वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 111
From जैनकोष
तित्थावरतणुजोगा अणिलाणलकाइया य तेसु तसा ।
मणपिरणामविरहिदा जीवा एंइंदिया णेया ।। 111 ।।
एकेंद्रिय जीवों के स्थावरनामकर्म का उदय―स्थावर नामकर्म के उदय से पृथ्वी, जल, वनस्पति―ये तीन प्रकार के जीव एकेंद्रिय जानना चाहिए, और साथ ही यह जानना चाहिए कि अग्नि और वायुकायिक जीव ये यद्यपि चलते हैं, पर स्थावर नामकर्म के उदय से ये स्थावर एकेंद्रिय जीव ही कहलाते हैं । ये मनोयोग से रहित हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति―इन 5 जीवों में एकेंद्रियपने का ही नियम है । रूढ़ि के अनुसार जो चल न सकें, वहीं के वहीं पड़ा रहें उन्हें स्थावर कहते हैं और जो चले उसे त्रस कहते हैं । तो पृथ्वी, जल और वनस्पति ये तीन तो जहाँ के तहाँ ही पड़े रहते हैं । अग्नि और वायु ये प्रकृत्या हिलते डुलते रहते हैं । लेकिन इस रूढ़ि से त्रस और स्थावर का भेद नहीं है । नहीं तो जो अत्यंत छोटा गर्भ में बालक है वह स्थावर कहलाने लगेगा । त्रस नामकर्म के उदय से जिसको दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय और पंचेंद्रियपना मिला है उन्हें त्रस कहते हैं और स्थावर नामकर्म के उदय से जिनको पृथ्वी आदिक एकेंद्रिय जाति के शरीर मिले हैं उन्हें स्थावर कहते हैं ।
काय से अंतस्तत्त्व की विभक्तता―स्थावर नामकर्म के उदय से जो चीज इसे मिली है उससे जीव का परमार्थ स्वरूप न्यारा है । जो आज एकेंद्रिय जीव हैं वे भी अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत शक्ति आदिक गुणों से अभिन्न हैं । उनमें भी ऐसा ही परमात्मतत्त्व है, किंतु उनके अनुभूति कहाँ? मन भी उनके नहीं है । उस अनुभूति से रहित जीव के द्वारा जो कर्म उपार्जित किए जाते हैं वे स्थावर नामकर्म के अधीन होने से ये 5 जीव पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति स्थावर कहलाते हैं ।