वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 133
From जैनकोष
पाणिवहेहि महाजस चउरासीलक्खजोणिमज्झम्मि ꠰
उप्पजंतमरंतो पत्तोसि णिरंतरं दुक्खं ꠰꠰133꠰꠰
(526) प्राणिवध का फल कुयोनियों में जन्म मरण करके निरंतर दु:खों की प्राप्ति―हे महायश, हे मुनिवर प्राणिवध के द्वारा यह जीव 84 लाख योनियों में भ्रमण करता रहा और निरंतर दु:ख प्राप्त किया ꠰ सबसे बड़ा दु:ख क्या है जीवों को ? सबसे बड़ा दु:ख है जन्म मरण, पर जिंदगी तो चल ही रही है, इसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं है तो दु:ख मान लिया, इष्टवियोग अनिष्टसंयोग ꠰ मोह का ऐसा ही प्रताप है ꠰ क्या अटक है कि दूसरों को मान ले कि यह मेरा है? कुछ इसमें अटका है क्या ? आप कहें कि गृहस्थी में रहकर तो राग किया ही जाता है, सो तो ठीक है, पर वह मिथ्यात्व नहीं है मिथ्यात्व वहां है कि जहां ममता जगी कि यह मेरा है इसके बिना जीवन कुछ नहीं है ꠰ वह है मिथ्यात्व, और घर में सब जीवों के प्रति शुद्ध ज्ञान बना रहे कि ये सब स्वतंत्र-स्वतंत्र जीव हैं ꠰ इनके बंधे हुए कर्मों के अनुसार संसार में इनको फल मिलता है ꠰ ऐसा ठीक जानते रहें और आपस में बोलें प्रीति की वाणी तब तो यह गृहस्थी में चलेगा, पर मोह जो भी करेगा बस वह अपना घात करेगा ? विचार करें अपने अंदर ꠰ देह भी न्यारा, जीव उससे न्यारा फिर अन्य जीवों से संबंध क्या ? गृहस्थ अगर घर में सुख से रहना चाहता है तो उसको यह पौरुष करना होगा कि मेरा तो मेरे स्वरूप के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ꠰ एक पूर्ण निर्णय बनायें ꠰ न बनायें तो दु:खी होते रहेंगे ꠰ स्पष्ट निर्णय हो कि जब यह देह भी मेरा नहीं है त फिर अन्य भाई भतीजे पुत्र स्त्री आदिक ये जीव मेरे कैसे हो सकते हैं ? घर में रहते हैं, तो प्रति करके रहना होगा तब बात बनेगी, यह तो ठीक बात है, मगर ये मेरे हैं, ऐसा झूठा ख्याल बनायेगा उसे नियम से बहुत कष्ट होगा ꠰ बिल्कुल बिछुड़ते समय, मरते समय यह सोचना चाहिए कि बहुत दिनों से मैं जान रहा था कि यह काम अवश्य होगा ꠰ जितना भी संयोग है उसका वियोग नियम से होगा ꠰ ये जीव सब अपनी-अपनी आयु के क्षय के समय मरण कर जाते हैं, यह सब जाना था, स्वाध्याय में सीखा था और रोज-रोज सुनते हैं उपदेश में, ग्रंथों में और आपकी अनुभूति से यह बात सोचते भी हैं तो इसी पर ही डटे रहना कि मेरा मेरे स्वरूप के सिवाय अन्य कुछ नहीं हो सकता ꠰