वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 90
From जैनकोष
सव्वेसिं जीवाणं सेसाणं तह य पुग्गलाणं च ।
जं देदि विवरमखिलं तं लोए हवदि आयासं ।।90।।
आकाश का स्वरूप―समस्त जीवों को और समस्त पुद्गलों को, अन्य सभी द्रव्यों को जो भले प्रकार से विविर देता है उसे लोक में आकाश कहते हैं । विविर नाम बिल का है, मायने जो आये उसे समा दे । आकाश का काम क्या है? जो आये उसे समा देना । तो सभी द्रव्यों का अवगाह लोकाकाश में है । आगे नहीं है, किंतु आकाशद्रव्य की यह कला है कि सबको अपने आप में अवगाह दे । यह संपूर्ण आकाश में कला पड़ी हुई है । कोई न जा सके यह बात और है । कदाचित् मान लो ये जीव पुद्गल आदिक अलोकाकाश में पटक दिये जाते तो क्या वह मना करता कि मेरे में जगह नहीं है? आकाश की योग्यता, अवगाह शक्ति की बात आकाश में शाश्वत पड़ी हुई है । हाँ धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य का सद्भाव जहाँ तक है वहीं तक अन्य समस्त पदार्थों का अवगाह बना हुआ है ।
परिमित लोकाकाश में अनंत पदार्थों के अवगाह की एक जिज्ञासा―देखिये यह लोकाकाश कितने क्षेत्र में है? 343 घनराजू में है । तब कितने प्रदेश हुए? असंख्यात अर्थात् जिनकी गिनती नहीं है, किंतु अंत और सीमा तो है ना? इससे बाहर लोकाकाश नहीं हैं । तो इस असंख्यात प्रदेश में इतने पदार्थ कैसे समा गए? प्रथम तो जीव ही अनंतानंत हैं । फिर एक-एक जीव के निकट, एकक्षेत्रावगाही, एक-एक जीव से संबद्ध अनंत तो शरीर वर्गणायें हैं और उससे अनंतगुणे तैजस वर्गणायें हैं । उनसे अनंतगुणे कार्माणवर्गणायें हैं । यह तो एक-एक जीव से संबद्ध बात है पर अनेक वर्गणायें जो जीव से अबद्ध हैं, किंतु जीव के साथ विस्रसा उपचित आहार व कार्माण वर्गणा हैं, वे भी अनंतानंत हैं । तो ये अनंतानंत जीव और उनसे भी अनंतानंत पुद्गल और लोकाकाश के बराबर ही ये असंख्यातकालाणु, धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य ये सबके सब इतने से छोटे लोकाकाश में कैसे समा गए, ऐसी एक जिज्ञासा होती है । उसके उत्तर में सुनिये ।
परिमित लोकाकाश में अनंत पदार्थों के अवगाह के प्रतिपादन में एक दृष्टांत―अवगाह की बात को दृष्टांत से समझें । जैसे एक कमरे में एक दीपक जल रहा है । उसका प्रकाश खूब फैला हुआ है, उसी में दूसरा दीपक जला दिया तो उसका भी प्रकाश समा जायेगा ।ऐसे ही समझो कि ये लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात हैं, उनमें अनंतानंत जीव पुद्गल ये सब समा जाते हैं और इस समा जाने में एक आकाश की ही अवगाह योग्यता पर ध्यान न दें किंतु अपने आप में परमाणुवों में भी परस्पर में अवगाह करने की, प्रवेश करने की कला है । जिस प्रदेश पर एक परमाणु ठहर सकता है उस ही प्रदेश पर अनेक परमाणु ठहर सकते हैं । यहीं देख लो ना? अपने जीव का विस्तार जितने क्षेत्र में है उस ही क्षेत्र में शरीर का विस्तार, कर्म का विस्तार यह सब पड़ा हुआ है । दूसरा दृष्टांत लो।
लोकाकाश में अनंत पदार्थों के अवगाह पर कुछ अन्य दृष्टांत―एक गूढ़ नागरस का कोई औषधिपिंड है, उसमें बहुतसा स्वर्ण समा जाता है, यह कोई धातु रसायन की विधि की बात है अथवा ऊँटनी के दूध के घड़े में उतना ही मधु भर दो तो समा जाता है अथवा जो किया जा सकता है उसे देख लो । एक कनर में राख खूब ऊपर से भरी हो, उसमें पानी भरते जावो तो सारा का सारा पानी समा जाता है । यह दृष्टांत जितनी बात को समझने के लिए दिया जा रहा है उतना ही प्रयोग रखना है । अथवा मंदिर में एक घंटा बजा, उस घंटे की आवाज फैल गयी । उसी समय दूसरा घंटा बज जाये तो वह दूसरे घंटे की आवाज पहिले घंटे की आवाज में समा जाती है । तो जैसे यहाँ भी निरखते हैं कि एक पदार्थ में अनेक पदार्थ समा जाते हैं तो ये सब पदार्थ भी परस्पर में समाकर और फिर इस आकाश में समा जाये, यह बात सिद्ध हो जाती है ।
आकाश का परिज्ञान―इस षट्द्रव्यात्मक लोक में समस्त शेष द्रव्यों का अर्थात् जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल इन 5 द्रव्यों को जो सर्वप्रकार से अवगाह देने में निमित्तभूत है ऐसा विशुद्ध क्षेत्रात्मक जो द्रव्य है उसे आकाश कहते हैं । इस आकाश की सिद्धि में किसी को शंका और विवाद नहीं है । देखिये अमूर्त पदार्थ 5 हैं―जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ।इन 5 अमूर्त पदार्थों का इंद्रियों द्वारा ग्रहण नहीं होता । इस कारण से ये पाँचों ज्ञान में आने बड़े कठिन हैं, लेकिन जीव और आकाश―इन दो अमूर्त पदार्थों के बारे में इसकी जानकारी लेने में बुद्धि चलती है । आकाश को तो यों कह दिया कि देखो यह जो पोल पड़ी है ना यही तो आकाश है । एक मोटी बुद्धि से यह बात कही जाती है । यहाँ वस्तुत: जो आकाश है, जो उसके प्रदेश हैं, 6 साधारण गुणो से युक्त हैं, जिसमें षट्गुणहानि वृद्धि चलती रहती है ऐसे आकाश को कौन जानता है? बस जो पोल देखा उसे लोग आकाश कहते हैं । कुछ भी कहें, पर आकाशद्रव्य को मान लेने के लिए मनुष्यों की बुद्धि चलती है ।
जीव के परिज्ञान की सुगमता―जीव को मानने के लिए भी सुगमतया बुद्धि चलती है ।हालांकि इस जीव के निषेध करने वाले बहुभाग जीव हैं, फिर भी इस जीव की प्रसिद्धि अनेक ज्ञानी संत पुरुषों में हो जाया करती है । क्यों हो जाती है? धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य भी तो अमूर्तिक हैं, उनके विषय में क्यों नहीं परिज्ञान होता? और जीवद्रव्य के बारे में क्यों परिज्ञान हो जाता है? इसका कारण यह है कि यह जानने वाला जीव स्वयं है और फिर इस जीव पर जो बात गुजरे उसे यह जीव नहीं जान सकता क्या? यदि यह ज्ञाता और होता और जीवद्रव्य दूसरा होता तो इसका जानना कठिन था, पर यह ज्ञाता ही तो जीव है । इस जीव में जो बात गुजरती है, अनुभव में आती है, भोगता रहता है । उतना भुगतान पाना होता है, फिर भी यह ज्ञान नहीं किया गया ऐसा नहीं हो सकता । तो स्वातिरिक्त जितने अमूर्त पदार्थ हैं उन अमूर्त पदार्थों में आकाशद्रव्य का ज्ञान कर लेना अपेक्षाकृत दूसरों के कुछ सरलसा मालूम हो रहा है । इस गाथा में आकाश का स्वरूप कहा है ।