वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 28
From जैनकोष
कम्मफलविप्पमुक्को उड्ढं लोगस्स अंतमधिगंता ।
सो सव्वणाणदरिसी लहदि सुहमणिंदियमणंतं ।।28।।
सिद्धत्व की व्यक्ति―इस गाथा में मुक्त अवस्था में अवस्थित आत्मा का जो कैवल्यस्वरूप है, निरुपाधि स्वरूप है उसका वर्णन किया गया है । कर्मफलों से मुक्त हुआ यह जीव ऊपर लोक के अंत में प्राप्त होकर अतींद्रिय अनंत सुख को प्राप्त होता है । यह जीव सर्वज्ञ और सर्वदर्शी अरहंत अवस्था में हो ही गया था और वही सर्वज्ञता, सर्वदर्शिता सिद्ध अवस्था में भी है और सदा के लिए रहेगी ।
आत्मबंधन―संसार अवस्था में यह आत्मा बंधन में है । बंधन हमेशा दूसरी चीज के संबंध से होता है । कोई भी पदार्थ खुद ही एक अकेला है, उसमें बंधन काहे का? दूसरे पदार्थ का समन्वय हो तभी बंधन बन सकता है । इस आत्मा के साथ निश्चय से तो बंधन रागद्वेष आदिक भावों का है । ये रागद्वेष आदिक भाव परभाव हैं । धीरे-धीरे पर से विविक्त हो होकर इस विविक्तता में ठहर जाइये । ये परभाव जिस पर का निमित्त पाकर हुए हैं वे मेरी चीज हैं क्या? अथवा और बढ़ते जाइए । जो जिसकी चीज है वह उस द्रव्यरूप है । यों रागद्वेषादिकभाव परद्रव्यरूप हैं । देखिये―जिसको अपने लक्ष्य की कला मिल गयी है वह इस प्रकार समर्थ होकर प्रभु होकर लीला करता है, चिंतन करता है । जिस चाहे नयपरिज्ञान के रास्ते से पदार्थ के स्वरूप का चिंतन करे, वह अपने लक्ष्य की सिद्धि करता है ।
रागद्वेष की पररूपता―एक नय से रागद्वेष आदिक भाव आत्मा के हैं, आत्मा की परिणति हैं, आत्मद्रव्य का ही वह एक पर्यायरूप अंश है, किंतु इस आत्मा को चैतन्यमात्र ही निरखना है ऐसी धारणा करके जब हम अन्य कुतत्त्वों को विभावों को निरखते हैं तो इन दशावों को निरखते जाइये । ये रागादिक भाव परभाव हैं, पर के भाव हैं, पर ही हैं, परद्रव्य हैं । आशय मूल में असत् बने तो वर्णन में दोष आता है । आशय मूल में असद् नहीं है तो वर्णन में दोष नहीं आता, बल्कि वह गुण उत्पन्न करता है ।
विशुद्ध आशय की प्रवृत्ति में निर्दोषता―बड़े प्रेम की रिश्तेदारी में ये रिश्तेदार जब मिलते हैं साले-बहनोई तो कोई-कोई गाली देकर ही मिलते हैं, जय जिनेंद्र अथवा राम-राम कुछ नहीं । जहाँ से दिखा वहाँ से कोई न कोई गाली बककर मिलते हैं । आशय वहाँ किसी का विरुद्ध नहीं है, कषाययुक्त नहीं है तो ऐसा वातावरण भी, ऐसी गाली-गलौज भी वहाँ दोष उत्पन्न नहीं करता अर्थात् विवाद उत्पन्न नहीं करता । ज्ञानी जीव का लक्ष्य विशुद्ध होना चाहिए कि मैं एक चैतन्यस्वरूपमात्र हूँ । इस दृढ़ता के होने पर इस वैभव को परद्रव्य रूप कह सकते हैं । कोई कहे कि ‘वाह ! यह परद्रव्य कहाँ है, यह तो आत्मा की परिणति है । अरे क्यों समझाते हो, यहाँ मूढ़ता नहीं है’, हम भी जानते हैं, पर इस समय हम जरा उनका इलाज कर रहे हैं, रागद्वेषादिक का । उनकी चिकित्सा में इस समय हमने यह पद्धति अपनाई है । चिकित्सा तो अनेक तरह की होती है, मलहम-पट्टी रखकर करना अथवा औजार से उसका आ᳴परेशन आदि करके करना । हमें अपनी रक्षा के लिए जब जिस प्रकार की चिकित्सा करने का हमारा मूड हो हम वह चिकित्सा करते हैं । हाँ, मूल में अज्ञान बस जाय, तो दोष है ।
परसंपर्क में बंधन―यह आत्मा बंधन में पड़ा हुआ है । बंधन किसी न किसी परवस्तु के संबंध में हुआ करता है । अब आगे और चलिये । हमारे साथ बंधन है द्रव्यकर्म का । यह द्रव्यकर्म तो प्रकट परद्रव्यरूप है । कार्माणवर्गणा जाति के पुद्गल स्कंधों का यह जाल है । यह आत्मा बंधन में पड़ा है, इसका शरीर से भी बंधन है, यह शरीर भी परद्रव्य है । परद्रव्य के संबंध को ही बंधन कहते हैं । कोई केवल अकेला हो, उसमें बंधन नहीं होता है, कोई पुरुष अकेला है, अविवाहित है (लौकिक दृष्टि से कह रहे हैं) उसके बंधन नहीं है । सगाई हुई कि बंधन आ गया । विवाह हुआ कि समझो पूरा बंधन हो गया । अब आगे बच्चे बढ़े, एक बच्चे में तो कुछ बात नहीं, दो बच्चे हुए तो विशेष बंधन हो गया । वे कभी न्यारे तो होंगे ही । उनको अलग-अलग हवेली चाहिए, अलग-अलग संपत्ति चाहिए । जितना संपर्क बढ़ेगा उतना ही बंधन बढ़ता है । यह संसारी जीव कर्मरज से बँधा हुआ है । सीधा सुगम देखने की बात बंधन में कर्मरज लेना ।
जीव का ऊर्ध्वगमन―जिस काल में यह जीव इस बंधन से सर्वप्रकार से छूट जाता है ; न तो द्रव्यकर्म का बंधन रहता और न भावकर्म का बंधन, उस क्षण में यह जीव कहाँ जाता है, कहाँ रहता है, किस प्रकार रहता है? इसका वर्णन इस गाथा में किया है । जब यह जीव द्रव्यकर्म और रागादिक भावकर्म से सर्व प्रकार मुक्त हो जाता है तो चूंकि इसमें ऊर्ध्वगमन स्वभाव है, अत: लोक के अंत को प्राप्त होकर वहाँ अवस्थित रहता है । लोक तक ही छहों द्रव्यों का निवास है, उससे आगे नहीं । इसका निमित्त कारण है धर्मास्तिकाय का अभाव । यह लोक के अंत में अवस्थित हुआ किस प्रकार रहता है, क्या करता है? इसका उत्तर इसही गाथा की उत्तर पंक्ति में दिया गया है ।
पारमार्थिक सुख के अधिकारी―कोई लोग ऐसा भी कह बैठते हैं कहीं या अज्ञानवश कहते हों या अपनी मौज के अहंकारवश यों कह दिया करते हैं कि मोक्ष में क्या सुख होगा, वहाँ अकेले पड़े हुए हैं, कुछ काम भी करने को नहीं है, वहाँ जी कैसे लगता होगा? कोई उसका वहाँ साथी भी नहीं है, किसी से बातचीत किये बिना कैसे वहाँ मन लगता होगा? अरे जिसको सुख समझा जा रहा है वह सब दु:खस्वरूप है । जिस काल में यहाँ सुख समझा जा रहा है उस काल में भी क्षोभ बना हुआ है। और उत्तर काल में तो इस रौद्रध्यान के कारण उसका ढाँचा ही बदल जायगा । सुख को दुःख माने वह विरला ज्ञानी ही है । खूब संसार की मौज है, समागम ठीक है, पुत्र आदिक आज्ञाकारी हैं, आजीविका का साधन अच्छा है, नगर के 10 लोग पूछते हैं, इन बातों से संतुष्ट होकर मंद कषायों की मुद्रा दिखती है । सब कुछ कर ले, पर अंतरंग में रौद्रध्यान बसा हुआ है तो मरण के बाद उसका ढाँचा ही बदल जायगा । क्या बनेगा, कैसी गति में जायगा, उस रूप ढांचा हो जायगा । सुख को दुःख मान ले तो शांति का वास्तविक पंथ दिख सकेगा । जो संसार के सुख को दुःख नहीं मान सकता सुख मानता रहा, उसकी अशांति मिटने का कोई उपाय ही नहीं और ऐसे रौद्रध्यान की अपेक्षा किसी प्रकार के दुःख में ठहरा हुआ कह लो, आर्तध्यानी पुरुष अपेक्षाकृत श्रेष्ठ है, यदि कुछ भी मूल में ज्ञानदृष्टि की योग्यता है तो । और इसी बात को सीधे सुगम शब्दों में लोग यों कह देते कि दुःख में सुमिरन सब करें, सुख में करें न कोय । जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे का होय ।।
धर्म के नाम पर मन की मौज―मेरा आत्मस्वरूप केवल चिन्मात्र प्रकाशमात्र आनंदघन उत्कृष्ट स्वरूप वाला है । उसकी रुचि के लिए, दृष्टि के लिए, उससे मिलने के लिए उत्सुकता न जगना, तड़फ उत्पन्न न होना―ये सब महा ऐब इस सांसारिक सुख के कारण होते हैं । जो सुख में मस्त है उसे आत्मस्वरूप की कहाँ खबर है? अज्ञानी जीवों के आत्मस्वरूप की बात करना और धर्म की बात करना, यह भी सांसारिक सुख लूटने की विधि बना ली है । जैसे भोजन करने में बड़ा मौज आता है, ऐसे ही चार जनों के बीच कुछ धर्म की बातें करने में एक मौज आता है । यह मन का विषय है ना। रसना का विषय रसना ने किया और मन का विषय लोगों में अपना भलापन जंचाना यों धर्म की बातें कर-करके किया । वह उत्सुकता धर्म के प्रति तब जग सकती है जब श्रद्धा में यह बात बैठ जाय कि ये संसार के समग्र सुख दुःखरूप ही हैं, ऐसी बात दिखे तब धर्म में परमार्थ पद्धति से रुचि जग सकती है । अब सोच लो अपनी-अपनी बात कि हम अपनी वर्तमान परिस्थिति के बारे में, सुख साधन के समागम के बारे में भीतर से ये सब दुःख ही हैं कभी ऐसा ख्याल करते हैं क्या?
शांति की पद्धति―ऐसा न सोचना कि भैया ! हम तो आये हैं कोई धर्म की बात सुनने और यहाँ मिले मिलाये आनंद पर भी पानी फेरा जा रहा है । जो सुख मिला है उसके प्रति भी दुःखदायी दृष्टि दिलाकर हमारा तो जीवन ही किरकिरा किया जा रहा है । अरे जब तक इस सुख से विलक्षण शुद्ध स्वाधीन आत्मीय आनंद का लाभ नहीं होता, उसकी झनक नहीं होती तब तक ही ऐसा लगेगा कि यह सब सुख है, हम मौज में हैं । देखिये शांति तो ज्ञान की दिशा पर निर्भर है, लौकिक वैभव पर निर्भर नहीं है । लौकिक वैभव होकर भी यदि ज्ञान शुद्ध बना हुआ है, बुद्धि स्वच्छ बनी हुई है तो वहाँ भी शांति मिल सकती है । वह शांति सद्बुद्धि का प्रताप है, न कि संपत्ति का प्रताप । किसी के संपदा न हो, कम हो और बुद्धि की स्वच्छता ठीक रही आये तो उसको शांति की पात्रता है । यह प्रभु मोक्ष अवस्था में केवलज्ञान, केवलदर्शनस्वरूप में रह-रहकर निरंतर सर्वज्ञता और सर्वदर्शितारूप रह-रहकर अतींद्रिय अनंत सुख का अनुभव करते हैं ।
मुक्तता और अमुक्तता―ये सिद्ध प्रभु मुक्त जीव हैं कि अमुक्त जीव? मुक्त जीव भी हैं, अमुक्त जीव भी हैं । कर्मों से छूटे गये इसलिए मुक्त हैं, किंतु अपने स्वरूप से नहीं छूट अथवा इतना ही नहीं, अपने स्वरूप के परमविकास में तन्मय हो गये ऐसे अमुक्त हैं । अच्छा आप लोग भी मुक्त जीव हैं कि अमुक्त जीव? आप लोग भी मुक्त भी हैं अमुक्त भी हैं । केवलज्ञान, केवलदर्शन, शुद्ध अवस्था इनसे तो आप मुक्त हैं और रागद्वेष मोह इनसे अमुक्त हैं । ये सिद्ध प्रभु कर्म कलंकों से मुक्त होकर और अपने स्वरूप में उत्कृष्ट विकसित होकर अतींद्रिय अनंत सुख का अनुभव करते हैं ।
मुक्त जीव में जीवत्व, चेतयितृत्व, उपयोगित्व, प्रभुत्व व कर्तृत्व―इससे पहिली गाथा में जीव के विशेषण बताये गये थे । उन विशेषणों को सिद्ध में भी घटा लीजिए, घट जायगा । इस मुक्त जीव के जीवत्व है । जीव का जो भाव प्राण है ज्ञानदर्शन; उस भाव प्राण का धारण होने से उन भाव प्राणों से प्रति समय यह जीता रहता है, सद्भाव रहा करता है, यही मुक्त का जीवत्व है । दूसरा विशेषण था जीव चेतन है, इसमें चेतयितृत्व है । तो चेतयितापना तो सिद्ध प्रभु में स्पष्ट है । शक्ति से चित्स्वरूप, व्यक्ति से चित्स्वरूप शाश्वत शुद्ध चैतन्यमात्र प्रकट यह मुक्त प्रभु है । तीसरा विशेषण था―उपयोगविशेषित है । चैतन्यस्वभाव का शुद्धपरिणमन केवलज्ञान और केवलदर्शन के रूप में प्रकट होता है, ऐसे उत्कृष्ट उपयोग से वह युक्त है ।
चौथा विशेषण था कि यह जीव प्रभु है । समस्त अधिकार शक्ति की रचना का जो स्वामी हो उसका ही तो नाम प्रभु है । ये सभी विशेषण संसारी जीवों में भी घटित होते हैं, सिद्ध में भी घटित होते हैं, पद्धति का भेद है । सिद्ध भगवान अब निरंतर सदाकाल अपने आपमें शुद्ध ज्ञानरूप शुद्ध आनंदरूप परिणमते रहेंगे, ऐसी अधिकार शक्ति उनके प्राप्त हुई है । समस्त अधिकार शक्ति की रचना में जो युक्त हैं उन्हें ही तो प्रभु कहते हैं । यह मुक्त जीव प्रभु है । इसमें कर्तृत्व भी है । कर्तृत्व नाम है अपने असाधारण स्वरूप रचना करते रहना । साधारण रूप में कर्तृत्व का प्रश्न ही नहीं है, अनादि अनंत एक शक्ति मात्र है । उस शक्ति का असाधारण स्वरूप प्रति समय कुछ न कुछ रहा करता है । कोई व्यक्ति हुए बिना शक्ति क्या चीज है? जितनी भी शक्तियाँ हैं, उनकी किसी न किसी रूप में व्यक्ति रहती है । चाहे वह व्यक्ति समझ में आये अथवा न आये, यह कर्तृत्व है । यह सिद्ध प्रभु अपने इस असाधारण रूप से केवलज्ञान रूप से, दर्शन रूप से शक्ति और आनंदरूप से अपने आपका रचयिता रहना इसका ही नाम कर्तृत्व है और सिद्ध प्रभु में ऐसा कर्तृत्व सदैव रहता है, रहेगा ।
मुक्तजीव में भोक्तृत्व व देहमात्रत्व―इसके बाद का विशेषण था जीव भोक्ता है, यह सिद्ध प्रभु भी भोक्ता हैं, ये भी भोगते रहते हैं । अपने स्वरूपभूत, स्वतंत्रता रूप, शुद्ध आनंद की उपलब्धि रूप अपनी परिणति को ये सदाकाल भोगते रहते हैं । भोगना, अनुभवना, परिणमना, वर्तना यों धीरे-धीरे विशेष अर्थ से सामान्य अर्थ की ओर पर्यायवाची शब्दों के सहारे चलते जाइये । तो भोगना क्या हुआ? वर्तना का नाम भोगना है । यह सिद्ध प्रभु अनंत चतुष्टय संपन्न वर्तते रहते हैं । इसके बाद विशेषण दिया था―जीव देहमात्र है । सिद्ध होने से पहिले जो अवस्था प्राप्त थी, जो कि अतीत हो गया, विलीन हो गया उस अतीत शरीर के परिमाण में अब भी उनका अवगाह है । यह सिद्ध प्रभु चरम शरीर प्रमाण अपनी अवगाहना को लिए हुए हैं । काहे की अवगाहना? ज्ञानादिक स्वरूप की अवगाहना । यों यह देहमात्र ही हैं । देह तो नहीं रहा, पर जैसे सुनार लोग गहने बनाते हैं, मोम गल जाय तो अब कोई मैटर तो नहीं रहा, पर तदाकार एक अवगाह हो गया, ऐसे ही शरीर तो अब नहीं है सिद्ध प्रभु के, किंतु जिस शरीर को तजकर वे मुक्त हुए हैं उस शरीर प्रमाण उनके प्रदेशों में उनका स्वरूप ज्ञान, दर्शनशक्ति आनंद आदि व उनकी व्यक्तियां रहा करती हैं । यों सिद्ध प्रभु देहमात्र हैं ।
मुक्त जीव में अमूर्तता व निष्कर्मता―ये मूर्त किसी भी प्रकार नहीं हैं, इसलिए अमूर्त विशेषण के प्रसंग में उनमें अमूर्त तत्त्व ही निरखना । उपाधि का संबंध सदाकाल के लिए हट गया है, इसलिए आत्यंतिक अमूर्तपना उनमें प्रकट है । अंतिम विशेषण था जीव कर्मसंयुक्त है । तो सीधे-सीधे तो यों निरखना कि उनमें किसी प्रकार के कर्मों का संयोग नहीं है, न द्रव्यकर्म का संबंध है और न भावकर्म का संबंध है । द्रव्यकर्म तो कहलाता है पुद्गल स्कंध और भावकर्म कहलाता है इस चेतन का संयोग । दोनों प्रकार के कर्म नहीं हैं, अत: सिद्धप्रभु कर्मसंयुक्त नहीं हैं, और मानना ही है कर्मसंयुक्त तो कर्म का अर्थ है क्रियापरिणति । सिद्धप्रभु की भी जो परिणति हो रही है वही उनके कर्म हैं, वही उनका धर्म है । उस कर्म से वे सदा सत् रहेंगे अनंतकाल तक । उनके कर्म हैं शुद्ध ज्ञानरूप परिणमन, शुद्ध आनंदरूप परिणमन । इस प्रकार की क्रिया से वे सदैव संयुक्त रहेंगे । यों सिद्धप्रभु कैसे हैं, कहाँ रहते हैं, क्या करते हैं, इन तीन बातों का समाधान इस गाथा द्वारा किया है ।
संसारी जीव की कर्मसंयुक्तता―यह संसारी जीव कर्मसंयुक्त है । कर्म दो प्रकार के हैं―एक पुद्गल स्कंधरूप द्रव्यकर्म और एक चैतन्य के विवर्त रूप भावकर्म । यह संसारी जीव द्रव्यकर्मों से तो बद्ध है और भावकर्म से तादात्व काल में तन्मय है । भावकर्म चैतन्य के विवर्त हैं । यह चैतन्यशक्ति अनादिकाल से ज्ञानावरणादिक कर्मों के संपर्क में अवरुद्ध हो रही है अर्थात् इसका प्रचार घुट गया है । जैसे कोई अंदर में तो जान रख रहा है, पर बाहर उसका विकास नहीं हो पाता, ऐसे ही यह चैतन्यशक्ति अंतरंग में तो सब कुछ वह है अनंत महिमा वाली, किंतु उसका विकास नहीं हो पाता, इस कारण यह शक्ति घुट रही है, और इस प्रकार यह चैतन्य शक्ति ज्ञेयभूत समस्त पदार्थों के एकदेश में ही क्रम से व्यापार कर रही है और इस प्रकार के व्यापार में जो कुछ गुजर रहा है वही चैतन्य का विवर्त है । इस तरंग ने ही दो बाधाएँ डाल दी हैं ज्ञानविकास में । एक तो सबको नहीं जान सकता और एक क्रम से जानता है । जितने को भी यह जान सकता है उतने को भी एक साथ जान ले, ऐसा भी नहीं है । इस प्रकार यह जीव संसार में भावकर्म से संयुक्त है, किंतु सिद्ध प्रभु उन कर्मों से रहित हैं ।
सिद्ध प्रभु की निरुपाधिता―सिद्ध प्रभु कर्मों से कैसे रहित हो गये? यह तो मानना ही पड़ेगा कि कोई पदार्थ अपने स्वभाव से विपरीत परिणमे तो उसमें किसी न किसी परद्रव्य का संपर्क निमित्त है । यद्यपि प्रत्येक पदार्थ अपनी ही शक्ति और परिणमन से परिणमते हैं, निमित्तभूत किसी पदार्थ की रंचमात्र भी शक्ति को लेकर, परिणमन को लेकर, प्रभाव को लेकर नहीं परिणमते हैं । प्रभाव भी शक्ति के विकास के अलावा और कुछ चीज नहीं । यह कहना कि उसका प्रभाव इन पर अच्छा पड़ा, यह उपचार कथन है । बात वहाँ यह थी कि ये लोग स्वयं उसके संबंध में कुछ विचार बनाकर अपने प्रभाव से प्रभावित होते हैं, उसका प्रभाव इन पर नहीं पड़ा है । प्रभाव भी उपादान का है । प्रत्येक पदार्थ अपने ही परिणमन से परिणमते हैं, किंतु विभावरूप परिणमन की योग्यता रखने वाले पदार्थ किसी परपदार्थ को निमित्त करके ही अपने प्रभाव से अपने परिणमन से परिणमा करते हैं । फिर भी यह तो मानना ही होगा कि विपरीत परिणमन किसी परपदार्थ का निमित्त हुए बिना होता नहीं है । यह बात अवश्य है कि जो अयोग्य उपादान वाला है अर्थात् अशुद्ध परिणमन की योग्यता रखता है वह पदार्थ, चूंकि निमित्त तो सब जगह भरे ही हैं, सो निमित्त मिलता है और वह विरुद्ध परिणमता है, किंतु विरुद्ध परिणमनरूप प्रभाव स्वयं अपने आप केवल ही रहकर परसंपर्क बिना होता नहीं है । उपाधि बिना विभावपरिणमन हो जाय, ऐसा एक भी उदाहरण न मिलेगा ।
कर्मप्रक्षय से अभूतपूर्वविकास―जिस समय ज्ञानावरणादिक कर्मों का संपर्क दूर होता है, ज्ञानावरणादिक के संपर्क के दूर होने में निमित्त आत्मा का शुद्ध परिणाम है, जब ज्ञानावरणादिक कर्मों का संबंध दूर होता है तो ज्ञेयभूत जो समस्त विश्व है उस सबके सबमें एक साथ व्यापार करने लगती है यह चेतना शक्ति, और जब सारे विश्व को एक साथ जान लिया तीन लोक, तीनकालवर्ती समस्त पदार्थों को एक साथ जान लिया तो अगले समय में क्या जानेंगे? वही का वही । जैसे सब जान लिया गया तो अगले समय में क्या जानेंगे? सब वहाँ इतना भी विकल्प नहीं होता कि यह पदार्थ यह पर्याय हुई थी, है, होगी और अगले समय में जो होगा अब वह है और जो है माना वह था, हो गया । इस प्रकार कालकृत भी विकल्प उनमें नहीं होता है और इसी कारण यह कहा गया है कि वे समस्त पदार्थ उनके ज्ञान में वर्तमान ही हैं, कथंचित् इसी कारण वे कूटस्थ हैं ।
सिद्ध प्रभु की अविवर्तता―यद्यपि प्रतिसमय में ज्ञानशक्ति का नया-नया विकास हो रहा है, परिणमन चल रहा है, किंतु उसके विषय की ओर से देखा जाय तो वही-वही ज्ञात है, इस कारण वहाँ परिणति भिन्न नहीं मालूम होती । इसी कारण कथंचित् कूटस्थपने को प्राप्त हो गया उनका वह चेतन यह दृष्टि में आता है । अब इस परिणमन को विवर्त नहीं कहा । यद्यपि प्रतिसमय परिणमन हो रहा है लेकिन विषयांतर को प्राप्त हो तो विवर्त नाम है। वह विषयांतर को प्राप्त होता ही नहीं, भला सब जान लिया । अब सबसे अतिरिक्त कोई विषय हो और फिर उसे जाने तो वहाँ विवर्तपना आयगा । अथवा आंतरिक दृष्टि से निरखो तो उनका विषय अपने आपके उपयोग में अपने आपका ही प्रकाश पड़ा हुआ है । वह कभी अन्य ज्ञेयरूप परद्रव्य को प्राप्त नहीं होता अर्थात् परपरिणति उनमें नहीं हुआ करती है । परपदार्थों का निमित्त पाकर रागद्वेष की तरंग उनमें नहीं होती इस कारण उनके परिणमन को विवर्त नहीं कहा गया है । जो विवर्त है वह भावकर्म है । सिद्धप्रभु भावकर्म से भी रहित हैं ।
मोह में सुगममार्ग की विषमता―देखो निर्दोषता के इस चमत्कार से प्रभु में सर्वज्ञता और सर्वदर्शिता की उपलब्धि हुई है । यह ही कर्मों के कारणभूत भावकर्म के कर्तृत्व का उच्छेद है । सीधा-सा काम बड़ा कठिन लग रहा है और कठिन-सा काम बड़ा सरल लग रहा है । भोजन करना कठिन काम है, लेकिन ऐसा सरल लग रहा है कि दूसरे के सिर पर चढ़कर भोजन करेंगे । कुछ गलती हो जाय, खराबी बन जाय तो नाराज हो गये, यह बड़ा सरल लग रहा है और आत्मदृष्टि का काम जो कि स्वयं के स्वरूप है वह बड़ा कठिन लग रहा है । देखिये―यहाँ बैठे हैं, अपना शरीर, शरीर में है, यह जीव, जीव में है, स्वतंत्र है, किसी की कोई पराधीनता नहीं है । यहाँ भय है । सब ओर से विकल्प तोड़कर स्वयं जो कुछ यह गुनगुनाने वाला है, जाननहार है, इस जाननहार में अपने आप में अपने आप अपने आपको प्रकाश में ले लूँ, यह कोई कठिन बात है क्या? पर क्या दृष्टि नहीं है, रुचि नहीं है तो कठिन तो क्या, असंभव बना रखी है । मुझ चित्शक्ति का स्वभाव ही सर्वज्ञ रूप से विकास करने का है, सर्वदर्शी रूप से विकास करने का है । विकास में भावकर्म नहीं है, द्रव्यकर्म नहीं है, ऐसे अद्भुत चमत्कार की प्रीति न करके बाह्य में जड़ संपदा का, मलमूत्र आदिक मलों से भरे हुए शरीर का और मोही कलुषित जीवों के द्वारा दो-चार प्रशंसा के शब्द सुनने का लोभी बन रहा है । अपने उस अनंत चैतन्य चमत्कार की रुचि न करना, बस इसी का नाम मूढ़ता है । यही बहिरात्मापन है ।
सिद्ध प्रभु में भोक्तृत्व का उच्छेद व शुद्ध भोक्तृत्व―सिद्धों में विकारपूर्वक अनुभव नहीं हो रहा, सो भोक्तृत्व का विनाश भी है । यह जीव सुख दुःख का परिणाम भोगने से ही भोक्ता कहलाता है । यह जीव भोक्ता है किसका? सुख का अथवा दुःख का । सुख और दुःख भी उपाधिजन्य भाव हैं । सिद्धप्रभु के इस प्रकार का भोक्तृत्व नहीं है, किंतु किसे भोग रहे हैं वे? स्वयं के स्वरूप के अनुभवरूप सुख के वे भोक्ता हैं । जो इसे चित्तत्त्व में विवर्त हो रहे थे उन विवर्तों का खुद का अब विनाश हो गया, तरंगें ही नहीं होतीं । यह ज्ञान स्वभावत: प्रकाशरूप विस्तृत हो गया है उस चैतन्य का, उस चैतन्यात्मक आत्मतत्त्व का, जो कि अनंत सुखस्वरूप है उसका यह भोक्ता है । इस प्रकार मुक्त जीवों को इसमें निरुपाधिस्वरूप कहा गया है ।
प्रभुपरिचय की पात्रता―सिद्धप्रभु का परिचय हम आप तब तक नहीं पा सकते जब तक हम अपने को केवल न निरख सकें, क्योंकि वह केवल है । यद्यपि देह का, कर्म का हम आपके साथ बंधन है, पर बंधन होते हुए भी जब हम स्वभावदृष्टि में पहुंचते हैं तो वहाँ उपयोग में बंधन है ही नहीं । द्रव्य-द्रव्य का बंधन है अथवा बाह्य बंधन है । इस स्वभाव में, इस उपयोग में कोई बंधन नहीं है । यों हम निर्बंधदृष्टि से अपने आपको निहारे, तो हम सिद्धप्रभु का कुछ परिचय पा सकते हैं, और वह परिचय हमें ज्ञान और आनंद के अनुभव के रूप में मिलेगा, ऐसा किया जा सकता है । परिस्थिति कुछ हो और अनुभव शुद्ध स्वभाव का किया जा रहा हो, ज्ञानबल में ऐसा ही चमत्कार है । जहाँ हम अपने आपके स्वभाव को अपनी दृष्टि में लें । वहाँ हम केवल ही अनुभव में आयेंगे, और तब सिद्ध प्रभु के आनंद का और उनकी परिस्थिति का हमें अनुमान होगा ।
बंधन होने पर भी अबद्धता―देखिये तालाब में जहाँ कमल का बगीचा लग रहा है, कमल के पत्ते इतने चिकने होते हैं कि उन पर पानी पारे की तरह यहाँ वहाँ ढेले के रूप में लुढ़कता रहता है । उस बगीचे में कमलपत्र को हम जब बाह्यदृष्टि से देखते हैं तो वह पानी से संयुक्त है, पानी से बँधा हुआ है, छुवा है, और जब हम उस कमलपत्र को ही केवल निहारते हैं, उसका स्वभाव देखते हैं तो वहाँ यही नजर आता है कि पत्ते में पत्ते हैं, इनमें पानी का संबंध नहीं है । बाह्यदृष्टि में संबंध है और पत्र के स्वभाव को देखते हैं तो उसमें पानी का संबंध नहीं है । ऐसे ही मुझमें कर्मों का और शरीर का संबंध है, परिस्थिति तो ऐसी है और जब हम बाह्यदृष्टि करके देखते हैं तो यह ही नजर आता है, बंधन ही बंधन समझ में आ रहा है । इस परिस्थिति में भी हम केवल अपने स्वभाव पर दृष्टि दें ।
स्वभावदृष्टि की अलौकिकता―देखिये स्वभावदृष्टि रखने वाले पुरुष का अलौकिक परिणमन होता है । उसे घर-बार, लौकिक यश, लौकिक अपयश, दुकान, वैभव, परिजन, कुटुंब, देह किसी भी प्रकार का विकल्प नहीं रहता । यदि ऐसी स्थिति बनी है तब तो ठीक है, और विकल्पों से तो विराम न हो और चूंकि शास्त्रों में लिखा है उसका आधार बनाकर अपने आपको ज्ञानी मानकर फिर विकल्पों में मौज बनाकर जीवन बितावें, यह लाभकर नहीं है । हम ज्ञानस्वभाव को पा चुके हैं, उसकी पहिचान एक थोड़ी-सी इस रूप में हो जाती है कि हमें किसी परद्रव्य का विकल्प तो न था उस क्षण, यदि ऐसी निर्विकल्प परिस्थिति में जब हम अपने स्वभाव को देख रहे हों उस समय तो इसका बंधन नहीं है, भले ही ऐसा ज्ञानी पुरुष किसी दुष्ट राजा आदि के द्वारा बंधन में डाल दिया जाय, कारागार की कोठरी में उसे बंद कर दिया जाय, फिर भी उस ज्ञानी का उपयोग जब अपने स्वभाव में पहुंचता है, रमता है तो उस समय भी कोई बंधन ही नहीं है । शरीर भी जिसका बंधन नहीं है उपयोग में उसके लिए कारागर की कोठरी क्या बंधन बनेगी? स्वभावदृष्टि से जब हम अपने को निरखते हैं तो हम वहाँ अपने को बंधनरहित पाते हैं ।
परिणति में दृष्टि की अनुसारिता―भैया ! निर्बंधस्वभाव की उपासना करने में निर्बंध दशाएँ प्रकट होती हैं । कारण की तरह ही कार्य हुआ करता है । हम चाहें यह कि हम सदा के लिए शरीर से छुटकारा पा लें और शरीर को ही मानते रहें कि यह मैं हूँ तो कारण तो विपरीत बनाया, शरीर से छुटकारा कैसे होगा? यदि हम शरीर से सदा के लिए मुक्त होना चाहते हैं तो हमारी अब से ही यह भावना होनी चाहिए कि मैं शरीर से जुदा हूँ, और भावना क्या, इस प्रकार का दर्शन भी अपने आपमें होते रहना चाहिए कि मैं तो एक चित्प्रकाशमात्र हूँ, विविक्त पदार्थ हूँ । यह अपनी चिन्मात्रता निरखे तो विविक्त हो सकेगा, मुक्त हो सकेगा । और यह शरीर ही मैं हूँ, इस प्रकार का विश्वास रक्खें तो ये शरीर मिलते रहेंगे । ये शरीर बने रहने का उपाय है शरीर को आत्मा मानता । और शरीर से छूटने का उपाय है शरीर से भिन्न चैतन्यमात्र आत्मा में प्रतीति करना ।
बड़े कार्यों की छोटी-सी कुंजी―देखिये कितना बड़ा काम है? संसार का मिलता रहना यह भी बहुत बड़ा काम है, फिर शरीर मिला, फिर अनेक परिणमन हुए, फिर अनेक संगम मिले, फिर मरण हुआ, फिर और बातें हुईं यह क्या छोटा-छोटा काम है? कीड़ा बन गये, पेड़ बन गए, पशु बन गये, मनुष्य बन गये, राजपाट भोग लिया, चला वाला हो गया, फिर कीड़ा-मकोड़ा बन गया, ऐसी विभिन्न प्रकार की अवस्थावों का ग्रहण करना यह भी बहुत लंबा चौड़ा बड़ा काम है और शरीर से कर्मों से रहित होकर एक अपनी इस शक्ति में, ज्ञान में समस्त ज्ञेयों को झलका लेना, सबका एक साथ भीतर ज्ञान करते चले जा रहे हैं यह भी बहुत बड़ा काम है । दोनों बड़े काम हैं, संसार में रुलना यह भी बड़ा काम है और मुक्त होकर अनंत काल के लिए शुद्ध ज्ञान और आनंद का अनुभव करना, समस्त विश्व को एक साथ जानना देखना, यह भी बहुत बड़ा काम है । और इन दोनों बड़े कामों के करने की कुंजी बहुत छोटी है, साधारण है, उपाय बिल्कुल साधारण है । संसार के बड़े काम का उपाय मूल में इतना ही है कि शरीर को मान लें कि यह मैं हूँ । बहुत बड़े श्रम की बात तो नहीं कही जा रही है, बहुत छोटी-सी बात है । शरीर को मान ले कि यह मैं हूँ, फिर इतने बडे संसार का काम सुगमतया होता रहेगा और मोक्ष के बड़े काम का भी उपाय बहुत सीधा छोटा-सा है । शरीरादिक परद्रव्यों से न्यारे इस ज्ञानप्रकाश को मान लें कि यह मैं हूँ, कितना सस्ता सौदा है? केवल मानने पर ही इतना बड़ा काम हो जाता है । तो यह मोक्षमार्ग केवल एक इस भेद भावना पर निर्भर है ।
धर्मपालन में मूल पुरुषार्थ―धर्मपालन करो, धर्मपालन करो―ऐसी अपने आपकी प्रेरणा जगे अथवा दूसरों से उपदेश मिले तो यह तो बतावो कि धर्म के पालन में करना क्या है? एक ऐसी मूल बात बतावो जिसका कहीं विरोध न बैठे, विघात न हो, खंडन न हो और कभी उससे विपरीत फिर दूसरी बात न कहनी पड़े । ऐसा कुछ काम तो बतावो जिसको कि धर्मपालन करना कहते हैं । कहकर फिर उससे हटना नहीं, किसी भी परिस्थिति में, ऐसी धर्मपालन की बात बता दो जो हमें प्रारंभ से लेकर अंत तक वही-वही करने को पड़ा हो । वह धर्मपालन क्या है? अपने आप में जो सहजस्वरूप है उस रूप अपने को मान लेना, बस यही धर्मपालन है । प्रारंभ में भी लोग यही करते हैं, मध्य में लोग यही करते हैं और अंत में भी लोग यही करते हैं । गृहस्थों का भी इसमें धर्मपालन है और साधुवों का भी इसमें धर्मपालन है । बस भेद पड़ा है बाहरी परिस्थिति का । चूँकि गृहस्थ के गृहस्थी है और परिग्रह आदि हैं अतएव उनके विकल्प विस्तार का मौका अधिक रहा करता है । विकल्प विस्तार किस प्रकार मिटे उस परिस्थिति में, उसके उपाय में जो कुछ तन, मन, धन, वचन की क्रियाएँ की जाती हैं वे व्यवहारधर्म हैं।
व्यवहारधर्म की उपयोगिता―व्यवहारधर्म बाड़ का काम करता है । जैसे खेत में फसल खड़ी है, उसे कोई उजाड़ न दे, इसके लिए खाई और बाड़ आलंबन है, इसी प्रकार मुझे स्वभावालंबन का धर्म पालन करना है, हमारे भीतर यह कृषि है, उस स्वभावालंबन रूप धर्म को ये विषयकषाय के पशु उजाड़ न दें, उनसे उजाड़ रोकने के लिए व्यवहारधर्म हमारे लिए बाड़ का जैसा काम करता है । और उस व्यवहारधर्म को करते हुए हम अपने आपमें सुरक्षित रहते हैं, और उस सुरक्षा में हम धर्मपालन जितना कर सकते हैं कर लेते हैं, यही है धर्मपालन।
आत्मकर्त्तव्य―प्रयोजन यह है कि निरुपाधि केवल सिद्ध भगवंत का जैसा परिणमन है, चमत्कार है वैसा ही बनने की हम आप में सामर्थ्य है । वैसा बनने का प्रोग्राम बनायें । उस प्रोग्राम में मूल में हमें यही करना होगा कि हम सब परद्रव्यों परभावों के विकल्प से विश्राम पाये और केवल अपने शुद्ध चैतन्यप्रकाश को निरख लें, यही निरुपाधि होने का उपाय है । हम यदि अभी से अपने को निरुपाधिस्वरूप में तक सकते हैं तो हम भविष्य में निरुपाधि बन जायेंगे । अत: कर्तव्य यह है कि हम अपने आपकी प्रतीति केवलज्ञान तेज रूप में बनायें―मेरा तो यह है, मेरा तो यह है, मेरा सर्वस्व, मेरा शरण, मेरा सार यह आत्मतत्त्व है । ऐसी दृष्टि आत्मदृष्टि बनायें, इसमें ही अपना कल्याण है ।