वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 95
From जैनकोष
तम्हा धम्माधम्मा गमणट्ठिदिकारणाणि णागासं ।
इदि जिणवरेहिं भणिदं लोगसहावं सुणंताणं ।।95।।
गतिस्थितिहेतुता के संबंध में सिद्धांत―इससे यह निर्णय करना कि धर्म और अधर्मद्रव्य ही जीव पुद्गल के चलने में और ठहरने में कारण है, आकाश नहीं है, ऐसा जिनेंद्रभगवान ने कहा है । जो लोक के स्वरूप के श्रोता हैं उन श्रोतावों को यह बताया है कि अमूर्त पदार्थों में चलने और ठहरने का निमित्त धर्म और अधर्मद्रव्य हैं और अवगाह का निमित्त आकाशद्रव्य है । यह अति सूक्ष्म चर्चा है और आँखों दिखने वाली बात नहीं है, खुद पर बीतने वाली बात नहीं है, इसलिए इसमें दिलचस्पी नहीं आ पाती है । अनुरंजकता दो प्रसंगों में आती है या तो दिखने वाली बात में कोई घटना हो रही हो अर्थात् पुद्गल के संबंध में और एक खुद पर बीती चर्चा हो तो चूंकि बहुत कुछ अनुभूत है तो इस कारण से वहां पर एक दिल टिकता है । इसी प्रकार यद्यपि यहाँ कोई दिल जल्दी से लगना योग्य विषय नहीं है, फिर भी शुद्धद्रव्य की चर्चा से विषयकषायों में अंतर आ जाता है । विषयकषायों की वृद्धि वहाँ होती है जहां विषयकषायों के साधनभूत पुद्गलपिंडों को विषय में लिया जाये ।
अमूर्त अजीवास्तिकाय की चर्चा―यह एक शुद्ध चर्चा है । लोकाकाश प्रमाण धर्मद्रव्य है और अधर्मद्रव्य है । आकाश असीम है, वह लोकरूप भी है और लोक से बाहर भी है । यहाँ तक 5 अस्तिकायों के वर्णन के प्रसंग में इस अधिकार में पुद्गल धर्म अधर्म और आकाश चार द्रव्यों का वर्णन किया, जिसमें अमूर्त द्रव्य तीन हैं―धर्म, अधर्म और आकाश । ये तीनों द्रव्य एक जगह रह रहे हैं, फिर भी वस्तुस्वरूप की दृष्टि से ये जुदे-जुदे हैं, इस प्रकार का वर्णन करते हैं।