वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 154
From जैनकोष
जीवसहावं णाणं अप्पडिहददंसणं अणण्णमयं ।
चरियं च तेसु णियदं अत्थित्तमणिंदियं भणियं ।।154।।
नव पदार्थाधिकार के वर्णन के पश्चात् अब मोक्षपद्धति, मोक्षस्वरूप निश्चयमोक्षमार्ग, व्यवहारमोक्षमार्ग आदि के वर्णन के द्वारा मोक्षमार्ग के विस्तार करने वाली चूलिका कही जा रही है ।
मोक्षमार्ग और मोक्ष―अप्रतिहत ज्ञान और अप्रतिहत दर्शन तो जीव का स्वभाव है और वह जीव से अभिन्न है, और उस स्वभाव में नियत हो जाना यह चारित्र है । इस प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र मोक्ष का मार्ग है । इन सबको एक शब्द में कहा तो यों कह लीजिए कि जीव के स्वभाव में नियत रहने का नाम है मोक्षमार्ग । जीव का स्वभाव प्रतिभास है । अपने आप में अंत:दृष्टि करके देखो कि वह मैं क्या हूँ, जो कुछ समझता हूँ, जानता हूँ, चाहता हूं? अंत:दृष्टि करके देखो तो ऐसा समझने वाला कोई पदार्थ अतिसूक्ष्म विदित होगा । पत्थर, ढेला, हड्डी, मांस की तरह पिंडरूप पदार्थ नहीं है वह जो कि जाननहार है । जगत के अन्य सब पदार्थों से विलक्षण केवल जानन-देखनहार अमूर्त पदार्थ यह मैं आत्मपदार्थ हूँ । मेरा स्वभाव तो, जिस स्वरूप से इसका सत्त्व बना हुआ है वह स्वरूप है ज्ञान और दर्शन, जानन और देखन प्रतिभास । यह जीव अपने इस विशुद्ध प्रतिभास में रहा करे, यही है मोक्षमार्ग । और इस प्रतिभास का फिर पूर्ण विकास हो जाय, ज्ञप्तिपरिवर्तन भी न रहे, उसका नाम है मोक्ष।
स्वभाव का आलंबन―यह ज्ञानदर्शन स्वभाव जीव से अभिन्न है । यह तो जीव का स्वरूप, विशेष और सामान्य चैतन्यस्वभाव है । प्रतिभास में जो विशेष तत्त्व है वह तो है ज्ञान और प्रतिभास में जो सामान्यतत्त्व है वह है दर्शन । ये दोनों जीव के स्वरूपभूत हैं । उनमें नियत होना, अवस्थित होना अर्थात् अगुरुलघुत्व गुण के कारण इस ही स्वभाव में उत्पादव्ययध्रौव्यरूप रहकर इस केवल का निरपेक्ष अस्तित्व बना रहना―यही है मोक्ष का मार्ग । यहाँ रागादिक परिणतियाँ नहीं हैं, इसी कारण यह भाव सर्वोत्कृष्ट है । यहाँ मोक्षमार्ग को व संसारमार्ग को इन शब्दों में जानना कि स्वभाव में चलना सो तो मोक्षमार्ग हैं और परभाव में चलना सो है संसारमार्ग ।
द्विविध चरित्र―संसारी जीवों में दो प्रकार का चरित्र है । एक तो स्वचरित्र और एक परचरित्र । स्वभाव में अवस्थित अस्तित्व का नाम है स्वचरित्र और परभाव में अवस्थित स्वरूप का नाम है परचरित्र । स्वचरित्र तो उत्कृष्ट भाव है और परचरित्र जघन्य भाव है । अपने ही स्वभाव में उपयोग का स्थिर होना, परभाव से उपयोग का निवृत्त होना, यही है मोक्षमार्ग और आत्मा का परम पुरुषार्थ । जीव का स्वभाव ज्ञान और दर्शन है । इस ज्ञान और दर्शन में शक्ति की दृष्टि से इसे देखा जाय तो इन्हीं को ही केवलज्ञान और केवलदर्शन कह लीजिए । समस्त वस्तुवों में अवस्थित अनंत धर्म को एक साथ जानने में समर्थ केवलज्ञान है । यह आत्मा का गुण आत्मा से अनन्य है । इतना भी कहना कि ज्ञान और दर्शन आत्मा का गुण है, यह भी आत्मा का तोड़-मरोड़ किया जाता है और यह भी सम्यग्ज्ञान की उत्कृष्ट दृष्टि में शोभा की बात नहीं है । उसे समझ भर लीजिए, यह ही ठीक कदम है, पर जो है उसका यों भेदकरना, यह ज्ञान है, दर्शन है, यह आत्मा का गुण है, ऐसा कहने पर अनुभूति में जो बात आयी थी वह बात नहीं रही ।
गुणी में गुणों की अभिन्नता―सहज शुद्ध सामान्य विशेष चैतन्यस्वरूप जीवास्तिकाय से ये ज्ञान दर्शन गुण भिन्न नही हैं । केवल नाम से भिन्न हैं, लक्षण से भिन्न हैं, प्रयोजन से भिन्न हैं, किंतु द्रव्य वही है, क्षेत्र वही है, काल, वही है, भाव वही है―परमार्थ । ज्ञानदर्शनस्वरूप में और आत्मा में भेद नहीं है । यह भेदकथन जीव को इस निगाह तक भी दूर फेंक सकता है, जैसे कहा करते हैं कि घड़े में दही है, डिब्बा में दही है, तो जैसे यहाँ दो भिन्न-भिन्न चीजें हैं, डिब्बा अलग है, घी अलग है और फिर उसका आधार बताया । ऐसा तो आत्मा में और ज्ञान में नहीं है कि आत्मा कोई वस्तु है और उसमें फिर ज्ञान है । यदि ज्ञान अलग चीज है तो ज्ञानरहित आत्मा क्या है और आधारभूत आत्मा के बिना ज्ञान क्या? दोनों का अभाव हो जाता हे ।
गुणी से गुणों को भिन्न मानने पर आपत्ति―जैसे लोकव्यवहार में कहते हैं कि भगोने में पानी भरा है, तो भगोने और पानी ये अलग-अलग चीजें हो गयीं । भगोना अलग है पानी अलग है और वह पानी भगोने में है, इस तरह यदि यों माना जाय कि आग में गर्मी है, भगोने की तरह आग कोई स्वतंत्र हो और जल की तरह गर्मी कुछ अलग बात हो और फिर आग गर्मी में धरी हो, क्या ऐसा है? यदि यों भिन्न-भिन्न हों तो यहाँ बतावो कि गर्मी तो अलग है, आग अलग है, तो गर्मी बिना आग क्या और आग बिना गर्मी रहे कहाँ? दोनों का अभाव हो जायगा । इसी प्रकार आत्मा में ज्ञान है, इसे अगर भिन्न रूप से देखें जैसे कि कहने में भेद कर दिया जाय तो दोनों का अभाव हो जायगा ।
स्वचरित्रता में मोक्षमार्ग―यह चैतन्यस्वरूप इस चेतन से अभिन्न है, यह चेतन चैतन्यात्मक ही है, ऐसे जीव के स्वभाव में नियत हो जाना, अवस्थित हो जाना इसका नाम चरित्र हैं और यही चरित्र मोक्षमार्ग है । कहा भी है कि स्वरूप में चलना सो चरित्र है । चरित्र ही धर्म है, और धर्म नहीं है जहाँ समतापरिणाम हो, शांति हो । और समता शांति वहीं है जहाँ मोह और क्षोभ से रहित परिणाम हो । यह तो स्वचरित्र की बात कही । अब संसारी जीवों में परचरित की बात देखो । स्वतंत्र स्वभाव के अनुरूप जो आचरण नही, है । परपदार्थों को उपयोग में लाकर इष्ट काम भोगों में ही स्मरण चल रहा हो अर्थात् अपध्यान चल रहा हो, अमुक पदार्थ इष्ट है, अमुक चीज मुझे मिले, अमुक पदार्थ अनिष्ट है मुझ से दूर रहे, अमुक का नाश हो । किसी भी प्रकार मोह रागद्वेषरूप परिणति से परपदार्थों में यह उपयोग करे तो वह है परचरित, परभाव परिणमन । यह संसारमार्ग है ।
स्वोन्मुखी व परोन्मुखी वृति का परिणाम―यह जीव जन्म लेता है, मरता है, नये-नये शरीर ग्रहण करता चला आ रहा है । रागी द्वेषी दुःखी जो भव-भव से इस प्रकार चला आ रहा है वह सब परभाव परिणमन का परिणाम है । परचरित की दशा अत्यंत जुदी है और स्वचरित की दशा अलग है । स्वचरित में झुकाव स्व का और परचरित में झुकाव पर का है । देखिये आत्मा सिवाय एक इतनी कला के और कर ही क्या रहा है? यह उपयोगस्वरूप है, जाननहार है, जानता है, पर जानने की पद्धति जहाँ परोन्मुखी हो गयी, संसार की विडंबना बढ़ती जाती है । जानन की पद्धति जहाँ स्वोन्मुखी हो गयी बस वहाँ इसका मोक्षमार्ग बन जाता है ।
संकटमुक्ति के लिये कर्तव्य―भैया ! जिन जीवों को यह पता नहीं है कि संसार के संकटों से छूटने का उपाय यह स्वाधीन आत्मोपयोग है वे जीव असार संसार के कारणभूत मिथ्यात्व रागादिक मे ही लीन रहा करते हैं । अहो, इन रागादिक भावों में लीन होते हुए इन जीवों का अनंत काल व्यतीत हुआ है । इस प्रकार समय बिताने में इन जीवों को कोई लाभ नहीं हे । हरदम, हर जगह असंतोष, चिंता शोक अभिमान कषाय सभी उपद्रव इसे परेशान कर रहे हैं । संसार से छुटकारा पाने में ही लाभ है । संसार से छुटकारा कैसे हो, उसके उपाय में जो पहिले कुछ वर्णन किया है उसके ही विस्ताररूप यह अधिकार चल रहा है । हमारा कर्तव्य है कि जो समस्त परपदार्थों से छूटा ही हुआ है ऐसे इस निज अंतस्तत्त्व की भावना करें, इस भावना के प्रसाद से ये कर्मबंधन तथा शरीरबंधन स्वयं दूर हो जायेंगे ।