वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 90
From जैनकोष
अप्पा माणुसु देउ णवि अप्पा तिरिउ ण होइ ।
अप्पा णारउ कहिंपि णवि णाणिउ जाणइ जोइ ।।90।।
आत्मा न मनुष्य होता है, न देव होता है, न तिर्यंच होता है और न नारकी होता है । योगी पुरुष अपने आपको शुद्ध ज्ञानस्वरूप जानकर ऐसा समझता है । यह मनुष्य जैसा जो ढंग देख रहा है यह क्या हौवा है? स्वतंत्रता से निरखो तो इस समस्त पिंड में एक तो आत्मा है और अनंत शरीर वर्गणा के परमाणु हैं और उनसे भी अनंतगुणा कार्माणवर्गणा के परमाणु हैं । इन सबका जो पिंड है उसे कहते हैं मनुष्य । इस जगत् में कैसा प्राकृतिक दृष्टि हो जाती है कि यह ईश्वर अपने में इच्छा करता है, विकार करता है, अपने आपको नानारूप अनुभवता है । इस कारण निमित्तनैमित्तिक भावपूर्वक ऐसा कर्म बंध होता है कि जिसके उदय में स्वयमेव ऐसे शरीर की सृष्टि हो जाती है ।
जगत् में जितने पदार्थ हैं वे निरंतर परिणमते रहते हैं । कोई पदार्थ किसी दूसरे को नहीं परिणमाता । तब यह हो क्या गया कि इस ईश्वर ने, आत्मा ने विकार किया, इच्छा की, उसका निमित्त पाकर ये शरीर के परमाणु इस प्रकार के बन गए । कोई द्रव्य किसी द्रव्य का बनाता कुछ नहीं है । यहाँ आप सब बैठे हैं और सबकी छाया पड़ रही है । अब जरा यह बतलाओ कि इस छाया को कर कौन रहा है? बिजली कर रही है क्या? नहीं । आप कर रहे हैं क्या? नहीं । आप तो अपने शरीर में रहते हुए अपने उठने-बैठने का काम कर रहे हैं । फिर इस छाया को कर कौन रहा है? कोई नहीं कर रहा है । फिर यह छाया कैसे आ गयी? यही तो तत्त्व है कि कोई दूसरा करता नहीं और पर का निमित्त पाकर यह स्वयं हो जाता है । इस छाया में आपका परिश्रम क्या लगा? आप अपने शरीर के अंदर हैं अपना परिश्रम करते हुए रह रहे हों और इस दरी पर यह छाया आपका निमित्त पाकर इसी सीध में बिजली का निमित्त पाकर यह हो गई । इस जगत् के इन सब कार्यों में निमित्तनैमित्तिक विधि से तो देख सकते हैं; पर कोई पदार्थ अपनी परिणति से किसी अन्य पदार्थ का कुछ करता हो, ऐसी बात नहीं है ।
यह सम्यग्ज्ञानी जीव विचारकर रहा है । मैं मनुष्य नहीं हूँ । इस मनुष्य शरीर के रचे जाने मैं निमित्त तो हुआ कोई, लेकिन निमित्त होते हैं जुदे पदार्थ । जैसे घड़ा बनाने में या सकोरा बनाने में कुम्हार निमित्त है तो कुम्हार उस सकोरा से जुदा पदार्थ है या सकोरारूप है? बतलाओ । कुम्हार सकोरारूप नहीं है? क्या कुम्हार को मिट्टी बना दोगे? नहीं । कुम्हार बिल्कुल जुदा है । जो निमित्त होता है वह उपादान से अत्यंत पृथक् सत्ता रखने वाला होता है । यदि एक हो सत्ता रूप हो तो निमित्त नहीं कहा जा सकता है । यह स्वयं उपादान त इस शरीर का, इस आत्मा क उपादान बनाकर तो रच नहीं दिया, उपादान होकर शरीर में रचता तो जैसा शरीर जड़ है तैसा आत्मा भी जड़ हो जाता । तो शरीर के रचे जाने में आत्मा निमित्त है और किसी कार्य में कोई निमित्त होगा तो वह कार्य से जुदी सत्ता वाला हुआ करता है । सर्वत्र देख लो । कपड़े के रचे जाने में निमित्त है कौन? जुलाहा । तो जुलाहा उस कपड़े में तन्मय है या जुदा है? कपड़े से जुदा है । इसी प्रकार शरीर की रचना में यह आत्मा निमित्त है तो इसका अर्थ यह हुआ कि यह आत्मा शरीर नहीं है । सोनाचाँदी के गहनों के बनाने में सुनार निमित्त है तो इसका अर्थ है कि वह गहना ही सुनार नहीं है । इसी प्रकार इस शरीर की रचना में आत्मा निमित्त है तो इसका अर्थ यह हुआ कि यह शरीर आत्मा नहीं है । भैया ! इस मनुष्य-शरीर को निरखकर हम ऐसा समझें कि मैं शरीर नहीं हूँ, आत्मा हूँ । न मैं मनुष्य हूँ, न मैं नारकी हूँ, न मैं तिर्यंच हूँ, न मैं देव हूँ । इन सबसे परे केवल चैतन्यमात्र हूँ । आत्मा के परिचय के लिए आत्मा के विध्यात्मक लिंग पर दृष्टि देनी चाहिए । आत्मा रागी नहीं, द्वेषी नहीं, क्रोधी नहीं, कुछ नहीं; तो और क्या है? इस बात के जाने बिना, नहीं-नहीं की जानकारी से क्या पूरा पड़ेगा? एक बार बाईजी ने भागीरथजी बाबा को कहा कि बाबाजी उड़द की दाल बनायें? नहीं । गेहूं की रोटी? नहीं । चावल बना लें? नहीं । घी चाहिए? नहीं । नमक डाल दें? नहीं । तो धूल बना दें क्या? अरे ! सभी को नहीं, नहीं करते जाते हो तो और बनाएं क्या? अरे ! जो खाना हो, सीधा उसका नाम ले लो । कहा ज्वार की रोटी बना लो । हां, तो यों कहो । तो आत्मा का स्वरूप किस-किस रूप से जाना? रागरहित है? नहीं, रागद्वेष रूप नहीं है । इसमें जन्ममरण नहीं है, इसके गति इंद्रिय नहीं है । इससे जीव का क्या परिचय होगा? यह तो जीव के स्वरूप का अकार है । जैसे किसी को खूब मौज हो, भरपेट भोजन की व्यवस्था हो और बड़े साधन हों तो अच्छे कपड़े पहिने, बड़ा शौक रखे, बड़ा आडंबर रखे, बड़ा श्रृंगार करे, बहुत-बहुत नखरे करे, ठीक है । ये सब बातें पेट भरे पर होती हैं । जीव का मूल लक्षण क्या है? इसका परिचय तो करलो । पहले जीव का पेटा भर लो । ऐसा ही तौ कहते हैं ना? अच्छा इन चीजों से पहले पेटा भर लो, मायने उस खाने को लिख लो, पूर्ति कर लो तो पहले जीव का पेटा तो भर लो । जीव का क्या स्वरूप है? इसका निर्णय कर लो, फिर उसका श्रृंगार करो ।
यह जीव गुणस्थान से अतीत है, जीवस्थान से परे है, गतींद्रिय आदि से रहित है । इसमें कोई आसव नहीं पाये जाते हैं, और जीव का परिचय न हो तो किसके बारे में यह कहा जा रहा है? उसका कुछ अर्थ भी है क्या ? कोई अर्थ नहीं है । जैसे दुल्हा के बिना बारात की क्या कीमत है? बारात कुछ तथ्य भी रखती है क्या? उस बारात का कुछ अर्थ भी है क्या? कुछ भी अर्थ नहीं है । इसी प्रकार जीव के स्वलक्षण के परिचय बिना इन बातों का कुछ अर्थ है क्या? जो नहीं-नहीं किए जा रहे हैं आचार्यदेव । यथा―आत्मा गुरु नहीं, शिष्य नहीं, स्वामी नहीं, मनुष्य नहीं, देव नहीं; कुछ अर्थ नहीं । इसी कारण इन सब गाथाओं में, दोहों में पहले जीव का क्या स्वरूप है? इसका वर्णन विशेष आया था । और उसके बाद अब उनका निषेध किया जा रहा है, जिन-जिनमें अज्ञानीजन मुग्ध होते हैं । जीव पर सबसे बड़ा संकट है तो मोह का है । जो कुछ भी मिला है यह सब मिट जायगा । और जिसमें मोह करते हो वे सब बिछुड़ जायेंगे । पर जो मोह कलंक बसा लिया है वह तो पिंड न छोड़ेगा । वह तो अगले भव में भी जायगा और इस भव में भी दु:खी करेगा । यह योगी पुरुष अपने को चतुर्गति से रहितमात्र चिदात्मक देख रहा है । कैसा है यह योगी कि तीन गुप्तिरूप निर्विकल्प समाधि में स्थित है । मन, वचन और काय; इनकी गुप्ति क्या? मन को न हिलने देना, वचन न बोलना, शरीर को न हिलने देना । जब त्रिगुप्ति भली प्रकार सिद्ध होती है तो वहाँ उच्चज्ञान प्रकट होता है । परमावधिज्ञान हो, सर्वावधिज्ञान हो, इससे ऊँचा मनःपर्यय जान हो ।
एक बार धर्म के मामले पर पति-पत्नी का विवाद हो गया । पत्नी थी जैन साधु की भक्त और पति था अन्य साधु का भक्त । या श्रेणिक और चेलना की ही कथा हो, नीचे हडि्डयां गड़वा दीं और ऊपर से साफ कर दिया । छोटा सा कोठा बनवा दिया और कहा कि तुम यहाँ रसोई बनाओ और हम देखें तुम्हारे साधुओं को । यदि उनके विशिष्ट ज्ञान होगा तो न आयेंगे । अब वह सोचती है पत्नी, कि साधु की साधुता का संबंध तो अध्यात्म से है, यह नियम नहीं है कि ऊंचा शुद्ध ज्ञान हो और मनःपर्यय ज्ञानी हो । क्या किया जाय? यों तो कहना नहीं है हड्डी गड़ी है, आप न आना, पड़गाहना जरूरी है । उसने युक्ति सोच ली और पड़गाहते समय बोली―हे त्रिगुप्तिधारक महाराज ! अत्र तिष्ठ-तिष्ठ । तो एक मुनिराज आए और सीधे चले गए । उन्हें पता था कि मेरी मनोगुप्ति नहीं है या अन्य गुप्ति नहीं है । दूसरा साधु आया वह भी न ठहरा । तो पति ने कहा कि ये क्यों नहीं ठहरते? तो पत्नी ने सब भेद बता दिया कि यहाँ हाड़ गड़े हैं, और रसोई बनाई है तो ये साधु कैसे आयेंगे? यदि कोई अवधिज्ञानी भी हों तो अवधिज्ञानी साधु सदा जोड़ा नहीं करता है, किंतु पड़गाहने वाले से जो ऐसा सुनेगा त्रिगुप्तधारी, तो वह सोचेगा कि यों क्यों कहा? तो वह देख लेगा, हड्डी दिख जायगी, वह चला जायगा ।
भैया ! सबसे बड़ी साधना है कि मन वश में रहे, शरीर वश में रहे । यहाँ अपन लोगों के क्या वश में है सो बतलाओ? मन वश में हो तो बतलाओ । अभी हारमोनियम की राग सुनने में आये तो मन चला जायगा कि एक गाना मैं भी गा दूँ । तबला की अच्छी ठपाक सुनें तो झट घुंघुरु लाने चल देंगे । अभी कोई चर्चा सुनी कि अमुक चीज अच्छी है, उसका भाव सस्ता हो रहा है तो झट खरीदने चल देंगे । तो मन हमारे वश में नहीं है । अगर वश में हो तो आप जानों । पर यह है कि हम आपके मन, वचन और शरीर वश में नहीं हैं । मन, वचन, शरीर यहाँ से उठते हैं, बाहर में लगते हैं, तो इतना कर देना चाहिए कि इस मन, वचन, काय को ऐसी जगह पटक दो कि जहाँ तुम्हें खतरा ही न हो । शुभोपयोग में लगा दो, जिनेंद्रदेव की भक्ति में लगा दो।
जब कभी 9।। बजे हम चर्या को उठते थे तो 9 बजे तक कभी-कभी रामसहायजी और अमोलकचंदजी भगवान की पूजा गान-तान से करते थे । तो अपना उपयोग यदि शुभोपयोग में लगा दो तो पापों का बचाव तो हो । जो कर्मठ आत्मा होता है वह ठाली नहीं बैठता है, उसे तो कुछ न कुछ काम चाहिए । आप आत्मा को किस काम में लगायेंगे ? बोलो । अरे ! देव पूजा, दीनों का उपकार दुःखियों की, रोगियों की सेवा, कोई शुभोपयोग के काम में लगा दो । शुभोपयोग बहुत बड़ा भारी भार है । इस शुभोपयोग के कारण खोटे मनुष्य बनें, देव बनें, तिर्यंच बनें, नारकी बनें, इसमें पैदा होते हैं । किसका भरोसा रखा जाय? कोई भी तो अपनी परिणति से बाहर निकल कर हिलता तक नहीं, कोई मुझे चाहता तक नहीं और आपको भी कोई नहीं चाहता है । आप सोचते होंगे कि चाह तो रहे हैं और कहते जा रहे हैं कि नहीं चाहते । आपकी अपने आपमें जो शुभ भावना होती है, धर्म में जागृति हो रही है, उस परिणाम से आपकी लगन लगी है सो उसकी पूर्ति इस ही रूप में होती है कि किसी शुभ कार्य में लगा जाय । कौन किसे चाहता है?
भैया ! जाड़े के दिनों में भिखारी लोग कपड़े मांगने कब निकलते हैं? 4 बजे सुबह और कैसी कंपकपी आवाज से और अपनी ओर से भी नमक-मिर्च मिलाकर कैसी करुण पुकार में बोलते हैं? उनकी उस आवाज को सुनकर आप उनको धोती और कंबल निकालकर दे देते हैं । तो आपने भिखारियों के चाहा क्या? या उन पर दया की क्या? उन पर कोई ऐहसान किया क्या? अरे ! उन भिखारियों ने ऐसी कला खेली कि आपके हृदय में एक वेदना पैदा हो गई और उस वेदना को नहीं सह सके । सो घर से कपड़े उठाकर उसको देने पड़े । तब आपको चैन मिली, नहीं तो तब तक आप बेचैन थे । आपने अपनी बेचैनी मिटाने के लिए उस दीन को कपड़े दिये हैं, उस दीन के रिश्तेदार बनकर नही दिये हैं । इसी प्रकार भगवान को कौन चाहता है? भगवान् अपने घर में हैं, अपने प्रदेश में हैं, सिद्धालय में हैं । वे अपने ज्ञानानंद को भोगते हैं, तुम्हारी तरफ तो निगाह भी नहीं करते । वह अपने ज्ञान आनंद स्वरूप को भोगे या इन अलस की ओर दृष्टि डाले? निगाह तक नहीं करता है । आप एक-दो घंटे से करुणा पुकार में चिल्ला रहे हैं, भगवान् से विनती कर रहे है तो ऐसा नहीं है कि वह भगवान् सोचे कि अच्छा चलो, यह दो घंटे से पुकार रहा है, चलो चलें और इसे कुछ सांत्वना दे दें । भगवान् तो तुम्हारा कुछ नहीं करता, और आप यह तो बतलाओ कि आप उस भगवान् का क्या करते हैं? आप भी तो उस भगवान् का कुछ नहीं करते हैं । आप कहते होंगे कि हम भगवान् को चाहते तो हैं । आप उस भगवान् को नहीं चाहते हैं । आप अपने ज्ञान और वैराग्य को चाहते हैं । सुंदर पवित्र स्थिति में आपके श्रद्धा और ज्ञान का परिणमन भगवान् के स्वरूप को विषय बनाकर हो रहा है और उसका आनंद आप लूट रहे हैं । इसी का नाम व्यवहार से, उपचार से यह होता है कि आप भगवान को चाहते हैं ।
कोई वस्तु हो, तीन प्रकार से दृष्ट होता है (1) अर्थ (2) शब्द और (3) ज्ञान । जैसे एक घड़ी है तो यह जो घड़ी है, यह पिंडरूप है तो कहलाती है अर्थ घड़ी, पदार्थ घड़ी । और घ, ड़ी ऐसा लिखा हो तो यह शब्दघड़ी है और इस घड़ी का जो आकार आपके ज्ञान में आयगा, समझ में आयेगा वह क्या है? वह ज्ञानघड़ी है । आप अर्थघड़ी से मिले हुए हो कि शब्दघड़ी से मिले हो कि ज्ञानघड़ी से मिले हुए हो? आप ज्ञानघड़ी से एकमेक हो । इसी प्रकार भगवान् का रूप तीन प्रकार से है (1) अर्थ-भगवान् (2) शब्दभगवान् और (3) ज्ञानभगवान् । अर्थभगवान् तो सिद्धालय में हैं । उनको तो आप नहीं पूजते । वे इतनी दूर पर हैं, सो उन्हें कैसे पूजा जाय? और ‘‘भगवान्’’ ये जो चार शब्द हैं इसमें शब्द भगवान् को भी हम नहीं पूजते, किंतु भगवान् का जैसा स्वरूप है वैसा जो आपका ज्ञान बना, यह क्या है? ज्ञान भगवान् खुद । आप अपने ज्ञान भगवान को ही पूजते हैं और आप किसी अन्य भगवान को नहीं पूजते हैं । यह आत्मा अपने स्वरूपरूप है, यह किसी गति रूप नहीं है ।
ये मनुष्यादिक पर्यायें कर्म के उदय से जनित हैं । किस कर्म के उदय से जनित हैं? जो रागादिक विभाव परिणामों को उदित करे अर्थात् जिनका निमित्त पाकर जीव रागादि विभावरूप परिणमे । यह सब विभाव परमात्मतत्त्व की भावना से विपरीत है? परमात्म तत्त्व कैसा है? शुद्ध ज्ञान दर्शनस्वभावी यह परमात्मतत्त्व है । जब उसको भावना से यह जीव रहित होता है अथवा भेदरत्नत्रय और अभेदरत्नत्रय की भावना से च्युत होता है तो यह बहिरात्मा अपनी आत्मा में ऐसी बात लगा लेता है कि मैं मनुष्य हूँ, नारकी हूँ, तिर्यंच हूँ, देव हूँ । लेकिन अंतरात्मा पुरुष, ज्ञानी पुरुष उन मनुष्यादिक विभाव पर्यायों से अपने को पृथक् जानता है । और भी बतलाते हैं कि ज्ञानी जीव निज और पर के बारे में कैसा निर्देशन करता है―