वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 67
From जैनकोष
अप्पा अप्पु जि पर परुजि परु अप्पा परु जि ण होइ ।
परुजि कयाइ वि अप्पु णवि णिय में पभणइ जोइ ।।67।।
आत्मा आत्मा ही है, देहादिक पर पदार्थ पर ही हैं । आत्मा पर नहीं होता और पर आत्मा नहीं होता―ऐसा योगीश्वर देव निश्चय कर कहते हैं । भैया ! मोह के गलाने का उपाय यह भेदविज्ञान है । परपदार्थों का स्वरूपास्तित्व दृष्टि में आये तो वहाँ मोह नहीं रहता । जैसे सीप पड़ी है दूर और समझ में आ गया कि चांदी है तो रागी पुरुषों को उससे मोह हो जाता है । उसके पाने का यत्न करेंगे और किसी प्रकार का यत्न करके यह मालूम हो जाय कि यह तो सीप है तो फिर कभी भी उसके प्रति मोह नहीं हो सकता । कांच पड़ा है आँगन में, गोल मटोल छोटासा और यह भ्रम हो जाय कि यह तो कोई अंगूठी में जड़ाया जाने वाला नग है तो उसके प्रति मोह हो जायगा और जब यह मालूम हो जाय कि यह तो कांच है तो फिर मोह उससे होगा क्या? नहीं होगा । सच्चा ज्ञान होगा तो मोहन होगा, उसमें परिणाम न जायगा । इसी प्रकार इन सबका बाह्यपदार्थों के जब स्वरूपास्तित्व का भाव न हो और यह जाना जाय कि यह मेरा है, यह मेरा पुत्र है, यह मेरा हितू है, मात्र इनसे ही मेरी जिंदगी है, इनके बिना तो मेरा अस्तित्व ही नहीं है । इतना भ्रम हो गया तो यह मोहवश हो गया और यदि सही ज्ञान हो जाय कि ये सब पर हैं, इनका अस्तित्व इनमें है, मेरा अस्तित्व मुझमें है, कोई पदार्थ स्वयं की सीमा का उल्लंघन नहीं करता सब अपनी-अपनी सीमा में ही स्थित हैं । ऐसा सत्य बोध हो जाय, दृढ़ता से निश्चय हो जाय तो कभी यह बुद्धि नहीं हो सकती कि यह मेरा है ।
मोह की बलिहारी देखो चाहे बच्चा आपके कहने में न हो, आपसे विपरीत चलता हो, आपको कष्ट ही देता हो, फिर भी भीतर से यह ममता नहीं छोड़ी जा पाती कि यह भिन्न जीव है, मेरा यह कुछ नहीं है । ऐसी भीतर में बुद्धि नहीं हो पाती । कुछ नहीं मिलता है उनसे अपने को । जैसे बछड़े से गाय को कुछ नहीं मिलता है । गाय भूखी है तो बछड़ा कहीं से घास लेकर गाय के मुख में दे देगा क्या? ऐसा तो नहीं है । गाय का कुछ काम बछड़े से न होगा, बल्कि क्लेश ही होंगे । गाय ने गर्भ में क्लेश सहा और जब बछड़ा पैदा होता है, उस समय तो बड़ा ही कष्ट होता है । और बछड़ा कुछ बड़ा हो गया तो वह गाय अपने खाने में भी मन नहीं लगाती; हींड़-हींड़ कर दरवाजे पर ही खड़ी रहती है । सारे क्लेश गाय भोगती है, बछड़े के लिए, पर गाय को बछड़े से लाभ कुछ नहीं होता । होता हो कुछ लाभ तो बतलाओ । फिर भी गाये बछड़े के लिए मरी जाती है, यही मेरा सर्वस्व है । इसी प्रकार यह मोह पैदा हो तो बच्चों को, स्त्री को, पोतों को ही अपना सर्वस्व मानते हैं; पर उनसे कुछ लाभ मिलता हो तो बतलाओ ।
भैया ! ज्यादह से ज्यादह आप यह कहेंगे कि बच्चे लोग हमें खिलाते हैं, हमारी भोजन की खबर रखते हैं । भोजन की खबर रखने के दो कारण हैं । एक तो यह कि आपका उदय अच्छा है और चरित्र अच्छा है, कषाय भी मंद हैं और कुछ बच्चों के हित की बात भी बोल रहे हैं, पहिला कारण तो यह है; जो लोग आपकी पूछ किया करते हैं । दूसरा कारण यह है कि उन बच्चों को भी अपनी इज्जत रखना है । यदि के बाप की, दादा की खबर न रखें और बुरी तरह फिरा करें तो इसमें उनकी भी तो इज्जत घटती है । लड़कों की पोजीशन पर भी तो धब्बा लगता है ना । तो अपनी इज्जत [पोजीशन] बनाने के लिए भी वे बाप और दादा की खबर रखते हैं । आपका आत्मा उनका कुछ लगता हो, इस कारण आपकी खबर रखते हों यह बात नहीं है । कोई भी आत्मा किसी दूसरे का कुछ नहीं लगता है । सब जीवों का स्वरूप भिन्न-भिन्न, है, चतुष्टय न्यारा-न्यारा है । किसी से किसी को कोई लाभ नहीं है । यह बात तब श्रद्धा में बैठती है । जब पदार्थों के स्वरूपास्तित्व का ज्ञान हो । उसी भेदविज्ञान की बात को इस दोहे में कह रहे हैं ।
यह शुद्ध आत्मा अर्थात् केवल अपने अस्तित्व से जितना सत् है, जो कुछ है वह ज्ञानस्वरूपी आत्मा केवल ज्ञानादिक स्वभाव वाला है। आत्मा में अचिंत्यशक्ति होती है । जो कुछ भी प्रताप है, चमत्कार है, आश्चर्यजनक घटनाएं हैं वे सब आत्मा के चमत्कार है। विज्ञान के युग में रेडियो, राकेट, वायुयान, तार, बेतार ये सब जो अद्भुत बातें हैं वे ज्ञान के ही चमत्कार हैं और जिनके सम्यग्ज्ञान है, और सम्यग्ज्ञान के बल से आत्मतत्त्व की उपासना करके जो आत्मा संयत होता है उनके ज्ञान का तो अपूर्व चमत्कार है । वे सर्वलोक को जान लेते हैं । यह शुद्ध आत्मा के वल आत्मा है । यह खालिस आत्मा अर्थात् आत्मा के सिवाय और कोई चीज न निरखें, न शरीर निरखें, न कर्म देखें, न रागद्वेष विकार देखें । ज्ञान के ही स्वरूप से ज्ञान में जो हो केवल उस ही स्वरूप को देखें तो वह शुद्ध आत्मा कहलाता है ।
भैया ! वर्तमान में भले ही संसार अवस्था है । कर्म-नोकर्म का बंध है? फिर भी आत्मा की मात्र सत्ता क्या है? इसको ज्ञान से निरखा जा सकता है। तो यह शुद्ध करना केवल ज्ञानादिक स्वभाव वाला है । वह शुद्ध आत्मस्वरूप है और जो कर्मादि के भाव हैं पर ही हैं । मैं तो ज्ञानमात्र हूं? और रागद्वेष, विषय-कषाय ये सब पर ही हैं―ऐसा यह भेदविज्ञान करते हैं । घर, मकान ये पर हैं, इनको समझाने के लिए आचार्यों की चेष्टा नहीं होती है । कभी कह दिया तो साधारणरूप से आचार्यदेव ने तो अपने वास्तविक स्वरूप को और वास्तविक स्वरूप से भिन्न जो विकार हैं उनको भिन्न-भिन्न करके बतलाया है । तो यह शुद्ध आत्मा कषाय स्वभाव वाला नहीं है, पर रूप नहीं है और कषाय भाव पर शुद्धात्मरूप नहीं है । पर पर ही है, निज-निज ही है । ‘‘निज को निज पर को पर जान ।’’ यह बात इस दोहे में कही जा रही है ।
जीव अपने स्वभाव को छोड़कर विकार जड़ता को ग्रहण करें तो वह परजड़ अपनी
जड़ता को छोड़कर ज्ञानरूप नहीं हो जाता । ज्ञान, ज्ञान ही है विकार-विकार ही हैं । ज्ञान और विकार का अंतर जानो । जैसे भगोने में 5 सेर पानी में 1 तोला रंग डाल दिया, सारे पानी में रंग हो गया । तिस पर भी पानी का जो सत् हैं पानी के अस्तित्व के कारण, जैसा पानी होता है वैसा है । वह पानी पानी ही है; वह रंग रंग ही है । वह पानी नहीं बन गया । बहुत मुश्किल से उस रंग हुए पानी में यह पहिचान बैठे सकेंगी कि पानी, पानी ही है-और रंग, रंग ही है । रंग पानी नहीं बना और पानी रंग नहीं बना । भींत में अपन को कुछ जल्दी समझमें आ जायगा । भींत पर पीला रंग पुता है, खूब पतला फैलकर पुलों है ना ? इसमें भींत-भींत ही है और रंग-रंग ही है । भींत रंग नहीं हो गयी और रंग भींत नहीं हो गई । यह बात कुछ जल्दी समझमें आ रही हो । इसी तरह पानी को भी बातें है । खैर, यह भी कुछ समझ में आ रहा है। और अंदर की बात देखो, ज्ञान और विकार दोनों का उदय चल रहा है । तिस पर भी ज्ञान-ज्ञान ही है और विकार-विकार हीं है । ज्ञान विकाररूप नहीं जाता और विकार ज्ञानरूप नहीं हो जाता है । इसी प्रकार परमयोगी पुरुष भेदभावना की बात बतलाते हैं। अब इस भेदभावना के बल द्वारा परभावों से हटकर आत्मस्वभाव तक आये, इससे यह पहिचानो कि इस आत्मा के लिए उपादेय जो अनंतसुख है अनंतज्ञान है, शुद्ध चरमविकास है, वह आत्मा से अभिन्न है । विकारों से भिन्न है, ऐसी जो शुद्ध आत्मा है वही हम-आप सबको उपादेय है।
भैया ! भेदविज्ञान का बड़ा माहात्म्य है शांति तथा कर्मनिर्जरा भेदविज्ञान से ही प्राप्त होती है । प्रभु का भी वास्तविक भक्त वही है जो प्रभु के उपदेश हुए मार्ग पर कदम रखें । न का उपदेश है ज्ञान और वैराग्य । लौकिकजनों की दृष्टि में चाहे वह कुछ भी मूल्य न रखता हो, किंतु वस्तुस्वरूप का सम्यक् ज्ञानी पुरुष अपनी शांति को पाने में पूर्ण समर्थ है । व का लक्ष्य तो शांति और आनंद का है और उस लक्ष्य की पूर्ति रत्नत्रय में है । झूठे, मायामयी विनाशीक इन परचेतन तत्त्वों से कुछ मायामय बातें सुन लेने में हित नहीं है । लोक का जीव कोई मुझे जाने अथवा न जाने, जान जाये कोई तो इससे मेरा उद्धार नहीं जाता व न जान पाये कोई तो इससे मेरा पतन नहीं हो जाता । जैसे यात्रा के लिए साहस के साथ अपने पैरों से ही तो चलकर पहुंचते हैं ना? इसी तरह इस चरमविकास [पूर्णशुद्ध परिणमन] में अपने ही परिणमन द्वारा अपने ही पुरुषार्थ से बड़े चलो, मंजिल मिल जायगी । ऐसा होने के लिए शास्त्रों का विशेष अभ्यास चाहिए ।
दूसरी बात यह आवश्यक है कि भगवान् की भक्ति चाहिए । जैसे शास्त्रों के अभ्यास बिना अपने आपके विकास को नहीं प्राप्त हो सकते, इसी प्रकार भगवान् की भक्ति बिना भी अपना विकास नहीं हो सकता । अरहंत सिद्ध भगवान् हैं और निज का जो शुद्ध ज्ञायकस्वरूप है वह निज का परमार्थ भगवान् है । जब तक इस प्रभु की महिमा पर, इसके गुणों पर न आ जायें तब तक मुक्ति के मार्ग में उत्साह नहीं होता है कुछ नहीं सकते । आत्महित चाहने वाले पुरुषों को जिनभक्ति भी आवश्यक है ।
तीसरी बात यह है कि सदा श्रेष्ठ पुरुषों की सेवा करना आवश्यक है । या तो अत्यंत एकांत हो या सत्संग हो । सो अब आजकल अत्यंत एकांत का तो अवसर कठिन हो गया है तो सत्संग का अपना वातावरण रखना चाहिए । गृहस्थ हो तो क्या है? यहाँ भी तो अपनी सज्जन गोष्ठी बनाई जा सकती है, पर गोष्ठी की सफलता के लिए नीयत समय पर उपस्थित होना आवश्यक हो जाता है । ऐसी गोष्ठी हो जिससे धर्मपालन के लिए उत्साह बना रहे, अपने ज्ञान की वृत्ति का अवसर बना रहे । यह उन्नति का उपाय कहा जा रहा है ।
चौथी व पांचवीं य बात होनी चाहिए कि अपने मुख से गुणी पुरुषों का गुणगान करते रहे और किसी दूसरे के दोष न बोला करें । यदि गुणियों का गुण अपने मुख से न बखान सकते तो उसका कारण समझिये कि अपने पर्याय का उसे अहंकार है । जो पर्याय का अहंकारी है वह दूसरों की भी प्रशंसा नहीं सुन सकता । फिर वह दूसरों का गुनगाण ही कैसे सकेगा? भैया ! इस असार संसार में किस बात की मान रखना? मान पुरुष आखिर नीचा ही देखते हैं, क्योंकि मानी पुरुषों को चाहिए सदा मान ही मान; पर ऐसा कैसे हो सकता है? कोई तुम्हारा रिश्तेदार इस जगत् में नहीं है या कोई पालक रक्षक इस जगत में नहीं है । अपने परिणामों से ही अपनी रक्षा की जा सकती है । फिर दूसरों के दोष मुख से कह देने में लाम क्या मिलता है? न तो कोई आजीविका में वृद्धि और न कोई उद्धार की बात है, दूसरों की निंदा करने में । इसलिए सज्जन पुरुषों का हमेशा गुणगान करना चाहिए, और दूसरों के दोष कहने में मौन रखना चाहिए । यह बिल्कुल व्यर्थ की बुरी आदत है कि बैठे-बैठे दूसरों की आलोचना कर रहे हैं; अमुक ऐसे हैं । तो 5वीं बात हुई अपने कल्याण के लिए कि दूसरों के दोष मुख से न कहो । कोई पीट तो नहीं रहा कि वह आपकी ड्यूटी बन जाय कि तुम्हें निंदा और दोष बखानना ही हो, उसके बिना तुम्हारा काम ही न चलेगा, ऐसी बात नहीं है । न कोई आफत तुम्हारे ऊपर आ रही है । किसी प्रकार के लाभ की संभावना नहीं है । फिर भी मोह का ऐसा प्रचंड वेग होता है कि वे मोह नहीं छुड़ा सकते । पर्याय पर गौरव रखते हैं, अपने को सबसे ऊंचा बताना चाहते है और ऊंचा बताने के प्रसंग में दूसरों की निंदा करना स्वाभाविक काम बन जाता है । अत: किसी के दोष कहने में मौन रखो । जब अपने उपयोग में किसी के दोष आ जायेंगे याने खुद का हृदय मलिन होगा तो दूसरों के दोष कहे जा सकते हैं ।
छठी बात है कि सबसे प्रिय और हितकारी वचन बोलो । मन में कुछ और है और वचनों में और कुछ कह रहे हैं; ऐसा सोचने से तो खुद पर ही पीड़ा बीतेगी । इस कारण दोष के कहने में पूर्ण मौन रखना चाहिए और सबसे प्रिय-हित वचन बोलना चाहिए । हितकारी बोलो, प्रिय भी बोलो, थोड़ा भी बोलो, उससे अपना उत्थान है और लोक में भी कोई दुःखों की बाँधा नहीं आ सकती ।
सातवीं बात जिसके लिए ये 6 बातें की जा रही हैं वह है आत्मतत्त्व की भावना करना । अपनी प्रगति के लिए यह काम अति आवश्यक है, करें तो नियम से प्रगति होगी । अब इस ही शुद्ध आत्मा के संबंध में यह बतलाते हैं कि शुद्ध निश्चय से यह आत्मा न अपना जन्म करता है और न मरण करता है । जैसे कोई मुसाफिर एक गाड़ी से दूसरी गाड़ी में गया, अथवा एक डिब्बे से उतरकर दूसरे डिब्बे में गया तो कहीं उस मुसाफिर के दो टूक नहीं हो गये । वह तो वही का वही है, केवल स्थान बदलता है । इसी प्रकार यह जीव मनुष्य से देव बन जाय, देव से मनुष्य बन जाय तो भी वास्तव में इस आत्मा ने न तो किसी की उत्पत्ति की है और न अपना मरण किया, वह तो वही का वही है । छोड़कर चला गया तो लोगों ने उसका नाम मरण रखा । और जो आ गया उसी का नाम हुवा उत्पत्ति । पर-परमार्थ से आत्मा की न उत्पत्ति है और न मरण है। इसी प्रकार इस आत्मा का न बंध है और न मोक्ष है । यह तो आकाश की तरह निर्लेप है । उसका बंध कहां है? खुद ही कल्पना करके अपने अज्ञान से बंधा हुआ है । न बंध करता है यह आत्मा और मोक्ष करता है । इस बात को इस दोहे में बतला रहे हैं―