वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 90
From जैनकोष
को नाम विशति मोहं नयभंगविशारदानुपास्य गुरून् ।
विदितजिनमतरहस्यः श्रयन्नहिंसांविशुद्धमति: ।꠰90।।
ज्ञानी गुरुओं की उपासना करके धर्मरहस्य के ज्ञाता पुरुषों के अहिंसासंबंध में मूढ़ता का अभाव―अहिंसा और हिंसा के संबंध में जो बहुत विस्तृत वर्णन किया गया है, जिसको सुनकर अनेक नय के अनभिज्ञ पुरुषों को आश्चर्य और शंकाएं हो सकती हैं । उन समस्त वर्णनों को यदि नयों के ज्ञानपूर्वक समझा जाये तो उसमें संदेह का कोई स्थान नहीं है । अहिंसा और हिंसा का मूलस्वरूप यह है कि राग द्वेष मोह परिणाम न होना सो अहिंसा है और राग द्वेष मोह परिणाम होना सो हिंसा है । अब इस मूल निरूपण के अनुसार बाह्य में जो हिंसायें होती हैं, द्रव्यहिंसा चलती हैं उनका वर्णन करना चाहिये और इस विधि से अनेक बातें ये सिद्ध होती हैं । जो अपने अंतरंग परिणाम में अहिंसक है कदाचित् उसकी देह प्रवृत्ति से किसी कुंथु जीव के प्राण का घात भी हो जाये तो वह हिंसा नहीं होती । कोई पुरुष अंतरड्ग परिणाम में सावधान नहीं है और अयत्नाचाररूप प्रमाद की अवस्था में गमन कर रहा है, चाहे कोई जीव उसको चलने में न भी मरे तो भी हिंसा है । हिंसा का जहाँ परिणाम किया है, चाहे प्राणों का घात न भी हो तो भी हिंसा हो जाती है । कोई हिंसा में प्रवृति करता है उसको भी हिंसा है और कोई हिंसा का त्याग नहीं किये हैं तो भी-हिंसा है । कोई पुरुष हिंसा नहीं भी कर पाता है लेकिन परिणाम होने के कारण हिंसा न करके भी हिंसा के फल को भोगता है और जिसके परिणाम में हिंसा का परिणाम नहीं है बल्कि दया का परिणाम है उसके शरीर से हिंसा हो जाये तो भी हिंसा का फल नहीं मिलता । देखिये सब वर्णनों में आधार को न छोड़िये । रागद्वेष मोह परिणाम होना हिंसा हैं और रागादिक भावों की अनुत्पत्ति अहिंसा है । कोई जीव थोड़ी भी हिंसा करता है और समय पर उसे बड़ी हिंसा का फल भोगना पड़ता है । कोई जीव से बड़ी हिंसा भी होती है पर उदयकाल में थोड़ी ही हिंसा का फल भोगना होता है । ये सब बातें कही जा रही हैं मौलिकता स्वरूप का विरोध न करके । एक साथ कई जीवों ने कोई हिंसा की, किसी को हिंसा का बड़ा फल मिला और किसी को हिंसा का अल्प फल मिलता है कोई जीव हिंसा नहीं कर सका, पर फल पहिले ही भोग लेता है । हिंसा एक करे फल बहुत भोगे, बहुत मिलकर हिंसा करें, फल एक भोगे, इस प्रकार अनेक बातें जो अज्ञानी जनों को ये शंका और आश्चर्य का कारण बनती हैं, किंतु नयों के मर्म को जानने वाले गुरुवों का उपदेश पाकर जो निर्मल बुद्धि वाले विशुद्ध श्रोता है उनमें मोह नहीं प्राप्त होता अर्थात् जिन वचनों में कोई कुतर्क अथवा उल्टी बात का ग्रहण नहीं करते ।