वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 111
From जैनकोष
बाहिरसयणत्तावण तरुमूलाईणि उत्तरगुणाणि ꠰
पालहि भावविसुद्धो पूयालाहं ण ईहंतो ।।111।।
(420) वकुश साधुवों को संबोधन―श्रीमत्कुंदकुंदाचार्य मुनिवरों को उपदेश करते हैं कि तुम भावों से विशुद्ध होकर पूजा के लाभ को न छोड़ते हुए तीनों ऋतुओं के योगों का और उत्तर गुणों का पालन करो । साधु अनेक प्रकार के हैं । उनके संयम साधना के असंख्यात भेद हैं, इस कारण एक ही तरह के पूर्ण निर्दोष साधुओं को ही साधु कहना यह आगम की अवहेलना है । उन असंख्यात संयम स्थानों में सभी स्थानों के संयमी साधु कहलाते हैं और उनमें छोटे से छोटे साधु जो कुछ एक मूल गुण की विराधना भी कर लेते हों तब भी उन्हें साधु माना गया है वे कहलाते हैं पुलाक नाम के साधु । जो मूल गुणों का तो पालन करते पर उत्तर गुणों का पालन नहीं कर पाते वे बकुश नाम के साधु हैं । इन दोनों प्रकार के साधुवों का व्यवहार अधिक है । जो रत्नत्रय में रुचि रखते हैं ऐसे धर्मात्मा ही रत्नत्रय धारियों के प्रति प्रीति रखते हैं । अगर रत्नत्रयधारियों के प्रति प्रीति न उमड़े तो वह इस बात का द्योतक है कि उसका रत्नत्रय के प्रति प्रेम नहीं है । तो पहिले कुछ साधुवों का ऐसा वर्णन किया जो सम्यक्त्व हीन हैं उन साधुओं को समझाया कि तुम्हारी इस बाह्य वृत्ति से कुछ लाभ नहीं है । यहाँ लाभ के मायने मोक्षमार्ग ।
(421) पूजालाभाभिलाषा को मूल से उखाड़ कर उत्तरगुणों के पालन का संदेश―अब यहाँ यह बतला रहे हैं कि तुम भाव से विशुद्ध होकर पूजा लाभ की रंच भी वांछा न करके उत्तर गुणों का पालन करो । ये कषायें 9वें गुणस्थान तक रहती है, और 10वें गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ रहता है । छठे 7वें गुणस्थान में तो संज्वलन कषाय बर्तती है, पर शेष 12 कषायें नहीं हैं, साधुवों से दोष होते रहते हैं और इसी कारण सुबह शाम का प्रतिक्रमण उनके चलता ही है । रात्रि में हुए दोष का प्रतिक्रमण साधु सुबह करते हैं और दिन में हुए दोष का प्रतिक्रमण सायंकाल में करते हैं । तो यहाँ उन साधुवों को समझाया जा रहा कि जो बहुत कुछ विधि पर जम गए हैं, किंतु कभी थोड़ी व्यवहार बुद्धि बनती है जिसमें कुछ अपने पर ही दृष्टि होती है जिसमें कहो पूजा लाभ की चाह हो सके । चारित्रमोह के इतने तीव्र उदय होते कि सम्यग्दृष्टि गृहस्थ हो ओर उसके चारित्र मोह का उदय हो तो वह ऐसी चेष्टा करने लगेगा कि जिससे लोग यह ही कहेंगे कि यह तो पागलसा हो गया है । ऐसी पुराणों में बहुत सी कथायें आती है । जिसको खुद मोक्षमार्ग पर चलने का भाव है उसको मोक्ष मार्ग पर चलते हुए भी कैसे कब-कब दोष होते हैं और वे दोष होकर भी वह मार्ग पर चल रहा है यह बात समझ में आती है, और जिसका मोक्षमार्ग पर चलने का भाव ही नहीं किंतु लौकिक प्रतिष्ठा आदिक कषायों में ही चित्त रहता है उसको यह बात विदित नहीं होती । तो यहाँ उन साधु जनों को तो बहुत कुछ कहा गया कि जो सम्यक्त्वहीन हैं वे निर्ग्रंथ भेष से जो मोक्ष मानते हैं, अंतरंग शुद्धि नहीं पायी है उनका प्रकरण बहुत निकला । अब वहाँ कुछ साधु मार्गस्थ साधुवों को कह रहे कि कुछ उत्तर गुणों में प्रयत्न करते हो सो रंच भी रागवासना न रखकर करो ।
(422) अनीहवृत्ति से वर्षायोग उत्तरगुण को पालने का संबोधन―उत्तर गुणों में अनेक तपश्चरण हैं, पर यहाँ तीन योगों का जिक्र किया है―वर्षायोग, शीतयोग और ग्रीष्मयोग । वर्षायोग में बरसात के काल में वृक्ष के नीचे खड़े होकर ध्यान करना । यह कठिन योग है, क्योंकि मैदान में खड़े होकर वर्षा सह लेना सरल है । पर वृक्ष के नीचे जो एक-एक मोटी बूंद टपककर गिरती है उसका सहना कठिन होता है और यह भी लाभ है कि पत्तों पर से गिर कर जो पानी गिरता है मुनि के शरीर पर वह पानी प्रासुक है तो ऐसे वर्षायोग को हे मुने तू यश के लाभ को मूल से उखाड़कर पालन कर । जिनकी गुणदृष्टि होती है वे साधु बन उस दोष को कर्मविपाक की जोरावरी जानते हैं और जिनको दोष पर दृष्टि होती है तो मात्र एक उस जीव का ही अपराध जानता है । दृष्टि-दृष्टि में फर्क है । जैसे माता की दृष्टि पुत्र पर हितकारी होती है तो उसकी दृष्टि और भांति होती है, दूसरे लोगों की दृष्टि और भांति होती है । जिसको चरित्र से प्रेम है वह चारित्रधारियों के प्रति कुछ दोष होकर भी उन दोषों को कर्मविपाक के खाते में डालकर उनके रत्नत्रय गुणों में ही अनुराग बढ़ाता है और जिनको चरित्र में प्रीति नहीं है । केवल देहात्मबुद्धि होने से अपने को ही सब कुछ समझकर अभिमान में रहते हैं उनकी दृष्टि गुणों पर रंच भी नहीं पहुंचती और दोष को ही ग्रहण करके ये अपने उपयोग को गंदा करते रहते हैं । यहाँ आचार्य कुंदकुंददेव को कितना अनुराग है कि मन, वचन, काय से संबोध रहे हैं । बड़े-बड़े ऊंचे मुनि होकर भी दोष होते ही रहते । न दोष हों तो अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञान हो जाना चाहिये । और उन दोषों को जो शुद्ध करे याने दूर करे उसे ही साधु कहते हैं । साधुता क्या है? जो ऊपर चढ़ चुका वह साधना वाला नहीं है । जो ऊपर चढ़ने के लिए उद्यम करता है उसे साधना वाला कहते हैं । तो हे मुने तू यश के राग को न करके मात्र एक आत्मा की धुन पूर्वक इन योगों को ग्रहण कर ।
(423) अनीहवृत्ति से शीतयोगनामक उत्तरगुण को पालने का प्रतिबोधन―दूसरा योग है शीतयोग । शीतकाल में नदी के तट पर मैदान में किसी जगह ध्यान में रहा । ऐसा करना साधुत्व के लिए नियम नहीं है किंतु उस पंथ में आगे बढ़ने के ये रास्ते हैं । नियम तो केवल मूल गुण का है । आज जब श्रावकों पर दृष्टिपात करते हैं तो श्रावकों के मूल गुण भी आज श्रावकों में प्राय: नहीं पाये जाते । यात्रा में जा रहे, शिखर जी या किसी तीर्थक्षेत्र को जा रहे पर रास्ते में चाहे रात्रि के 10 बजे हों चाहे 12 बजे हों, और प्राय: सफर में जगते ही तो रहते हैं, तो बड़े-बड़े स्टेशनों पर चाय, डबल रोटी, मिठाई, बिस्कुट आदि न जाने क्या-क्या चीजें खाते पीते रहते हैं । मुख चलता ही रहता है । कभी कुछ खाया कभी कुछ । ने जाने कितना रसनाइंद्रिय के लोलुपी बन रहे हैं । आज देश में खुद का ही प्रभाव घटा है, मान्यता घटी है, जबकि एक जैन नाम सुनकर ही लोगों में क्या आदर होता था जैसे ये कभी रात्रि को नहीं खाते, कभी झूठ नहीं बोलते, ये कभी चोरी नहीं करते, बड़े-बड़े खजांची बनाये जाते थे । बड़ी प्रतिष्ठा थी । तो अपने आचरण से अपनी प्रतिष्ठा गिरायी और श्रावकों के हीन आचार के समक्ष जब देखते हैं साधु जनों का आचार तो आज अन्य लोग उन साधुओं के त्याग नियम संयम साधुता की प्रशंसा करते हैं । सबको अपने आपकी करुणा करने के लिये अपनी सम्हाल करना चाहिये । यह जीवन कितने दिनों का है और थोड़े से जीवन में व्यर्थ की बातों में भटक-भटक कर जीवन गमा देना, अपने आत्मतत्त्व की आराधना न कर सकना यह एक बड़े दुर्लभ मानव जीवन को खो देना है । कुछ अधिक दो हजार सागर त्रस पर्याय के मिलते हैं असंख्याते सागरों के बाद । इतने में न चेते तो इसका अर्थ है कि एकेंद्रिय ही होना पड़ेगा । त्रसपर्याय का काल व्यतीत हो गया और न चेत सके तो समझो कि एकेंद्रिय ही बनना है उसके भाग्य में दूसरा भव नहीं है । आज तो कुछ मन पाकर, बुद्धि पाकर इतराते हैं, स्वच्छंद होते हैं, कुछ जैनशासन का उत्तरदायित्व भी नहीं समझते हैं और जब एकेंद्रिय आदिक भव सहने पड़ेंगे तो फिर क्या हाल होगा? तब तो फिर न की तरह रह गए । सो नम्रता, क्षमा आदिक गुणों को अपने में प्रकट करने का यत्न कर । केवल एक कीर्ति की चाहते कुछ चेष्टायें कर लीं तो वह लाभदायक नहीं है । तो यहाँ मुनिजनों को संबोध रहे कि राग से विहीन होकर भाव से विशुद्ध होकर उत्तर गुणों का पालन करो ।
(424) अनीहवृत्ति से ग्रैष्मयोग तपश्चरण करने का प्रतिबोधन―तीसरा योग है ग्रैष्मयोग । ग्रीष्मकाल में पहाड़ पर तपश्चरण, खुले तपश्चरण करना ग्रैष्मयोग है । यह एक बढ़कर बात है । जैसे जो परीषह मूल गुणों से संबंध रखते हैं उन परीषहों को सहना तो अनिवार्य है और अन्य परीषहों को बनाना अनिवार्य नहीं, किंतु उत्तरगुण रूप है । अगर उत्तरगुण कोई न पाया जाता तो उससे साधुता नष्ट नहीं होती । यह ग्रैष्मयोग है । जो भी उत्तर गुण हैं और उनमें भी ऐसे योगों का धारण करना इसका स्वयं प्रत्येक मुनि को अधिकार नहीं दिया गया । जो समर्थ हैं वे ही करते हैं और जो इसको चाहते हैं उन्हें आचार्य की आज्ञा लेनी पड़ती है । जैन एक ऐसा मार्ग है जो सबके लिए उपकारी हैं । इसे कहते हैं आतापन योग । जैसे रात्रिप्रतिमा योग । रात्रि भर वन में कहीं खड़े होकर ध्यान करना यह समर्थ तो करते हैं और संघस्थ मुनि आचार्य से आज्ञा लें, वे मना करें तो इस योग को न धारण करें । हे मुने यह योग धारण करें तो रंच भी चित्त में पूजा की वांछा न हो । मैं ठीक कर रहा हूँ, मैं इससे महान बन रहा हूँ, इत्यादिक लगाव का चित्रण चित्त में नहीं आये । केवल एक ज्ञानानंदस्वरूप सहज अंतस्तत्त्व में प्रवेश करने की धुन रखे ।