वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 155
From जैनकोष
प्रात: प्रोत्थाय तत: कृत्वा तात्कालिकं क्रियाकल्पम् ।
निर्वर्तयेद्यथोक्तं जिनपूजां प्राशुकैर्द्रव्यै ।।155꠰꠰
प्रोषधोपवास में धर्मपालन का सहयोगी विधान―प्रोषधोपवास करने वाले श्रावक किस तरह से धर्मपालन में अपना समय बितायें, यह वर्णन चल रहा है । सप्तमी के दिन आहार करके उपवास का नियम लेवे और नवमी के दिन दोपहर से पहिले तक का नियम ले और नवमी को शाम को भी कुछ न लेना यह तो है उनका उत्कृष्ट उपवास का समय । अब उस समय में अपना घर छोड़कर, आरंभ परिग्रह छोड़कर एकांत स्थान में जिन-मंदिर में या किसी बस्ती में बसतिका में किसी साधु संग में रहे और धर्मध्यान में अपना समय व्यतीत करे । सामायिक के काल में सामायिक करे, इस प्रकार पहिली रात्रि व्यतीत की, अब उसके उपरांत प्रभातकाल में उठकर प्रभातकाल की क्रियावों को करके प्रासुक द्रव्यों से जैसा शास्त्रोक्त विधान है जिनेश्वर देव की पूजा करे । यद्यपि प्रोषधोपवास में सब आरंभ छोड़ दिया था लेकिन पूजा के आरंभ का त्याग इस लिये नहीं है कि पूजा के परिणामों का पुण्य इतना अधिक है कि उसके प्रकरण में आरंभ जनित साधारण-सा पाप गिनती में नहीं है । पूजा के आरंभ में कोई त्रस हिंसा की बात है नहीं, जल लाना, प्रासुक करना और प्रासुक द्रव्य सजाना तो यह कोई आरंभ गिनती में नहीं रहा, अतएव प्रोषधोपवास में श्रावक को पूजा करने का विधान है और पूजा के लिये स्नान करने का भी विधान है । इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि जिनेश्वर देव की पूजा में द्रव्य प्रासुक हो, सचित्त न हो, फल फूल पत्ती ये न होने चाहिये । क्योंकि उनमें अनंत स्थावर जीव रह सकते हैं । असंख्यात तो रहते ही हैं, जो फल भक्ष्य हैं उनमें भी असंख्यात जीव हैं । कदाचित् कोई छोटे फल हों, उनमें अनंतकाय भी संभव है । तो सचित्त द्रव्य से भगवान की पूजा न करनी चाहिए । यह पहिले दिन का कार्य बताया गया, अब इसके बाद क्या करें ?