वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 83
From जैनकोष
रक्षा भवति बहूनामेकस्यैवास्य जीवहरणेन ।
इति भत्त्वा कर्तव्यं न सिंहनं हिंसात्त्वानाम् ꠰꠰83।।
हिंसक जीव के हिंसन के लिये कुतर्क और उसका समाधान―कुछ लोग ऐसा भी विचार कर डालते हैं कि यह हिंसक जीव है बहुत से प्राणियों का घात करता है । यह ज्यादा दिन जिंदा न रहे, नहीं तो ज्यादा पाप कमायेगा । इसे मार डालें तो इसमें पाप नहीं है, ऐसी वे अपने मन में दया समझते हैं । जैसे सिंह बहुत से जीवों को मारता है, बहुत पाप कमाता है, सिंह को मार डाले तो वह पापों से बच जायेगा और उसकी गति सुधर जायेगी, ऐसा सोचकर लोग उन जीवों पर दया करके उन्हें मार डालने की बात सोचते हैं किंतु उनकी यह बात उपयुक्त नहीं है । क्योंकि पहिली बात तो यह है कि इसमें कोई व्यवस्था बना ही नहीं सकता क्योंकि अनेक जीव अनेक जीवों का भक्षण करने वाले हैं । दूसरी बात यह है कि उस प्राणी पर कोई क्या दया कर सकता । मार करके उसे पापों से कोई बचा सकता है क्या? दया तो यह है कि जो संज्ञी पंचेंद्रिय जीव है उसमें किसी प्रकार एक सम्यक्त्व का भाव आ जाये । जो जैसा स्वरूप है वह वहाँ उसकी समझ में आये, संसार के अनंत दुःखों से बच निकलने का साधन बने तो दया नाम इसका है, ये तो सब कल्पना की बातें हैं । जैसे कोई जीव दुःखी हो रहा है, तड़प रहा है और कोई सोचे कि इस तड़फते हुए को मार डालें तो इसका तड़फना मिट जायेगा । अरे उसका तड़फना और कौन मिटा सकता है? वह मरकर जिस भव में जायेगा उस भव में दुःख पायेगा । अपने आपकी सुध संभालो, अपने आपकी हिंसा को बचावो । विकल्प मचाकर, परपदार्थों में दृष्टि लगाकर, पर से हित मानकर जो अपने आपके आत्मतत्व की हिंसा की जा रही है उसकी सुध लें । हिंसा से बचने का उपाय एकमात्र सम्यक्त्व लाभ है । जब तक जीव को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती है तब तक वह अपनी हिंसा से दूर नहीं हो सकता । विषय कषाय और मोह भावों को लादे रहना यह अपने आपकी कितनी बड़ी भारी हिंसा है? विषय कषायों के प्रेमी पुरुष चाहे ऊपर से मौज मानते हों किंतु वे अंतरंग में बहुत दुःखी हैं, बेचैन हैं, आकुलित हैं, कर्तव्यविमूढ़ हैं । मिथ्यात्व वश विषय कषायों से हित मानकर, अपना बड़प्पन समझकर मौज मानते हैं, यह उनकी खोटी बुद्धि है । सम्यक्त्व प्राप्ति के बिना जीव को कल्याण नहीं मिल सकता, शांति नहीं प्राप्त हो सकती । तो सम्यक्त्व लाभ का साधन बनाना यही है वास्तविक दया । ये तो सब दया के बहाने हैं । उक्त प्रकार के कुतर्क करके भी प्राणियों की हिंसा न करना चाहिये । श्रावकाचार में मूल में अहिंसा की कुछ बातें बतायी जा रही हैं जिससे आगे का वर्णन स्पष्ट रहे कि अणुव्रत महाव्रत जो भी धारण किए जाते हैं उसमें क्या प्रवृत्ति होना चाहिये, क्या लक्ष्य होना चाहिये―ये सब बातें स्पष्ट हो सकें इसके लिए सर्वप्रथम ये हिंसा और अहिंसा के अनेक रूप बताये जा रहे हैं । इस सब वर्णन में सारभूत वर्णन यह समझना कि जीव अपने आपके विषय कषाय परिणामों के द्वारा अपने आपके परमात्मा स्वरूप की हिंसा कर रहा है और कर ही क्या सकता यह अपनी हिंसा । दूसरे की हिंसा वह दूसरा जीव अपने आपकी कुबुद्धि से करता है, लेकिन जिसका परिणाम मलिन है वह मलिन परिणाम से प्रेरित होकर ऐसी प्रवृति करता है कि दूसरे प्राणियों का प्राण घात कर डालता है । अत: द्रव्यहिंसा और भावहिंसा दोनों हिंसावों का स्वरूप समझकर अहिंसक पुरुष को दोनों प्रकार की हिंसावों से बचना चाहिये और अहिंसक बनकर इस परम अहिंसक की उपासना करके उचित प्रकाश को दृष्टि में लेकर अपने से अंत: प्रसन्न रहना चाहिये, निर्मल रहना चाहिये और आत्मीय आनंद का अनुभव कृतकृत्य बना लेना चाहिये । इतना ही सारभूत काम है, इसे कर लेना चाहिये । अन्य बाहरी-कामों में हाथ पैर पीटने से काम न चलेगा ।