वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 65
From जैनकोष
न बिना प्राणविघातान्मांसस्योत्पत्ति रिष्यते यस्मात् ।
मांसं भजतस्नस्मात् प्रसरत्यनिवारिता हिंसा ।।65।।
मांसभक्षण में अनिवारित हिंसा―कहते हैं कि प्राणों का घात किये बिना मांस की उत्पत्ति नहीं मानी गई है, तो मांस भक्षण करने वाले पुरुषों के नियम से हिंसा ही है । मांस तो जीव के शरीर का ही एक भाग है । शरीर को छोड़कर और जगह मांस नहीं रहता । दो इंद्रियों से लेकर पंचेंद्रिय तक के जो जीव हैं उनके शरीर में मांस होता है और उन जीवों का घात करने से मांस की उत्पत्ति होती है, नहीं तो जीव के घात बिना मांस नहीं मिलता, तो ऐसे जो मांसभक्षण करने वाले लोग बहुत निर्दयी हैं उनके अंदर दया का नाम नहीं है । जैसे मदिरापान करने वाले को हिंसा लगती है ऐसे ही मांस खाने वाले को हिंसा लगती है उसमें से तो हिंसा की बात स्पष्ट दिखती है । बड़े-बड़े जंगली जानवर मारे जाते हैं तो वे चिल्लाते हैं, दुःखी होते हे, उनकी कोई सुध भी नहीं करता । तो ऐसे जीवों को सताकर उत्पन्न हुआ जो मांस है उसका भक्षण महामूढ़ अज्ञानीजन ही करते हैं और उनके संसार की भटकना ही बनी रहती है ।