वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 76
From जैनकोष
कृतकारितानुमननैर्वाक्कायमनोभिरिष्यते नवधा ।
औत्सर्गिकी निवृत्ति र्विचित्ररूपापवादिकी त्वेषा ।꠰76꠰।
औत्सर्गिकी एवं आपवादिकी निवृत्ति के प्रकार―औत्सर्ग की निवृत्ति याने मूल में एक रूप, आखिर जो करना चाहिये व्यवहार में उसकी बात एक प्रकार की होती है अथवा 9 प्रकार की होती है । 9 प्रकार की हिंसा का परित्याग करना सो औत्सर्ग की निवृत्ति है । वे 9 प्रकार से परित्याग तो किया, पर वह परित्याग एक है, परिपूर्ण है । वे 9 प्रकार कौन हैं? मन से हिंसा न करना, वचन से हिंसा न करना और काय से हिंसा न करना, यह तीन हैं―हिंसा न करना न कराना और हिंसा का अनुमोदन न करना, इन तीनों का तीन से परस्पर गुणा किया जाये तो 9 भेद होते हैं अर्थात् मन से हिंसा न करना, मन से हिंसा न कराना और मन से हिंसा की अनुमोदना न करना, ऐसी ही ये तीन बातें वचन से और तीन काय से लगायी जाती हैं । तो औत्सर्ग की निवृत्ति सर्वथा परिहार वाली एक है, पर भिन्न-भिन्न पदों में कौन पुरुष किस-किस गुणस्थान वाला, कितनी हिंसा का परित्याग कर पाता है? इन सब नजरों से देखा जाये तो वह सब अपवादरूप निवृत्ति है, वह अनेकरूप है । कोई थोड़ी निवृत्ति कर सका, कोई अधिक निवृत्ति कर सका तो ये तो सब भेद औपाधिक निवृत्ति के हैं । जैसे गृहस्थधर्म यह तो प्रकट औपाधिक निवृत्ति है । कोई पूछे कि मोक्ष प्राप्ति के लिए क्या करना चाहिये तो उसका उत्तर यह न होगा कि देव, पूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयमश्चतप: तथा सामायिक वंदनादिक करना चाहिये । उत्तर यह होगा कि करना चाहिये आत्मा के सहजस्वरूप का श्रद्धान᳭ ज्ञान और आचरण । मौलिक उत्तर एक होगा लेकिन ऐसा करने का जो लक्ष्य करे उसकी परिस्थिति में कर्त्तव्य क्या है? तो उसके उत्तर ये सब होंगे―मुनिधर्म और श्रावक धर्म । तो अपवादरूप निवृत्ति है और मुनिधर्म औत्सर्ग की निवृत्ति है । तो अब अपवाद वाली निवृति के संबंध में वर्णन कर रहे हैं ।