वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 1
From जैनकोष
इंदसदवंदियाणं तिहुवणहिदमधुरविसदवक्काणं।
अंतातीदगुणाणं णमो जिणाणं जिदभवाणं।।1।।
जिनेंद्रनमस्कार―जो धर्मपुंज शत इंद्रों द्वारा वंदित हैं अर्थात् भवनवासी देवों के 40 इंद्र, व्यंतर देवों के 32 इंद्र, कल्पवासी देवों के 24 इंद्र, ज्योतिषी देवों के दो इंद्र सूर्य और चंद्र, मनुष्यों का एक इंद्र चक्रवर्ती और तिर्यंचों में एक इंद्र सिंह ऐसे 100 इंद्रों के द्वारा जो वंदित हैं, वंदनीय हैं, जिनका उपदेश तीन लोक का हित करने वाला है जो कि मधुर एवं स्पष्ट है, जिनमें अनंतानंत गुणों का अनंत विकास है जो संसार से निवृत्त हो गए हैं ऐसे जिनेंद्र भगवान को नमस्कार हो।
ग्रंथवक्तव्य से धर्मपालन का संबंध―यह ग्रंथ पंचास्तिकाय है। पूज्य श्री कुंदकुंदाचार्य देव ने इस ग्रंथ की रचना की है। इसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश इन अस्तिकायों का स्वरूप मुख्यता से बताया है और फिर प्रसंग पाकर संक्षेप में जो अस्तिकाय नहीं है ऐसे कालद्रव्य का भी वर्णन किया है। वस्तु के स्वरूप को बताने का प्रयोजन है मोह हटे, रागद्वेष दूर हो। उसका साधक है वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान। जो पुरुष वस्तु का यथार्थ ज्ञान करके उपेक्षा करने योग्य परद्रव्यों से उपेक्षा करते हैं वे विकारभाव से निवृत्त होकर शाश्वत आनंद का अनुभव करते हैं।
निज को निज पर को पर जानने का लाभ―निज को निज, पर को पर जानने से यह लाभ होता है कि चूंकि पर भिन्न हैं, अहित हैं, असार हैं, पर ही हैं, सो उनसे तो उपेक्षा भाव कर लेना चाहिये, और निज जो अंतस्तत्त्व है उसमें रुचि जगाना चाहिये। इनसे आत्मा में अनादि से ही बसा हुआ जो सहज आनंद है और सहज चैतन्य है उसका प्रकाश होता है। जिसके अपने ज्ञान दर्शन का पूर्ण प्रकाश हुआ है वह पुरुष परमात्मा कहलाता है। वह अनंतानंत गुणों में विश्राम लिये हुए रहता है। प्रभु सर्वज्ञ, वीतराग व कृतकृत्य हैं तभी हम आपके लिये आदर्श भगवान हैं। भगवान यदि हम आप लोगों के भक्ति को निहारकर तारने लग जायें, बातचीत करने लग जायें, तो भगवान का फिर आदर्श न रहेगा। फिर तो एक प्रकार के भगवान व्यापारी ही कहलाये। यहाँ के छोटे मोटे व्यापारी छोटी सीमा में विकल्प करते हैं, भगवान एक सबसे बड़े व्यापारी कहलाने लगे, जो जगत को, लोक को रचे, विधि बनाए। परंतु प्रभु किसी पर नाराज होकर उसका विनाश करते नहीं आते। प्रभु का स्वरूप है―सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानंद रसलीन। प्रभु समस्त ज्ञेयों के जाननहार हैं, फिर भी आत्मीय आनंदरस में लीन रहा करते हैं। यही है प्रभु स्वरूप। यह विकास हमारा आपका सबका हो सकता है, और ऐसा ही करें सो ही बुद्धिमानी है।
व्यर्थ का समागम व्यामोह―यह जगत का समागम प्रथम तो भिन्न है, अहित है, असार है, उसकी आकांक्षा न करो। फिर दूसरी बात यह है कि यह समागम आपके मानने से आता भी तो नहीं है, आप तो केवल अपना भाव भर बनाते हैं। उस भाव के बनाने के बाद निमित्त नैमित्तिक योग से यह सब कार्य परंपरा चलती रहती है। समागम इष्ट मिले इसमें निमित्त कारण है पुण्य कर्म का उदय। उस पुण्य कर्म का उदय आये तब ही ना, जबकि उसका बंध हो। पुण्यकर्म का बंध हो उसका निमित्त कारण है शुभ परिणाम। शुभ परिणामों का कर्ता यह जीव था। निमित्त परंपरा में तो उसका कारण भाव बना। लेकिन भाव साक्षात् धन को कमा ले, इकट्ठा कर ले सो नहीं होता। आत्मा के भावों का धन आदिक वैभव में स्पर्श भी नहीं होता। जो पुरुष अपने स्वरूप को सम्हालते हैं वे ऐसे परमात्मतत्त्व का विकास प्राप्त करते हैं।
स्याद्वादपद्धति से सम्यक् परिज्ञान―वस्तुस्वरूप का सम्यक् परिज्ञान स्याद्वादपद्धति से ही हो सकता है। जैन दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता है वस्तु के स्वरूप का यथार्थ प्रतिपादन। स्वरूप प्रतिपादन की यथार्थता का कारण है स्याद्वाद का आश्रय लेना। स्याद्वाद का अर्थ है अपेक्षावाद। अर्थात् अपेक्षा लगाकर स्वरूप को कहना जैसे एक पुरुष का परिचय दिया जाय तो कहते हैं कि यह अमुक का पिता है, अमुक का पुत्र है, अमुक का मामा है, अमुक का भांजा है, उस एक ही आदमी में पिता पुत्र आदिक अनेक रिश्ते बताए गए और वह सब बताना अपेक्षा लगाकर हुआ है। यदि कोई अपेक्षा को तो छोड़ दे और कहे कि यह पिता है, थोड़ी देर में कहे कि यह पुत्र है तो यह विवाद का विषय बन सकता है। कदाचित् कोई कहे कि यह पुरुष पिता भी है, पुत्र भी है, तो ऐसा कहने से बीच में अपेक्षा आ गयी, मन में अपेक्षा लगाने से विवाद मिट गया, पर अपेक्षा तो जरा भी न लगाये या अपेक्षा उस सबकी एक ही लगाए तो विवाद हो जायेगा। जैसे मानो मोहन सोहन का पिता है और यह कहें कि यह सोहन का पिता है और पुत्र भी है, तो विवाद हो गया कि नहीं। जितने धर्म बताये जायें उतनी ही अपेक्षा लगायी जाती हैं तब यथार्थ ज्ञात होता है।
स्याद्वादपद्धति का संक्षिप्त विवरण―अपेक्षा लगाकर धर्म लगाये तो यह स्याद्वाद की शैली कर सही रूप होता है। जैसे कहें कि यह सोहन का पिता ही है तो बात सही हो गयी। दूसरे का नाम लेकर बता दिया कि उसका पुत्र ही है, बात सही हो गयी। अपेक्षा लगाकर बात को दृढ़ता से कहना उसका नाम स्याद्वाद है जैसे जीव द्रव्यदृष्टि से नित्य ही है। कोई यदि कह दे कि जीव द्रव्यदृष्टि से नित्य भी है तो गलत हो जायेगा। क्योंकि इसका अर्थ यह निकलेगा कि द्रव्यदृष्टि से नित्य भी है और अनित्य भी है। द्रव्यदृष्टि कहते हैं―पदार्थ का जो सहज स्वत: सिद्ध स्वरूप है, जिससे रचा हुआ है उस स्वभाव पर दृष्टि देने को। जैसे दृष्टांत में मिट्टी का घड़ा ले लो। यह मोटा दृष्टांत दिया जा रहा है। दशा की मोटी दृष्टि से घड़े के पर्याय की दृष्टि करना सो पर्याय दृष्टि है। यह मिट्टी की दृष्टि से सदा रहेगी, घड़े की दृष्टि से सदा न रहेगी। यों ही द्रव्य दृष्टि से जीव सदा रहेगा, पर्याय की मुख्यता की दृष्टि का जीव सदा न रहेगा। तब द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य भी है यह कहना गलत है। द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य ही है, यह कहना सही है। और यह जीव पर्यायदृष्टि से अनित्य ही है यह भी सही है तो अपेक्षा लगाकर स्वरूप को बताना स्याद्वाद है।
स्याद्वादपद्धति में विरोधपरिहार―स्याद्वाद को शैली में वस्तुस्वरूप का यथार्थ परिज्ञान होता है। यहाँ यह स्पष्ट ज्ञान में आया कि यह स्याद्वादसिद्धांत समस्त एकांतवादियों का विरोध मिटाने में समर्थ है। एक प्रसिद्ध दृष्टांत है। चार अंधे किसी हाथी का स्वरूप समझने गये। एक अंधे के हाथ में सूंड आयी वह तो सोचता है कि हाथी मूसल की तरह होता है, एक के हाथ में पैर आये सो वह कहता है कि हाथी खंभे की तरह होता है। एक के हाथ में पेट आया तो वह सोचता है कि हाथी ढोल की तरह होता है। एक के हाथ में कान आये तो वह सोचता है कि हाथी सूप की तरह होता है। अब वे आपस में एक दूसरे से झगड़ने लगे। एक सूझता पुरुष आया, उसने पूछा―तुम क्यों लड़ रहे हो? उन्होंने बताया कि हाथी के स्वरूप पर यहाँ विवाद हो रहा है हम लोगों में। अच्छा, अपनी-अपनी बात बताओ तो सही। सबने अपनी-अपनी बात बतायी। तो वह सूझता पुरुष बोलता है कि तुम सब सही कह रहे हो, झगड़ा न करो। हाथी के कान देखो तो उसकी दृष्टि से सूप जैसा होता है, सूंड पकड़ो तो उसकी दृष्टि से मूसल जैसा होता है। अरे तुम्हारी सब बातों को मिलाकर जो हो सो हाथी है। ऐसे ही जानो स्याद्वाद की पद्धति सब एकांत धर्मों का विवाद मिटाने वाली है।
विरुद्ध अभिमत में भी अविरोध की दृष्टि―बौद्ध लोग कहते हैं कि जीव अनित्य ही है, वेदांती कहते हैं कि जीव अपरिणामी नित्य ही है। उन सबका समाधान जैन दर्शन देता है। दृष्टियां लगाकर वस्तुस्वरूप के प्रतिपादन की विशेषता जैन दर्शन में है। कैसा यह सर्वपालक दर्शन है।
ज्ञान की अप्रसिद्धि का कारण―जैन दर्शन में चरित्र की आधारशिला सत्य व अहिंसा है जो सारे विश्व को शांत और सुखी करने में समर्थ है। लेकिन समय का प्रभाव है कि भले पदार्थ को भला न देखकर उसकी बुराई ही नजर आती है, और चूंकि इस जैन दर्शन के मानने वाले जो लोग है, कषाय तो जैसी सबमें बसी है, प्राय: वैसी उनमें भी बसी है। अन्याय और बेईमानी तो जैसे अन्य जन करते हैं वैसे ही ये भी करते हैं क्योंकि कषायें पड़ी हुई हैं। लेकिन जो इस जैन शासन को मानते हैं यदि औरों की ही तरह बेईमानी दगा आदि खोटा कुछ काम करने लगे तो जैन दर्शन के मानने वालों की बदनामी शीघ्र होगी, क्योंकि इनका दर्शन इनका सिद्धांत पवित्र है। इससे जरा भी चलित होने पर धर्म की अप्रभावना जल्दी हो जाती है, एक यह भी कारण है जिससे कि यथार्थ दर्शन लोगों को दुर्गम हो गया है।
जैनदर्शन की वर्तमान अख्याति के अन्य कारण―दूसरा कारण यह है जैनदर्शन की अप्रसिद्धि का कि यह जिस उपाय पर चलाना चाहता है प्रत्येक जीव को विषय कषाय की वासना बनी हुई है अत: ये ज्ञान ध्यान के नियम कठिन मालूम होते हैं, इस कठिनाई के कारण भी लोगों ने इस दर्शन का साथ छोड़ दिया है, आदिक अनेक कारण हैं जिससे आज इसकी प्रभावना, मान्यता, प्रसिद्धि इस परिचित दुनिया में कम है किंतु जैन दर्शन तो वस्तु के स्वरूप को बताता है, जो वस्तु में धर्म हैं उस ही को जिनेंद्रदेव ने बताया है इस कारण नाम जैन धर्म पड़ गया, किंतु वास्तव में उसका नाम है वस्तुधर्म। जब वस्तु कभी मिट नहीं सकती, वस्तुधर्म भी कभी मिट नहीं सकता। जैसे कोई पुरुष अपने आपके आत्मा को मना करे कि मैं नहीं हूं अरे वही तो मैं हूं मैं आत्मा नहीं हूं ऐसी जानकारी जिसमें हो रही है, ऐसी कल्पना जिसमें उठ रही है वही तो आत्मा है। तो जैसे अपने आपकी मनाई करने से अपने आपका अभाव नहीं हो जाता ऐसे ही वस्तुधर्म अथवा जैनदर्शन की मनाई करने से वस्तुधर्म अथवा जैनदर्शन समाप्त नहीं हो जाता। चाहे उसके जानने मानने वाले यहाँ एक भी न रहें, फिर भी वस्तुधर्म सदा ही अच्छा चलता है।
यथार्थ ज्ञान का प्रताप―अपेक्षावाद करके जो यह सिद्धांत पद्धति चलती है उस पद्धति से वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान होता है और उस ज्ञान के फल में मोह हटना, कषाय हटना, यह संभव हो जाता है। भला थोड़ी देर को आप अपना ऐसा उपयोग बना लें कि यह देह भी मैं नहीं हूं। यह देह जड़ है मैं आत्मा चेतन हूं। इस देह को मैं छोड़ दूंगा। देह यहाँ पड़ा रह जायगा। लोग इसे गाड़ देंगे, जला देंगे या पशुपक्षी चौथ लेंगे। यह मैं आत्मा सुरक्षित हूं, परिपूर्ण हूं, इस देह से अत्यंत न्यारा हूं, और जब देह से भी न्यारा हूं तो अन्य वैभव परिजन आदिक से भी प्रकट न्यारा हूं, मेरा कोई भी काम किसी पर में नहीं जाता। यह मैं आत्मा अपने आपके भाव बनाया करता हूं। भावों के अनुसार ही सुख दु:ख आनंद भोगता हूं। मेरा किसी भी पर पदार्थ से संबंध नहीं है। मैं किसी पर का कर्ता नहीं, भोक्ता नहीं। यों अपने एकत्व की रचना जीव में है।
मोहविनाश की यथार्थज्ञानसाध्यता―इस लोक में सग्रंथदशा में वर्तमान आवश्यकताओं के अनुकूल किसी से राग करना ही पड़ता रहेगा लेकिन मोह करना ही पड़ेगा यह लाजमी नहीं है। भीतर में ज्ञान जगे और वस्तु की स्वतंत्रता का सही पता हो जाय, ये वस्तु अपने स्वरूप से अपने में ही है, मैं सत् अपने स्वरूप से अपने में ही हूं जहां ऐसा भान हो फिर यह विकल्प कैसे हो सकता है कि यह पदार्थ मेरा है। मोह मिट गया समझिये। लोग शांति के लिए अधिकाधिक सर्व प्रकार के प्रयत्न कर रहे हैं। यह एक सम्यग्ज्ञान का प्रयत्न नहीं किया गया। यह ज्ञान पुरुषार्थ इतना ऊँचा प्रयत्न है कि इस जीव का कल्याण केवल इस पुरुषार्थ पर निर्भर है।
यथार्थ ज्ञान होने पर ही अज्ञान की अज्ञानता का प्रकाश―दुनिया की बढ़ाई, दुनिया की इज्जत अथवा किसी प्रकार की स्थिति बने, पर ये सारी बातें इस जीव को कुछ भी साथ न देंगी। ये तो सब स्वप्न जैसी बातें हैं। जैसे स्वप्न में देखी हुई बातें सच होती हैं, जगने पर पता चलता है ओह ! वह तो सब झूठ था, ऐसे ही मोह के स्वप्न में सारी बातें यहाँ सच हो रही हैं यह मेरी स्त्री है, यह मेरा वैभव है, ये मेरे परिजन हैं, पर जब ज्ञान जगता है तो ये सारी बातें झूठ मालूम पड़ने लगती हैं। अज्ञान अवस्था में यह मानता था कि यह मेरा वैभव है, ये मेरे परिजन हैं इत्यादि। पर जब ज्ञान जगा, अज्ञान निद्रा का भंग हुआ तो वस्तु के स्वरूप का यथार्थ परिचय हो जाता है। ओह ! यह मैं अनादि काल से ऐसी भूल ही भूल करता चला आया। यह सब झूठ है। तो सम्यग्ज्ञान में यह चमत्कार है कि मोह को मिटा दे। मोह न रहे तो समझो कि हम धर्मपालन कर रहे हैं।
वस्तुस्वरूप के यथार्थ प्रतिपादन का ध्येय―इस ग्रंथ के रचयिता पूज्य श्रीमत्कुंदकुंदाचार्य देव ने आत्मपवित्रता व जीवलोक पर करुणा के ध्येय से ऐसे ग्रंथ को रचा है अत: इस ग्रंथ में पदार्थों के स्वरूप का व्याख्यान किया गया है क्योंकि समस्त दु:खों के दूर होने के उपाय में यह सर्वप्रथम आवश्यक है कि हम पदार्थों का स्वरूप ठीक-ठीक जान लें। जितने भी क्लेश हैं वे सब मोह के हैं। मोह का अर्थ है एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ से संबंध मानना। संबंध मानने की कल्पना ही तब मिट सकती है जब यह ध्यान आ जाय कि किसी पदार्थ का दूसरे पदार्थ से कोई संबंध नहीं है और वास्तव में प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में है। इस कारण किसी का किसी अन्य से संबंध है ही नहीं। इस बात का परिज्ञान हो तो मोह मिटे। मोह मिटे तो क्लेश मिटे। इस कारण इस ग्रंथ में पदार्थों की व्याख्या की जावेगी।
सम्यक् व्याख्यान में निश्चय व व्यवहार का प्रवेश―यह व्याख्या दो नय के आधीन रहेगी। निश्चयनय और व्यवहारनय, क्योंकि दोनों नयों के आधार से किया हुआ व्याख्यान ही सम्यग्ज्ञान की निर्मल ज्योति को विकसित करने में समर्थ है। जैसे इस देह में विराजमान भी आत्मा को यह आत्मा है, यों केवल आत्मा को ही निरखना सो तो निश्चय का काम है और देह का आत्मा का संबंध देखना व्यवहार का काम है। अच्छा यह बताओ कि यह मेरा आत्मा देह के बंधन में है या नहीं। अब इसका उत्तर जानने के लिए दोनों नयों का आश्रय करना होगा। यदि हम निश्चय करके एकांत करके यह जान लें कि आत्मा में आत्मा है, आत्मा देह में नहीं है। यद्यपि यह बात सही है आत्मा अपने स्वरूप में है देह में नहीं है। फिर भी एकांत मान लिया जाये कि किसी भी प्रकार इस आत्मा का देह से संबंध नहीं है तो यह बात सत्य न होगी, क्योंकि यह आत्मा देह में बंधा है, देह से बाहर कहीं जा नहीं पा रहा है। देह को छोड़कर आगे भी जायगा तो किसी देह में बंधेगा और सुख दु:ख कल्पनाजाल जितने भी क्लेश हैं वे सब इस देह के संबंध से हैं, तो देह के बंधन से कैसे मुकरा जाय। अथवा अब यही मान लिया पहिले से ही सर्वथा कि मैं देह से सर्वथा ही न्यारा हूं तो अब मोक्ष की क्या अटकी है? जब यह बंधन में है ही नहीं तो मोक्ष किसका कराना है और मोक्षमार्ग भी क्या हुआ? इस कारण मात्र व्यवहार से या मात्र निश्चय के आश्रय से किया हुआ व्याख्यान सम्यग्ज्ञान का निर्मल प्रकाश नहीं फैला सकता है। केवल व्यवहारनय का आश्रय करके इस संबंध में यह जाना जायगा कि यह आत्मा देह में बंधा है, देह में बद्ध है, और साक्षात् करके यह मान लिया जाय कि आत्मा देह में फंसा ही है इसके विपरीत, जैसा कि आत्मा स्वतंत्र है अपने स्वरूप में है, न माना जाय तो इस परिचय में भी मुक्ति का मार्ग नहीं मिल सकता है। यह मैं आत्मा तो देह से बंधा हूं, देह के परतंत्र हूं, देह जो कराये सो करना पड़ता है तो इस परतंत्रता के भाव में मुक्ति का उत्साह कहां रहा। जिसे मुक्त करना है, जब तक उसकी असलियत न जान ली जाय, उसका एकत्व न परिचय में आये तो मुक्ति कैसे मिल सकती है। तो इस ग्रंथ में सम्यग्ज्ञान के निर्मल प्रकाश को उत्पन्न करने वाला व्याख्यान दो नयों के आश्रय से किया जायगा।
समय का स्वरूप―पदार्थ का नाम समय है। समय के मायने समस्त पदार्थ। लोकरूढ़ि से समय का अर्थ काल कहा गया है, पर समय का शब्दार्थ क्या है। सम् अय। सम् उपसर्ग है, अय धातु है। सम् एकत्वेन अयते गच्छति परिणमते इति समय:। जो अपने आपमें अपने एकत्वरूप से परिणमा करे उसे समय कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ अपना-अपना भिन्न-भिन्न अस्तिकाय लिये हुए है, और सभी पदार्थ केवल अपने में अपना परिणमन करते हैं। जैसे मानों दो भाइयों में बड़ा स्नेह है तो वहाँ यह नहीं हो सकता कि किसी एक भाई का स्नेह दूसरे भाई में पहुंच गया हो। वे दोनों अपनी-अपनी जगह में रहकर अपने ही स्वरूप में बसकर कल्पना जगाकर अपने में स्नेह परिणमन कर रहे हैं। कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ में अपना परिणमन नहीं करता है। प्रत्येक पदार्थ अपने ही एक स्वरूप में परिणमा करता है, अतएव पदार्थ का नाम समय है।
शब्दभेद की विलक्षणता―भैया ! जितने शब्द होते हैं उतने ही उसमें अर्थ हैं। भले ही अनेक शब्द एक ही पदार्थ के वाचक हों लेकिन शब्द भेद जितने हैं उतनी ही विशेषताओं से पदार्थ को देखा जाता है। जैसे मनुष्य, मानव, जन अनेक नाम है एक आदमी के वाचक, पर जो कम दिमाग के हैं उनको मनुष्य न कहेंगे। मनुष्य उसे कहेंगे जो उत्कृष्ट मन वाला हो। जो मन से बड़ी-बड़ी समस्यायें हल कर सके उसका नाम है मनुष्य। मानव मनु की संतान को कहते। एक साधारण बात आयी है कि पूर्वकाल में जो 14 मनु हुए हैं उनके बीच में जो थे, उनकी परंपरा से हम आप है। जन कहो इसका अर्थ इतना ही है जो जन्मे पैदा हो चाहे धनी हो, गरीब हो, मूर्ख हो, सब कहलाते हैं। एक ही आदमी के वाचक अनेक शब्द हैं, पर वे अपना भिन्न–भिन्न अर्थ रखते हैं। ऐसे ही पदार्थ के वाचक शब्द अनेक हैं पदार्थ, द्रव्य, वस्तु, समय, सत्। जितने भी नाम हैं उन सब नामों का जुदा-जुदा प्रकाश मिलता है। पदार्थ का अर्थ इतना ही है जो पद है उसका वाच्य, वह है पदार्थ। वस्तु का अर्थ है जिसमें गुण बसे हों अथवा जिसमें अर्थक्रिया होती हो। जैसे गाय वस्तु है, गाय से दूध मिलता है, अर्थक्रिया होती है, और गाय जाति वस्तु नहीं है। वह अनेक वस्तुभूत गायों के समुदाय में कल्पना किया हुआ शब्द है। जाति से काम नहीं निकलता। काम निकलता है व्यक्ति से, वस्तु से। जिसमें अर्थक्रिया हो उसे वस्तु कहते हैं। द्रव्य का अर्थ है जो भूत काल में अपनी पर्यायों को प्राप्त करता रहे, आगे करता रहेगा, वर्तमान में पर्यायों को प्राप्त कर रहा है उसे द्रव्य कहते हैं। द्रव्य शब्द से एक त्रैकालिक पर्यायों रूप सत् है यह विशेषता ज्ञात हुई। यहाँ समय शब्द कहा जा रहा है। इसकी यह विशेषता है कि यह शब्द बतलाता है कि प्रत्येक पदार्थ अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में रहता हुआ अपने में ही परिणमा करता है किसी दूसरे में नहीं।
कल्याण में सम्यग्ज्ञान का नेतृत्व―भव्य जीवों का उत्कृष्ट होनहार सम्यग्ज्ञान में है। सब कुछ मिल जाय वैभव धन संपदा परिवार इष्टजन यश और एक आत्मा में सच्चा ज्ञान न जगे तो उसका सब कुछ पाना व्यर्थ है। यह कितने दिनों का मौज है। फिर वही संसार का भटकना, अब भी वही भटकना। शांति न उसे इस समय है न अगले समय में है। कोई बालक युवक पुरुष अच्छे काम में रहा करे, भगवान की भक्ति की ओर ध्यान रहे, साधुसेवा में चित्त रहे, परोपकार आदिक में भावना बनी रहे, धर्मकार्य में उत्साह रहे तो ऐसा जो उसका सत् आचरण की ओर झुकना है यह झुकाव करोड़ों और अरबों की संपत्ति से बढ़कर भी संपदा है। कोई बहुत बड़ा संपन्न हो और उसका झुकाव व्यसनों की ओर हो तो उसका जीवन चिंतामग्न हुआ करता है। व्यसनों में परजीवों से संबंध जोड़ना पड़ता है और परजीव अपने आधीन है नहीं, वह अपनी कषाय के अनुसार अपना परिणमन करता है तब यहाँ मन के अनुकूल बात न होने पर व्यग्रता रहा करती है। अच्छे विचार बनाना, अच्छी ओर झुकाव रहना यह बहुत बड़ा वैभव है। वैभव का फल लोग शांति ही तो चाहते हैं, पर शांति ज्ञान के अनुसार होती है। आनंद का संबंध धन में नहीं है धन विशेष हो तो आनंद मिले ऐसा नियम नहीं है, किंतु आनंद ज्ञान के ही आश्रित है। हम जैसी कल्पना करें, ज्ञान बनाए उस आधार पर सुख दु:ख अथवा आनंद होता है। समय शब्द इस बात का प्रकाश देता है कि तुम समस्त पदार्थों को स्वतंत्र निरखो। ये सभी पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में एकत्व में रहा करते है। ऐसे इस समय की व्याख्या इस ग्रंथ में की जायगी जिससे मोह दूर हो, परद्रव्यों से उपेक्षा हो, ज्ञानमात्र निज अंतस्तत्त्व का आलंबन हो।
ग्रंथ के प्रथम अधिकार में―इस ग्रंथ में तीन अधिकार किए जायेंगे। प्रथम अधिकार में अस्तिकायों अथवा 6 द्रव्यों के रूप से मूल पदार्थों का वर्णन चलेगा। मोही जन मूल पदार्थों से अपरिचित रहते हैं और जो परिणमन है साफ है उससे यों परिचित रहते हैं कि यही सब कुछ है। जिसे मूल बात का परिचय हो उसके विवाद और व्यामोह नहीं रहता। जैसे लोक और समाज पद्धति में ही इस बात को देखो कोई सा भी विवाद या झगड़े का साधन हो, व्यवस्था प्रबंध समारोह आदि का साधन हो और उस प्रसंग में मूल बात का ठीक निर्णय रहे तो विवाद नहीं हो सकता। जैसे हम आप सब लोग मिलकर एक धर्मपरंपरा बना रहे, यदि यह भान रहे कि हम लोग तो तीर्थंकर भगवान के एक छोटे-छोटे मुनीम लोग हैं, क्लर्क लोग हैं हम कोई अधिकारी नहीं हैं, जैसे कि कुछ कमेटी के रूप में अधिकारी के रूप में और उसी समय में हठ बन जाती है, अपने विजय के थापने की जिद्द हो जाती है, सबकी बात टालकर अपनी ही बात रखने की मन में आती है। ये सब क्यों आते हैं? मूल बात को भूल गए। अरे काम तो इतना ही है कि जिस प्रकार हो वस्तुस्वरूप के यथार्थ प्रतिपादन करने वाले इस जैनशासन की लोक में ज्योति आये, लोग समझें, हमारा कल्याण तत्त्वज्ञान में है, इसके ही लिये तो हम आपने यह परंपरा बनायी है।
अवैयक्तिक कार्य में कार्य की प्रधानता―हम आपका कोई महत्त्व है क्या इस पर्याय के रूप में? जैसे कोई सरकारी काम किया जाता है तो उसमें काम करने वाले अफसर लोग क्लर्क लोग सबको अपनी करतूत की हठ नहीं होती है कि मैंने कहा इसलिये ऐसा होगा। यदि कोई हठ करे तो वह उस कार्य का कर्ता नहीं है। वह तो यह जानता है कि मैं अलग से कुछ चीज नहीं हूं, सरकार है सरकार का काम है। मुझ जैसे अनेकों हैं काम चलाना है। ऐसे ही हम आप सोचें कि हम आपका अलग से इस मामले में कोई अस्तित्त्व नहीं है। जब णमोकार मंत्र में भी तीर्थंकरों का नाम नहीं है जिनकी हम आराधना करते हैं उनके व्यक्तित्व का भी जब कोई स्थान नहीं है और हम और आप जरा-जरासी बातों में अपने व्यक्तित्व की हठ पकड़ जायें तो समझिये कि कितना पद से विमुख चल रहे हैं। मूल तत्त्व का बोध न होने से अनेक विसम्वाद हो जाते हैं। इस ग्रंथ के प्रथम अधिकार में अस्तिकाय अथवा 6 द्रव्यों के रूप से मूल पदार्थों का वर्णन किया जायगा।
ग्रंथ के द्वितीय व तृतीय अधिकार में―जब मूल पदार्थ विदित हो जायगा यथार्थतया, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये 6 प्रकार के द्रव्य हैं। इनमें जीव तो जीव है और शेष अजीव है तब दूसरे अधिकार में जीव और अजीव इन दोनों पदार्थों के पर्यायरूप से 9 पदार्थों की व्याख्या विदित हो गयी तो उस मार्ग पर चलेंगे जिससे यह उत्कृष्ट मोक्ष का लाभ हो सके। मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत 7 तत्त्वों का परिज्ञान करके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप आत्मपरिणमन के मार्ग से यह कल्याणमय मोक्ष प्राप्त होगा। उसकी और प्रतिपादित समस्त विषयों की चूलिकाओं में यह वर्णन चलेगा।
मूल उपदेष्टा की लोकोत्तरता―अपूर्व कल्याणकारी महान् वक्तव्य को प्रारंभ करने से पहिले कुंदकुंदाचार्य देव मंगलाचरण में कह रहे हैं कि शत इंद्रों से वंदनीय और तीन लोक का हित करने वाले, मधुर स्पष्ट जिनका उपदेश हैं तथा जो अनंत गुणों के पुंज हैं, जिन्होंने इस संसार को जीता है उन जिनेंद्र भगवान को मैं नमस्कार करता हूं। आज भी जितना यह परमागम है इसका मूल स्रोत जिनेंद्र देव हैं। पाणिनीय व्याकरण में सबसे पहिले यह बताया है कि इस व्याख्या की रचना और उद्भव के मूल ये 14 सूत्र है अ इ उ ण् ऋ ल क् आदि। ये 14 सूत्र महादेव के डमरू से निकले ऐसा उनका कहना है। उससे यह बात प्रकट हुई है कि कोई मनुष्य अपने मुख से बात कहे और उससे पहले कोई स्रोत न हो तो मुख से कही हुई बात प्रामाणिक नहीं होती। कोई प्राकृतिक विलक्षण प्रामाणिक ढंग से बात हो, फिर उसके आधार से मुख से कितने ही बार उसको लोग बोलें, ठीक है वह सब प्रामाणिक हैं। 14 सूत्रों को महेश्वर के डमरू से निकला बताया गया है। अब जरा परमागम की ओर दृष्टि दो जिससे ये समस्त निष्पक्ष वीतराग मार्ग का प्रकाश करने वाला जो कुछ शास्त्र का समूह है इसका मूल में आने का स्रोत क्या था? तो वह है जिनेंद्र देव की दिव्य ध्वनि। ये जिनेंद्र देव वीतराग, इंद्रवंद्य, अनंतज्ञानी व हितोपदेशी है।
उपदेश की प्रामाणिकता―कोई पुरुष यों ही बोलकर उपदेश शुरू करे और उससे पहिले उपदेश का और कोई विलक्षण स्रोत न हो तो उसमें प्रामाणिकता नहीं आती। जिनेंद्र देव चार घातिया कर्मों से रहित वीतराग निष्कषाय केवलज्ञान से सर्व लोकालोक को जानने वाले हैं। साथ ही उन्होंने साधु अवस्था में या इससे पहिले जो संसार के प्राणियों के उद्धार की भावना की थी उससे जो पुण्यबंध हुआ था उसकी प्रेरणा से और भव्य जीवों के सौभाग्य से जिनेंद्र देव के सर्व अंगों से एक ऐसी विशिष्ट ध्वनि निकलती है कि उस ध्वनि को झेलने वाले सर्वोत्कृष्ट लोक के ज्ञानी गणधर देव ही झेलते हैं, और उस परंपरा से चला आया हुआ जो यह उपदेश है यह निर्बाध रहता है। इसी कारण मंगलाचरण में ऐसे उपदेष्टा जिनेंद्रदेव को प्रथम नमस्कार किया है और चार विशेषण देकर उनकी प्रामाणिकता जाहिर की है। शत इंद्रों द्वारा वंदनीय भगवान जिनेंद्रदेव का उपदेश हितकारी है। उनमें अनंत गुण हैं और उन्होंने संसार पर विजय प्राप्त कर ली है ऐसे जिनेंद्रदेव को नमस्कार हो।
अनादिनियोग―अनादि से चले आ रहे शत इंद्रों द्वारा वंदनीय, अनादि से चले आ रहे जिनेंद्रदेव को हमारा शत-शत नमस्कार हो। इस लोक में धर्म और अधर्म सभी प्रकार का प्रवर्तन अनादि काल से चला आ रहा है, यह संसारी जीव जैसे मोह मद आदि कलुषित आशयों से परिणमते चले आ रहे हैं ऐसे ही धर्मात्माजन धार्मिक मार्ग के नेता ये भी अनादि काल से चले आ रहे हैं, संसार अनादि काल से चला आ रहा है। तीर्थंकर प्रभु भी अनादि काल से होते चले आ रहे हैं, और उन तीर्थंकर भगवंतों का विनय करने वाले इंद्रादिक देव भी अनादि से ही इनकी पूजा करते चले आ रहे हैं। वस्तुधर्म जैनधर्म अथवा आत्मधर्म कहो, वह भी अनादि काल से चला आ रहा है।
धर्म और धर्मनेता की परंपरा―धर्म नाम है स्वभाव का। पदार्थ में जो स्वभाव है उस स्वभाव का नाम धर्म है, और उस स्वभाव मात्र वस्तु को जानने का नाम है धर्मपालन। ऐसा धर्म कब से चला आ रहा है। वस्तु अनादि से है और इस धर्म का पालन भी अनादि से चला आ रहा है। यह जिनेंद्रदेव यह व्यक्तिगत नहीं है, किंतु जो रागद्वेष मोह को जीते सो जिन है। ये जिन अनादिकाल से चले आ रहे हैं और ये इंद्र जो कि इनकी वंदना करते हैं वे भी अनादिकाल से प्रवर्तमान परंपरा में चले आ रहे हैं। इस गाथा में जो इंदसदवंदियाणं विशेषण दिया है जिनेंद्रदेव का, उसमें इतना ही जानना कि सदा काल अनादि से अनंत काल तक जीवों के देवाधिदेव ये जिनेंद्र देव हैं, और इनको सभी इंद्र साधारण रूप से विशेष रूप से नमस्कार करते हैं और ये समस्त लोक के द्वारा नमस्कार किये जाने योग्य हैं।
भगवत्तत्त्व―अभी नाम तो लो नहीं किसी भगवान का, किंतु भगवान की विशेषता व स्वरूप ही बताते जावो तो सब लोगों को रुच जायगी वह विशेषता और जहां किसी भगवान का नाम ले लिया महावीर ऋषभदेव आदि, तो कुछ तो पक्ष में रहेंगे जो उनके मानने वाले हैं, बाकी सब हट जायेंगे। यह तो एक मजहब की बात है। जरा नाम तो लीजिए नहीं कुछ, किंतु बताते जाइये हमारे आदर्श वे हैं, जिनमें रंच भी रागद्वेष मोह नहीं रहा और जिनके ज्ञान इतना विराज रहा है कि समस्त विश्व को एक साथ जानते हैं। जो शुद्ध विकासरूप हैं, परम ज्योतिस्वरूप हैं, अनंत आनंदमय है ऐसा भगवान हम लोगों का आदर्श है पूज्य है उसकी भक्ति से ही सारे संकट टलते हैं। सब लोग बड़े प्रेम से सुनेंगे और इनकी ओर भक्ति जगेगी। अच्छा नाम तो लीजिए नहीं और वर्णन करते जाइये हमारा भगवान बड़ा खिलाड़ी है, अनेक स्त्रियों में रमता है और रस रसायन चुरा-चुराकर खूब मस्त होकर खाता है नाम न लीजिए किंतु केवल बात ही बतावो तो उसे सुनना लोग पसंद न करेंगे। तो जो गुणविकास है, जो निर्दोषता है वह उपासनीय है और ऐसा उपास्य देव ही वास्तव में देवाधिदेव है, असाधारण है, नमस्कार के योग्य है।
सत्य की अमिट सत्यता―जो तत्त्व उपास्य है उसका नाम तो कुछ रखना पड़ेगा। शरीर का नाम नहीं, ऋषभ, महावीर, राम, हनुमान ये नहीं फिर भी कुछ तो कहना पड़ेगा। प्रभु कहो, भगवान कहो, जिन कहो। कुछ-कुछ शब्द तो बोले जायेंगे। अब पक्ष में आकर उन ही शब्दों को कोई रागद्वेष में ढाल दे तो उसका इलाज क्या। प्रभु का अर्थ क्या है? जो उत्कृष्ट रूप से हो उसे प्रभु कहते हैं। प्र उपसर्ग है भू धातु है। जो उत्तम विकासरूप से है, चरम विकासमय है उसका नाम प्रभु है। अब प्रभु किसी का नाम नहीं हुआ। भगवान का अर्थ ज्ञानवान है जो उत्कृष्ट ज्ञान वाला हो उसे भगवान कहते हैं। यह कुछ व्यक्ति का नाम नहीं हुआ। जिन किसे कहते हैं? जो रागद्वेष मोह को नष्ट कर डाले उसका नाम जिन है। जिन किसी व्यक्ति का नाम तो नहीं हुआ, और जो रागद्वेष मोह को जीत चुका उस जिन ने जो मार्ग बताया उसका नाम है जिन मार्ग, जिनधर्म, इसमें भी कोई व्यक्ति का नाम नहीं हैं, किंतु ऐसा साधारण भी मार्ग किसी नाम से तो पुकारा ही जायगा, पर उसे एक विशिष्ट समूह वाला मान बैठें कोई तो यह सब मोह का ही विलास है।
वीतरागता, सर्वज्ञता व हितोपदेशिता―यह प्रभु, यह जिनेंद्र, यह रागद्वेष मोह के विजय का उपाय और ये रागद्वेष के जीतने वाले अनादि काल से होते चले आ रहे हैं। ये देवाधिदेव ही असाधारण नमस्कार के योग्य हैं। जिनेंद्रदेव में तीन विशेषताएं संक्षेप रूप से बतायी गयी हैं। वे वीतराग हैं, सर्वज्ञ हैं और हितोपदेशी हैं याने निर्दोष हैं, पूर्ण गुणसंपन्न हैं और हित का मार्ग बताने वाले हैं। इस ही आधार पर णमोकार मंत्र में सर्वोत्कृष्ट परमेष्ठी सिद्ध भगवान से भी पहले णमो अरिहंताणं कहकर अरहंतों का स्मरण किया है। प्रभु समस्त जीवलोक के लिए समस्त संसारी प्राणियों के लिए आत्मतत्त्व की प्राप्ति का उपाय बताते हैं इसलिए वे हितोपदेशी है।
उपदेश की सार्वता―प्रभु का उपदेश एक शुद्ध आत्मतत्त्व की प्राप्ति कराने के लिए है। तीन लोक के समस्त ऊर्ध्व लोक में देवता जन हैं, मध्य लोक में तिर्यंच और मनुष्य हैं, अधोलोक में भवनवासी व व्यंतरदेव तथा और नीचे नारकी जीव हैं। इन समस्त जीवों के लिए इनके भले के लिए बाधा रहित ज्ञानस्वरूप मात्र आत्मतत्त्व का उपदेश किया है। देवता लोग तो समवशरण में आकर भगवान की दिव्यध्वनि का उपदेश सुनते हैं। नारकी जीवों को यहाँ के जीव जाकर, जिन नारकियों से स्नेह है और जिस देव को उसके उद्धार की वांछा है तो वह जाकर सुनाता है। यों प्रभु का उपदेश समस्त जीवों के हित के लिये है और वह उपदेश मधुर है। जो परमार्थ तत्त्व के रसिया हैं जिन्हें विकल्प परिहार करके निर्विकल्प निज ज्ञानस्वरूप की दृष्टि में सहज आनंद आता है उन पारमार्थिक रसिक पुरुषों के मन को हरण करने वाले वचन हैं, इस कारण प्रभु का वचन मधुर है, साथ ही उनके वचन अत्यंत विशद हैं, स्पष्ट हैं, उसमें शंका आदिक कोई दोष का स्वभाव नहीं है।
भगवद्वाणी की चरम गंभीरता―भगवान का वचन हम आप लोगों की तरह किसी पुरुष का लक्ष्य रखकर और किसी एक प्रकरण को क्रम में रखकर नहीं होता है। इस प्रकार के व्याख्यान तो जिसके कुछ न कुछ राग हो वही कर सकता है। किसी की बात सुनना और उसके प्रश्न का उत्तर देना यह राग बिना संभव नहीं है। भला राग है, धर्म का अनुराग है, पर राग का कुछ अंश हो तब उसके प्रश्नोत्तर हो पाते हैं और तब ही वचन विन्यास करके शब्द वर्ण का क्रम बनाकर बोला जाता है। प्रभु अरहंतदेव वीतराग और सर्वज्ञ हैं। उनके अब मन भी नहीं रहा। भले ही शरीर में द्रव्यमन रहे, किंतु केवलज्ञान होने पर केवलज्ञान के द्वारा समस्त विश्व को एक साथ स्पष्ट जानते हैं। मन का भी काम नहीं होता। तब उनके तो उपदेश देने की भी इच्छा नहीं है। वह उपदेश देना नहीं चाहते। इस संबंध में कोई विकल्प ही नहीं है, पर तीर्थंकर प्रभु ने पहिले समय में पूर्व जन्म में या पूर्व काल के संसार के समस्त प्राणियों के उद्धार की वांछा की थी, इन प्राणियों को अपने आपके स्वरूप का बोध हो और संसार के समस्त संकटों से ये दूर हो जायें ऐसी जो निरंतर वांछा बनायी थी उसमें इन्हें विशिष्ट पुण्यप्रकृति का बंध हुआ था। जो दूसरों के उपकार की इच्छा रखता है उसके पुण्य का बंध होता है, यों समझ लीजिए कि जो दूसरों के उपकार का आशय रखता है उसकी महिमा फैलती है। समस्त जन उससे स्नेह करते हैं, उसका आदर करते हैं, यही तो पुण्य हुआ। तो प्रभु के ऐसा विशिष्ट पुण्य का उदय हुआ था कि अब वीतराग होने पर भी उस पुण्यप्रकृति के उदय से उनके समस्त शरीर से मुख से भी एक मधुर कर्णप्रिय ध्वनि निकलती है और उस ध्वनि को सुनकर लोग अपनी-अपनी भाषा में अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार धर्मतत्त्व का ज्ञान करते हैं, तिर्यंच भी तो तत्त्वज्ञान कर लेते हैं दिव्यध्वनि को सुनकर और मनुष्यों में चाहे वे किसी भी भाषा को बोलने वाले हों दिव्य ध्वनि को सुनकर अपनी योग्यतानुसार उसकी महिमा और मर्म पा लेते हैं। प्रभु के वचन तो मधुर हैं।
मधुरता व हितकरता का समन्वय―देखिये हम आप लोगों को आज के पाये हुए ठाठबाठ समागम या प्रेमी जनों से वार्तालाप इनमें ही समय न खोना चाहिये। यह वार्तालाप हितरूप नहीं है और वास्तव में मधुर भी नहीं है, कड़वा है। कोई ऐसी औषधि हो कि खाते समय तो मीठी लगे पर थोड़ी देर बाद मुंह कड़वा हो जाये, ऐसे ही जानों कि ये सांसारिक सुख हैं। यह प्रेमी जनों से जो वार्तालाप होता है प्रेम का परस्पर वार्तालाप होता है प्रेम का परस्पर आदान प्रदान होता है ये सब कटु चीजें हैं, मधुर नहीं हैं। कुछ काल को तो भले ही सबको प्रिय लगती है। किंतु इनका परिणाम कठोर है। इस ही भव में अनेक घटनायें भोगनी पड़ती है और परभव में भी इस प्रीति के कारण यातनायें भोगनी पड़ती है। ये वचन हितकर नहीं हैं किंतु प्रभु के वचन जो निष्पक्ष है, प्रकृति की प्रेरणा से उत्पन्न हुये हैं, भव्य जीवों के भाग्य से हुये हैं वे वचन मधुर हैं। उनके तो दिव्यध्वनि है। जो सर्वसाधारण के नहीं पाया जाता है। उनके वचन समग्र वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन करने वाले हैं।
वस्तुस्वरूप का वर्णन―जैन मार्ग में किसी की ओर से कोई विधान नहीं बनाया गया, किंतु वस्तुवों में जो बात, जो स्वरूप पाया जाता है उसका प्रतिपादन है, और कहो यह आत्मा अपने इस आत्मस्वरूप में आ जाये, मग्न हो जाय परम समाधि प्राप्त हो जाय उसके उपाय में पर की अपेक्षा और निज का आलंबन जैसे बने उस विधि का वर्णन है। यहाँ पक्ष का तो कहीं रंच भी नाम नहीं है, किसी भी मनुष्य को यथार्थ मार्ग बतावो, समझावो सबको रुचेगा, अरुचिकर कोई बात ही नहीं है, और साथ ही शंका संदेह उत्पन्न करने वाली भी कोई बात नहीं है। ऐसा हितकारी निर्मल स्पष्ट जिसका उपदेश है ऐसे जिनेंद्रदेव को भक्तिपूर्वक नमस्कार हो।
आत्मतत्त्व के नाते शांति का प्रयत्न―हम आप आत्मा हैं, हम आपको शांति चाहिए, तो आत्मा के ही नाते से शांति के मार्ग में हमारा प्रयत्न हो इस दिशा में कोई विवेकी अपने उपयोग का कदम बढ़ाये तो वह यथार्थ स्वरूप का ग्रहण करके रहेगा। जहां मूल में ही यह आशय बनी हो कि मैं अमुक मजहब का हूं, अमुक कुल का हूं, अमुक धर्म का हूं उसको अब आत्मा से नाता नहीं रहा, पर्याय से नाता हो गया, और पर्याय का नाता रखकर ऐसा निष्पक्ष जैन धर्म भी पाये तो भी वह लाभ नहीं उठा सकता। आत्मा का नाता रखकर चाहे कोई किसी भी कुल धर्म मजहब में उत्पन्न हुआ हो वह संतोष मार्ग को आखिर ग्रहण करके ही रहेगा। जिन्हें कल्याण की वांछा है उनका यह कर्तव्य है कि पर्याय के नाते को भुला दें, धर्म ग्रहण करने की प्रतीति में और आत्मा का ही नाता लगाकर उसमें बढ़ें।
अनंत गुणमयता―ये प्रभु जो आत्मकल्याण पा चुके हैं ये अनंत गुणमय हैं, इनके गुणों का अंत नहीं आ सकता। कैसा है इनका चैतन्यस्वभाव। यह शुद्ध ज्ञानप्रकाश चैतन्य शक्ति का विलास किसी क्षेत्र की सीमा को नहीं रखता। यह ज्ञान यहाँ तक ही जाने इससे आगे न जाने ऐसी सीमा भगवान के ज्ञान में नहीं है। जहां कर्म, शरीर, इंद्रियां इन सबका अभाव हो गया और जो केवल ज्ञानस्वरूप रह गया। ज्ञान का काम निरंतर जानते रहने का है। तो उस ज्ञान में यह सीमा कौन डालेगा कि यह केवलज्ञान यह ज्ञानप्रकाश सिर्फ इतने क्षेत्र तक जानेगा आगे न जानेगा ऐसी सीमा हो ही नहीं सकती ज्ञान में। हम आप लोगों के जो ज्ञान की सीमा बनी हुई है, इतनी दूर तक की देखें सुने, जाने यह सीमा ज्ञान के नाते से नहीं बनी है, किंतु ज्ञान में बाधा डालने वाले जो रागद्वेष हैं उनके कारण बनी है। प्रभु के ज्ञान में क्षेत्र की सीमा नहीं है। प्रभु के ज्ञान में काल की भी सीमा नहीं है, जैसे हम आप लोग गुजरे हुए समय की कितने दिन की बात जानें इसकी सीमा है। किसी का ज्ञान विशिष्ट है वह 18, 20 वर्ष की जानता कोई दो वर्ष की जानता, कोई पिछले वर्ष की भी भूल जाता। हमारे आपके ज्ञान में समय की सीमा है क्योंकि रागद्वेषमय वांछाएं हैं, उसमें उपयोग चला जाने से यह ज्ञान शुद्ध विकास में नहीं रहता है। यह औपाधिक भावों का आवरण है, अत: हम आपके ज्ञान की कला की सीमा लग गयी है लेकिन प्रभु के ज्ञान में समय की सीमा नहीं है।
असीम ज्ञातृत्व―ज्ञान का काम जानना है और जानना सत् पदार्थों का होता है। जो भी सत् हो वह जिस प्रकार भी पहिले रहा हो, जिस प्रकार आगे रहेगा, जिस प्रकार वर्तमान में रह रहा है उस सबका संपूर्ण ज्ञान एक झलक में जान लेता है। इससे पहिले की बात जाने, इससे और पहिले की बात न जाने ऐसी सीमा केवलज्ञान में नहीं होती है। यह काल सीमा से भी परे है, यों उत्कृष्ट चैतन्यशक्ति का उत्कृष्ट विकास किसमें है और इस ही प्रकार आनंद दर्शन शक्ति समग्र गुण असीम विकसित हो गए हैं, ऐसे जिनेंद्रदेव को यहाँ नमस्कार किया है। देखिये कितनी निर्मल दृष्टि लगी है प्रभु भजन में। कोई व्यक्ति भी नहीं देखा जा रहा है, किंतु एक शुद्ध ब्रह्म विकास ही निरखा जा रहा है। जो परिपूर्ण ब्रह्म विकास है वह हमारा प्रभु है। इन लगन को प्रभुभक्ति में लगायें।
प्रभुभक्ति का जयवाद―अब आजकल जैन शब्द संकुचित बन गया है। चीज वही है जो जिनेंद्र का स्वरूप बताया जा रहा है, और हम भी वही हैं जिसे जैन कहकर पुकारा जा रहा है, पर हम किसी भी शब्द का आलंबन न लें, अपने आपको जैन हैं इसका भी विकल्प त्याग दें और निरखें अपने आपमें कि यह मैं ज्ञानपुंज आत्मा हूं और मेरा आदर्श मेरा सुधार ज्ञानपुंज है यों यह ज्ञान की भक्ति करता है। और इस प्रकार वह देव और यह भक्त कितना निकट आ जाता है। ऐसी भक्ति लोक में जयवंत हो। यह प्रभु परम अद्भुत ज्ञान के विकास वाला है अत: योगियों के द्वारा भी वंदनीय ये हैं ऐसे देवेंद्र योगींद्र नरेंद्र सभी के द्वारा वंदनीय ये जिनेंद्रदेव हैं इनकी उपासना के प्रसाद से भव-भव के पाप कट जाते हैं, अपने आपमें निर्मलता प्रकट हो जाती है। यह सब चिंता शोक का बोझ समाप्त हो जाता है। श्री कुंदकुंदाचार्य देव इस ग्रंथ रचना के प्रारंभ में मंगलाचार में ऐसे निर्दोष सर्वगुणसंपन्न जिनेंद्रदेव को नमस्कार कर रहे हैं।
जितभवता―कुंदकुंदाचार्यदेव मंगलाचरण में जिनेंद्रदेव को नमस्कार करते हुए अंतिम विशेषण कह रहे हैं यह जिनेंद्र जितभव हैं। जिसने यह संसार को जीत लिया है, जन्म मरण रूप भव को विनष्ट कर दिया है वह जितभव कहलाता है। करने योग्य कार्य केवल शुद्ध ज्ञाता द्रष्टा रहने का है। यह कार्य ये कर चुके हैं। शुद्ध ज्ञाता द्रष्टा निरंतर रहा करते हैं। तो जो कृतकृत्य रह गया हो उसका ही तो शरण अकृतकृत्यपने को व्यक्त हो सकता है। हम आप संसारी प्राणी अकृतकृत्य हैं। जो करने योग्य कार्य हैं उसे नहीं कर पाये हैं। ऐसे जीवों का शरण जो कृतकृत्य हो वही हो सकता है। जो जितभव हो, कृतकृत्य हो उसको एक इस दृष्टि से देखो, इन्होंने वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान पाया और उस शुद्ध ज्ञान का ही उपयोग बनाया इससे ये कृतकृत्य हुए हैं।
स्वतंत्रता का निर्णय―प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है, सहज स्वरूप में यह ज्ञायकस्वरूप, यह पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और यह कालाणु है, ये सब अपने स्वरूप से हैं और पर के स्वरूप से नहीं हैं। ये प्रत्येक पदार्थ अपने आपके कर्ता हैं, किसी पर के कर्ता नहीं हैं। प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप के स्वामी हैं, किसी पर के स्वामी नहीं हैं, ऐसी यथार्थ ज्ञानदृष्टि के बल से जिसके यह निर्णय और पुरुषार्थ बन गया है अब उसे किस भी पर पदार्थ में कुछ काम करने को पड़ा ही नहीं है। जहां यह दृष्टि बनी ऐसा निर्णय बनाया कि मैं तो केवल अपने में अपना परिणमन किया करता हूं। मुझे पर में कुछ करना योग्य है ही नहीं। बस यही कृतकृत्य बनने का एक मूल साधन है। जो पुरुष इस ज्ञान की कृतकृत्यता के प्रसाद से यथार्थ कृतकृत्य हो गए हैं वे प्रभु ही संसारी प्राणियों के लिए शरण कहे गए हैं।
इंदसदवंदियाण―यों ग्रंथकर्ता ने जिनेंद्र भगवान को 4 विशेषणों से याद किया है। यह प्रभु जो इंद्रों के द्वारा वंदनीय है। इस विशेषण से कई बातें जाहिर होती हैं। एक तो विशिष्ट पूजा के योग्य ये जिनेंद्रदेव ही हैं यह सिद्ध होता है, दूसरे जिसके चरणों में सब जाति के इंद्र वंदना करते हैं उनके प्रति सब जीवों का झुकाव अपने आप होता ही है। इसमें भक्ति में विशेषता बतायी गयी है।
तिहुवणहिद मधुरविसदवक्काणं―दूसरा विशेषण दिया गया है त्रिभुवनहित मधुरविशद वाक्य। तीन लोकों के लिए हितकारी मधुर और विशद जिनका उपदेश है, तीन लोक के लिए उनका उपदेश हितकारी इसलिए है कि उनके उपदेश में उस शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति का उपाय कहा गया है। आत्मा स्वभावत: सहज आनंदमय है। इस शुद्ध आत्मा की दृष्टि जगे यही शुद्ध आत्मा के आश्रित हुआ ज्ञान ही इस ज्ञानमय को पायगा। ज्ञान भी ज्ञानस्वरूप है और जिसे पाता है वह भी ज्ञानस्वरूप है। उसकी दृष्टि होना, इस ज्ञानस्वरूप का ज्ञान होना यही शुद्ध आत्मा की प्राप्ति कहलाती है। इसका समस्त उपाय बताया है और इस शुद्ध आत्मा की प्राप्ति के द्वारा यह कभी सर्व प्रकार से शुद्ध हो जाय, शरीर के संपर्क से भी मुक्त हो जाय, भावकर्म से भी मुक्त हो जाय, द्रव्यकर्म से भी मुक्त हो जाय ऐसी सर्वथा शुद्ध आत्मा की प्राप्ति का उपाय जैन दर्शन में कहा गया है, इस कारण यह जिन उपदेश हितरूप है।
प्रभुवाणी की विशदता―प्रभु का वचन अत्यंत विशद है। बड़े-बड़े ग्रंथों में सभी दर्शन के ग्रंथों में जब कोई प्रवेश करता है तो उसे यह समझ में आ जायगा कि अहो यथार्थ तत्त्व का निरूपण जैन दर्शन के शास्त्रों में कितनी सरल शैली से कहा है। कठिन समास और अप्रसिद्ध शब्दों के द्वारा न कहकर जैन शास्त्रों में सरल से सरल शैली में बताया गया है। जैन ऋषि संत जीवों की करुणा से ओतप्रोत थे। उनका केवल यही भाव था कि जनता को समझ में आ जाय तत्त्व और कुछ चाह न थी, ठोस तत्त्वज्ञान भी था। ज्ञान का विषयभूत जो कुछ पर में है वह भी ठोस विदित था। इस तत्त्वज्ञान का फल है अपूर्व परम आनंद होना। इस तत्त्वज्ञान के प्रसाद से रागद्वेष रहित विकल्प रहित केवल ज्ञाताद्रष्टा रहने रूप समाधि उत्पन्न होती है। इस समाधि से जो सहज अपूर्व आनंद जगता है उस आनंद के रसिक जो भव्यजन है उनके मन को प्रसन्न करने वाला प्रभु का उपदेश है। यह उपदेश बहुत विशद है, साफ स्पष्ट है। न इसमें कहीं संशय है, इसमें कोई विपर्यय है और न इसमें किसी प्रकार का अनिश्चय है।
शुद्ध जीवास्तिकाय की ख्याति―प्रभु के उपदेश में मुख्यतया क्या बात बतायी गयी है। शुद्ध जीवास्तिकाय शुद्ध पुद्गल अस्तिकाय, धर्म, अधर्म, आकाश ये सदा शुद्ध ही हुआ करते हैं। इन पंच अस्तिकायों का वर्णन है, और पंच अस्तिकायों के वर्णन का प्रयोजन है एक शुद्ध जीवास्तिकाय का दर्शन होना। यह मैं आत्मा अपने आप अकेला अपने सत्त्व के कारण कितने स्वरूप हूं इसी को शुद्ध जीव स्वरूप कहा करते हैं। इसमें मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत सात तत्त्वों का वर्णन है। प्रभु के उपदेश में जीव, अजीव, आस्रव, बंध, सम्वर, निर्जरा और मोक्ष व्यवहार व परमार्थ दोनों विधियों से है। जीव उसे कहते हैं जिसमें चेतना हो, जिसमें ज्ञान दर्शन हो। जो जानता देखता है उसका नाम जीव है, और इस प्रसंग में अजीव का मतलब है कर्म। आस्रव बंध आदिक यह जो पर्याय बताता है उसके मूल में दो तत्त्व कहे हैं―जीव और अजीव का अर्थ है यहाँ कर्म। ये दो मूल बातें हैं। जीव में कर्म आ जायें उसका नाम आस्रव है, और जीव में आये हुए कर्म बहुत दिनों तक जीव के साथ रहे, उनकी स्थिति पड़ जाय, इसका नाम बंध है। जीव में कर्म न आ सकें। कर्मों का आना रुक जाय इसका नाम सम्वर है और पहिले से बंधे हुए कर्म जीव से अलग हो जायें, झड़ जायें इसका नाम निर्जरा है, और समस्त कर्मों का जीव से सर्वदा के लिए न्यारा हो जाना इसका नाम मोक्ष है। मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत ये 7 तत्त्व हैं। 7 तत्त्वों के श्रद्धान को सिद्धांत ग्रंथों में सम्यग्दर्शन कहा है।
आत्महित―जीव का पूर्ण हित मोक्ष में है, अर्थात् जो दंद फंद लिपट गए हैं इस जीव के साथ जीवातिरिक्त अन्य चीजें जो लग गयी हैं ये अन्य चीजें जुदी हो जायें बस इसी में इस जीव की भलाई है। धर्म पालन करने का उद्देश्य भी यही है कि हम इन औपाधिक तत्त्वों से दूर हो जायें। हम जैसे स्वयं अपने आप हैं सहज वैसे ही रह जायें यही जीव की सबसे बड़ी भलाई है। जब अज्ञान मोह सताता है तो इस जीव के परद्रव्यों के प्रति दृष्टि अधिक गढ़ जाती है और पर की चिंता, पर का शोक, पर की लगन इनमें ही उपयोग गुजरता रहता है, किंतु यह तो बतावो कि कितने अनेक पर पदार्थ हम आपने भव-भव में पाये होंगे, आज जो कुछ पाया है और जितना वैभव की हम अपनी इच्छा में निदान बनाते हैं इतना और मिल जाय, उससे भी कई गुणा वैभव हम आपने भव-भव में पाया है। जितने चला, लोक में कीर्ति आज चाह रहे हैं। उससे भी कई गुना अधिक कीर्ति, चला हम आपने अनेक भव में पायी हैं। जब वह भी साथ नहीं रहा तो वर्तमान का समागम वैभव चला मेरे काम क्या आयगा। इस विनश्वर तत्त्व की दृष्टि में हित नहीं हैं, हित तो मोक्ष में है।
संकट व संकटनिवर्तन―यह वैभव गोरखधंधा है, सार कुछ नहीं है। फंसे तो फंसना बढ़ता ही जाता है। सुलझाना कठिन हो जाता है। पर ज्ञान में सब सामर्थ्य है। हम आप सबके पास ऐसी उत्कृष्ट निधि मिली है कि जिसके कारण हम आपको चिंता करने की बात नहीं रहती है। किसी भी दिन, किसी भी समय कितनी भी कठिन परिस्थिति आ जाय और कल्पना में कितनी भी बड़ी विपदा मान ली जाय, फिर भी इस विवेचक ज्ञानी में इतनी सामर्थ्य है कि उन विभावों को क्षणमात्र में हटाया जा सकता है। जैसे बहुत संचित बड़े ईंधन को जलाकर भस्म कर देने की सामर्थ्य एक अग्नि कणिका में है इस ही प्रकार समस्त संसार के संकटों का ईंधन जला देने में समर्थ हमारा ज्ञान है।
संकट और संकटविनाशक ज्ञान―हे शांति के इच्छुक पुरुषों ! इस महाकल्याण निज ज्ञान के निकट आवो, किसी परवस्तु के निकट रहने से तो कुछ आनंद न मिल पायगा। एक अपने ज्ञानस्वरूप के निकट रहे तो इसमें आनंद मिलेगा। ज्ञान में ऐसा चमत्कार है कि सर्व विपदावों को दूर कर सकता है। अरे इतना ही तो जानना है कि वह मैं आत्मा अपने गुण पर्यायोंरूप हूं अपने ही निज प्रदेशों में हूं। केवल अपने भाव परिणमन का ही कर्ता हूं और ज्ञानशक्तिमय हूं। यह मैं आत्मा अपने स्वरूप में परिपूर्ण सत् हूं। इसकी कहीं अरक्षा नहीं है। यह पूर्ण सत् है। जो सत् होता है वह कभी मिट नहीं सकता। मिटने का ख्याल ही मत लावो। हम कभी मिट न सकेंगे। जो पर चीज है वह कभी रह न सकेगी। जो मेरा स्वरूप है वह कभी मिट न सकेगा। ऐसे शुद्ध परिपूर्ण अकिंचन्य ज्ञानमात्र अपने आपका बस जाना, इससे संकट नहीं रहते हैं। संकट तो विकल्पों में हैं, कल्पना में हैं और कल्पना में ही आकुलता है। भव-भव में बांधे हुए कर्मों के उदय आते हैं, और उन उदयों का निमित्त पाकर यहाँ विभावों की सृष्टि होती है तिस पर भी ज्ञान का सबसे अनूठा न्यारा काम रहा करता है। यदि हम इस उपयोग के फंद में उपयोग को न फंसायें और ज्ञान को जागरूक बनायें रहें तो कोई क्लेश अनुभव में न आ सकेगा। घर में 10 प्राणी हों तो दसों के साथ कर्म लगे हुए हैं। किसी के विपरीत कोई दूसरा कर नहीं सकता। जिस जीव का जो सांसारिक होनहार है वह उस जीव के कमाये हुए पाप पुण्य के अनुसार होता है, इस बात पर श्रद्धा हो तो किसी भी स्थिति में व्यग्रता नहीं आ सकती है।
अपूर्व लाभ का विवेक―जो बात अन्य भव में नहीं हो सकती है उसकी सिद्धि कर लेना ही तो यहाँ का विवेक है। आहार, भय, मैथुन, परिग्रह ये चार संज्ञाएं और इनकी वेदना को शमन करने के उपाय ये अनेक भवों में मिल जाते हैं। पशु पक्षी क्या पेट भरकर मौज नहीं मान पाते। वे भी मौज मानते हैं। भरे पेट वाले गाय अथवा भैंस बैठे-बैठे अपना मुंह चलाकर कैसा अपना मौज मानते हैं। सभी पशु पक्षी भरे पेट की हालत में कैसी लीला करते रहते हैं। यह आहार का सुख तो पशु पक्षी को भी प्राप्त है। भय संज्ञा भी सबके है। यह मनुष्य भय को दूर करने का प्रयत्न करता है और दूर करने के प्रयत्न में सफलता हो जाय तो मौज मानते हैं। ऐसे ही ये पशु पक्षी भी हैं, पर कोई भय आ जाय तो इस भय को मिटाने का यत्न करते हैं और वहाँ यत्न बन जाय तो ये भी अपने अंतरंग में खूब मौज मानते हैं। मैथुन की बात भी अन्य प्राणियों में भी है, मनुष्यों में भी है। उस संबंध में कोई सिद्धि पा ले तो इससे क्या हो जायगा? अरे जो बात अन्य भवों में न मिल सके और मनुष्य भव में ही मिल सकती है उसके ही करने का लक्ष्य रखना।
नि:संगबुद्धि का लाभ―परिग्रह संज्ञा प्रत्येक भव में रहती है। मनुष्य जरा विशिष्ट बुद्धि वाला है सो परिग्रह को अनेक ढंगों से रखता है। इसके लिए बैंक है, घर है, व्यापार है, अनेक तरह की प्रक्रियाएँ है। यह परिग्रहों का संचय कर लेता है। पशु-पक्षियों में जितनी योग्यता है उतने ही रूप में वे संग्रह कर पाते हैं, बंदर इतना ही संचय कर पाते हैं कि जल्दी-जल्दी मुख में भर लिया और एक हाथ में भर लिया तीन पैरों से भागते जाते। इतना ही संचय कर पाते हैं बंदर। मनुष्य ज्यादा संचय कर लेता है। पशु भी केवल खाते समय जो सामने है उसको बचाते हैं, कोई दूसरा जानवर बिगाड़ने आ जाये, खाने आ जाये तो थोड़ा सींग भी मारने का यत्न करते हैं वे इतना ही परिग्रह रख पाते हैं और कीड़ा मकोड़ा पेड़ वगैरह जो सामने आया बस उसी का परिग्रह कर पाते हैं, पर परिग्रह संज्ञा से छूटा कोई नहीं है, यह चीज भी भव-भव में मिल जाती है, इसके बढ़ावे में भी क्या बड़प्पन है। बड़प्पन तो अपने उस तत्त्व में है जो यहाँ ही सिद्ध हो पाता है अन्य भव में नहीं, वह तत्त्व है शुद्ध जीवस्वरूप का गाढ़ परिचय होना, और पर द्रव्य की उपेक्षा कर लेना। यह बात यदि न प्राप्त कर सके तो दु:खी कौन होगा? यह खुद ही दु:खी होगा।
सुगम सत्य मार्ग का ही शरण―भैया ! होनहार ठीक है तो सबको सीधे सच्चे रास्ते पर आना पड़ेगा। जैसे लोक में कोई पुरुष हठ करे तो वह आखिर कब तक यों करेगा? उसे भी सीधे रास्ते पर आना पड़ता है और तब ही उसका गुजारा और शांति हो सकती है ऐसे ही यहाँ पर वस्तुओं की चिंता, शोक, अधम, उद्दंडता हो तो कहां तक यह जीव इनको निभा सकेगा। अंत में सीधे सरल सत्य मार्ग पर इसे आना ही पड़ेगा जब यह सुखी हो सकता है। प्रभु का उपदेश ऐसे ही सप्ततत्त्व और 9 पदार्थ आदि के वर्णन का पूरक है और इस ही तत्त्वज्ञान से हम आप शांति लाभ ले सकते हैं। अत: यह समस्त कथन विशद है और सर्व जीवों के लिए हितकारी है। जीव में ये कर्म आते हैं तब यह जीव मोह राग और द्वेष करता है। जितनी डिग्री में जितनी तीव्रता में यह जीव मोह राग द्वेष करता है उतनी ही अधिक स्थिति के कर्म बंधते हैं, जिन्हें कर्मबंध न चाहिए उनका कर्तव्य है कि वे सम्यग्ज्ञान बनाए और कषाय बंद करें। इससे कर्मों का सम्वर होगा, कर्म का आना रुक जायगा और इस ही अपने शुद्ध आत्मतत्त्व के उपयोग से पहिले के बंधे हुए कर्म खिर जायेंगे। खिरते-खिरते निकट ही कोई समय ऐसा आयगा इस सम्यग्दृष्टि जीव का कि सारे कर्म दूर हो जायेंगे।
पूजा और अभिप्राय का समन्वय―भला बतलावो तो सही जो कर्मों से अत्यंत दूर है। निष्कर्म है, अकिंचन है ऐसे भगवान को तो हम पूजा वंदना करने आयें और चिंता यह बढ़ाये कि कैसे मेरा घर बढ़े, परिजन बढ़े, इज्जत बढ़े, यश बढ़े तो यह कितना विरुद्ध काम है। यह सब ढोंग धतूरा हुआ कि नहीं? पूजते तो हैं निर्मल को और मल संचय की धुन बनाये हैं तो वह पूजना किस काम का हुआ? कुछ तो ध्यान दीजिए। इसके पूजने का यही तो प्रयोजन है कि यह भावना बनाए कि हे प्रभो ! अपूर्व शांति और आनंद की स्थिति तो तुम्हारी है। मुझे यह स्थिति कैसे कब प्राप्त होगी। शुद्ध देव की पूजा अपनी शुद्धता के लिए है यही लक्ष्य बनायें प्रभुदर्शन में। हे प्रभो ! सत्य आनंदमय तुम ही हो। मेरे में यह आनंद शीघ्र प्रकट हो। मेरी ऐसी ही सद्बुद्धि बने कि मैं मोह रागद्वेष से रहित होकर ऐसे ही उत्कृष्ट आनंद को पाऊँ। इन सब परमार्थभूत तत्त्वों का उपदेश प्रभु ने किया है। उनके निर्मल और स्पष्ट वचन हैं। ऐसे तीनों लोक का हित करने वाले उपदेश के नायक जिनेंद्रदेव को मेरा बारंबार नमस्कार हो। इस प्रकार मंगलाचरण में कुंदकुंदाचार्य देव निर्दोष प्रभु का ध्यान कर रहे हैं।
सर्वभाषामयता―भगवान की वाणी स्पष्ट रहा करती है। मुख्य भाषाएं 6 हैं। कर्नाटिकी, मागधी, माड़वी, लाट, शौण और गुजरात। इन 6 भाषावों में जरा विशेष-विशेष फर्क डालकर इनमें संबंधित तीन भाषाएं और हो गयी हैं। जैसे कर्नाटिकी, तैलगू और तमिल आदि मिलती जुलती हैं, ऐसी प्रत्येक बड़ी भाषा में तीन-तीन भाग हैं, यों 18 तो महा भाषायें हैं और 18 मुख्य भाषावों में संबंधित छोटी-छोटी 700 भाषाएं हो गयी हैं। इन 700 भाषावों के अंदर बहुत सी भाषावों के रूप में एक साथ सभी जीव अपने-अपने भव में भगवान की वाणी का स्पष्ट अर्थ ग्रहण करते हैं इसलिए प्रभु की वाणी अत्यंत स्पष्ट है। भाषाएं कभी-कभी समय पाकर इतना अदल बदल बना देती हैं कि एक नई भाषा बन जाया करती है।
सर्व भाषा में स्पष्टता―आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व की यह बात कही जा रही है कि ऐसी-ऐसी भाषाएं थी, और किसी-किसी के मत से तो भगवान महावीर स्वामी को हुए 14-1 हजार वर्ष हुए। भगवान महावीर स्वामी के समय के संबंध में दो तीन धारणाएं हैं जैसे धवला में उल्लेख किया है, एक सिद्धांत से तो 14-1 हजार वर्ष हो जाया करते है। इस सिद्धांत से तो -6 हजार वर्ष रह गये हैं पंचम काल के। और मुख्य तो ढाई हजार वर्ष ही प्रसिद्ध है। अब तो नई-नई प्रत्येक भाषाएं हो गयी हैं। सर्वजीवों को भगवान की वाणी उन-उनकी भाषा में स्पष्ट ज्ञान कराती है इसलिए प्रभु का वाक्य स्पष्ट है।
सर्वहितकारिणी वाणी―प्रभु की वाणी तीन लोक का हित करने वाली मधुरता को लिए हुए है। प्रभु की वाणी सब आत्मावों के हित के लिए है जहां मनुष्यों को उपदेश देकर ज्ञान और वैराग्य की बात में बढ़ाकर मनुष्यों के हित की बात भरी है वहाँ मनुष्यों को दया का उपदेश देने के कारण जो कीड़ा मकोड़ा और स्थावरों की भी रक्षा होती है तो भगवान की वाणी उन कीड़ों मकोड़ों के हित के लिए भी हुई। यों प्रभु की वाणी समस्त आत्मावों के लिए हितकारी होती है। भगवान की दिव्यध्वनि में वर्ण और अक्षर हम आप जैसे नहीं निकलते हैं। ऐसे वर्ण अक्षरों का निकलना राग और विकल्प बिना संभव नहीं है। इसलिए प्रभु की वाणी निरक्षर बतायी गयी है। ‘जिसकी धुन है ओंकार रूप, निरअक्षरमय महिमा अनूप’ जिसकी ध्वनि में गंभीर ॐ की आवाज है।
प्रभु की वीतरागता―कहां तो प्रभु की इतनी वीतरागता दर्शायी गयी है और कहां लोग यह कहते हैं कि प्रभु लोगों के पीछे भागते फिरते हैं, उनको प्रभु बचाते हैं, उनकी रक्षा करते हैं। कहीं छिपे-छिपे कर रहे हैं, कहीं प्रकट कर रहे हैं, ये सब खेल कराये जाते हैं। भगवान ऐसे कोई खेल नहीं करते हैं पर भक्तजन कल्पना में भगवान के ऐसे खेल कराया करते हैं। प्रभु में तो इतनी उत्कृष्ट वीतरागता है कि वह हम आपकी तरह वचन अक्षरों से बोलते तक भी नहीं हैं। वाणी से अक्षरों से बोले तो उसमें राग और विकल्प सिद्ध होता है। कोई प्रश्न करे और प्रभु उस प्रश्न का उत्तर दें तो यह तो एक राग की बात हुई। जब किसी चर्चा में आनंद माना है तभी तो सुनेंगे और फिर उसका जवाब दें तो कुछ प्रेम है आपसे प्रीति है, वात्सल्य है तभी तो जवाब देते हैं किंतु प्रभु में न राग है न द्वेष। अब वे न किसी का प्रश्न सुनते हैं और न किसी को उत्तर देते हैं। प्रभु का स्वरूप तो यों समझो जैसे हम मंदिर में पाषाण आदिक की मूर्ति देखते हैं तो वह मूर्ति न कुछ बोलती है न उठती है, हम आपको ऐसी मूर्ति दिखती है जैसे मानो कुछ चेष्टा न करती हो, ऐसे ही प्रभु भी कोई राग भरी चेष्टा नहीं करते। सिर्फ इतना अंतर समझ लो कि मूर्ति से दिव्यध्वनि नहीं खिरती और प्रभु के दिव्यध्वनि खिरती है।
प्रभु की चरम निर्दोषता―प्रभु से कोई कुछ बात करें, निजी व्यवहार करें ऐसा नहीं है, पुराणों में जो आता है―श्रेणिक ने भगवान से यों प्रश्न किया और उन्होंने यह उत्तर दिया, तो ऐसा नहीं होता। श्रेणिक ने प्रश्न किया गौतम गणधर से। उत्तर दिया गौतम गणधर ने। किंतु जिसकी समाज में कोई पहुंच है नाम उसी का लिया जाता है जो बड़ा है, जिसका मंडप है, जिसकी सभा है, उसमें भगवान के गणधर से कोई पूछे तो कहा यों जायगा कि भगवान से पूछा और भगवान ने उत्तर दिया, एक बात। दूसरी बात यह है कि श्रेणिक ने भगवान से ही प्रश्न किया हो तो वहाँ भगवान की दिव्यध्वनि सुनकर श्रेणिक को अपने आप अपनी भाषा में उत्तर मिल जाता है किंतु यह कहा जा सकता है कि श्रेणिक ने भगवान से प्रश्न किया और प्रभु ने उत्तर दिया। वीतरागता में आंच रंच भी नहीं आ सकती। ऐसे ही अपने को उनके बारे में सोचो तो बात ठीक बैठ सकती है।
प्रभुदेह की सहज ध्वनि―प्रभु की ध्वनि जब खिरती है उस ध्वनि में जैसे अन्य अंगों से ध्वनि निकलती है इस ही प्रकार मुख से भी निकलती है। वह ओंठ चलाए, ओंठों से बोलें, मुंह चलाए यह बात नहीं होती। उनका उपदेश किसी वांछा को लेकर नहीं होता अथवा वे उपदेश किसी इच्छा से नहीं किया करते हैं। उनकी वाणी में पूर्वापर कहीं दोष नहीं है। कोई यथार्थ घटना का वर्णन करें तो उसे कहीं न हिचक आयेगी, न सोचना पड़ेगा और न कभी पूर्वापर विरोध आयेगा। कोई किसी छोटी घटना को किसी अन्य रूप में पेश करना चाहे तो उसे कोई जगह अटक भी आयेगी। सोचना पड़ेगा और उसमें पूर्वापर विरोध भी आयगा। पहिले क्या कहा था और अब क्या कह रहे हैं। प्रभु वीतराग हैं वैसा ही उनकी दिव्यध्वनि में वर्णन है, इस कारण कोई दोष नहीं हैं। जैसे हम आपकी वाणी में स्वासोच्छ्वास के कारण कहीं क्रम रुक जाता है। कोई लगातार मिनट बोल नहीं सकता, आधा मिनट बोलें फिर रुके फिर बोले बिना श्वास के बाहर किए कुछ भी बोला नहीं जा सकता। केवल बोलते रहने में एक मिनट में ही दम घुटने लगती है। श्वास ले ली फिर 30-40 सेकंड तक बोलते रहते हैं। पर भगवान के तो दिव्यध्वनि खिरते रहने का 6 घड़ी लगातार, मेघगर्जनावत् प्रभु की दिव्यध्वनि खिरती रहती है। 6 घड़ी सुबह, 6 घड़ी दोपहर, 6 घड़ी सायं और 6 घड़ी रात को भी दिव्यध्वनि खिरती है। अगर रात को भी दिव्यध्वनि खिरती है तो वह उनके बोलने का दोष नहीं है क्योंकि उनके तो सर्वांग ध्वनि खिरती है। उनके तो शरीर का लगाव नहीं रहा, यहाँ तो शरीर का बंधन है। भव्य जीवों की भक्ति है और पुण्य प्रकृति का उदय है।
प्रभुदर्शनमहिमा―जहां प्रभु विराजे हुए हैं उस स्थान के निकट जो जीव पहुंचता है, वह समस्त संकटों से छूटकर एक आनंद के स्थान में पहुंचता है उसे चिंता आदि नहीं रहते हैं, और कोई साधारण रोग हो, बुखार हो, सिर दर्द हो तो भी दूर हो जाता है। अब किसी की टाँग टूटी हो, संभव है कि वह भी ठीक हो जाती हो। तो जिसकी इतनी महिमा है, जिसकी वाणी में इतना ओज है कि जिसका ध्यान करके भक्ति का प्रारंभ ही किया जाये तभी से अनेक चमत्कार होने लगते हैं। ऐसी प्रभु की वाणी विशद है। तीन लोक का हित करने वाली है और मधुर है।
सर्वज्ञता―प्रभु अनंत गुण संपन्न है, हमारे ज्ञान गुण की सीमा है कि कितना भूतकाल और भविष्यकाल की जान सके, कितने क्षेत्र तक की जान सके। यह सीमा है, क्योंकि आवरण साथ लगा है रागद्वेष साथ है। कर्मोदय साथ है, किंतु प्रभु भावकर्म और घातियाकर्मों से दूर हो गये हैं। अत: उनका ज्ञानगुण असीम हो गया है। वह तीन काल की समस्त बातें जानते हैं। देखिये जानने का जब हम उद्यम करें तब कुछ हो जाय प्रकट, मगर पूर्ण प्रकट नहीं हो सकता। हम जानने का उद्यम छोड़ दें पूरी तरह से तो ऐसी स्थिति में हमारा ज्ञान हमारे केंद्र पर आ जायगा और उस पुरुषार्थ में यह बल है कि मेरा ज्ञान असीम फैल जाता है। भगवान को अनंत ज्ञानगुण वाला बताने से यह जाहिर हो जाता है कि प्रभु की सेवा में बड़े-बड़े ऋद्धिधारी गणधरदेव आदि इंद्र भी पहुंचते हैं और उनकी वंदना करते हैं। ऐसे ये संसार से विमुक्त हुए जिनेंद्रदेव की हम आपको शरण है। जिनेंद्र किसे कहते? संसार के अनेक समस्त विषय व्यसन विपरीत संकटों को जो जीतते उसे जिन कहते हैं, और जिन को जिनेंद्र कहते हैं। इस गाथा में प्रभु जिनेंद्र को नमस्कार किया गया है।
प्रभुवंदन में नयदृष्टियां―मैं भगवान को नमस्कार करता हूं ऐसी दृष्टि में उस भक्त और भगवान इन दो का संबंध बना है और दो का संबंध बनकर जो कथन होता है उसे व्यवहारनय कहते हैं। व्यवहारनय से भक्त भगवान का वंदन करता है और निश्चयनय से क्या करता है? निश्चयनय एक को निरखता है, व्यवहारनय दो को निरखता है। निश्चयनय से भक्त क्या कर रहा है इसका उत्तर पाने में यह कोशिश न करें वर्णन करने का कि वह भगवान का कुछ कर रहा है यों तो व्यवहारनय बन जायगा। यह भक्त भगवान के संबंध में अपने ज्ञान परिणमन से ज्ञान की महिमा जान रहा है और उस गुण महिमा को जानकर अपने में एक अद्भुत आह्लाद उत्पन्न कर रहा है। भक्त सुख उत्पन्न कर रहा है तो उसमें जो प्रमोद हुआ उस आनंदरूप परिणमन कर रहा है। यह है अशुद्ध निश्चयनय से भगवान की वंदना। अशुद्ध निश्चय क्यों कहा कि वह जो खुशी होती है, गुणों में प्रमोद होता है वह प्रमोद भी अशुद्ध अवस्था है। शुद्ध अवस्था तो रागद्वेष रहित केवल ज्ञानप्रकाश की होती है और उस समय किसी सम्यग्दृष्टि भक्त के जिस अंश में यह शुद्धोपयोग प्रकट होता है इस शुद्धोपयोग में बने रहने का नाम है एक देश शुद्ध निश्चयनय की वंदना। इन तीन प्रयोग से तो वंदना की बात कही जाती है और जो सर्वदेश शुद्ध निश्चयनय है उसमें वंदना ही नहीं है, क्योंकि सर्वदेश शुद्ध हैं अरहंत भगवान। वे वंदना का कहां विकल्प करते हैं। परम शुद्ध निश्चयनय में भी वंदना नहीं है। परम शुद्ध निश्चयनय वस्तु के स्वभाव को देखता है, उसमें विकल्प ही नहीं हैं। वहाँ वंदना ही क्या होगी। नयों की दृष्टि से वंदना इस तरह होती है। इस वंदना से हम यह भाव ग्रहण करते हैं कि जैसे अनंत ज्ञान आदिक गुणों से युक्त प्रभु कृतकृत्य और आनंदमय हुए हैं और उनका जैसा शुद्ध जीव हित कार्य है, जैसी उनकी आत्मभूमि है यह ही वास्तव में उपादेय है, और ऐसा होना हमारे स्वभाव में पड़ा हुआ है।
वक्तव्य का दिग्दर्शक प्रारंभिक बोध की आवश्यकता―मंगलाचरण में केवल मंगल की ही बात नहीं निरखना चाहिए, किंतु इसमें यह भी देखो कि इस ग्रंथ के प्रारंभ में जो मंगलाचरण रूप की बात कही गयी है उनमें इतनी बात भी जाहिर होती है इसमें निमित्त क्या है, इसका हेतु क्या है इत्यादि। जैसे इस ग्रंथ का प्रारंभ किया है तो आपको जब तक ग्रंथ के निमित्तं हेतु नाम, परिमाण व कर्ता कौन है, क्या है, बात न ज्ञात हो तो इस ग्रंथ के बारे में कुछ विशद परिज्ञान नहीं हो सकता। जैसे अपने शरीर के बारे में जितनी अधिक बातें ज्ञात हो उतना ही भेद विज्ञान में इसे मदद मिलती है। मल, मूत्र, हड्डी, पीप, कैसे-कैसे नसाजाल, अंग अवयव ऐसी विचित्रता अच्छी प्रकार ज्ञात हो तो लो ऐसे इस ढांचे से भिन्न यह ज्ञान प्रकाशमात्र जीव द्रव्य है ऐसा सोचने में विशेष स्पष्टता होती है। यों ही किसी उपदेश के बारे में मंगल सहित और बातें ज्ञात हों तो उस ग्रंथ की महिमा और उस ग्रंथ का वक्तव्य जानकर स्पष्टता रहती है। इस बात का भी वर्णन किया जायगा।
मंगल―अब प्रथम मंगल की बात देखिये। मंगल नाम है जो मंग को ला देवे। मंग मायने सुख। जैसे लोग कहते हैं हम तो चंगे मंगे हैं। चंगे मायने स्वस्थ, मंगे मायने सुखी। जो मंग को ला देवे उसे मंगल कहते हैं, अथवा जो पापों को गला देवे पाप गालयति इति मंगल। लोग नमस्कार करते हैं तो तीन प्रकार के देवतावों में से नमस्कार करते हैं। कोई देवता इष्ट है, कोई अधिकृत है, कोई देवता अभिमत है। इष्ट देवता के मायने वह जो जिसे अपने सुख में रुच गया है, जो इसे लाभप्रद है वह है इष्ट देवता। अधिकृत देवता का अर्थ है कि जो अपनी कुल परंपरा से चला आया है। लोक परंपरा में प्रत्येक घर से कोई एक विशिष्ट देवता मान लिया जाता है कि पहिले उसकी मनौती कर लें वह अधिकृत देवता है और अभिमत देवता वह है जिसे श्रद्धापूर्वक मानते हैं अपने कल्याण के लिए। मानों जीवों को तो जिनेंद्रदेव ही इष्ट देवता हैं। यह ही अधिकृत देवता हैं और यह ही अभिमत देवता हैं।
मंगलाचरण का प्रयोजन व विधान―ग्रंथों की आदि में मंगलाचरण करने के अनेक प्रयोजन होते हैं। प्रथम तो यह है कि यदि किसी प्रभु का स्मरण किया तो इसमें नास्तिकता नहीं रहती। श्रद्धा तो है, किसी देव की ओर दृष्टि तो है, जो यथार्थ देव हो उस पर दृष्टि पहुंचे तो नास्तिकता दूर हो जाती है। दूसरी बात शिष्टाचार की पूरी होती है। तीसरी बात पुण्य की प्राप्ति होती है, और चतुर्थ बात है उस कार्य की निर्विघ्न प्राप्ति होती है। यद्यपि अच्छा काम करने के लिए कोई मंगलाचरण भी करे तो करे तो भी ठीक है। कुछ गलत नहीं है, क्योंकि अच्छा काम तो स्वयं मंगलरूप है, उस मंगल के लिए क्यों मंगलाचरण करना। लेकिन जब श्रद्धा विशेष होती है तो मंगलों का काम करने के लिए भी मंगलाचरण किया जाता है। जैसे सूर्य स्वयं प्रतापी और तपस्वी है लेकिन नन्हासा दीपक जलाकर सूर्य की आरती लोग उतारते हैं। कोई पूछे कि भाई सूर्य तो स्वयं तेजस्वी है। तुम उसके आगे जरासा दीपक क्यों जलाते हो? श्रद्धा तपस्वी सूर्य के आगे भी दिया जलवा देती है। समुद्र पानी से भरा हुआ है। फिर भी लोक समुद्र के बीच समुद्र का ही जल समुद्र को ही चढ़ाकर पूजा करता है तो वह भक्ति की बात है। तो ऐसे ही मंगलीक जितने कार्य हैं उन कार्यों में भी मंगलाचरण किया जाता है। तो यह ग्रंथ सारा मंगलरूप है, क्योंकि इसमें मोह संकटों से छूटकारा पाने का उपाय बताया है। इस ग्रंथ को बनाने के पहिले आचार्यदेव यह मंगलाचरण कह रहे हैं।
त्रिविध नमस्कार―यहाँ जिनेंद्रदेव को ग्रंथकर्ता ने नमस्कार किया है। नमस्कार तीन तरह से होता है―एक आशी: नमस्कार, एक वस्तु नमस्कार और एक नमस्कार के रूप में नमस्कार। आशी: नमस्कार तो आशीर्वाद लेने अथवा आशीर्वाद देने का नमस्कार है। पर आशीर्वाद देने की हालत में जिनके प्रति पूज्यता और बड़प्पन का भाव रहता है उनको नमस्कार किया जाता है। हे जिनेंद्र ! जयवंत हो। तो भगवान को अपने लोग आशीर्वाद दे रहे हैं हे भगवान ! जयवंत हो। भगवान तो जयवंत हैं ही, उनको जयवंत होने का जो आशीर्वाद जो भक्त देता है, वह पूज्यता से प्रभावित होकर देता है, छोटा मानकर नहीं देता है। उनके गुणों को निरखकर मन ही मन प्रसन्न होना यह भी नमस्कार है और हाथ जोड़कर सिर नवाकर वचनों द्वारा विनय प्रकाशित करना यह भी नमस्कार है।
मंगलाचरण में अनेक प्रतिबोधन―मंगलाचरण से अनेक बातें और भी स्पष्ट हो जाती हैं। यह ग्रंथकर्ता किस पद्धति से किस विषय को कहेगा यह बात उसके मंगलाचरण में ही झलक जाती है। जिस देवत्व को नमस्कार किया जा रहा हो उसके अनुकूल ही व्याख्यान होगा, यह बात पहिले से जंच जाती है। मंगल दो तरह के होते हैं―एक मुख्य मंगल और एक गौण मंगल। मुख्य मंगलाचरण तो जो मंगलमय आत्मा है, संतोष पूर्ण विकासमय उन दोनों के बीच विनय स्मरण ये सब मुख्य मंगल है और लोक में जो बात मंगलरूप से प्रसिद्ध है, जैसे मंगल कलश रखना, वंदनवार दरवाजे पर बनाना ये सब गौण मंगल है। जैसे पूजापाठ विधानों के अवसर में लोग मुख्य मंगल भी अनेक करते हैं। सजावट करना, मंगलकलश उत्पन्न करना आदि ये गौण मंगल भी होते हैं, और मुख्य मंगल तो है ही। मुख्य मंगल न पाकर तो इस गौण मंगल की कीमत नहीं है।
मंगलाचरण के लाभ―मंगलाचरण मंगलरूप अपना आचरण या मंगलमय प्रभु का स्मरण यह तो ग्रंथ की आदि में ही क्या करना, मध्य में भी करना, अंत में भी करना, जब चाहे तब करना, और मंगलाचरण की जरूरत उत्कृष्ट धार्मिक कार्यों में उतनी अधिक नहीं है जितनी अन्य कामों में प्रसंग में है। धार्मिक कार्य तो स्वयं मंगलरूप हैं। घर गृहस्थी के अनेक काम―दुकान करना, मकान बनवाना, विवाह कार्य प्रारंभ करना और घर में अनेक काम होते हैं उन सब कामों में उस प्रभुस्मरण की अत्यंत अधिक आवश्यकता है। मंगलमय का आश्रय होने से अनेक विघ्न दूर हो जाते हैं, क्षुद्र देव वहाँ विघ्न नहीं कर सकते हैं। अभीष्ट तत्त्व की प्राप्ति होती है प्रभु के गुणों का कीर्तन करने से। कोई छात्र विद्याभ्यास करता है तो उसे विद्या प्रारंभ के पहिले भी मंगल करना चाहिए, जिससे कि उसके कार्य में कोई विघ्न न आये। मध्य-मध्य में भी मंगलाचरण करना चाहिये ताकि प्रगति हो और जब विद्या का फल पाया है तो उस कृतज्ञता में भी मंगलाचरण करना चाहिए।
मंगलाचरण का उद्देश्य व प्रतीक―मंगलाचरण का उद्देश्य है कि उस मंगलमय ज्ञायकस्वरूप निज अंतस्तत्त्व को पहिचानूँ, उसकी ओर दृष्टि बनाऊं, यही मात्र एक मुख्य प्रयोजन है, जो इस प्रयोजन की ओर ले जाने का प्रतीक हो, जिसके देखने से हमें अपने आत्मा की सुध हो वह सब लोक के मंगल कहे जाते हैं। जैसे पूर्ण कलश पानी से भरा हुआ हो वह घड़ा यह याद दिलाता है कि जैसे यह जलपूर्ण कलश भरपूर बीच में जहां रंच भी शून्य नहीं रहा इस प्रकार भरा हुआ है ऐसे ही यह आत्मा ज्ञानरस से पूर्ण भरा हुआ है, बीच में एक प्रदेश मात्र भी शून्यता नहीं है तो आत्मा की सुध दिलाने का कारण हो सकने से यह जल से भरा हुआ कलश माना जाता है।
मंगल वंदनमाला―वंदन माला जो घर पर लटकायी जाती है वह शब्दमात्र से स्मरण दिलाती है। उस वंदनमाला के नीचे से जाय अर्थात् घर में प्रवेश करे तो जिनेंद्र देव का वंदन करें। जब नीचे से निकले तब प्रभु की वंदना करना चाहिए और जब घर से बाहर निकले तो वंदनमाला के नीचे से ही निकलना होगा तब प्रभु की वंदना करना चाहिए, इसी कारण अपने घर के मुख्य दरवाजे पर वंदनमाला लटकाने का अब तक रिवाज है। अब आधुनिक ढंग में तो लोग नहीं लटकाते हैं, उससे पत्ते गिरेंगे, कभी कुछ कूड़ा होगा या कोई भाई पुराने टाइप के लोग कहेंगे बुद्धू कहेंगे इससे अब दरवाजे पर वंदनमाला नहीं लटकाते, पर यह पुराना रिवाज है और यह स्मरण कराती है कि तुम घर में प्रवेश करो तो प्रभुवंदन करके करो। घर से बाहर निकलो तो प्रभु वंदन करते हुए निकलो।
छत्रादिक मंगल―छत्र को भी लोग मंगल कहते हैं। यह छत्र हमें सिद्धालय स्मरण कराती है। सिद्धशिला का आकार छत्राकार है और उसके ऊपर सिद्ध भगवान विराजे हैं, तो सिद्ध प्रभु के स्मरण का एक जरिया होने से क्षेत्र भी लोक में मंगल माना जाता है। किंतु यह सब गौण मंगल है। मुख्य मंगल तो अपनी आंतरिक श्रद्धा से जो प्रभु के गुणों का स्मरण होता है वह कहा जाता है, उसमें भी प्रयोजन प्रभु का स्मरण है। और साक्षात् मंगल भी करते हैं उसमें भी प्रयोजन प्रभु के स्मरण का है।
निबद्ध मंगल―इस ग्रंथ में जो यह मंगलाचरण है यह निबद्ध मंगल हैं। किसी ग्रंथ को बताने से पहिले नवीन बनाकर भी किया जा सकता है। या अन्य प्रसिद्ध किसी ग्रंथ का मंगलाचरण करके भी ग्रंथ प्रारंभ किया जा सकता है। जो स्वयं मंगलाचरण बनाकर ग्रंथ का प्रारंभ किया जाय उसे निबद्ध मंगल कहते हैं, और जो किसी ग्रंथ का मंगलाचरण करके अपनी रचना की जाय उसको अनिबद्ध मंगल कहते हैं।
मंगलाचरण की आवश्यकता―कोई जिज्ञासु ऐसा प्रश्न कर सकता है कि मंगलाचरण करने की जरूरत क्या है? जो बात कहना है, उसे तुरंत शुरू कर देना चाहिए। उसके उत्तर में कुछ लोग यह कह सकते हैं मंगलाचरण करने से विघ्नों का नाश होता है। इस पर शंकाकार कह रहा है कि कोई मंगलाचरण करते हैं तो उनको भी विघ्न आ जाता है और कोई मंगलाचरण न करे तो उनको भी विघ्न नहीं आता जिस काम को उन्होंने ठाना है उसमें वे सफल हो जाते हैं इसलिए नमस्कार मंगलाचरण करने की क्या जरूरत है? समाधान उसका यही है कि मंगलाचरण में पुण्य की वृद्धि है और कषायों पर विजय होती है जिससे समता भाव प्रकट होता है और उस समता परिणाम के साथ जिस रचना का हम प्रारंभ करेंगे उसमें विघ्न न आयेंगे। विघ्न प्राय: दूसरे लोगों से नहीं आता है, किंतु खुद के चित्त में अधीरता हो जाय, खुद का ही चित्त किसी कषाय से भर जाय तो विघ्न आया करते हैं। तो मंगलाचरण से कषायों की मंदता और समता का विकास पैदा होता है, इस तरह मंगलाचरण विघ्नों का नाशक है, फिर मंगलाचरण करके तो पुण्यबंध किया। अब कदाचित् किसी कार्य में विघ्न आ जाय तो वह पूर्वकृत पापों का ही प्रसाद है। यों तो देव नमस्कार और पात्र दान पूजा आदि कर्तव्यों के करने पर भी विघ्न हो जाते हैं। वहाँ यह जानना चाहिए कि यह पूर्वकृत पापों का ही फल है, धर्म दोष नहीं है। और जब नमस्कार दान पूजा आदि किसी भी प्रकार का धर्म न किया जा रहा वहाँ भी उनका कार्य निर्विघ्न होता हुआ दिखता है तो समझना चाहिए कि उनका पूर्वजन्म कृत धर्म का फल है पाप का फल नहीं है। यों मंगलाचरण आवश्यक है। उसी लोकनीति को लेकर कुंदकुंदाचार्य देव ने भी इस शास्त्र की आदि में यह मंगलाचरण किया है।
ग्रंथ का निमित्त―हाँ यह संकल्प किया गया था कि ग्रंथ के बारे में 6 बातों पर प्रकाश अवश्य होना चाहिए। एक मंगल दूसरा निमित्त, तीसरा हेतु, चौथा परिमाण वां नाम और छठवां कर्ता। इन 6 बातों में से मंगल का तो वर्णन किया गया है, अब निमित्त का वर्णन सुनिये। यह ग्रंथ रचना जो की जा रही है। इस शास्त्रों की जो रचना की जा रही है इसका निमित्त क्या है? वीतराग सर्वज्ञ की दिव्यध्वनि भी एक शास्त्र है, वह महाशास्त्र है, उसका कारण तो है भव्य जीव का पुण्य और उनकी ही बाँधी हुई जो तीर्थंकर प्रकृति आदिक पुण्य वर्गणाएं हैं उनका उदय। तो मूल निमित्त तो भव्य जीव का पुण्य है और हम लोगों के बीच जो शास्त्र आए हैं इन शास्त्रों का निमित्त गणधरदेव हैं। उनका निमित्त है भगवान की दिव्यध्वनि। इस तरह से इस विशुद्ध निमित्त की परंपरा है।
ग्रंथ का हेतु―इस ग्रंथ की रचना में कारण क्या है? तीसरी बात पूछी जा रही है, तो कभी ऐसा होता है कि कोई साधु महाराज किसी साधु पर या श्रावक पर प्रसन्न होकर उसके उद्धार के अर्थ, उसके प्रतिबोधन के अर्थ शास्त्र की रचना करते हैं वे भी लाभ उठाते है। यह पंचास्ति नामक ग्रंथ कुंदकुंदाचार्य देव ने शिवकुमार महाराज को समझाने के लिए बनाया है। जैसे ज्ञानार्णव की शास्त्र की रचना भर्तृहरि के प्रतिबोध के लिए शुभचंद्राचार्य ने बनाया है, तो यह इसका निमित्त हुआ।
ग्रंथ का फल―अब इसके बनाने का प्रयोजन अथवा फल क्या है? फल 2 प्रकार के हुआ करते हैं―एक प्रत्यक्ष फल और एक परोक्ष फल। ग्रंथ का प्रत्यक्ष फल तो यह है कि अज्ञान दूर हो जाय। ग्रंथ का वक्तव्य सुनने से उसी समय क्या मिलता है? अज्ञान दूर हो गया। वस्तु के स्वरूप का वर्णन किया तो वस्तु के विषय में जो अज्ञान लगा था वह मिट गया। यह तो प्रत्यक्ष फल है और परोक्ष फल अर्थात् आगे होने वाला फल मोक्ष और स्वर्ग आदिक है। किसी को स्वर्ग की प्राप्ति होती है किसी को मोक्ष की प्राप्ति होती है। जिसको अब स्वर्ग की प्राप्ति हुई है उसको कुछ समय बाद मोक्ष की प्राप्ति हो जायगी। यह तो मोक्ष हैं परोक्ष फल और केवल स्वर्ग की प्राप्ति ही फल नहीं। मनुष्यों में भी सम्राट चक्री ऊंचे-ऊंचे कोई नायक हो जाना यह भी इस ज्ञान का फल है। इस तरह हेतु का वर्णन हुआ।
ग्रंथ का परिमाण और नाम―परिमाण क्या है, अर्थात् कितने श्लोकप्रमाण इस ग्रंथ की रचना है। इस पंचास्तिकाय में कुल 17 गाथाएं हैं। 17 गाथा प्रमाण इस ग्रंथ का प्रमाण है, इस ग्रंथ का नाम रक्खा है पंचास्तिकाय। नाम दो प्रकार से रक्खे जाते हैं। जिसका नाम रक्खा जा रहा है उसमें जो गुण हों उस गुण के अनुरूप नाम रखना और एक अपनी इच्छा से नाम रख देना। जैसे कोई है तो बड़ा कमजोर और नाम रख दिया बहादुर सिंह तो यह इच्छा से रक्खा हुआ नाम है। जैसे गुण है वैसा नाम धरना अन्वर्थक है। जैसे सूर्य का नाम तपन रक्खा है। सब कुछ उससे तप जाता है, सड़क, मकान आदि सो यह अन्वर्थक नाम है। कोई है तो भिखारी और नाम रख दिया लक्ष्मी चंद अथवा कोई हे तो धनिक और नाम रख दिया फकीर चंद तो यह अन्वर्थक नहीं हैं। इस ग्रंथ का नाम है पंचास्तिकाय। यह इच्छानुकूल रक्खा हुआ नाम नहीं है, किंतु अन्वर्थक नाम है, इसमें अस्तिकायों का मुख्यरूप से वर्णन है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश इनका मुख्यरूप से वर्णन है, कालद्रव्य का भी इसमें वर्णन हैं पर मुख्यरूप से जीव के लिए वर्णन करना था जीव अस्तिकाय है। अत: इसका नाम सब द्रव्यों का वर्णन करके भी अस्तिकाय की मुख्यता से पंचास्तिकाय है।
ग्रंथ का कर्त्ता―अब छठवीं चीज है कर्त्ता। इसका कर्त्ता कौन है। कर्त्ता 3 प्रकार के होते हैं। मूल कर्त्ता, उत्तर कर्त्ता और उत्तरोत्तर कर्ता। मूल कर्त्ता तो इस काल की अपेक्षा श्री वर्द्धमान भगवान है। आज जो कुछ भी जैन शासन का तीर्थ चल रहा है यह सब महावीर प्रभु का है। कर्त्ता महावीर स्वामी हुए। करीब ढाई हजार वर्ष हो गए हैं तथापि जब तक ऐसा यह धर्म चलेगा तब तक तीर्थ महावीर स्वामी का कहलायेगा। यह पंचम काल है इसके अंत तक जैन शासन रहेगा।
कुशल―इसके बाद छठा काल आयगा। छठे काल में लोक में बिल्कुल अनाचार फैल जायगा। अग्नि नहीं रहेगी। रोटी बनाने का सिस्टम खतम हो जायगा। फिर लोग कैसे गुजारा करेंगे? तो पशु लोग कैसे गुजारा कर लेते हैं। क्या कभी गाय, बैल अपना पेट भरने के लिए रोटी पकाते है? तो जैसे पशुवों का जीवन चलता है वैसे ही मनुष्यों का जीवन चलेगा। मारना खाना बस यही जीवन रहेगा और इस जीवन का प्रारंभ तो अब से ही चालू है देखिये मछलियों को, बकरा बकरियों को यों ही पकड़कर लोग मार देते हैं। ये सारी चीजें छठे काल के स्वागत की तैयारी की सूचक है। यह पंचमकाल है। इस काल के पहिले चतुर्थ काल के अंत में महावीर स्वामी हुए, और उनकी देशना की परंपरा में यह जैन शासन चल रहा है, तो मूल कर्त्ता तो समस्त दोषों से रहित केवलज्ञान, दर्शनज्ञान, अनंतसुख, अनंतशक्ति से संपन्न भगवान महावीर हैं, और उत्तर कर्त्ता श्री गौतम स्वामी गणधर देव हैं। यह गणधर देव चारों ज्ञान के धारी थे, सातों ऋद्धियों के धारी थे। उत्तरोत्तरकर्त्ता तो अनेक आचार्य हुए हैं। इस ग्रंथ के रचयिता श्री कुंदकुंदाचार्य देव उत्तरोत्तर कर्त्ता कहलाते हैं। इस प्रकार इन 6 ज्ञातव्यों का वर्णन में अंतिम ज्ञातव्य कर्त्ता का व्याख्यान किया है।
कर्त्ता की प्रमाणता से वचन की प्रमाणता―कर्ता के प्रमाण से उसके वचन भी प्रामाणिक है। कोई किसी पुस्तक को लेकर पढ़ने बैठता है तो पढ़ने वाला उस पुस्तक के पढ़ने के पहिले यह जानने की जिज्ञासा करता है कि इस पुस्तक को लिखा किसने है। बिना इस बात को जाने उसे उस पुस्तक के पढ़ने में मन नहीं लगता है। पुस्तक के ऊपर किसी अच्छे लेखक का नाम पढ़ लिया तो वह उस पुस्तक को बड़ी उत्सुकता से खरीद लेता है, क्योंकि उसके मन में बैठ जाता है कि यह अच्छी ही पुस्तक होगी। ऐसे ही धार्मिक ग्रंथों के कर्ता का नाम मालूम हो कि इसे किसने बताया है तो यदि किसी योग्य प्रमाणिक व्यक्ति का नाम पड़ा है तब तो वह उस ग्रंथ को छुवेगा, उसे पढ़ेगा और यदि योग्य प्रमाणिक व्यक्ति का नाम उसमें नहीं पड़ा है तो वह उसे न पढ़ेगा। कर्ता को प्रमाणिकता आने से वचनों में भी प्रमाणिकता आती है। इस प्रकार नमस्कार के रूप में यह प्रथम गाथा संपूर्ण हो रही है। इस मंगलाचरण के बाद अब आचार्यदेव किस बात का वर्णन करेंगे, उस वक्तव्य विषय का संकेत देते हुए द्वितीय गाथा को कह रहे हैं।