वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 85
From जैनकोष
बहुदुःखासंज्ञापिता: प्रयांति त्वचिरेण दुःखविच्छित्तम् ।
इति वासना कृपाणीमादाय न दुःखिनोऽपि हंतव्या: ꠰꠰85।।
शीघ्र दुःख दूर करने के आशय से दुखियों को मार डालने का कुतर्क और उसका समाधान―अहिंसा के प्रकरण में अनेक प्रश्न उठाकर उनका समाधान दिया जा रहा है । यहाँ एक प्रश्न किया गया अथवा एक ऐसा तर्क उठाया गया कि भाई कुछ जीव ऐसे दुःखी होते हैं रोग से, दरिद्रता से जो भूखे प्यासे अपना गुजारा किया करते हैं ऐसे पुरुष को यदि तत्काल गोली से मार दे तो उसका दुःख दूर हो जायेगा ऐसा कुछ लोग ख्याल करते हैं लेकिन उनका यह विचार धर्म सम्मत नहीं है । अधर्म की बात है, क्योंकि एक तो ऐसा नियम नहीं है कि शरीर से जीव छूट जाये, एक शरीर से जीव निकल जाये तो आगे उसे दुःख न होगा । जिस जीव ने जैसा कुछ पाप कमाया है उसके उदयानुसार उसे फल भोगना होगा । मरकर आगे जायेगा उसे भी उस उदय के अनुसार दुःख भोगना होगा । उसका वह दुःख तब दूर होगा जब कर्मों से छुटकारा होगा और वह दुःखों से तो छूटेगा नहीं, लेकिन यह अज्ञान भरा भाव बनाने से और दूसरे के प्राणों का घात करने से जो हिंसा हुई है वह हिंसा बराबर रह जायेगी और देखिये नरकगति के जीव तो चाहते हैं कि मेरा मरण हो जाये क्योंकि वहाँ अतिशय दुःख हैं । सो उनके चाहने से उनका मरण नहीं हो जाता । वहाँ तो आयु पूरी भोगनी पड़ती है, चाहे देह के तिल-तिल बराबर खंड हो जायें, फिर भी वे पारे की तरह मिलकर फिर शरीर बन जायेंगे । वे बीच में नहीं मरते, देव भी नहीं मरते और वे चाहते भी नहीं कि मेरी मृत्यु हो जाये । बल्कि देव तो यह चाहते हैं कि मेरा जीवन अत्यंत लंबा रहें क्योंकि बड़े सुख में हैं मनुष्य और तिर्यन्च कोई यह नहीं चाहते कि मेरा मरण हो जाये, चाहे कैसी ही परिस्थिति हो । किसी घर में एक बुढ़िया थी, बहुत दुःखी थी, उसके लड़के पोते सुख से नहीं रखते थे, भूख प्यास की भी बात नहीं सुनते थे, शरीर से भी बहुत शिथिल हो गयी थी । वह सुबह शाम रोज भगवान से यह प्रार्थना करती थी कि हे भगवान् ! मुझे उठा लो अर्थात् मेरी मृत्यु हो जाये । कुछ दिन बाद एक बड़ा भयंकर सर्प निकला तो बुढ़िया चिल्लाकर कहती है―अरे नाती-पोतों ! दौड़ो मुझे सर्प से बचावो । तो कोई नाती कहता हें―अरी बुढ़िया मां तू तो रोज-रोज सुबह-शाम भगवान से प्रार्थना किया करती थी कि हे भगवान, मुझे उठा लो, सो भगवान ने आज तेरी प्रार्थना को सुना है । तो दुःख की कैसी ही बात आये पर मरना कोई नहीं चाहता है । कोई मरना भी चाहता है तो उसके प्राण घात के समय उसे बड़ी बेचैनी होती है, उसमें वह बहुत अधिक पाप कमा लेता है, इस कारण ऐसा न सोचना चाहिए कि यह जीव बड़ा दुःखी है, इसको मार डाले तो यह दुःख से छूट जायेगा । अपना परिणाम निर्मल रखिये और जहाँ तक बने दूसरे के सुखसाता में सहयोग दीजिये, पर किसी भी आधार पर किसी दूसरे जीव के प्राण का घात कर देना, यह धर्म नहीं है ।