वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 95
From जैनकोष
अण्णु जि तित्थु म जाहि जिय अण्णु जि गुरुउ म सेवि ।
अण्णु जि देउ म चिंति तुहुं अप्पा विमलु मुएवि ।।95।।
कोई अपने जीवन में श्रवणबेलगोल न देख: पाया हो, न शिखर जी, देख पाया हो, न, पावापुरी देख सका हो, ‘‘किंतु यदि ज्ञान के शुद्ध आत्मस्वरूप की बड़ी लगन हो,’’ मोह रागद्वेष का प्रसार न हो, अपने ही गांव में, मंदिर में, बड़े धर्म ध्यान में रहता हो, और बहुत-बहुत क्षण अपने शुद्ध आत्मा की झलक प्राप्त करता रहता हो, तो वह आत्मा तो स्वयं तीर्थ है । जो ये व्यवहार में तीर्थराज हैं, निर्वाण के साधन प्रतिमा, चैत्यालय आदि; ये तीर्थभूत पुरुषों के गुणों के स्मरण के लिए हैं । ये स्थान स्वयं अपने स्वरूप से तीर्थ नहीं हैं । व्यवहार में कहते हैं कि शिखरजी का एक-एक कण पूज्य है । उसका सीधा अर्थ यों नहीं लगाना कि शिखर जी में जितने पत्थर पड़े है और कंकड़ पड़े हैं व सब पूज्य हैं किंतु उस स्थान से अनेक मुनिराज मुक्ति को गए हैं, सो वह स्थान तीर्थ माना गया । तीर्थ तो वह है जिस उपाय से महापुरुष तिर जायें और जो दूसरों के तिरने का कारण बनें । उस स्थान पर पहुंच कर हम आप लोग उन तीर्थंकरों के गुणों का स्मरण किया करते हैं । जब टोंक पर पहुंच गये तो जो अज्ञानी होगा वह तो कहेगा कि बस मिल गया टोंक और जो ज्ञानी होगा उस टोंक के पास पहुंचकर गौतम के गुणों का स्मरण करेगा । धन्य है हे गौतमदेव ! अजितनाथ के टोंक पर पहुंच तो उनके गुणों से का स्मरण किया । निश्चय से तो तीर्थ वह परमेष्ठी आत्मा है ।
जैसे किसी के पिता का फोटो है । मान लो, पिताजी गुजर गए और उनका फोटो ही रह गया तो उस फोटो को देखकर कहते हैं कि देखिये ये हैं मेरे पिताजी । तो क्या पिताजी आपके ऐसे थे ? 5 आने के कागज वाले और काली स्याही पुती वाले थे ? पर उस फोटो को देखते ही चूंकि पिता का स्मरण हो जाता है इसलिये व्यवहार से फोटो को देखकर कहते हैं कि ये हैं पिताजी । अर्थात् इसे देखकर तुमने ख्याल बना लिया कि ये हमारे पिताजी थे । तो यों ही आत्मा निश्चय से तीर्थ है, जगह तीर्थ नहीं है । स्थान व्यवहार से तीर्थ है ।
भैया ! जाते ज्ञान का या जगाने वाले का या जिन वचनों में शिक्षा मिलती है, उनका आदर करने वाले तो बहुत थोड़े होते हैं और अभी किसी तीर्थ पर मेले की खबर आ जाये, महावीरजी का मैला होना है तो कितनी ही भीड़ लग जावेगी । और उसी महावीरजी में कहीं प्रवचन होता हो तो वहाँ भैया ! कितने लोग मिलेंगे ? किसी ने कहा तीन; (हंसी) और ज्यादह समझ लो, 6-8 आदमी होंगे । मगर भीड़ वहाँ कितनी है ? मान लो, दो-तीन हजार आदमियों की । तो आप बतलाओ कि वहाँ ज्ञान के प्यासे होकर गये या अपना मन बहलाने के लिए, अपनी रोजी रोटी तथा अपने लड़कों को ठीक रखने के लिए गए ? शुद्ध धर्म की प्यास जगाना भी बड़े होनहार पुरुषों के हुआ करती है । ‘‘वास्तव में निजी आत्मतत्त्व ही अपना तीर्थ है ।’’ अपने आपको जब संतोष नहीं हो पाता है तब बाहर संतोष ढूंढने के लिए निकलते हैं । अपने आपकी ज्योति के बल से अपने आप संतोष हो जाये तो फिर कौन यहाँ वहाँ दौड़ लगायेगा ? तीर्थ उसे कहते हैं जो संसार समुद्र से तिराने में समर्थ हो । ‘‘निश्चय से यह आत्मा ही समस्त संसारजाल से तिराने में समर्थ है ।’’ इस कारण यह आत्मा ही तीर्थ होता है ।
क्या करना है भैया ? संसारसमुद्र से तिरना है । तो फिर जहाज लाओ पानी का, अच्छा फिर आते हैं । हां, ले आए । पर ऐसा जहाज ले आना, जिसमें छेद न हो । छेद को क्या बोलते हैं ? टुल के बिना छिद्र का जहाज हो । अच्छा तो ऐसा ही लायेंगे । लाओ फिर तो यह है । क्या है ? वीतराग निर्विकल्प समता परिणाम । यही है समुद्र से तिराने में समर्थ जहाज; (अग्निवोट) जो आग, पानी, भाप से चलता है । यह समाधि भी तपस्यारूपी आग से चलती और उसमें छिद्र भी कुछ नहीं है । समता परिणाम में कहां छिद्र हैं ? छिद्र तो रागद्वेष में हैं । ठोस रागद्वेष नहीं होता है । टूटा-टूटा होता है, कहीं एक ठिकाने तो नहीं रहता है रागद्वेष । अभी अमुक वस्तु पर राग है और अगर वह वस्तु बिक गई तो वह राग अमुक पर हो गया ।
शादी होने के बाद 2-3 साल तो समझ लो कि अच्छी तरह से समय निकलता है और तीन-चार साल के बाद जरा-जरा सी बात में झगड़ा होने लगता है । अभी इन पुत्रों को देखो, कुछ समय तक तो पिता को सुहाते हैं फिर नहीं सुहाते हैं । ये बड़े लोग लड़कों को डांट देते हैं―बच्चों ! ऊधम मत मचाओ । और अगर लड़ का कह दे कि तुम जब हमारी उमर के थे तो तुम न ऊधम मचाते थे क्या? तो क्या जवाब होगा? तो जैसा बाप ने किया है वैसा ही लड़का करेगा । लड़कों की कषाय बाप को सुहाती नहीं, सो उन पर राग नहीं रहता है । राग कहां टिके? आज अच्छा बोलते हैं और कल लड़ाई हो गई तो? बेवकूफ और फजीहत में सद्व्यवहार कैसे रह सकता है? यह जो समतारूप व्यवहार है वह निश्छल है । समता के द्वारा संसारसमुद्र से तिराने में समर्थ यह आत्मतत्त्व ही है । इस कारण वास्तव में यह आत्मा ही तीर्थ है । और उसके उपदेश से, परंपरा से परमात्मतत्त्व का लाभ होता है ।
यह आत्मा ही वास्तव में तीर्थ है, यह आत्मा ही वास्तव में गुरु है । जो शिक्षा दे, दीक्षा दे, वह यद्यपि व्यवहार से गुरु होता है पर निश्चय से पंचेंद्रिय-विषय आदिक समस्त विभाव परिणामों के त्यागपूर्वक संसार व्यवच्छेद कारण होने से निज शुद्धआत्मा ही वास्तव में गुरु है । गुरु कौन होता है? जो संसार के संकटों का विनाश कर देता है । मेरे संसार के संकटों का विनाश कौन करेगा? कोई पड़ौसी बाबा उपकार करने नहीं आ जायेंगे । खुद ही या आत्मा शुद्ध स्वरूपमय आत्मा की दृष्टि करके उपकार करेगा । सो व्यवहार से शिक्षा-दीक्षा देने वाला भी गुरु होता है । वैसे तो पंचेंद्रिय के विषयों का त्याग करने वाला यह स्वयं शुद्ध आत्मा है, केवल आत्मा है । इस कारण यह आत्मा ही वास्तव में गुरु है । यों इस आत्मा को ही सर्वस्व वैभव रूप में निरखना चाहिए ।
यहां यह बतला रहे हैं कि निश्चय से तीर्थ भी आत्मस्वरूप ही है । यद्यपि प्रथम अवस्था की अपेक्षा या सविकल्प दशा की अपेक्षा चित्त को स्थिर करने के लिए तीर्थंकर प्रकृति आदिक पुण्य कर्मों के कारणभूत और साध्य-साधक भावों से, परंपरा से, निर्वाण के कारणभूत जिन प्रतिमा आदिक को व्यवहारनय से देव कहते हैं तो भी निश्चय से निज शुद्ध आत्मस्वभाव ही देव है । अपने आपके स्वभाव को स्पर्श करने वाली दृष्टि ही परम अमृत है । जिसने इस शुद्ध आत्मतत्त्व की दृष्टि नहीं पाई, उसने यदि लाखों और करोड़ों का वैभव भी पाया तो इस आत्मा के लिए तो वह तुच्छ है । इन सब बाह्यपदार्थों से आत्मा का हित नहीं होता । व्यवहार से जिन-प्रतिमा को भी देव कहते हैं और समवशरण में भी साक्षात् रहने वाले उस परम औदारिक शरीर को भी देव कहते हैं । और उस परम औदारिक शरीर में रहने वाले निर्मल स्थान, निर्दोष परमात्मा को भी देव कहते हैं । मेरे लिये तो ये तीनों प्रकार के देव व्यवहार से हैं । मेरा निश्चय से देव निजशुद्ध आत्मस्वभाव ही है । कब पता पड़ता है इसका परम आराध्य ह कारण वीतराग निर्विकल्प तीन गुप्तियों से सुरक्षित परमसमाधि काल में इस देव का पता पड़ता है । इस प्रकार निज और व्यवहार से, साध्यसाधक भाव से तीर्थ का गुरु का और देवता का स्वरूप जानना चाहिये । निश्चय से तीर्थ अपना आत्मा ही है । व्यवहार से तीर्थ वह है जहाँ से प्रभु मोक्ष पधारे । निश्चय से गुरु निजआत्मा है और व्यवहार से गुरू वह है जो शिक्षा और दीक्षा दे । निश्चय से देव निज शुद्ध आत्मस्वभाव है और व्यवहार से देव निर्दोष सर्वज्ञ परमात्मा और उससे भी दूर का व्यवहार परम औदारिक शरीर विशिष्ट व्यंजनपर्याय उससे भी दूर का व्यवहार जिन-प्रतिमा है । निश्चय से तो निजशुद्ध आत्मस्वभाव ही देव है । अब निश्चय से आत्मा का संवेदन ही दर्शन है―इस प्रकार का प्रतिपादन करते हैं ।