है, याने लाउड स्पीच देता है और उस ध्वनि से जितना जो कुछ संभव होता हो यंत्रों द्वारा कुछ-कुछ रूपों में परिवर्तित कर दिया है। ये सब उसमें और विशेषतायें आती हैं । यह दिव्यध्वनि भी प्रातिहार्य है ।
प्रभु के प्रातिहार्यों में पुष्पवृष्टि वे चमर ढुरने का वर्णन―छठवाँ प्रातिहार्य है पुष्पवृष्टि होना । देव देवियां आकाश से उतरते हुए पुष्पवर्षा करते हैं । ये पुष्प स्वर्ग के कल्पवृक्ष के हैं और ऐसे हैं कि जिनमें कीट का विकलत्रयों का संबंध नहीं, उन पुष्पों की वर्षा की जाती है । अब यदि यहाँ पुष्पवर्षा का नाम सुनकर किसी साधु के सामने फूल चढ़ाये जाये तो वह उसके दोष के लिए है। विकलत्रयों की हिंसा हुई, असंख्यात वनस्पति जीवों का देह तोड़ा गया और उसमें कोई साधु लुभाते नहीं हैं । यदि कोई साधु लुभायें तो वे साधु नही । तो वहाँ जो वर्षा हुई वह कल्पवृक्ष के फूलों को हुई । जो पुष्प बरसते हैं, ऊपर से जो फूल नीचे गेरे जाते हैं तो किस तरह गिरना चाहिए? उनका जो डंठल है उसे ऊपर करके फूल डालना चाहिए । वह तो विनय में शामिल है और वह शोभा में शामिल है । डंठल अगर ऊपर हो गया तो फूल का विकसित स्वरूप नीचे रहेगा, पर पुष्पवर्षा प्रभु के शरीर पर नहीं होती, अगल-बगल में होती है, सो बह फूल ऊपर से इस तरह डाला गया कि नीचे तो है विकसित स्वरूप और ऊपर है डंठल । (डंठल का नाम बंधन भी है) लेकिन वे फूल ऊपर से गिरते-गिरते मानो आधी दूर आकर ही उनका डंठल तो हो जाता है नीचे और विकास स्वरूप हो जाता है ऊपर । तो ऐसे गिरने वाले पुष्प दुनिया को यह शिक्षा दे रहे हैं कि देखो हमारी तरह जो प्रभु के अरहंतदेव के चरणों में गिरेगा उसके बंधन नीचे हो जायेंगे, ढीले हो जायेंगे और विकास स्वरूप उन्नत हो जायगा । 7वां प्रातिहार्य यह है कि चौंसठ यक्ष चमर ढोलते हैं । ये सब विभूतियां दिव्य है । ये ढुलते हुए चमर नीचे ऊँचे उठकर यह शिक्षा दे रहे हैं मानो कि जो जीव प्रभु के चरणों में झुकेगा वह ऊपर उठेगा याने उसका उद्धार हो जायगा । 8वां प्रातिहार्य दुंदुभि वाद्य का घोष होना है, मानो यह दुंदुभि घोषणा करती है हि जिन आत्माओं का संसार के संकटों से छूटना हो वे आत्मा यहाँ कार्यपरमात्मा के चरणों के निकट आवें । ये प्रभु संसारसंकटों से सर्वथा मुक्त हैं, इनके स्वरूप की उपासना से मुक्ति का मार्ग अवश्य प्राप्त होगा ।
अरहंत प्रभु के अघातिया कर्मों के क्षय का विधान―उक्त 8 प्रातिहार्यों के बीच शोभायमान ये अरहंत देव अपने स्वरूप में मग्न हैं, जिसके बल पर उनकी पूजा हुआ करती है । जिसके बल पर वे त्रिलोकाधिपति कहलाते हैं । प्रभुता की मूल बात है अपने आत्माराम में निर्विकल्परूप से रमण करते रहना । इसी के बल पर उनका ज्ञान भी केवलज्ञान है, इसी के बल पर अनंत ज्ञानदर्शनशक्तिआनंद का चतुष्टय उनमें प्रकट हुआ है । ये अनंत चतुष्टय संपन्न प्रभु केवलज्ञान की अवस्था में बहुत काल तक विहार करते रहते हैं । जब आयु समाप्ति का काल होता है उससे कोई 1 माह पहिले, कोई 15 दिन पहिले, कोई कुछ ही समय पहिले योगनिरोध करते हैं । यह योगनिरोध स्थूल योगनिरोध है अर्थात् उनका विहार बंद हो जाता है, दिव्यध्वनि बंद हो जाती है और एक ही जगह स्थिरता से वे स्थित रहते हैं । जब अंतर्मुहूर्त का समय रह जाता है आयु की समाप्ति में तो उस समय प्राय: यदि आयुकर्म है अंतर्मुहूर्त का और शेष कर्म हैं बहुत अधिक लाखों वर्षों के भी हों नामकर्म, गोत्रकर्म और वेदनीयकर्म, तो ऐसा तो होगा नहीं कि आयु का तो क्षय हो जाय और उन कर्मों की सत्ता बनी रहे । चारों अघातिया कर्म एक साथ नष्ट हो गए तो उस समय सहज ही उनके समुद्घात होता है । अपने आप देह को न छोड़कर वहाँ वे प्रदेश रहे, और लोक में भी प्रदेश फैल जाये उसे समुद्घात कहते हैं । पहिले होता है दंड समुद्घात । शरीर प्रमाण वे प्रदेश नीचे से ऊपर तक 14 राजू तक फैल जाते हैं । फिर होता है कपाट समुद्घात । अगल-बगल के प्रदेश उनके फैलते है, जहाँ तक लोक में जगह मिलती है एक वातवलय को छोड़कर । फिर आगे पीछे प्रदेश फैलते है जहाँ तक वातवलय न आये । इसके बाद फिर लोकपूरण समुद्घात में वातवलय भी परिभूत हो जाता है । लोग कहते हैं कि भगवान घट-घट में रहते हैं, कण-कण में, दाने-दाने में रहते हैं, प्रत्येक देह में । प्रदेशों की अपेक्षा यदि इसका अर्थ लगाया जाय तो एक समय अवस्था ऐसो आती है कि प्रभु के लोकपूरण? समुद्घात में इस लोकभर में उनका आत्मा सर्वत्र फैल जाता है । पर कंकड़-कंकड़ में, दाने-दाने में भगवान हैं, यह बात घटित नहीं होती । जैसे लोग कहने लगते कि यह आत्मा सर्वत्र है तौ इसमें कुछ संपर्क नहीं हो गया, किंतु एक समय ऐसी अवस्था होती है कि भगवान के प्रदेश लोक में सर्वत्र मिलेंगे । इसके बाद फिर संकोच होता है । प्रतर समुद्घात जैसी स्थिति बनती, फिर कपाट समुद्घात जैसी स्थिति होती, फिर दंड समुद्घात जैसी स्थिति होती, फिर उस शरीर में वे प्रदेश समा जाते हैं । इस संबंध में क्या होता कि शेष जो तीन अघातियाकर्म अधिक स्थिति के थे वे आयुकर्म की स्थिति के बराबर हो जाते हैं, फिर उस ही अंतर्मुहूर्त में अनेक-अनेक अंतर्मुहूर्त पड़े हुए हैं, फिर श्वास का निरोध होता, वादरकाय का, मनोयोग, वचनयोग का फिर सूक्ष्मकाययोग का । जब सूक्ष्मकाययोग भर रह जाता है उस समय भगवान के तीसरा शुक्लध्यान होता है । सूक्ष्म क्रियाऽप्रतिपाती शुक्लध्यान होता है । बस यह समय निकला कि वे अयोगकेवली होते है । अब सुक्ष्मकाय का भी कोई योग न रहा और 5 ह्रस्व अक्षरों के शीघ्र बोलने में जितना समय लगता है उतने समय में वे अष्टकर्मों से मुक्त होकर, चार अघातिया से भी मुक्त होकर, देह से भी मुक्त होकर सिद्ध हो जाते हैं । इसे कहते हैं निर्वाण ।
प्रभु का निर्वाणकल्याणक समारोह―प्रभु का निर्वाण कल्याणक भी देव और इंद्रों के द्वारा मनाया जाता है । दीपावली का जो त्यौहार मनाया जाता है वह भगवान के निर्वाण कल्याणक का ही समारोह है । निर्वाणकल्याणक में देव, इंद्र आदि बड़े उत्सव मनाते हैं । तो प्रथम बात यह है कि जिस स्थान से प्रभु मुक्त हुए हैं उस स्थान विशेष में आकर्षण उनका विशेष होता है, और फिर यह भी कहा गया है कि भक्ति में देव एक मायामय पवित्र देह रचते हैं और उस देह पर इंद्र लोग सब अपने शीश झुकाते हैं । अग्नि कुमार जाति के देवों की उस समय बहुत उपयोगिता होती है । वे भी अपने मुकुट नमाते हैं, तो उस नमस्कार के समय एक ज्वाला निकलती और वह मायामय देह भस्म होता है । भगवान के निर्वाण कल्याणक होने पर उनका वह परमौदारिक दिव्य देह परमाणु परमाणु, सूक्ष्म-सूक्ष्म बिखरकर कपूर की तरह उड़कर अलग हो जाता है । वहाँ देह नहीं रहता । लेकिन नख और केश ये दो रह जाते है और फिर उन नखों को वे देव क्षीर समुद्र में सिरवाते हैं । इस तरह पंचकल्याणक से विभूषित तीर्थंकर अरहंतदेव को भक्तिभाव से नमस्कार करता है ।
अरहंतों का आंतरिक अतिशय और उनके वंदन से मांगल्यप्राप्ति―अरहंत का मूल स्वरूप है अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति, अनंत आनंद संपन्न होना । जो 34 अतिशय बताये गए थे उन अतिशयों में तीर्थंकरों में तो समस्त होते हैं, पर सामान्य अरहंत में कोई अतिशय कम भी रह सकता है । ये अतिशय बाहरी चीज हैं, उनका आंतरिक अतिशय पूर्णगुणविकास है । ये प्रभु अनंतचतुष्टय संपन्न हैं । चाहे कोई मुनि अपने समय में ऐसे हों कि जिनसे कोई लोग विशेष परिचित भी न हो सके हों, जिनका लोगों पर कोई विशेष आकर्षण भी न हुआ हो, उन्होंने अपना ध्यान एक अनुरूप सही बनाया, जिसके प्रताप से चारघातियाकर्म नष्ट हुए, अरहंत हुए, तो अब उनमें जो आंतरिक विकास है वह तीर्थंकर से कम नहीं है । समान स्थिति रहती है । तो अरहंत का लक्षण है अनंत चतुष्टय संपन्नता । ऐसे मंगलस्वरूप अरहंतदेव हम सबको भी मंगल प्रदान करें । मंगल उसे कहते हैं जो सुख को लावे और पापों को गलावे । ऐसा कौनसा भाव है, ऐसी कौनसी वस्तु है जो हम में सुख पैदा करे और पापों को नष्ट करे? धूप खेने से क्या पापकर्म नष्ट हो जायेंगे? अथवा कोई ईधन जलाने से हवन आदि से क्या ये पापकर्म नष्ट हो जायेंगे? क्या हमारी ऊपरी शारीरिक क्रियावों से यात्रा बदन नमस्कार आदि जो भी शरीर से क्रियायें करते हैं; वचनों से कहते हैं क्या इन क्रियावों से पाप नष्ट हो जायेंगे? पाप नष्ट करने वाला तो एक विशुद्ध परिणाम है । विशुद्ध परिणाम के होते हुए ये सब क्रियायें प्राय: ज्ञानी पुरुषों के हुआ करती हैं इसलिए इन बाह्य क्रियावों की भी प्रशंसा की है और बहुत आवश्यक बताया है, पर वस्तुत: तो विशुद्ध परिणाम ही पापों का गलाने वाला है । सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि यह है कि आत्मा का जो सहजस्वरूप है, ज्ञानमात्र ज्ञानस्वभावात्मक एकात्मकता रूप में अनुभवन करना, यही विशुद्धतर परिणाम है । इसके लक्ष्य से, इसकी उपासना से इसके किसी प्रकार के अनुभव से ये सब पाप विनष्ट होते हैं । तो मंगल का कारण वह विशुद्ध भाव है और सुख को लाने वाला भी वह विशुद्ध भाव है । तो ऐसा विशुद्धभाव, धर्म मंगलमय हो । अरहंत भगवान के वंदन से नमस्करण से हम सबको भी मंगल प्राप्त हो ।
अरहंत, अरिहंत अरुहंत शब्द के अर्थ से प्रभु की विशेषता का परिचय―अरहंत भगवान को अरिहंत भी कहते हैं और अरहंत भी कहते है । अरहंत का अर्थ है जो कि पूज्य है। अरिहंत का अर्थ है जो मोह शत्रु को नष्ट करने वाला है । अरि मायने शत्रु, हंत मायने नष्ट करने वाला, रागद्वेष मोह का विनाश करने वाले परमात्मा को अरिहंत कहते हैं । अरुहंत का अर्थ है―संसार, जन्ममरण, विकार, रागद्वेष आदि के अंकुर जिनके अब न उगे । ऐसे अरहंत प्रभु का जिन्हें समागम मिला है, जिन्होंने दर्शन किया है उन ज्ञानी संतों ने उस मिलाप के सामने किसी को महत्त्व नहीं दिया । क्या परिवार, क्या राष्ट्र, क्या वैभव, क्या कीर्ति आदिक ये सभी अर्हद्दर्शन के समक्ष असार बातें हैं । इस लोक में हम आप सभी जीव न कुछ साथ लाये हैं, न कुछ साथ ले जायेंगे, यह बात सबको अच्छी तरह विदित है, किंतु इस जीवन की यह परिस्थिति कितनी कडुवी बन रही है, कैसा अज्ञान अंधेरे में नृत्य हो रहा है, कैसा बेकार और विचित्र उपयोग बन रहा है कि जिससे कुछ अपने आत्महित का संबंध नहीं, ऐसे विकल्पजाल का ही तो नाम संसार है । प्रभुदर्शन मिले, प्रभुवाणी मिले, प्रभु गुणस्मरण बने, प्रभु में चित्त रहे, तो यह जौ हमारी परिणति है, वीतरागदेव का स्मरण करने का जो हमारा परिणमन है, यही मेरे लिए शरण है, बाकी अन्य प्रकार के विकल्पजाल जगत की बरबादी के ही कारण हैं । ऐसा निश्चय करके अर्हद्भक्ति के लिए हमें उत्सुक रहना चाहिए ।
अरहंत प्रभु के परम अनुराग में अर्हद्बिंबभक्ति―अब आज अरहंतप्रभु तो साक्षात् मिलते नहीं, तो जिसमें तीव्र भक्ति होती है वह उसका चित्र फोटो स्टेचू आदि कुछ न कुछ बना कर अपनी आँखों के सामने रखता है, दुकान पर घर पर किसी भी जगह रखता है यहाँ मुमुक्षु को, जिज्ञासु पुरुष को अरहंत भगवान में अति प्रीति है तो अरहंत भगवान त्रिलोक पूज्य भगवंत देव हैं, अतएव जैसा चाहे मिट्टी का पुतला बना लें, चित्र बना लें, या कोई खिलौना जैसा ढलवा ले, उस प्रतिबिंब को रखें, उसे माने, यह तो विनय के प्रतिकूल है, और करना कुछ इसी प्रकार पड़ेगा । एक बिल्कुल सुडौल समचतुरस्क संस्थान वाली ऐसी पाषाण या धातु की मूर्ति जो कि मिट्टी की तरह गल न जाय, जो पानी के पड़ते ही मिट न जाय, जो जरा सी ठोकर लगने पर टूट न जाय, ऐसे पुष्ट पाषाण का प्रतिबिंब तैयार कर पंचकल्याणक विधि से जिसे अनेक पुरुष पंचकल्याणक का दृश्य देखकर रोज-रोज उसके प्रति भावना बनाये, ऐसी अनेक भावनाओं के साथ, मंत्रादिक विधानों के साथ जो प्रतिबिंब प्रतिष्ठित होता है उसमें अरहंतदेव की स्थापना करके उनके दर्शन करते हैं । जो लोग इस रहस्य को नहीं समझते कि इस प्रतिबिंब में अरहंतदेव की स्थापना की है, जो चारघातिया कर्मों से रहित, परमौदारिक दिव्य शरीर वाले वीतराग सर्वज्ञदेव हैं, जिनसे इस जिनवाणी का प्रणयन हुआ है उन अरहंतदेव की इस मूर्ति में स्थापना हुई है, ऐसा मर्म जिसे विदित नहीं है वह यथा तथा साधारणजनों की भाँति भावावेग में डोलता है । यह मूर्ति ही भगवान है, यह ही मेरी मनोकामनायें पूरी करेगा, यही हमारे इष्ट की सिद्धि करेगा, जिनका ऐसा भाव होता है उनके चित्त में वह ज्ञानपुंज नहीं समा सकता है, तो भगवान का दर्शन भी उन्हें नहीं मिल सकता, मुक्ति का मार्ग भी नहीं मिल सकता । सही ज्ञानपूर्वक हम अरहंत बिंब के दर्शन करके अरिहंत स्वरूप का स्मरण करते हुए अपने उपयोग को पवित्र करें । पंचगुरु के चरण ही हैं शरण जिसके, ऐसे भक्त को इसके अतिरिक्त और कहीं भी शरण बुद्धि नहीं होती है, ऐसा भक्त प्रथम ही प्रथम अरहंत परमगुरु को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर रहा है । अंतरंग बहिरंग लक्ष्मी से युक्त, देव देवेंद्रों के द्वारा पूजित, पंचकल्याणक आदिक महोत्सवों से युक्त, ज्ञान दर्शन, आनंद शक्ति के अनंत भंडार, जिनेश्वरों को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूं । अब अरहंत प्रभु नमस्कार के बाद सिद्ध भगवान को नमस्कार करने का इस भक्ति में छंद आता है ।