वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 169
From जैनकोष
तम्हा णिव्बुदिकायो णिस्संगो णिम्ममो य हविय पुणो ।
सिद्धेसु कुणदि भत्तिं णिव्बाणं तेण पप्पोदि ।।169।।
निर्वाणयात्रा में निःसंगता―चूंकि रागादिक की अनुवृत्ति होने पर चित्त में उद्भ्रम उत्पन्न होता है, डांवाडोलपना चित्त का रहता है अथवा बुद्धि भ्रांत रहा करती है और उस बुद्धि की भ्रांति होने पर कर्मबंध होता है । इस कारण मोक्ष चाहने वाले पुरुषों को नि:शंक होकर, निर्मम रहकर सिद्ध प्रभु की भक्ति करना चाहिए, इससे निर्वाण की प्राप्ति होती है । प्रत्येक पदार्थ नि:संग है तभी पदार्थों का अस्तित्व रहता है । अपने स्वरूप से ही रहना, पर के स्वरूप से न रहना, पर के द्रव्यगुण पर्यायों से विविक्त रहना यही नि:संगता है । यह आत्मा भी अपने ही सत्त्व से है । समस्त परपदार्थ उन द्रव्य गुण पर्यायों से विविक्त हैं, इस कारण आत्मा भी नि:संग है । ऐसे नि:संग आत्मतत्त्व की जब यह जीव सुध नहीं रखता तो कल्पना में यह परिग्रही बन जाता है, बाह्य परिग्रहों से परिग्रही कोई होता ही नहीं है । किसी-किसी जीव के बाह्य परिग्रह लगे हैं तो भी स्वरूप में तो निष्परिग्रही यह आत्मा है ही । केवल अंतरंग परिग्रह जो आत्मा का जोड़ रक्खा है, कल्पनाएँ, विकल्प, मूर्छा इन अंतरंग परिग्रहों के दूर होने से यह आत्मा निष्परिग्रही कहलाता है । नि:संग आत्मतत्त्व से विपरीत बाह्य और आभ्यंतर परिग्रहों से रहित होने के कारण जीव नि:संग हो जाता है । जिसे निर्वृत्ति की इच्छा है उसे नि:संग होना चाहिए ।
निर्वाणयात्रा में निर्ममता―जो मुक्ति चाहता है, सर्व झंझटों से बंधन से छुटकारा चाहता है उसका कर्तव्य है कि पहिले यह स्वीकार करे कि मैं इन सब बंधनों से रहित स्वरूप वाला हूँ और फिर यथाशक्ति ऐसी अपनी वृत्ति रखें जिसमें बाह्यपरिग्रहों का संबंध न रहे ।मोक्ष चाहने वाले पुरुषों को निर्मम होना चाहिए । लोकव्यवहार में निर्मम होने को गाली समझते हैं । यह पुरुष बड़ा निर्मम है, लेकिन ममता तो जीव का विकार भाव है । लोग तो चाहते हैं कि हम पर दूसरों की ममता जगे, हमारी लोग सेवा करें, पालन पोषण करें, इस कारण से ममता का आदर रखते हैं, पर मोक्ष के प्रसंग में इन ममतावों से तो जीव की हानि है, अतएव ममता का लवलेश भी न रहे ऐसी जो निर्ममता है, ममकाररहित परिणाम है ऐसे परिणामों में रहकर मुक्ति की प्राप्ति का उपाय बनाना है ।
चैतन्यशक्ति की उपासना से सिद्धि―यह मैं आत्मा चैतन्यप्रकाशरूप हूँ, जिसमें रागादिक उपाधियों का संबंध नहीं है, ऐसे आत्मतत्त्व से विरुद्ध है यह मोहविकार । उस मोह के उदय से ममकार आदिक विकल्पजाल उत्पन्न होते हैं, उन विकल्पजालों से जो रहित बन जाय उसका नाम है निर्मम अथवा निर्मोह कहो । तो मुक्ति चाहने वाला पुरुष नि:संग होकर, निर्मोह होकर सिद्ध में भक्ति करे । जो आत्मा अपने आप सहज सिद्ध है, शाश्वत है ऐसा जो चैतन्यस्वभाव उस ही भाँति कल्पनाएँ करके देखी गयी जो शक्तियाँ हैं उन शक्तियों की भक्ति करें ।
लोक में शक्ति की उपासना―कुछ संप्रदाय शक्ति की भक्ति करते हैं । जैसे दुर्गा देवी के भक्त जितने लोग होते हैं उनमें कुछ तो मुद्रा की भक्ति करते हैं । जो दुर्गा की मुद्रा बनायी जिस प्रकार भी उस रूप को देखकर उपासना करते हैं और कुछ लोग मुद्रा की उपासना नहीं करते, किंतु एक जो शक्ति है संहार शक्ति अथवा पालन शक्ति, जो भी उन्होंने कल्पना में समझा है उस शक्ति की उपासना करते हैं, ठीक है, शक्ति की उपासना करने वाले दुर्गा का सही स्वरूप समझें और उसकी शक्ति का सही स्वरूप समझें, फिर उपासना करें तो उन्हें भी रास्ता मिल सकता है ।
दुर्लभ विभूति और उसकी शक्ति―दुर्गा नाम किसका है । दु:खेन गम्यते या सा दुर्गा, जो बड़ी मुश्किल से प्राप्त की जा सके उसका नाम दुर्गा है । जरा निगाह डालकर तो देखो यह आत्मा प्राप्त क्या किया करता है? धन प्राप्त कर नहीं सकता, अन्य जीवों को पा नहीं सकता, क्योंकि यह मैं आत्मा रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित अमूर्त तत्त्व हूँ, इसमें तो इसकी परिणतियाँ जगती हैं और उन्हीं परिणतियों के होने का नाम प्राप्त करना है । मैं क्या प्राप्त कर सकता हूं? अपने आपमें अपने ही परिणमन में प्राप्त कर सकता हूँ । तो अब सर्वपरिणमनों में से ऐसे परिणमन को खोजो जो परिणमन बड़ी कठिनाई से मिलता है । विषयकषायों के परिणमन अनादिकाल से जीव के साथ चले आ रहे हैं, ये बड़े आसान लग रहे हैं । प्रत्येक जीव संसार के विषय और कषाय में मग्न हैं । वे परिणतियाँ तो दुर्गा नहीं हैं, केवल एक निर्विकार शुद्ध अंतस्तत्त्व की अनुभूति यह बड़ी कठिनाई से मिलती है । देखो ना जहाँ आँख उठाकर देखो । जितने लोग दिखते हैं, जितने पशु पक्षी दिखते हैं सबकी परिणतियाँ विषयों में कषायों में बड़ी आसानी से लग रही हैं । केवल एक अपने आपकी ऐसी अनुभूति जहाँ कोई विकल्प नहीं है, केवल चैतन्यप्रकाश का अनुभव है ऐसा शुद्ध अंतस्तत्त्व का अनुभव ही वास्तव में दुर्गा है जो बड़ी मुश्किल से प्राप्त होता है, उस अनुभूति की शक्तिरूप में उपासना करिये ।
उपासनाओं का मूल प्रयोजन―वह अनुभूति किस आधार से हुई है, किसका आलंबन लेकर करना है, ऐसी शाश्वत जो चिर शक्ति है उस शक्ति को एक भेदरूप में विस्तृत करें तो शाश्वत सहज ज्ञान, सहजदर्शन, सहज गुण आदिक अनेक सहज गुण विदित होते हैं । उन गुणों में भक्ति करें तो मुक्ति प्राप्त हो सकती है । कोई समय था जब लोगों में धर्म का वातावरण विशेष था और उस धार्मिक वातावरण में धर्म का प्रतिपादन कभी अलंकारिक रूप में भी चला करता था । तो उस समय के जो अलंकारिक शब्द हैं, जिनकी उपासना के लिए धर्ममार्ग में बताया था वे सब आज भिन्न रूप से देवी देवताओं के रूप रखने लगे हैं किंतु समस्त उपासनाओं का प्रयोजन मूल में इस सहन सिद्ध प्रभु की उपासना का ही है । आज जितने भी मजहब, जितने भी धर्म भिन्न-भिन्न रूपों को लेकर प्रकट हुए हैं उन सबका प्रारंभ में जब कि एक ही धार्मिक वातावरण था, सबका उद्देश्य कोई एक था, बाद में विचार धारायें और अर्थ प्रतिपादन की प्रक्रियाएँ भिन्न-भिन्न होने से मजहबों के रूप हो गए ।
पारमार्थिकी भक्ति―सभी लोग आखिर धर्ममार्ग में तब संतोष पाते हैं जब अपने आपकी ओर झुकते हैं और तभी एक परमविश्राम मिलता है । यह सब क्या है? नि:संग होने का और निर्मम होने का रूप । जिन्हें मुक्ति चाहिए वे नि:संग हों और निर्मम बनें, शुद्ध गुणों की तरह जो अनंत ज्ञानादिक आत्मा के गुण हैं उनमें भक्ति करें । वास्तविक भक्ति क्या है? पारमार्थिक जो निज अंतस्तत्त्व है उसका स्वसम्वेदन ही वास्तविक सिद्धभक्ति है । इस सिद्धभक्ति के परिणाम से जो शुद्ध आत्मा की उपलब्धि होती है यही निर्वाण है । इस निर्वाण की प्राप्ति के लिए सर्वप्रयत्नों से रागादिक की अनुवृत्ति समाप्त करनी होगी । रागादिक भाव प्रकट हुए हैं उसके अनुकूल आशय बनाना इसका नाम है रागादिक की अनुवृत्ति । रागादिक भाव प्रकट होते हैं, उस रागादिक भाव में उपयोग का जोड़ना इसका नाम है रागादि की अनुवृत्ति । इसके अतिरिक्त जो अन्य अबुद्धिपूर्वक राग उत्पन्न होते हैं जिन्हें यह शुद्धोपयोग से ग्रहण भी नहीं करता है वे सब तो अपने आप ही दूर हो जाते हैं ।
रागविनाश के ठौर―रागादिक दूर किये जाने के ये तीन मुख्य ठौर हैं । रागादिक के अनुकूल आशय बनाना यह तो है मिथ्यात्व की पदवी । अभिप्राय बना बनाकर रागादिक उत्पन्न करना और रागादिक होते हैं उनमें उपयोग का लगाना यह दूसरी पदवी का राग हो सकता है । ऐसी स्थिति मिथ्यात्व में भी हो सकती है और सम्यक्त्व में भी हो सकती है अर्थात् आत्मा में रागादिक होते हैं तो उन रागादिकों की प्रेरणा से उपयोग स्व की ओर न रहकर रागादिकों के साधनों की ओर चला जाय, यह बात सम्यग्दर्शन के होने पर भी किसी हद तक संभव हो सकती है और मिथ्यादृष्टियों के तो यह होती ही रहती है, किंतु तीसरे दर्जे की जो रागादिक स्थितियाँ हैं, वे अविदित रहती हैं । राग हो गया, जिस आत्मा में राग हुआ, न उसको उपयोग ने ग्रहण किया, न उसने समझ ही पाया कि हुआ राग । यों अबुद्धिपूर्वक राग होकर वह अपने आप समाप्त हो जाता है ।
उपदेश्यता―अबुद्धिपूर्वक राग को दूर करने के लिए तो उपदेश क्या है, किंतु जो बुद्धिपूर्वक राग करता है, मिथ्यात्व अवस्था में विपरीत अभिप्राय रखकर राग करता है उसे त्यागने का उपदेश हो सकता है, और सम्यक्त्व होने पर भी आसक्ति के कारण रागादिक में उपयोग लगता है । जैसे सम्यग्दृष्टि गृहस्थ श्रावक जब दूकान मकान परिजन सर्वप्रकार के प्रसंगों में है तो क्या उसका उपयोग कभी इनमें जाता नहीं, हाँ प्रतीति अवश्य विशुद्ध रहा करती है । तो उस समय में भी जो रागादिक होते हैं उनके भी त्याग का उपदेश किया जाता है और प्रमत्त अवस्था में साधु जनों के भी जो रागादिक हुए वे धर्मानुराग हैं, उनके भी परिहार का उपदेश किया जाता है । जिसे मुक्ति की अभिलाषा है उसे रागादिक की अनुवृत्ति का तो समाप्ति करण करना ही चाहिए ।
स्वसमयरतता―जब ये रागादिक दूर हुए तो आत्मा में पारमार्थिक सिद्धभक्ति उत्पन्न होती है । जो अपने आप सिद्ध है ऐसे निर्मल शुद्ध आत्मद्रव्य में ही विश्राम पा लेना, विकल्प तरंग न होना, ऐसी अपनी जो अभेद पारमार्थिक सिद्ध भक्ति है उसको धारण करते हुए यह जीव स्वसमय परिणति वाला होता है । यह हुआ स्वसमयरत । जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र में स्थित है उसे स्वसमय कहा गया है । जब ऐसे स्वसमय का प्रकाश होता है तो समस्त कर्मबंध दूर होते हैं और अन्यत्व की सिद्धि, सदा के लिए कर्मजालों से मुक्ति उसके प्रकट होती है ।