वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 156
From जैनकोष
जो परदव्बम्मि सुहं असुहं रागेण कुणदि जदि भावं ।
सो सगचरित्तभट्टो परचरियचरो हवदि जीवो ।।156।।
परचरित्रता―जो जीव परद्रव्यों में रागवश शुभ अथवा अशुभ परिणाम करता है वह जीव अपने आत्मीय शुद्ध आचरण से भ्रष्ट होकर परसमय का आचरण करने वाला होता है । इस गाथा में परचारित्र में लगे हुए जीव का स्वरूप बताया है । जो जीव मोहनीय के उदय के वश होकर रज्यमान उपयोग वाला होता है और परद्रव्यों में शुभ अथवा अशुभ भावों को धारण करता है वह पुरुष आत्मीय चारित्र से भ्रष्ट होकर परचारित्र का आचरण करने वाला हुआ करता है । आत्मज्ञान से शून्य पुरुष विषयभोगों में प्रवृत्ति करेगा, वह भी परचारित्र है । और आत्मज्ञान से शून्य पुरुष दया परोपकार, सेवा के परिणाम करे वहाँ भी परचारित्र है । तथा आत्मज्ञान से शून्य पुरुष धर्म के नाम पर तप, भक्ति आदिक व्यवहार कार्य करे वह भी परचारित्र है ।किसी परचारित्र में शुभ परिणामों की प्रेरणा है और किसी परचारित्र में अशुभ परिणामों की प्रेरणा है । जो आत्मीय आचरण से भ्रष्ट होकर विकल्पात्मक प्रवृत्ति करना है वह सब परचारित्र है । क्योंकि स्वद्रव्य में शुद्धोपयोग से रहित स्वचारित्र है और परद्रव्य में उपराग सहित उपयोग की वृत्ति होना परचारित्र है ।
स्वयं का वैपरीत्य―यह आत्मा शुद्ध ज्ञानपर्याय में परिणत है । द्रव्यत्व के नाते से अगुरुलघुत्व गुण हानि-वृद्धि से जो स्वरूप सत्त्व के लिए अर्थपरिणमन होता है वह है शुद्ध गुण परिणमन । उसमें परिणत यह निज शुद्ध आत्मद्रव्य है । उसकी प्रतीति से भ्रष्ट होकर रागभाव से परिणमकर जो रागभाव निर्मल आत्मा की अनुभूति से अत्यंत विपरीत है उससे परिणमकर जो समस्त परद्रव्यों में शुभ अशुभ भावों को करता है वह अपने आचरण से भ्रष्ट हो जाता है । निज शुद्ध स्वरूप का साक्षी रहना, केवल देखन जाननहार रहना अथवा उस परिणति का भी आधारभूत शुद्ध ज्ञायकस्वभाव उसकी दृष्टि करना यह तो सम्यक् है । उसके ज्ञान और उसके रमण से अब यह जीव अलग हो जाता है तो वहाँ स्वसम्वेदन नहीं रहता, किंतु पर की और का विकल्प रहता है, वही परचारित्र है ।
परचारित्र से विडंबना―इस जीव ने अनादि से लेकर अब तक परचारित्र ही किया और परचारित्र करता जा रहा है, परचारित्र से विराम नहीं लेता । जिस भव में जो कुछ मिला उसे ही अपूर्व और सर्वस्व मानकर उस ही में रम जाता है, और यह सुध भूल जाता है कि ऐसा और इससे भी बढ़कर अनेक वैभव समागम अनेक बार इस जीव ने पाये हैं, भोगे हैं और छोड़े हैं । मिला कुछ तत्त्व नहीं उनसे । जैसे यहीं देख लो, जो लोग बड़े होकर, बूढ़े होकर गुजर गए हैं उनके बारे में आज विचार करो कि कितने वर्षों तक उन्होंने कठिन श्रम किया, उद्यम किया, विकल्प किया, अंत में उन्हें मिला क्या? जो मरकर चले गए उन्हें मिला क्या? सब अपने-अपने घर से संबंधित स्वर्गीय पुरुषों के संबंध में सोच सकते हैं । उन्हें मिला क्या? जैसे अंत में उन्हें कुछ नहीं मिला, ऐसे ही जब समागम हैं । इस समय भी हमें कुछ नहीं मिल रहा है, मरने के बाद तो यह बात स्पष्ट ही है कि कुछ न मिलेगा, पर जब तक जीवन है तब तक भी अपने को किसी भी समागम से कुछ मिल नहीं रहा है । केवल एक जिसमें जैसी योग्यता है मोह और राग की उसके अनुकूल विकल्प ही मचाये जा रहे हैं ।
धर्मपालन―शुद्ध विधि से धर्मपालन करने की बात जिसके मन में आये वह सत्पुरुष है, ज्ञानी है, विवेकी है, उत्कृष्ट पुरुष है । शुद्ध विधि से धर्मपालन तब ही तो बनेगा जब अपने शुद्ध स्वरूप का भी भान होगा । धर्म कहीं बाहर नहीं करना है, हमारा धर्म अर्थात् स्वभाव व स्वभावावलंबन मंदिर में नहीं है, प्रतिमा में हमारा धर्म नहीं है, शास्त्रों के पन्नों में, पोथियों में हमारा धर्म नहीं है । वहाँ ही दृष्टि गड़ाकर, विकल्प करके शुद्ध विधि का धर्मपालन न होगा । हमारा धर्म, हमारा स्वभाव हम में है, और हमारे धर्म का यह शास्त्र प्रतिपादन करता है इसलिए इसकी भक्ति, इसकी सेवा व्यवहार में धर्मपालन है । हमारा जो धर्म है वैसा ही धर्म सब जीवों में है और जिन जीवों ने अपने धर्म का विकास कर लिया है ऐसे अरहंत प्रभु सिद्ध प्रभु का स्मरण अथवा अरहंतदेव की मूर्ति स्थापित करके उसके माध्यम से अरहंतदेव के गुणों का स्मरण अर्थात् आत्मा के धर्म का स्मरण हमारे धर्म की याद दिलाता है, हमारे धर्म का स्पर्श कराता है, इस कारण वह सब धर्म है व्यवहार में, लेकिन यह तो बतावो कि हमें धर्म कहाँ करना है?
अज्ञानी को धर्माधार का परिचय―हमें धर्म बाहर में किसी जगह नहीं करना है । भगवान में हमें धर्म नहीं करना है, भगवान तो स्वयं धर्मस्वरूप हैं, और उनमें हम कर क्या सकते हैं? उनमें ही क्या किसी भी परवस्तु में हम कर क्या सकते हैं । बाह्यक्षेत्र में इसका उत्तर मत तलाशों । हमें धर्म हम में ही करना है । तो जब हम अपने यथार्थ निरपेक्ष परमार्थस्वरूप को समझें तब ही तो हम उस धर्म की दृष्टि कर सकेंगे और धर्मरूप अपना अंत: आचरण, सर्व श्रमों से रहित परमविश्रामरूप आचरण कर सकेंगे । ऐसे निज शुद्धस्वरूप का जिसको भान नहीं है ऐसा पुरुष ऐसा प्राणी परचारित्रचर हुआ करता है । उसे अपना शरण, अपना परमात्मा ज्ञात ही नहीं है । एक यही परचारित्र का काम करता चला आ रहा है यह जीव ।
अधर्म से निवृत्त होने की प्रेरणा―आज इस मनुष्यभव को इन बातों में निवृत्त होने के लिए ऐसा ही समझ लो कि जहाँ हमने अनंत भव पाये हैं भोगों के लिए हम इस भव को गिनती में ही न लें, हमने यह पाया ही नहीं है, चलो यों ही मानकर और फिर हित में सावधान होकर गुप्त ही अपने आप में शुद्ध विधि से धर्मपालन की बात बना लें तो यह पुरुषार्थ काम देगा इस जीव को । किंतु ये परचारित्र के पुरुषार्थ बाह्य विषयों में लगने के ये पुरुषार्थ, ये श्रम, ये सब थोथे हैं, असार हैं, इनमें सार का नाम भी नहीं है । इन परचरित्रों में लगने से जीव का हित नहीं है, सर्वथा अहित है । अब अपनी वृत्ति बदले और निज स्वभाव की ओर हम जितना झुक सकें उसका यत्न करें, हिम्मत बनायें ।
शांतिलाभ का साहस―स्वभाव मिलन की हिम्मत बनाने में सर्वप्रथम तो यह साहस करना होगा कि मेरा मेरे आत्मा के स्वरूप के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है । लाखों का वैभव जो-जो कुछ मिला है वह सब वैभव अत्यंत न्यारा है । यह मिले, इससे भी शांति नहीं है । यह कम मिले उससे भी शांति नहीं, नहीं मिले उससे भी शांति नहीं । जब तक अज्ञानभाव बसा है तो प्रत्येक स्थिति में यह अज्ञानी जीव ऐसी कल्पनाएँ करेगा ही कि जो अशांति को उत्पन्न करेगी । वैभव न मिलता तो चाह में झूर-झूरकर विकल्प बनाकर अपने को परेशान कर लिया जाता । थोड़ा मिला है तो उससे भी अपने को परेशान किया जा रहा है । बहुत मिल गया दृष्टि पसारकर देखो, करोड़ों आदमियों से वैभव आपके पास अधिक है तिस पर भी शांति नहीं मिल रही, तो इसका कारण यह है कि वैभव शांति का कारण नहीं है । शांति का कारण तो सम्यग्ज्ञान, निरपेक्ष स्वरूप की ओर लगना, आत्महित का भाव यही है शांति का कारण । शांति के कारणों से तो दूर भागें और अशांति के आश्रय में लगें तो वहाँ आनंद कहाँ प्राप्त हो सकता है ?
भोगों की असारता का निर्णय―भोग असार हैं, समागम असार हैं, इस बात का समर्थन गई-गुजरी बातों का स्मरण करके कर लीजिए । वर्तमान में जो स्थिति है उसमें तो निर्णय करना कठिन लग रहा है, और भावीकाल के लिए निदान बाँधकर जो वासना फँसाई है उसमें निर्णय करना कठिन लग रहा है । तो गई-गुजरी बातों का स्मरण करके तो निर्णय करना सुगम हो सकता है । अब तक इंद्रिय के विषय नाना प्रकार से भोगे, अब उनका क्या आनंद रहा? उनसे अब क्या हित हो रहा है? कौनसी बात आज आत्मा से ऐसी हुई जिससे यह कह सके कि देखो हमने समृद्धि का इतना काम तो कर लिया । अब वहाँ से दृष्टि हटायें और हितपथ की ओर अपनी दृष्टि लगायें । खुद के लिए खुद ही शरण है, खुद ही जिम्मेदार है । दूसरा कोई उत्तरदायी नहीं है, वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है । किसी को गालियाँ नहीं दी जा रही हैं, वस्तु का स्वरूप कहा जा रहा है । प्रत्येक जीव अपनी-अपनी ही धुन का काम कर रहा है । कोई किसी के काम नहीं आ रहा है । ऐसे इस नग्न संसार में परचारित्र की प्रवृत्ति बनाये रहना, यह हमारे कल्याण की बात नहीं है ।