वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 166
From जैनकोष
अरहंतसिद्धचेदियपवयणगणणाणभत्तिसंपण्णो ।
बंधदि पुण्णं वहुसो ण हु सो कम्मक्खयं कुणदि ।।166।।
शुभोपयोग से पुण्य का बंध―शुद्ध पदार्थों में लगे हुए उपयोग के प्रयोग के समय जो परिणति होती है वह परिणति कथंचित् बंध का कारण है । इस कारण यह शुभोपयोग मोक्षमार्ग रूप नहीं है अर्थात् शुभोपयोग पुण्य का बंध करने वाला है, किंतु समस्त कर्मो का क्षय रूप जो मोक्ष है उसको नहीं करता । वह शुभोपयोग शुद्ध और शुद्ध के निर्देशक पदार्थो के आश्रय से उत्पन्न होता है ।
अर्हद्भक्ति का शुभ उपयोग―शुभोपयोगों में सर्वप्रथम स्थान है अर्हद्भक्ति का । अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति और अनंतआनंद से संपन्न परमात्मतत्त्व में रुचि जगना सो अर्हद्भक्ति है । रुचि उसे कहते हैं जो ग्राह्यता के रूप से प्रकट होती है । यह चीज ग्रहण की वाचक है, मेरे लगाव के लायक है, मेरे लिए हितरूप है । इसी प्रकार की बुद्धि को जो उत्पन्न करे उसे कहते हैं रुचि । प्रभु की यह अनंत चतुष्टयरूप गुण भक्ति जीव को उपादेयरूप से विदित है । इस अर्हद्भक्ति से संपन्न होते हुए, उनके गुणों का स्मरण करके, उन गुणों के चमत्कार को दृष्टि में रखकर अतिशय से आनंदमग्न होता हुआ यह जीव बहुत प्रकार से अर्थात् अतिशयरूप से पुण्य का बंध करता है ।
सिद्धभक्ति का शुभ उपयोग―सिद्ध भगवान भी परमात्मा हैं, अरहंत भी परमात्मा हैं । केवल एक अघातिया कर्म का उदय और अधातिया कर्मों का उदय है और इस ही कारण शरीर आदिक से वे सहित हैं, किंतु सिद्ध भगवान अष्टकर्मों से रहित हैं, इस कारण शरीरादिक से भी रहित हैं । उन सिद्ध भगवान के उस शुद्ध आत्यंतिक कैवल्यस्वरूप का स्मरण करना और ग्राह्यतारूप से अर्थात् यही मेरा स्वरूप है, इस ही में सत्य अनाकुलता है, यों उपादेयता की पद्धति से उनमें रुचि उत्पन्न करना सो सिद्धभक्ति है ।
चैत्यभक्ति का शुभ उपयोग―चैत्यभक्ति चैत्य अर्थात् चित्स्वरूप का प्रतीक, जो दृष्टिगोचर प्रतिबिंब है उसे चैत्य कहते हैं । चैत्य चित्स्वरूप में पाये जाने वाले भाव का भी नाम है । इसलिए परमार्थ से चैत्य तो हुआ आत्मस्वरूप और इसके पश्चात् और उपचार में बढ़े तो चैत्य हुए अरहंत सयोगकेवली । वह चैत्य जिस शरीर में रह रहा है उस शरीर का नाम भी चैत्य है । अब और आगे चलिए तो सयोगकेवली का प्रतिबिंब, जिसमें स्थापना की है, ऐसी जो मंदिर में विराजमान प्रतिमा है उसका भी नाम चैत्य है, और चैत्यालय भी जो चैत्य का घर है उसे चैत्यालय कहते हैं । तो परमार्थ से चैत्यालय तो शुद्ध जीवास्तिकाय है । जिसे लोग कहते हैं मंदिर, चैत्य अर्थात् चैतन्यस्वरूप । उसका जो आलय है, घर है वह वही जीवास्तिकाय है । कोई पूछे―कहाँ बस रहा है यह चैतन्यस्वरूप? तो उत्तर मिलेगा कि जीव आत्मप्रदेशों में बस रहा है । तो चैत्यालय शुद्ध जीवास्तिकाय का नाम है, और उपचार में चलें तो जो सयोगकेवली का परमौदारिक जो दिव्य शरीर है, वह है चैत्यालय, क्योंकि ऐसा चैतन्यस्वरूप उसमें बस रहा है । फिर और चलो तो चैत्य प्रतिबिंब का जो घर है सो चैत्यालय है, वह है मंदिर । चैत्य की भक्ति करना, जीवस्वरूप की भक्ति करना, सयोगकेवली की भक्ति करना और मंदिर चैत्यालय की भक्ति करना यह सब चैत्यभक्ति है । चैत्यभक्ति में व्यक्त हुआ जो शुभोपयोग परिणमन है वह परिणमन पुण्य का बंध करता है, किंतु सकल कर्मक्षय को उत्पन्न नहीं करता है ।
प्रवचनभक्ति का शुभ उपयोग―प्रवचनभक्ति प्रवचन नाम है आगम का । जो प्रामाणिक वचन हों, उन्हें प्रवचन कहते हैं । आप्त सर्वज्ञदेव के वचन प्रामाणिक वचन हैं । अत: उस आगम का नाम है प्रवचन । प्रवचन की भक्ति करना, प्रवचन में जो तत्त्व कहा गया हो, स्वरूप बताया है उस स्वरूप का आदर करना, वस्तुस्वरूप का अवगम करना और वस्तुस्वरूप का अवगम कराने में साधनभूत इस 'प्रवचन का उपकार मानना सो प्रवचन भक्ति- है । प्रवचन का हम आप लोगों पर बड़ा उपकार है । न होते ये जिन वचन तो हम न जाने किस दिशा में बहे होते? मिथ्यात्व के प्रवाह में बहकर कुगतियों में जन्म लेते फिरते और आज भी कोई पूर्ण संतोष की बात नहीं है । यदि न चेते तो यही काम आगे होगा, मिथ्यात्व वासना से अनुरक्त होकर योंही कुगतियों में जन्म लेते फिरेंगे । इस कारण बहुत बड़ी जिम्मेदारी है इस मनुष्यभव की । संसार के समस्त संकटों से छूटने का उपाय इस भव में बन सकता है । इस ओर दृष्टि न दें ममता में, परिजनों में, वैभव में, तृष्णावों में ही अपने आपको रमाये रहे तो यहाँ कोई जानने वाला तो है नहीं, अथवा शरण सहाई कोई है नहीं । मोह की नींद का स्वप्न देखकर चल बसेंगे और फिर यदि कीड़ा मकोड़ा वनस्पति हो गए तो फिर कौन पूछने वाला है? व्यवहार भी फिर वहाँ न चलेगा । इससे अपनी बड़ी जिम्मेदारी माननी चाहिए ।
मन का निरोध करके अध्यात्मदर्शन की प्रेरणा―भैया ! मन ने जैसा हुक्म दिया इंद्रिय विषयों की भक्ति की, प्रेरणा की तो उस ओर नहीं बहना चाहिये, जरा रुकना चाहिए, उसमें न बहे । इस मन को समझा दें । इन क्षणिक सुखों में तेरा गुजारा न होगा । तेरा गुजारा तो जो तेरा शुद्ध स्वरूप है उस स्वरूप की रुचि कर, उसमें मग्न रह, उसका ही आदर कर उसमें ही बस, तो तेरा सत्य गुजारा चलेगा । ऐसा अपने मन को समझायें और इन विषयों में, ममताओं में, परिग्रहों में आसक्ति न उत्पन्न हो, ऐसा प्रयत्न करें । इस ही प्रयत्न से हम आप सबका यह जैनशासन का पाना भी सफल होगा । प्रवचन भक्ति सातिशय पुण्य का बंध करायेगी, पर मोक्ष उत्पन्न न करायेगी । लेकिन ये सब हमें इस प्रकार के पात्र बनाने वाले हैं कि जिससे मोक्ष के साक्षात् साधनभूत इस निश्चयदृष्टि अथवा स्वानुभूति का आलंबन ले सकेंगे ।
साधुभक्ति का शुभ उपयोग―मुनियों की भक्ति―जैसे हम आपके पड़ौस में कोई गृहस्थ धर्मात्मा है, उदार है, ज्ञानी है, नम्र है तो उसकी छाप हम पर बहुत अधिक पड़ती है, क्योंकि वह सामने है, और इतिहास के पन्नों में जिन बड़े उदार चित्तो का, नायकों का, संतों का नाम लिखा हुआ है और पढ़ते हैं उनका इतना प्रभाव शीघ्र नहीं पड़ता जितना कि एक दिखने वाले साधारण गृहस्थ में उदारता, परोपकार शीलता, ममता का न होना, सबके काम आना, व्रत में, तपश्चरण में, प्रभुभक्ति में लगना । इन बातों को देखकर प्रभाव बनता है, ऐसे ही समझिये कि सिद्ध प्रभु तो ओझल है और होते भी यहाँ तो आँखों क्या दिख सकते थे? अरहंत भगवान कभी यहाँ दिखा करते थे, किंतु आज नहीं हैं और अब भी वह आगम गम्य हैं, युक्ति और अनुभव से भी गम्य हैं, किंतु साक्षात् यत्र-तत्र क्वचित् मिल जाने वाले साधु संतों के दर्शन से हम अपने में तात्कालिक प्रभाव पाते हैं । जब हम उन साधुवों के गुणों पर दृष्टि देते हैं, इनका ज्ञान, इनका झुकाव केवल एक शुद्ध चैतन्यस्वरूप की ओर रहा है । जगत के बाह्य आडंबरों से कुछ प्रयोजन नहीं है, कैसी क्या बीत रही है, देह पर भी क्या गुजर रहा है, इस ओर भी ये विकल्प नहीं करते । एक शुद्ध ज्ञायकस्वरूप अंतस्तत्त्व की ओर इनका ध्यान रहता है । जो अंतस्तत्त्व निर्विकल्प विकल्प समतारस से परिपूर्ण है ऐसे अभंग वैराग्यसंपन्न ज्ञानपुंज साधु के गुणों पर दृष्टि देते हैं, उस समय जो एक स्वरूप रुचि जगती है उसका नाम है साधुभक्ति । साधुभक्ति से सातिशय पुण्य का बंध होता है ।
ज्ञानभक्ति का शुभ उपयोग―एक ज्ञानभक्ति है । भेदविज्ञान की महिमा चित्त में समाना―अहो धन्य हो, जयवंत हो यह भेदविज्ञान, जिस भेदविज्ञान के प्रसाद से इस जीव को शिवपथ नजर आता है । हमें शांति किस प्रकार मिलेगी उसका साक्षात् अनुभव हो जाता है । भेदविज्ञान का परम उपकार है । संसार के कठिन से कठिन संकटों में लगे हुए विपन्न इस प्राणी को संसार से उद्धार करने वाला यह भेदविज्ञान ही है । जो भी आत्मा सिद्ध हुए हैं, परमात्मा हुए हैं वे इस भेदविज्ञान से ही हुए हैं । जो आज तक संसार में बँध रहे हैं वे सब भेदविज्ञान के अभाव से ही बंधे पड़े हैं । अहो ! जयवंत हो भेदविज्ञान । सब जीवों के उपयोग में समावो हे भेदविज्ञान । इस जीव का वास्तविक शरण यह भेदविज्ञान है । अन्य पदार्थ जो स्वरूप से ही अलग हैं, भिन्न हैं उनकी अपनायत, उनकी दृष्टि इस जीव के अहितरूप है । यों भेदविज्ञान के गुण चमत्कार विचार-विचारकर इस भेदविज्ञान का जयवाद करना, सो ज्ञानभक्ति । फिर जो आगे चलकर जिससे हम अपने को हटा रहे थे उसका भी विकल्प छोड़कर एक निज शुद्ध अंत:स्वरूप में अभेदरूप से मग्न होना यही है अद्वैतज्ञान । इस ज्ञान के अनुभव के बाद विकल्प अवस्था में आने पर इस ही अभेदज्ञान का जयवाद करना, मरण करना, उसमें रुचि जगाना सो है ज्ञानभक्ति । यों परमपावन पदार्थ और अभेद की भक्ति से संपन्न हुआ जीव सातिशय पुण्य का बंध करता है । इस संबंध में इस जीव के शुद्धोपयोग का लक्ष्य है, लेकिन कुछ राग जीवित है, इस कारण वह उपयोग शुभोपयोगपने को नहीं छोड़ रहा है।
शुभोपयोग की लक्षणाओं से शिक्षण―शुभोपयोग होने के कारण यह जीव सातिशय पुण्य का बंध करता है । इस कथन से शिक्षा यह लेनी है कि जब ऐसे पावन पदार्थ की ओर उत्पन्न हुए राग की कणिका भी एक बंधन का कारण बन गयी तो हमारा अब यह निर्णय हैकि समस्त पर तत्त्वों में अथवा सर्वत्र राग का लेश भी दूर करना चाहिए । क्योंकि रागभाव किसी न किसी अंश में परसमय की परिणति कराने का कारण होता है । रागभाव मोक्ष का मार्ग नहीं है, फिर भी इतना तो मानना ही होगा कि जब यह जीव राग करने की योग्यता में है तो इस राग को यदि इस परमपावन पदार्थ में न जुटाया जाय, यह राग यदि किन्हीं विषयों की ओर लग जाय तब तो वहाँ बहुत अहित है । इस दृष्टि से यह सब शुभोपयोग उपादेय है और इसमें हम आप परिणति भी कर रहे हैं, फिर भी हम आप सबका लक्ष्य चिंतन भावना इस निर्लेप, शुद्धस्वरूप की ओर होना चाहिए ।
मन का विशुद्ध उपयोग―भैया ! यह मन खाली नहीं बैठ सकता । कुछ न कुछ इसे करने को चाहिए । जब तक मन का बल चल रहा है, जब तक ज्ञान-ज्ञान में प्रतिबिंबित नहीं हुआ है, अर्थात् निर्विकल्प समाधिभाव प्रकट नहीं हुआ है तब तक इस मन का तो निरंतर काम चल रहा है ना । तो ऐसी स्थिति में हम एक ही उपाय यह कर ले कि इस मन को इन शुभ शुद्ध पदार्थों की ओर लगा दें तो ये अशुभोपयोग विषय कषाय दुर्ध्यान―ये सब दूर हो जायेंगे । इस जीव के वास्तविक बैरी विषय और कषाय हैं । किसी भी दूसरे जीव को अपना विरोधी मान लेना युक्त नहीं है । वह अपने विषयसाधनों के लगाव से आज विषय साधनों के लगाव रखने वाले मुझ को यह टेढ़ा जंच रहा है लेकिन जिस बुनियाद पर यह बैरी जंच रहा है, किंतु उसकी बुनियाद भी क्षोभ है और मेरी बुनियाद भी क्षोभ है । इसी कारण जो आज व्यवहार में विरोधी बन रहा है वह थोड़े ही समय बाद व्यवहार में हमारा परममित्र बन सकेगा और ऐसा होता भी रहता है बाहर में । कोई भी जीव मेरा विरोधी नहीं है । मेरा विरोधी मेरे विषय कषायों का परिणाम है । इसे दूर करें, फिर जगत में कोई भी जीव मेरा विरोधी न रहेगा ।
विषयकषायों को दूर करने का कर्तव्य―विषय और कषाय परिणामों को दूर करने के लिए हम तब तक समर्थ नहीं हो सकते हैं सही मायने में जब तक विषयरहित और कषायरहित निज शुद्ध चैतन्यस्वरूप का परिचय न पा लें । एक उपयोग में दो बातें एक साथ नहीं बनती हैं कि विषयों का उपभोग भी करते रहें और धर्म का पालन भी करते रहें । जैसे एक सूई आगे और पीछे दोनों तरफ एक साथ सी नहीं सकती, एक पुरुष पूर्व और पश्चिम में दोनों दिशावों मे एक साथ एक ही समय में गमन नहीं कर सकता, इसी प्रकार समझिये कि एक उपयोग में विषयो का उपभोग और धर्म का पालन―ये दोनों नहीं बन सकते हैं, इस कारण यह निर्णय करिये कि इन दोनों में हेय क्या है, उपादेय क्या है, मेरा हितरूप क्या है, मेरा अहितरूप क्या है, ऐसा निर्णय बनाकर जो हितरूप हो उसमें उपयोग लगाइयेगा ।
विषय कषायों को दूर करने का यत्न―निर्विषय, निष्कषाय शुद्ध ज्ञायकस्वरूप ही हमारा हितकारी है, वही तो मैं हूँ, हितमय ही तो मैं हूँ, ऐसी अपने अंतस्तत्त्व की ओर भक्ति जगे वह तो है शरण और शेष किसी से भी प्रार्थना करें, आशा करें, मेरे विषयों के साधन बने इसीलिए तो लोग दूसरों से आशा रखते हैं, इन विचारों में इस जीव को शांति और संतोष कभी प्राप्त नहीं हो सकता है । अपने विचार शुद्ध बनायें, भावना शुद्ध रक्खें, विवेक हमारा सही रहे तो समझिये कि हम बड़े स्वस्थ हैं, सावधान हैं, विवेकशील हैं और यह बात न आ सकी, मोह ममता में ही रहे तो हमने कुछ भी विवेक का काम नहीं किया । अपना सत्य स्वरूप जाने और यह निर्णय करें कि पर तत्त्वों की ओर लगाव का होना ही हमारे लिए विपदा है, इस कारण सर्वप्रयत्न करके शब्दरहित निर्लेप निज चैतन्यस्वरूप की ओर ही झुकते रहें तो इसमें ही हमें शांति का मार्ग प्राप्त हो सकता है ।