वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 105
From जैनकोष
अभिवंदिऊण सिरसा अपुणब्भवकारणं महावीरं ।
तेसिं पयत्थभंगं मग्गं मोक्खस्स वोच्छामि ।।105।।
नव पदार्थों के वर्णन का संकल्प―अपुनर्भव के कारणभूत श्री महावीर भगवान को अभिनंदन करके अब पूर्ववर्णित 5 अस्तिकायों के पदार्थों का भंग अर्थात् 9 पदार्थों के रूप से विस्तार और मोक्ष के मार्ग को कहूंगा । प्रथम अधिकार में षड्द्रव्य और 5 अस्तिकायों के स्वरूप का प्रतिपादन किया था और उस प्रतिपादन के माध्यम से विवेकी ज्ञानी संतपुरुषों को शुद्ध तत्त्व की बात कही थी । अब इस ही शुद्ध आत्मतत्त्व का कैसे अवतार हो, कैसे इसकी उपलब्धि हो, इसका मार्ग कहा जायगा । और वह मोक्ष का मार्ग 9 पदार्थों के विवरण के रूप से कहा जायगा । इस गाथा में आप्त भगवान श्री महावीर स्वामी का स्तवनपूर्वक इस ही बात की प्रतिज्ञा की गई है ।
अपुनर्भव के कारण श्री महावीर भगवान―भगवान महावीर स्वामी अपुनर्भव के कारणभूत हैं । अर्थात् इस समय जो यह महा धर्मतीर्थ प्रवर्तमान हो रहा है उसका मूल कर्ता भगवान महादेवाधिदेव श्री वर्द्धमान स्वामी हैं । इन प्रभु की भाव स्तुति इसमें की गई है । अपुनर्भव नाम है फिर से संसार में न आना । अ मायने नहीं, पुनर् मायने फिर से, भव मायने संसार । अब फिर से संसार में नहीं आना है ऐसी स्थिति का नाम है अपुनर्भव । ये प्रभु इस अपुनर्भव के स्वयं कारण हैं और भव्य जीवों को अपुनर्भव मिले, संसार संकटो से मुक्ति मिले, इसका भी यह निमित्त कारण हैं, क्योंकि महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि की परंपरा से और द्वादशांग की रचना होने की परंपरा में यह आज जो कुछ भी द्रव्य की चर्चा, वस्तु का स्वरूप मिल रहा है उस ही परंपरा की देन है । ऐसे अपुनर्भव के कारणभूत भगवान महावीर स्वामी को सिर से अभिवादन करते हैं ।
संकटमोचन उपाय की आवश्यकता―भैया ! सदा के लिए शंकायें दूर हो जायें, सदा के लिए संकट समाप्त हो जायें, ऐसा उपाय करना अच्छी बात है या नहीं? उत्तर तो यही सब कोई देंगे कि यह तो बड़ी अच्छी बात है कि संसार के संकट सदा के लिए समाप्त हो जायें । पर संसार के संकट सदा को समाप्त हो जायें इसका उपाय जो सुगम और स्वाधीन है, केवल अपने ज्ञान और अपनी वृत्ति के ही अधीन है, जिस उपाय में पराधीनता रंच भी नहीं है, केवल एक आध्यात्मिक साहस की आवश्यकता है, वह उपाय इस मोही जगत में कितना कठिन लग रहा है? यह जीव केवल मानने-मानने का ही तो विकल्प कर रहा है कि और कुछ भी बाह्य पदार्थों में कर पाता है, इसकी मान्यता का निमित्त पाकर आत्मा में योग होता है और उसका निमित्त पाकर उसके अनुरूप बाह्य में भी प्रवर्तन होता है । यों बात चल उठी समस्त संसार के कार्यों की, लेकिन इस जीव ने अपना मूल में क्या किया है? केवल एक मान्यता । तो यह मानो जब बाह्य पदार्थों की अपनायत करती हुई पद्धति से मान्यता होती है तब इस जीव को क्लेश और बंधन होता है, और जब बाह्य पदार्थों को अपनाने की पद्धति नहीं होती है, किंतु निज को निज मानने की पद्धति बनती है तब इस जीव को ज्ञानानुभूति होती है और सदा के लिए संकट छूट जायें―इसका उपाय बनता है ।
यथार्थ विश्राम―जैसे दिनभर बहुत काम करने के बाद थकान हो जाती है और उस थकान को दूर करने के लिए रात्रि को निद्रा लेने की जरूरत होती है, विश्राम लेने की आवश्यकता होती है, उस विश्राम के बाद प्रातःकाल फिर श्रम करने की क्षमता होती है । तो थकान दूर करने के लिए जैसे यहां विश्राम की आवश्यकता होती है, ऐसे ही मन की दौड़ जो रात-दिन लगा करती है उस मन की दौड़ से जो एक अद्भुत थकान इस जीव में उत्पन्न होती है, जिस थकान के कारण यह जीव बेकार हो गया है, और बाह्य पदार्थों का ही भरोसा रखकर यह आकुलित हो रहा है, ऐसी इस मन के विकल्पों की थकान दूर करने के लिए इस शुद्ध सहज चैतन्यस्वभाव में दृष्टि करना अत्यंत आवश्यक हो जाता है, और यह निज अध्यात्मदृष्टि निज के ही तो अधीन है और निज में ही करना है । कोई लोग इस शरीर को जबरदस्ती पकड़ें, कैद में डाल दें अथवा अन्य उपद्रव करें, तिस पर भी यह जीव यदि अपने अमूर्त जीवास्तिकाय में जब यह सुगम शांति का काम करना चाहता है तो वहाँ भी यह निर्वाध रहकर शांति का कार्य कर सकता है, इसके लिए ज्ञान की दृढ़ता आवश्यक है ।
ज्ञान की निर्देशकता―भैया ! सारा खेल दुनिया में ज्ञान का ही तो है । कौन पुरुष किस प्रकार का ज्ञान रखता है, तब उसकी क्या चेष्टा होती है, यों ही निरखते जाइये । सारा काम, सारी व्यवस्था, सारा प्रबंध सब कुछ इस ज्ञान की जड़ से चला करता है तो जब हम एक जानने और मानने के सिवाय कुछ कर ही नहीं पाते हैं तो इन 24 घंटों में एक-आध मिनट हम अपने आपको सही रूप में जानने मानने का यत्न तो करें । यदि हम अपने को सही रूप में जानने की दिशा में बढ़े तो हमें यह विदित होगा ही नहीं कि मैं अमुक नाम वाला हूं, अमुक जाति कुल का हूँ अथवा ऐसे देह का धारी हूँ, और न मैं अनेक विभागों के उपद्रव का स्वभाव वाला हूँ । मैं तो समस्त पर और परभावों से रहित केवल एक चैतन्यस्वभाव मात्र हूँ, ऐसी दृष्टि बने तो यही है वह परमविश्राम, जिस विश्राम के बाद ये मन की थकानें भ्रम कष्ट सब दूर हो जाते हैं, इस ही उपाय को कर के भगवान महावीर स्वामी ने अर्त्यपद् प्राप्त किया ।
प्रभु महावीर की सर्वप्रियता―प्रभु महावीर प्रचलित रीति के अनुसार आज से ढाई हजार वर्ष करीब पहिले हो चुके हैं । वे त्रशलादेवी के कुक्षि से सिद्धार्थ राजा के गृह में उत्पन्न हुए । इनके बालपन से ही ज्ञान और वैराग्य की वृद्धि के कारण शुद्ध भावना रही और ब्रह्मचारी रहे । भला जो सारे विश्व को मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करने वाला होगा ऐसे तीर्थंकर का जब तक गृह में निवास रहता है तब तक मनुष्य लोक का, देवलोक का उनके प्रति कैसा आकर्षण रहता होगा? यहाँ कोई एक भी धनिक पुरुष या अधिकारी पुरुष या कुछ पहिले समय में जैसे जमींदार लोग हुए थे, उनकी ही ठाठ बढ़ी हुई थी, लोगों का आकर्षण रहता था । कोई ज्ञानी पुरुष हो, नेता हो उसके ही प्रति देख लो लोगों का कितना आकर्षण रहता है, पर जो तीन लोक का नेता है ऊर्ध्व, मध्य, पाताल लोक के इंद्र जिनकी सेवा से अपना भाग्य सफल मानते थे उन तीर्थंकर प्रभु की कितनी सेवा गृहस्थावस्था में होती होगी, लोगों का कितना प्यार उनको मिलता होगा, लेकिन जिनके अंत: ज्ञानप्रकाश हो जाता है उन्हें ये बाह्य प्रलोभन, ये बाह्य समागम प्रसन्न नहीं कर पाते हैं । वे विरक्त हुए ।
प्रभु महावीरभगवान की विरागता―विरक्त होने के बाद प्रभु महावीर भगवान ने पूर्णमौन व्रत धारण किया । जो बड़े पुरुष होते हैं तीर्थंकर पुरुष वे दीक्षा लेने के बाद केवलज्ञान होने से पहिले बोला ही नहीं करते और केवलज्ञान के बाद भी वे ऐसे मुख जिह्वा वचनों से नहीं बोलते, किंतु उनकी एक विशिष्ट दिव्यध्वनि देह से निकलती है । जब तक थोड़ा जान रहे थे, केवलज्ञान नहीं हुआ था तब तक यह भाव बना हुआ था कि इस थोड़ी सी जानकारी की स्थिति में हम लोगो से कुछ नहीं बोलना चाहते । हाँ पूर्ण आधिपत्य हो, समग्र वस्तुवों के ज्ञान पर उस समय बोला जाय तो ठीक है । वे छद्मस्थ अवस्था में बोले नहीं और जब संपूर्णज्ञान हो गया उन्हें तो अब बोलना ही क्या? किससे बोलें? कोई रागद्वेष तो है ही नहीं । इतना तक भी नहीं है कि ये महापुरुष, ये श्रेणिक, ये गणधर, ये चक्रवर्ती, ये लोग बड़ी भक्ति से मेरे पास आये हैं तो मैं इनको कुछ बोल दूं अथवा इन्होंने प्रश्न किया है तो मैं कुछ उत्तर दे दूँ, इतने तक विकल्प की भी जहाँ गुंजाइश नहीं रही, ऐसे वीतराग सर्वज्ञ भगवान किसी से बोलते नहीं, किंतु उनकी निरीह दिव्यध्वनि अद्भुत होती है ।
महावीर भगवान और संतों का आभार―भगवान महावीर स्वामी का आज यह शासन न होता तो हम आप इस मोक्ष के मार्ग में कैसे लगते? यह जीवन तो कभी मिट जायगा, ये समागम तो कभी बिखर जायेंगे लेकिन मोक्षमार्ग की प्रतीति बन जाय, अपने आप के सहजस्वरूप का परिचय हो जाय और यह सुहा जाय, इसकी ही रुचि जग जाय तो यह होगा महान पुरुषार्थ । जिस पुरुषार्थ के बल से हम भावी काल में भी उत्तम धर्मपद्धति के प्रसंग में रह सकेंगे । कितना उपकार है प्रभु का और कितना उपकार है इन साधुसंतों का, ऋषि जनों का जिन्होंने अपना अनुभव लेखनी बद्ध करके हम सबको ज्ञानप्रकाश किया है । इन ऋषि संतों का हम पर महान् उपकार है । धन कन कंचन साम्राज्य ये सब सुलभ हैं, मिलना हो तो मिल जाते हैं, न मिलना हे। तो नहीं मिलते हैं । सब उदयाधीन बात है और प्राय: मिलता ही रहता है । जो अनंत आनंद अनंत शुक्ति का पुंज है आत्मा वह कितना भी आवरण में आ जाय तो भी इसको सहूलियतें कुछ न कुछ मिलती ही रहती हैं जिससे यह सुखी रहे । चाहे कोई उन वैभवों का उपयोग कैसा ही करे । तो ये समस्त वैभव सुलभ हैं किंतु अपने आपके स्वरूप का यथार्थज्ञान अति दुर्लभ है । जिस स्वरूप के यथार्थ ज्ञान बिना यह जीव इस संसार में भटकता रहता हैं ।
वक्तव्य के संप्रदान―जो जीव मोक्ष सुखरूपी अमृत रस के प्यासे हैं, जिनकी केवल अंदर से यही एक तीव्र इच्छा जगी है कि मुझे तो अपने आपको केवल बनाना है लेकिन व्यवस्था से भी अधिक हितकारी बात आत्महित को जिनने माना है ऐसे मोक्ष सुख सुधारस के प्यासे भव्यजीवों को ये महावीर भगवान मोक्ष के कारण हुए । अर्थात् इनके शासन का पालन करे जो कोई तो अनंत ज्ञानादिक गुणों का फल इन भव्यों को मिलेगा । ऐसे महावीर स्वामी आज के युग में धर्मतीर्थ के प्रवर्तक, जो स्वयं रत्नत्रयस्वरूप हैं उनको प्रणाम करके कुंदकुंदाचार्यदेव यह प्रतिज्ञा कर रहे हैं, संकल्प कर रहे हैं कि निश्चय मोक्षमार्ग के कारणभूत व्यवहार मोक्षमार्ग को कहूंगा ।
मोक्षमार्ग के वर्णन में नव पदार्थों के वर्णन की प्रथम आवश्यकता―व्यवहार मोक्ष मार्ग के अवयव हैं दर्शन और ज्ञान की वृत्ति, श्रद्धान और ज्ञान की वृत्ति अर्थात् रत्नत्रय, उसके विषयभूत ये 9 पदार्थ हैं जिनके परिज्ञान से व्यवहार मोक्षमार्ग में वृत्ति होती है । मैं इस व्यवहार मोक्षमार्ग को कहूंगा । यद्यपि आगे चलकर इस अधिकार के बाद चूलिका में मोक्षमार्ग का विशेष वर्णन किया जाना है तो भी 9 पदार्थों का संक्षेप में वर्णन किया जाना आवश्यक है । 9 पदार्थों का व्याख्यान यहाँ इसलिए किया जा रहा है कि मोक्षमार्ग में लगने वाले जीवों को प्रथम ही प्रथम कहां से परिचय मिलता है कि ये अपने कल्याणमार्ग में फिर आगे बढ़ते रहते हैं, उसी प्रारंभिक परिचय का वर्णन किया जायगा ।