वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 20
From जैनकोष
णाणावरणादीया भावा जीवेण सुट्ठु अणुबद्धा।
तेसिमभावं किच्चा अभूदपुव्वो हवदि सिद्धो।।20।।
ज्ञानावरणादिककर्म के क्षय से जीव की अभूतपूर्व सिद्धदशा―ज्ञानावरणादिक कर्म के द्वारा यह खूब अवरुद्ध हुआ है, उन कर्मों का अभाव करके जीव सिद्ध बनता है जो अभूतपूर्व बात है। सिद्ध होना अभूतपूर्व बात है याने जो कभी हुआ नहीं और हो गया और उस अभूतपूर्व की बहुत बड़ी महिमा है कि हो जाने के बाद फिर कभी वह मिटे नहीं। तो यहाँ यह संसारी जीव अज्ञान भार से लदा है। इसका परिचय ऐसे दृष्टांत से करिये कि जैसे कोई बाँस किसी ढंग से रंगा है जहाँ चित्र-विचित्र नाना फोटो भी रचे गए हैं, कुछ भाग अचित्रित है। आवरण से अब वह समूचा ढका है, तो जितने अंश में उसका आवरण दूर हुआ, उससे कुछ जाना तो सही कि आत्मस्वभाव दृष्टि से निर्मल है, लेकिन जो थोड़ा बहुत चित्र-विचित्र रंग देखो तो वहाँ यह बोध होता है कि चाहे यह रंगा हुआ हिस्सा हो, चाहे बिना रंगा, दोनों में वही एक बांस है। इसी तरह जीव की पर्याय मलिन चल रही है, मगर यह मलिनता तो दम भर के नहीं है, क्योंकि यह केवल एकत्वगत जीव के मलिनता नहीं बनती। बाहरी पदार्थों के अनुकूल संयोग हो तो इनकी ऐसी स्थितियाँ बना करती हैं। तो उस समय ज्ञानावरणादिक अनुभाग का उदय हो तो भाव कर्म स्वयं हो जाता है। उन कर्मों में बंध से पहले ही 8 प्रकार का भेद पड़ा हुआ था योग्यता रूप में । तब ही तो जब जीव कषाय करता है तो कहते हैं कि कितना अधिक अनुभाग बँधा, किस किसका कर्म, सो बँधते समय उन कर्मों में यह भेद पड़ जाता है। बस जैसा उन कर्मों का उदय है वैसा ही तो जीव का तिरस्कार है। इन आपत्तियों को जो मेटे वह ही अभूतपूर्व सिद्ध होता है । भीतर में एक जीवद्रव्य के स्वरूप को निरखकर चिंतन किया जाय तो चूंकि वह स्वयं का ही रूप है और स्वयं ही चिंतन करने वाला है और स्वयं उसही परिणति द्वारा चिंतन होता है तो वहाँ इस जीव द्रव्य को अपने लिए सर्वस्व एकाकी दृष्टिगत होगा। उस एक समयसार कारण परमात्मतत्त्व इसका आलंबन होने से पूर्व बँधे हुए कर्म खिरते हैं और नवीन कर्म जो आ सकते थे उन सब कर्मों का बंध रुक जाता है। तो यहाँ त्रैकालिक जीवद्रव्य को अपनी दृष्टि में रखने से कल्याण का मार्ग चलता है।