वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 99
From जैनकोष
जोइय अप्पें जाणिएण जगु जाणियउ हवेइ ।
अप्पहं केरइ भावडइ बिंबिउ जेण वसेइ ।।99।।
हे योगी ! आत्मा के ज्ञात कर लेने पर यह सारा जगत ज्ञात हो जाता है । क्योंकि आत्मा के केवलज्ञान में यह सारा लोक प्रतिबिंबित हुआ ठहरता है । हम तो दर्पण सामने रखे हैं । तुम देखते जाओ पीछे के सब लोगों को, पर हम तो अपने सामने के दर्पण से ही पीछे के सब आदमियों को, लड़कों को, बच्चों को देख रहे हैं कि कौन क्या कर रहा है? हम तो केवल दर्पण को ही देख रहे हैं और जितना तुम जान रहे हो उतना ही हम जान रहे हैं । वे सबके सब इस दर्पण में प्रतिबिंबित हो गए । एक दर्पण को जान लिया तो सबको जान लिया । इसी प्रकार जगत् में जितने ज्ञेय पदार्थ हैं वे सब आत्मा में बिंबित होते हैं । अत: आत्मा को जान लिया तो सब कुछ जान लिया । यह आत्मतत्त्व जाना कैसे जाता है? आत्मतत्त्व कहो या परमात्मतत्त्व कहो; यह वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान से जाना जाता है । इस परमात्मतत्त्व को जान लिया जाय तो समस्त द्वादशांग ज्ञात हो जाता है । बड़े-बड़े पुरुष भी राघव, पांडव अर्थात् श्री रामचंद्रजी, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन; ये सब महापुरुष जिनदीक्षा को ग्रहण करके द्वादशांग से बढ़कर, द्वादशांग के उठने के फलभूत निश्चय रत्नत्रय स्वरूप परमात्मतत्त्व के ध्यान में वह ठहरे तो उन्हें इस कारण से वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा अपना आत्मा ज्ञात हुआ ।
भैया ! अपने आत्मा के विशद ज्ञान होते ही सर्व अर्थ-समूह ज्ञात हो चुकता है । आत्मज्ञान करो । संतोष मिलेगा तो अपने आपके आत्मा में ही मिलेगा । शांति सुख, आनंद, सर्व कुछ आत्मा के जानने से ही मिलता है । कर्मों का क्षय, कर्मों से छुटकारा, निपटारा; सब कुछ आत्मा के ज्ञान में ही है । निर्विकल्प समाधि-परिणाम से उत्पन्न होने वाले परम आनंद सुख रस का स्वाद होने पर यह पुरुष जानता है कि मेरा स्वरूप यह है चैतन्यमात्र । और ये देह, रागादि? परतत्त्व, यों भेदविज्ञान होने पर आत्मा को जान लें । आनंद के निधान अपने सर्व प्रयोजनभूत आत्मतत्त्व को जान लिया तो सब कुछ जान लिया । केवल जानना, किंतु रागादिक व इष्ट अनिष्ट बुद्धि न करना―ऐसी वृत्ति यदि अपने आपमें बनी है तो समझ लीजिए कि वह कर्मों का क्षय करता है, मोक्ष में आगे बढ़ता है । अनंतआनंद को वह प्राप्त ही कर लेगा । जिनको एकदम सब छोड़कर जाना है । इस थोड़े से समय के लिए उनमें इतनी आसक्ति क्यों की जा रही है? कभी तो छूटेंगे ना । 10-20 वर्ष संग रहे, अव्वल तो कल का ही पत्ता नहीं है । अगर अभी से ही इनमें हर्ष न माना तो इन्हें छोड़ने के समय क्लेश नहीं होगा ।
भैया ! सर्व कुछ बलिहारी है इस आत्मज्ञान की । इस कारण तन, मन, धन, वचन न्यौछावर करके भी यदि आत्मा का बोध प्राप्त होता है तो वह सर्व कुछ वैभव प्राप्त कर लेता है । केवल मात्र जानने का काम है । जो जानने वाला है उसको जानो । जो जानन का स्वरूप है उसको जानो । केवल जानन का ही सदा पुरुषार्थ करना चाहिए । ज्ञान से बढ़कर तप क्या होता है? आत्मा को जान लेने पर सर्व कुछ ज्ञात हो जाता है अथवा यह आत्मा स्वपर के रूप से सारे लोकालोक को जानता है । जैसे कोई कहे कि चलो अमेरिका ले चले; दिखायेंगे आपको कि वहाँ कितना अच्छा है? कहेगा कि हमने देख लिया । वहाँ जड़ पुद्गल होंगे; रूप, रस गंध, स्पर्श के पिंड होंगे । हम सब जानते हैं । इस प्रकार जिसका केवल आत्मा से प्रयोजन होगा वह ऐसा कहेगा । सब अनात्माएँ इसके लिए पर हैं । इतने रूप से सबको जान जाता है । इस तरह यह समस्त लोकालोक को जानता है । तब यह बात हुई ना कि आत्मा ज्ञात हो जाय तो सब कुछ ज्ञात हो जाता है ।
इस आत्मा के जब वीतराग निर्विकल्प त्रिगुप्तिरूप समाधि का बल प्रकट होता है यही तो अव्वल रस केवलज्ञान की उत्पत्ति में बीजभूत है । सो इस बीजभूत समाधि के बल से केवलज्ञान उत्पन्न होने पर यह समस्त लोक और अलोक का स्वरूप ऐसा ज्ञात होता है जैसा कि दर्पण में प्रतिबिंब स्पष्ट ज्ञात होता है । इस कारण भी यह सिद्ध है कि आत्मा के जान लेने पर सर्वज्ञान हो जाता है । इस दोहे में इस बात को चार प्रकार से दिखाया है कि आत्मा के जान लेने पर सब कुछ ज्ञात हो जाता है । चार पत्तियां कही गई हैं । इन चारों पद्धतियों से इस आत्मा के मर्म को जानकर बाह्य और अभ्यंतर परिग्रह का त्याग करके सर्व कुशलता से निज शुद्ध आत्मा की भावना करनी चाहिए । यह इसका तात्पर्य हुआ । इसी बात को समयसार में बताया है । जो पुरुष अपने आत्मा से अबद्ध, अस्पृश्य, अनन्य, अविशेष और आदि, मध्य व अंत से रहित देखता है तो वह सर्व शासन को देखता है । शासन का जितना भी जो वर्णन किया गया है उसका सार इतना ही है कि तुम सबसे निर्मल ज्ञानमात्र अपने आत्मतत्त्व को जानो । यह केवल आत्मतत्त्व जब ज्ञात होता है तो इसके फल में सर्वविश्व ही ज्ञात हो जाता है । इस ही बात का अब समर्थन दिया जाता है ।