वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 75
From जैनकोष
खंधं सयलसमत्थं तस्स दु अद्धं भणंति देसोत्ति ।
अद्धद्धं च पदेसो परमाणु चेव अविभागी ।।75।।
चतुर्विध पुद्गलों का संक्षिप्त स्वरूप―इस गाथा में पुद्गल द्रव्य के जो पहिले चार भेद किए गये थे उनका स्वरूप है । अनंत परमाणुवों का मिलकर जो पिंड होता है अथवा जो विवक्षित पिंड होता है उसे स्कंध कहते हैं और उस पुद्गल स्कंध का आधा भाग स्कंध देश कहलाता है और उस स्कंध देश से भी जो आधा भाग है वह स्कंध प्रदेश कहलाता है और जिसका दूसरा भाग न हो सके उसका नाम पुद्गल परमाणु है ।
परमाणुवों के संघात का कारण―मूल में तो पुद्गल परमाणु है जो कि स्वतंत्र एक पुद्गलद्रव्य है और वह एकप्रदेशी है । सभी पदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक हैं, इस कारण पुद्गल परमाणु में भी उसमें उत्पाद हो, व्यय हो, ध्रौव्य हो, यह तो बन गया । पदार्थ में छह साधारण गुण हैं अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व और प्रमेयत्व । इन गुणों के कारण जैसी सभी द्रव्यों की व्यवस्था है वैसे ही पुद्गल की व्यवस्था है । पदार्थ में यह शक्ति पड़ी है कि वह पदार्थ है तथा वह अपने रूप से है, पररूप से नहीं । तीसरी बात―यह पदार्थ सदैव परिणमता रहता है । चौथी बात―वह अपने ही गुणों में परिणमता है पर के गुणों में नहीं परिणमता । 5वीं बात―अपने प्रदेश रखता है, चाहे कितने ही प्रदेश हों और छठवीं बात―किसी न किसी ज्ञान के द्वारा यह प्रमेय है । इन 6 साधारण गुणों के कारण जैसे अन्य पदार्थ परिणमते रहते हैं, बने रहते हैं,ऐसे ही ये पुद्गल परमाणु भी परिणमते रहते हैं, और बने रहते हैं । इन 6 साधारण गुणों में ऐसा कोई गुण नहीं नजर आया जिससे यह अवस्था बने कि कुछ परमाणु मिलकर स्कंध बन जाते हैं । स्कंध बनने का कारण यह साधारण गुण नहीं है । स्कंध होने का कारण है, योग्य स्निग्ध और रूक्ष परिणमन । कैसी प्राकृतिकता है कि कोई परमाणु स्निग्ध है, कोई रूक्ष है, उसमें 2 गुण अधिक हों तो वे परमाणु परस्पर में बँध जाते हैं ।
बंधन―लकड़ियों का गट्ठा बाँध दिया, वह बंधना क्या बंधना है? वहाँ तो वे प्रकट न्यारी-न्यारी हैं । बंधी हुई हालत में भी उन्हें गिन लो । घास का बंधा हुआ गट्ठा है वह बंधना क्या बंधना है? यद्यपि घास इस तरह मिली हुई है कि आप उसे गिन नहीं सकते फिर भी वह बंधना क्या बंधना है? दूध और पानी एक भी मिल जाये तो भी वे अलग-अलग हैं ।यंत्रों द्वारा उन्हें अलग-अलग जान लिया जाता है । वह दूध और पानी का बंधना भी क्या बंधना है? बंधन तो परमाणु परमाणुवों का है । स्निग्ध रूक्ष गुण के कारण जो परमाणुवों में बंधन होता है वह ऐसा विकट बंधन होता है कि जो हीन गुण वाले परमाणु हैं वे अपने गुण परिणमन को छोड़कर जो कि पहिले था दूसरे के अनुरूप परिणम जाता है । जैसे कोई परमाणु 22 डिग्री का स्निग्ध है और कोई परमाणु 20 डिग्री का रूक्ष है, अब इन दोनों का बंधन होने से जो भी पिंड बनेगा वह सारा का सारा स्निग्ध परिणमन वाला बनेगा, इसका नाम है बंधन । ऐसा अन्य पदार्थ में कहीं नहीं है कि कोई पदार्थ किसी पदार्थ से मिल गया तो उस बंधन के कारण कोई पदार्थ बिल्कुल अपना रूप ही बदल दे । यहाँ परमाणुवों का स्कंध बन जाता है । तो अणुवों से स्कंध बन जाये यह मिलने से हुआ करता है ।
स्कंध की उत्पत्ति―स्कंध की उत्पत्ति संघात से होती है, पर कहीं स्कंधों में ऐसा भी हो जाता है कि कुछ परमाणु विघट रहे हैं और कुछ मिल रहे हैं तो इस स्थिति में भी स्कंध बनता है इसे कहते हैं भेद संघात याने उभय । संघात से भी स्कंध होता है और भेद संघात से भी स्कंध होता है, पर भेद से स्कंध नहीं होता है, क्योंकि भेद में अलग ही अलग करने की बात है । अब जब तक एक परमाणु है तब तक परमाणु है, जहाँ 2 परमाणु मिले तो उसका नाम स्कंधप्रदेश हो गया । आगे स्कंध देश, फिर स्कंध भी हो जाता है ।
पुद्गलों की चतुर्विधता का एक लोकदृष्टांत―अब कोई भी विवक्षित पदार्थ को दृष्टांत में ले लो । चौकी, कपड़ा, घड़ा कुछ भी दृष्टांत में ले लो, वह अनंत परमाणुवों को मिलकर स्कंध बना हुआ है । वह तो है स्कंध और जब बिखर-बिखरकर वह आधा रह जाये, आधे परमाणु अलग हो जायें तो उसका नाम होता है स्कंधदेश । अब स्कंधदेश से ऊपर और उस समस्त स्कंध से नीचे बीच में जितने भी स्थान होंगे वे सब स्कंध कहलायेंगे । अब उस आधे स्कंध से विघटकर उसका भी आधा रह जाये तब उसका नाम है स्कंधप्रदेश । इस स्कंधप्रदेश से ऊपर और स्कंधदेश से नीचे जितनी भी उस पिंड की हालतें हैं वे सब स्कंधदेश कहलायेंगे और स्कंधप्रदेश से नीचे एक परमाणु से ऊपर जितने भी विकल्प होंगे वे सब स्कंधप्रदेश होंगे ।
गणनात्मक पद्धति से पुद्गलों का एक दृष्टांत―पुद्गल के इन भेदों को समझने के लिये एक दृष्टांत लो । जैसे कोई 16 परमाणुवों का पिंड रूप स्कंध है यह स्कंध आँखों दिख सकता है क्या? वह तो दूरबीन से देखने पर भी नजर न आयेगा । दूरबीन से देखने पर अनंतपरमाणुवों का पिंड ही नजर आ पायगा । अच्छा तो गणना से ऊपर असंख्याते परमाणुवों का पिंड हो तो नजर आयेगा क्या? वह भी नजर न आयेगा । अनंत परमाणुवों का पिंड दृष्टिगोचर हुआ करता है, पर दृष्टांत में 16 परमाणुवों का पिंड लिया जाये जल्दी हिसाब लगे इसलिए । तो 16 परमाणुवों का पिंड स्कंध कहलाया और एक-एक परमाणु उसमें से खिरें और जब तक 9 परमाणुवों का पिंड रहे तब तक वह स्कंध है । 8 परमाणुवों का पिंड होनेपर वे स्कंधदेश हो जाते हैं । अब उसमें भी एक-एक परमाणु जुदा हो और जब इसके 5 परमाणुवों का पिंड रहे तब तक वे सब विकल्प स्कंध देश कहलाते हैं । जब 4 परमाणुवों का पिंड हो जाये तो उसका नाम स्कंधप्रदेश है । सो दो अणुवों के पिंड तक स्कंधप्रदेश कहलाते हैं । पर परमाणु अविकारी होते हैं ।
पदार्थ की अविभागिता―जो अविभागी हो वह एक सत् कहलाता है । जैसे हम आप एक-एक जीव हैं ये सब अविभागी हैं । ऐसा न होगा कि इसका जीव आधा तो यहाँ रहे और आधा कहीं दूसरी जगह चला जाये । समुद्घात अवस्था में आत्मा के प्रदेश शरीर का आधार न छोड़कर बाहर भी फैल जाते हैं, लेकिन शरीर से लेकर बाहर जहाँ तक भी फैला है वहाँ तक वे सब द्रव्य एक अखंड रहा करते हैं । कोई छिपकली की लड़ते-लड़ते पूंछ कट जाये तो पूंछ बाहर तड़फती है और देह का आधा भाग बाहर तड़फता है । इसका कारण है कि अभी वेदना की वजह से पूंछ तक उसके प्रदेश पड़े हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि कुछ प्रदेश पूंछ में हैं, कुछ प्रदेश शरीर में हैं और बीच में कुछ नहीं है । अरे उस शरीर से लेकर पूंछ तक बराबर उस आत्मा के प्रदेश हैं । यह जीव अविभागी है, इसका दूसरा विभाग नहीं होता । जिसके दो भाग हो जाये वह एक पदार्थ नहीं है । वह दो पदार्थ मिलकर एक पिंड हुआ था ।
एक की अविभागिता―कोई भी हिसाब अत्यंत मूल में अविभागी रहा करता है । जैसे गिनती में सबसे पहिला अंक है एक, वह एक अविभागी है, एक का आधा नहीं होता । व्यवहार में लोग एक रुपये को आधा रुपया कहते हैं, पर उस आधे का अर्थ रुपया का आधा नहीं है, किंतु 50 पैसों का समूह है । वह एक फलित होने से जल्दी जबान पर यही चढ़ा है―आधा रुपया । जो एक होता है वह एक कभी आधा नहीं हो सकता । तो जैसे इस रकम में मूलद्रव्य में चीज है एक पैसा तो एक पैसे का आधा नहीं हो सकता और हो जाये तो अभी मूल नहीं रहा । छदाम दमड़ी या जो भी हो, जो भी मूल में एक अविभाग होगा वह एक ही रहेगा, उसका आधा नहीं हुआ करता है । तो द्रव्य में भी जो द्रव्य होगा वह अखंड है, अखंड के विभाग नहीं हो सकते । यह सब कथन बनाया हुआ नहीं है, कोई कहीं गोष्ठी कर के प्रस्ताव किया हुआ नहीं है, कुछ कल्पना किया हुआ नहीं है । पदार्थ जैसा अवस्थित है उस पदार्थ को उस रूप से रखने का यह प्रयत्न है । प्रत्येक पदार्थ अपने आप में अपने प्रदेशों को, गुणों को, पर्यायों को लिए हुए अपने में अविभागी रहा करता है । यह परमाणु पुद्गलद्रव्य है ।
लोकों का भिन्न रुचित्व―किन्हीं पुरुषों को पुद्गलद्रव्य की चर्चा बहुत सुहाती है और आत्मद्रव्य की चर्चा नहीं सुहाती है और किन्हीं पुरुषों को आत्मचर्चा सुहाती है, पुद्गल की चर्चा नहीं सुहाती है । इस धर्म के प्रकरण में कुछ ऐसा लग रहा होगा अनेक भाइयों को कि यह रूखा है । जब जीव की बातें चलती थीं तो वे ही बातें 6 महीने तक चलीं, वही गुणपर्याय, वही जीव की चीज, भेदविज्ञान की बात रोज-रोज कहते गये हैं, थोड़ा कुछ, शैली में अंतर है, लेकिन वे बातें 6 महीने रुचिकर हुईं, और यह पुद्गलद्रव्य की चर्चा है, यह रूखी मालुम हो रही है, लेकिन जिनको अंतस्तत्त्व में रुचि नहीं है, ऐसे बड़े-बड़े लोग, वैज्ञानिक लोग जो बड़ा आविष्कार करते हैं, रेडियो, बेतार के तार, राकेट,एटम आदि सूक्ष्म आविष्कार करते हैं तो उनकी तो प्रेक्टिकल उसमें पुद्गल की चर्चा है और उसमें वे बड़े प्रसन्न होते हैं, अपने को बड़ा सफल समझते हैं, रात-दिन चित्त उसी में रहता है । उस पुद्गल की चर्चा में उनका मन खूब लगता है और उनके अतिरिक्त शेष जीव भी सूक्ष्म पुद्गल की चर्चा चाहे न जाने, किंतु पुद्गल के प्रसंग में उनका बड़ा मान रखा करता है । आत्मचर्चा के मनन में मन कहां रमा करता है? किंतु जो अध्यात्मरुचि के पुरुष हैं उनकी इस आत्मा की चर्चा में, आत्मा के ज्ञान द्वारा स्पर्श करने में, इस ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व के निकट पहुंचने में चूंकि रागद्वेष मोह का भार हट जाता है थोड़े काल के लिए इस कारण एक विलक्षण आनंदानुभव हुआ करता है । फिर भी हमें जिन पदार्थों से हटना है उन पदार्थों का बोध किये बिना वह स्पष्टता नहीं आती कि हम भली प्रकार सुदृढ़ स्थिति से उनसे हट जाये । इस कारण जीवास्तिकाय के सिवाय अन्य तत्वों का भी वर्णन करना आवश्यक है ।
पुद्गल वर्णन में अल्प से महान् की ओर―अब जिस तरह एक स्कंध से लेकर परमाणु तक समझने के लिये एक पद्धति बतायी थी, अब जरा परमाणु से लेकर स्कंध तक भी समझने की पद्धति देखिये । एक परमाणु है अविभागी वह तो अणु है और दो परमाणुओं के संघात का जब मेल होता है तो वह द्व्यणुक स्कंध कहलाता है । बहुत से द्वयणुक, व्यणुक सभी तरह के स्कंध हैं और उनमें उनके स्निग्ध रूक्ष गुणों में उनकी शक्तियों में हीनाधिकता होती रहती है, और जब योग्य संबंध मिल जाये तो वे बँध जाते हैं ।
द्व्यधिक गुणों के बंधन के कारण का एक अनुभव―दो अधिक गुण वाले परमाणु ही क्यों बँधते हैं? इस संबंध में स्पष्ट कारण तो देखने में नहीं आया, पर कुछ युक्ति और अंदाज इस प्रकार का किया जा सकता है कि जहां लोक में हम यह देखते हैं कि दों पुरुषों का संबंध मित्रता होती है तो उन दो पुरुषों में अधिक अंतर न होना चाहिए प्रकृति का । जैसे एक बहुत सच बोलता हो और एक बहुत झूठ बोलता हो तो क्या उनका मित्रत्व संबंध रह सकता है? तो यह नहीं हो सकता है, क्योंकि बहुत अधिक अंतर होने से निकटता नहीं आसकती । अच्छा यदि बिल्कुल समान हो, यदि रंच भी फर्क न हो, ऐसी स्थिति हो तो वहाँ पर भी मित्रता नहीं होती । बिल्कुल समान स्थिति में? बिल्कुल समान स्थिति में ऐसी परिस्थिति बन जाती है कि वह अपने घर का, वह अपने घर का । संबंध न बढ़ सकेगा । यदि अधिक अंतर में भी संबंध नहीं बनता, बिल्कुल समान में भी संबंध नहीं बनता तो निष्कर्ष यह निकला कि कम से कम अंतर हो वहाँ संबंध बन सकता है, यह एक थोड़ी सी खोज है, युक्ति है । तो उन परमाणुवों में दोनों में कम से कम अंतर रहना चाहिए और वह कम से कम अंतर उतना रहना चाहिए कि उसका मिलाप होने के बाद जो गुणों का टोटल हुआ उसका पूर्ण आधा-आधा भाग देखने को मिले । वह अंतर दो का ही संभव है । यह एक कुछ थोड़ासा समझने के लिए कहा है । असलियत क्या है? वह तो उन परमाणुवों की ऐसी प्राकृतिकता है । तीन परमाणुवों का मिलकर व्यणुक स्कंध होता है । इस तरह लगाते जाइए अनंतपरमाणुवों तक, वह स्कंध है तो जैसे संघात-संघात होकर अनेक स्कंध बन जाते हैं ऐसे ही भेदसंघात मिलाव के द्वारा भी स्कंध बन जाते हैं ।
पुद्गलों की विस्तृत चर्चा का प्रयोजन―पुद्गलों की इतनी विस्तृत चर्चा करने का प्रयोजन इतना ही है कि हम यह जान जायें कि उपादेय तो हमारे लिए हमारा आत्मतत्त्व है, उस आत्मतत्त्व से भिन्न ये सब पुद्गलद्रव्य हैं । इनमें लगने से, उपयोग देने से कोई प्रयोजन नहीं है, प्रत्युत जितना आलंबन इस पुद्गल का रहेगा उतने ही यहाँ विकार हैं और इसके क्लेश हैं ।निकट भव्य जीव इन सबसे पूर्णरूप से नाता तोड़कर अपने आपके केवल स्वरूप में समस्त शक्ति लगाकर लग जाया करते हैं और वे ही सहज आनंद का अनुभव किया करते हैं । कर्म-बंधन भी वहाँ ही टूटता है और वे मुक्ति पद को प्राप्त करते हैं । समस्त पुद्गलों से भिन्न यह मैं अमूर्त निरंजन ज्ञानमात्र, प्रतिभासात्मक आत्मतत्त्व हूं―इस प्रकार भिन्न रूप से अपने आपके आत्मा का परिज्ञान कर लेना, यही उन सब पुद्गलों के वर्णन का प्रयोजन है । इन पर तत्त्वों के वर्णन के समय हम उनसे निवृत्त होने की पद्धति से अपने आपकी झांकी लेते रहें, इस ओर मुड़ते हुए अपने आप में प्रसन्न रहा करें, यही एक हित के लिए कर्तव्य है । हम बाह्य पुद्गलों के प्रसंग से उनकी किसी परिणति को निरखकर भीतर में विषाद न करें, किंकर्तव्यविमूढ़ न बन जायें, जो है सो है, उसके ज्ञाताद्रष्टा रहने की स्थिति बनायें इस ही में शांति का मार्ग मिलेगा ।