वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 132
From जैनकोष
सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावंति हवदि जीवस्स ।
दोण्हं पोग्गलमेत्तो भावो कम्मत्तणं पत्तो ।।132।।
पुण्य पाप का विभाग―पूर्व गाथा में पुण्यपाप स्वरूप की भूमिका में कुछ परिणाम बताये गए थे, उन परिणामों में तात्पर्य रूप से विभाग कर रहे हैं । जीव के जो शुभ परिणाम हैं वे तो पुण्य भाव हैं और जो अशुभ परिणाम हैं वे पापभाव हैं । इन दोनों शुभ अशुभ परिणामों का निमित्त पाकर जो द्रव्य पिंडरूप ज्ञानावरणादिक रूप परिणमन है वह भी शुभ और अशुभ कर्मों की अवस्था से प्राप्त होता है । इस गाथा में चार चीजों पर प्रकाश डाला है―जीवपुण्य, जीवपाप, अजीवपुण्य और अजीवपाप । इस जीव के जो शुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं वे द्रव्य पुण्य के निमित्तमात्र हैं अर्थात् नवीन पुण्य कर्मबंध जो हो रहा है उसका निमित्त जीव का यह शुभ परिणाम है, यह कारणीभूत है, इसके आस्रव के क्षण से ऊपर यह भावपुण्य हो जाता है अर्थात् भावपुण्य द्रव्यकर्मों के आस्रव का कारणभूत है वह शुभ परिणाम भावपुण्य है ।
भावपुण्य व द्रव्यपुण्य में निमित्तनैमित्तिकता―यहाँ भावपुण्य व द्रव्यपुण्य के निमित्तनैमित्तिक प्रसंग में समझ में पहिले और पीछेपन समझना । समय की अपेक्षा नहीं । जीव के शुभ परिणामों का निमित्त पाकर द्रव्यपुण्य बनता है । तो यह बतलावो कि पहिले जीव का शुभपरिणाम हुआ या पहिले पुण्य कर्म का बंध हुआ? निमित्त तो जीव का शुभ परिणाम है और कार्य है पुण्यकर्म का बंध । ये दोनों एक साथ होते हैं, पर जहाँ निमित्तनैमित्तिक भाव निरखा जाता है, निमित्त पहिले आता है नैमित्तिक का नंबर बाद में आता है, यह क्रम केवल समझ में है । समय में यह क्रम नहीं है । जैसे दीपक जलाया, प्रकाश फैल गया, अब बतलावो कि प्रकाश का निमित्त क्या है? दीपक । यों तो नहीं कोई बोला करता कि दीपक का निमित्त प्रकाश है । प्रकाश से दीपक पैदा होता है यों कोई नहीं कहता । दीपक से प्रकाश पैदा होता है अब यह बतलावो कि पहिले दीपक है या प्रकाश? दोनों एक साथ हैं, पर समझ में दीपक पहिले है प्रकाश बाद में है, यों समझो कि यह शुभ परिणाम नवीन द्रव्य पुण्यबंध का कारण है । इसी प्रकार जीव में जो अशुभ परिणाम होता है वह द्रव्य पाप का निमित्त है । तो द्रव्यपाप का कारण होने से द्रव्य पाप के आस्रव से पहिले यह अशुभ परिणाम हो गया, भावपाप हो गया । यह भी समझ का पहिलापन है ।
जीवपुण्य का आधार―जिस काल में जीव के पुण्य अथवा पापभाव होता है उस ही काल में कर्म में पुण्य अथवा पापरूप परिणमन हो जाता है । यह जीवपुण्य और जीवपाप का लक्षण कहा है । जो जीव के शुभ परिणामों के निमित्त से हुआ है अथवा जो जीव के नवीन शुभ परिणामों का निमित्तभूत है, ऐसा यह जो पुण्य प्रकृतिरूप परिणमन है वह द्रव्य पुण्य है । इसी प्रकार इस पुद्गल में जो इस ही प्रकार से ऐसा विशेष प्रकृतिरूप परिणमन है, जो अशुभ परिणाम से उत्पन्न हुआ अथवा जो अशुभ परिणामों के उत्पन्न होने का कारणभूत है वह द्रव्य पाप है । यों पुण्य पाप पदार्थ के स्वरूप बनने के प्रकरण में यह बात बता दी गई है कि तुम जीव पदार्थ को जीव में देखो ।
शुभ अशुभ त्रिविध उपयोगों का स्थान―जीव में जो शुभ राग होता है विशुद्ध परिणाम होता है दान आदि का भाव, शीलपालन का भाव, पूजा भक्ति का परिणाम, व्रत तपस्या का परिणाम, परोपकार का भाव―ये सब जीवपुण्य हैं, और जो जीव में क्रूर परिणाम होता है―पांचों प्रकार के पापों में प्रवृत्त होना, व्यसनों में फंसे रहना, दगा देना, तृष्णा बढ़ाना, अहंकार में डूबे रहना, गुस्सा से अपने को बरबाद किए रहना, ये सारी प्रवृत्तियाँ ये जीवपाप हैं । निश्चय से तो जीव पुण्यभाव और जीव पापभाव ये दोनों संसार में रोके रखने वाले हैं, फिर भी जो जीव अनादिकाल से विपत्तियों में फंसा हुआ है, कर्म और शरीर के बंधन में जकड़ा है, इंद्रियों द्वारा उपभोग कर-करके यह अपने को कृतकृत्यसा मानता है, ऐसे जीव को पहिली अवस्था में जीव पुण्य भाव का एक सहारा होता है । आखिर शुभ परिणाम भी अशुभ परिणाम की अपेक्षा से पवित्र भाव ही है । अशुभ परिणाम के बाद किसी भी जीव को शुद्धोपयोग नहीं होता, न कभी हो सकता । जिस जीव के शुद्धोपयोग जगा है उसे से पहिले उसका शुभ परिणाम हुआ है । तो' शुभोपयोग पूर्वक तो शुद्धोपयोग होता है, किंतु अशुभोपयोग पूर्वक शुद्धोपयोग नहीं होता । इस प्रकार की दृष्टि से भी यह शुभ परिणाम उपादेय है ।
शुद्ध उपयोग का स्थान―एक शुद्ध अंतस्तत्त्व का परिचय अनुभव करने वाले जीव की दृष्टि में यह शुभ परिणाम भी हेय है और अशुभ परिणाम भी हेय है । हम आपका कर्तव्य है कि आत्मा के शुद्ध स्वरूप का लक्ष्य रखकर अशुभ परिणाम से तो दूर हों और शुभ परिणाम में रहें और कोशिश यह करें कि हमें शुद्ध दृष्टि स्थिरता से प्राप्त हो । यों शुद्ध तत्त्व की और अभिमुख होकर शुभ परिणाम से भी निवृत्त हो लें । ऐसी प्रक्रिया की अंत: पद्धति हम आप सबकी होनी चाहिए ।