वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 46
From जैनकोष
व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम् ।
म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ꠰꠰46꠰।
रागग्रस्त जीवों के सर्वत्र हिंसाकत्मक दोष―रागादिक भावों के वश में प्रवृत्तिरूप आचरण में प्रमाद अवस्था में जीव मरे अथवा न मरे परंतु हिंसा ही होती है । अपना परिणाम सावधानी का न हो, जीव दया का भाव न हो तो उस समय इस जीव की प्रवृत्ति से परजीव मरे चाहे न मरे पर सबसे हिंसा होती है । तो अपनी ही गल्ती से हिंसा होती अहिंसा होती है तो अपने ही सुधार से । किसी जीव का प्राण नष्ट हो गया तो भी प्रमाद नहीं है तो हिंसा नही है । प्रमादी जीव कषाय के वशीभूत होकर गमन आदिक क्रियायें यत्नपूर्वक नहीं करता । जैसे क्रोध में आकर यहाँ से भागे तो चूंकि क्रोध है, ढंग से सो वह समितिपूर्वक न जायेगा, ऊपर यहाँ वहाँ सिर उठाकर जायेगा । गमन आदिक क्रियायें यत्नपूर्वक न करे तो चाहे किसी दूसरे प्राणी का दिल उसके चलने से दुखे अथवा नहीं, पर उसने तो हिंसा कर ली ꠰ और पुद्गल द्रव्यों को लपेटने की इसके वांछा जगी है, तो वह प्रमादी है, जीव मरे अथवा न मरें, ऐसा सोचने से चूंकि वह अपने मन में रागभाव लाया है तो अवश्य हिंसा है, क्योंकि हिंसा कषाय भाव से उत्पन्न होती है । दूसरे के प्राण न भी पीड़ें पर खुद का यदि गंदा विचार हुआ तो हिंसा हुई । इसी प्रकार सब जीवों की बात तभी तो जिसके परिणाम हिंसारूप हुए, चाहे वह परिणाम हिंसा का काम न भी कर सके तो भी वह समझिये ।